जै जै श्री वृन्दावन रसिकन प्राण हैं | प्रभु-पद दाता सबनि, रसहिं की खान हैं ||
कैसौउ पापी करत, आनि जो बास है | दूर होत तत्काल तासु की त्रास है ||
तत्काल त्रास जू जात, ताकौ होत निर्मल गात है | पावत महल की टहल जहँ नित, सह्चरिन कौ वास है ||
दसरत जुगल छबी नैंन अनुपम, करत गुन कौ गान है | जै जै श्रीवृन्दावन रसिकन प्राण हैं ||
|| २ ||
जै जै श्रीवृन्दावन, अति शोभा मई | पिय प्यारी कौ धाम, प्रेम विधि-निर्मई ||
अद्भूत छटा विलोकि, दृगनि सुख होत है | निर्तत जुगल किशोर, सु जगमग जोति है ||
जोत जगमग होत, तिनकी कहा शोभा गाइये | दस-नौ चरन के चिन्ह, श्री यमुना-पुलिन में पाइये ||
गावत मोर मराल जिनकी, केलि कल नित नित नई | जै जै श्रीवृन्दावन, अति शोभा मई ||
|| ३ ||
जै जै श्रीवृन्दावन कहा महिमा कहौं | मोमति एती नाहिं, अन्त ताकौ लाहौं ||
शेष महेश सुरेश, न पावत पार कौं | अज-मति हू वौराय, करत जु विचार कौ ||
विचार कौं बौराय अज-मति, कहा गुन वरनन करूँ | अति दिव्य जटित मणीन भूमि सौं ध्यान कैसे हौं धरुँ ||
निसि दिवस करत विचार यह, आकाश फल कैसे लहौ | जै जै श्रीवृन्दावन कहा महिमा कहौं ||
|| ४ ||
जै जै श्री वनराजहिं मस्तक नाइये | याही के परताप जुगल पद पाइये ||
कार्तिक सुदि तेरस कौं जन्म जू जानिये | दुतिय प्रभु कौ रूप, सु ताकौं मानिये ||
मानि प्रभु कौ रूप ताकौं, विटप वेलि भ्राज हीं | भानुजा के तीर दोऊ, स्याम स्याम राज हीं ||
वृन्दावन हित रूप मंगल, रसिक जन सुखादाइये | जै जै श्री वनराजहिं मस्तक नाइये ||