Shri Hit Sfut Vani
सवैया –
द्वादश चन्द्र, कृतस्थल मंगल, बुद्ध विरुद्ध, सुर-गुरु बंक | यद्दी दशम्म-भवन्न भृगू-सुत , मंद सु केतु जनम्म के अंक ||
अष्टम राहु चतुर्थ दिवामणि, तौ हरिवंश करत नहिं शंक | जो पै कृष्ण-चरण मन अर्पित, तौ करि हैं कहा नवग्रह रंक ||१||
भानु दशम्म, जनम्म निशापति , मंगल-बुद्ध शिवस्थल लीके | जो गुरु होंहिं धरम्म-भवन्न के , तौ भृगु-नन्द सु मन्द नवी के ||
तीसरौ केतु समेत विधु-ग्रस , तौ हरिवंश मन क्रम फीके | गोविन्द छाँड़ि भ्रमंत दशौं दिशि , तौ करि हैं कहा नवग्रह नीके ||२||
छप्पय –
ना जानौं छिन अन्त कवन बुधि घटहि प्रकाशित | छुटि चेतन जु अचेत तेउ मुनि भये विष वासित ||
पाराशर सुर इन्द्र कलप कामिनि मन फंघा | परिव देह दुख द्वन्द कौंन क्रम काल निकंघा ||
इहिं डरहिं डरपि हरिवंश हित, जिनव भ्रमहि गुण सलिल पर | जिहिं नामनि मंगल लोक तिहुँ, सु हरि-पद भजि न विलम्ब कर ||३||
सवैया –
तू बालक नहिं भरयौ सयानप , काहैं कृष्ण भजत नहिं नीके | अतिव सु मिष्ट तजिव सुरभिन-पय , मन बंधत तन्दुल जल फीके ||
जै श्रीहित हरिवंश नरक गति दुरभर , यम द्वारैं कटियत नक छीके | भव अज कठिन मुनीजन दुर्लभ , पावत क्यौंंव मनुज तन भीके ||४||
कुण्डलियाँ –
चकई ! प्रान जु घट रहैं , पिय-बिछुरंत निकज्ज | सर-अन्तर अरु काल निशि , तरफि तेज घन गज्ज ||
तरफि तेज घन गज्ज , लज्ज तुहि वदन न आवै | जल-विहुन करि नैंन , भोर किहिं भाय दिखावै ||
जै श्रीहित हरिवंश विचारि , वाद अस कौंन जु बकई | सारस यह सन्देह, प्रान घट रहैं जु चकई ||५||
सारस ! सर बिछुरन्त कौ , जो पल सहै शरीर | अगिन अनंग जु तिय भखै , तौ जानै पर पीर ||
तौ जानै पर पीर , धीर धरि सकहि बज्र तन | मरत सारसहिं फूटि , पुनि न परचौ जु लहत मन ||
जै श्रीहित हरिवंश विचारि , प्रेम विरहा बिनु वा रस | निकट कन्त नित रहत , मरम कह जानैं सारस ||६||
छ्प्पय –
तैं भाजन कृत जटित विमल चन्दन कृत इन्धन | अमृत पूरि तिहिं मध्य करत सरषप खल रिन्धन ||
अदभुत धर पर करत कष्ट कंचन हल वाहत | वारि करत पावार मन्द वोवन विष चाहत ||
जै श्रीहित हरिवंश विचारिकैं , मनुज देह गुरु चरन गहि | सकहि तौ सब परपंच तजि , कृष्ण-कृष्ण गोविन्द कहि ||७||
सवैया –
तातें भैया ! मेरी सौंह कृष्ण गुण संचु | कुत्सित बाद विकारहिं पर धन ।।
सुनि सिख मंद पर तिय वंचु | मणिगन-पुंज ब्रजपति छाँड़त , हित हरिवंश कर गहि कंचु ||
पाये जानि जगत में सब जन , कपटी कुटिल कलियुग-टंचु | इहिं परलोक सकल सुख पावत , मेरी सौंह कृष्ण गुण संचु ||८||
अरिल्ल –
मानुष कौ तन पाय, भजौ ब्रजनाथ कौं | दर्वी लैं कैं मूढ़ , जरावत हाथ कौं ||
जै श्रीहित हरिवंश प्रपंच, विषय रस मोह के । बिनु कंचन क्यौं चलैं, पचीसा लोह के ||९||
पद-राग-विलावल –
तू रति रंग भरी देखियत है री राधे , तैं रहसि रमी मोहन सौंव रैंन | गति अति शिथिल प्रगट पलटे पट , गौर अंग पर राजत ऐंन ||
जलज कपोल ललित लटकति लट , भृकुटि कुटिल ज्यौं धनुष धृत मैंन | सुन्दरि रहिव कहिव कंचुकि कत , कनक-कलश कुच बिच नख दैंन ||
अधर विम्ब दलमलित आलस जुत , अरु आनन्द सूचत सखि नैंन | जै श्रीहित हरिवंश दुरत नहिं नागरि , नागर-मधुप मथत सुख सैंन ||१०||
आनँद आजु नन्द कैं द्वार | दास अनन्य भजन रस कारन , प्रगटे लाल मनोहर ग्वार ||
चन्दन सकल धेनु तन मंडित , कुसुम-दास-रंजित आगार | पूरन कुम्भ बने तोरन पर , बीच रुचिर पीपर की डार ||
जुवति-जूथ मिलि गोप विराजत , बाजत पणव-मृदंग सुतार | जै श्रीहित हरिवंश अजिर वर वीथिनु , दधि-मधि-दुग्ध-हरद के खार ||११||
राग-धनाक्ष्री –
मोहन लाल कैं रँग राँची | मेरैं ख्याल परौ जिन कोऊ , बात दशौं दिशि माँची ||
कंत अनन्त करौ जो कोऊ , बात कहौं सुनि साँची | यह जिय जाहु भलैं सिर ऊपर , हौ व प्रगट ह्वै नाची ||
जाग्रत-सैंन रहत उर ऊपर , मणि कंचन ज्यौं पाची | जै श्रीहित हरिवंश डरौं काके डर , हौं नाहिंन मति काची ||१२||
मैं जु मोंहन सुन्यौ वैंनु गोपाल कौ | व्योम मुनि यान सुर-नारि विथकित भई , कहत नहिं बनत कछु भेद यति ताल कौ ||
श्रवन कुण्डल छुरित रूरत कुन्तल ललित , रुचिर कस्तूरि चन्दन तिलक भाल कौ | चन्द गति मन्द भई निरखि छबि काम गई , देखि हरिवंश हित भेष नँदलाल कौ ||१३||
आजु तू ग्वाल गोपाल सौं खेलि री | छाँड़ि अति मान, वन चपल चलि भामिनी , तरु तमाल सौं अरुझि कनक की बेलि री ||
सुभट सुन्दर ललन, ताप पर बल दमन , तू व ललना रसिक काम की केलि री | वैंनु कानन कुनित, श्रवन सुन्दरि सुनत , मुक्ति सम सकल सुख पाय पग पेलि री ||
विरह-व्याकुल नाथ, गान गुन जुवति तव , निरखि मुख,काम कौ कदन अवहेलि री | सुनत हरिवंश हित, मिलत राधा रमन , कंठ भुज मेलि, सुख-सिन्धु में झेलि री ||१४||
वृषभानुनन्दिनी राजति हैं | सुरत-रंग-रस भरी भामिनी , सकल नारि सिर गाजति हैं ||
इत उत चलति परत दोऊ पग , मंद गयंद गति लाजति हैं | अधर निरंग, रंग गंडनि पर , कटक काम कौ साजति हैं ||
उर पर लटक रही लट कारी , कटिव किंकिनी बाजत हैं | जै श्रीहित हरिवंश पलटि प्रीतम पट , जुवति जुगति सब छाजति हैं ||१५||
चलौ वृषभानु गोप के द्वार | जनम लियौ मोंहन हित श्यामा , आनँद-निधि सुकुमार ||
गावत जुवति मुदित मिलि मंगल , उच्च मधुर धुनि धार | विविध कुसुम कोमल किशलय-दल , शोभित वन्दनवार ||
विदित वेद-विधि विहित विप्रवर , करि स्वस्तिनु उच्चार | मृदुल मृदंग- मुरज- भेरी-डफ , दिवि दुन्दुभि रवकार ||
मागध सूत बंदी चारन जस , कहत पुकार-पुकार | हाटक-हीर-चीर-पाटम्बर , देत सम्हार-सम्हार ||
चंदन सकल धेनु-तन मंडित , चले जु ग्वाल सिंगार | जै श्रीहित हरिवंश दुग्ध-दधि छिरकत , मध्य हरिद्रागार ||१६||
राग-गौरी –
तेरौई ध्यान राधिका प्यारी , गोवर्द्धनधर लालहिं | कनक लता सी क्यौं न विराजति , अरुझी श्याम तमालहीं ||
गौरी गान सु तान-ताल गहि , रिझवति क्यौं न गुपालहीं || यह जोवन कंचन-तन ग्वालिन , सफल होत इहिं कालहिं ||
मेरैं कहे विलम्व न करि सखि , भूरि भाग अति भालहीं || जै श्रीहित हरिवंश उचित हौं चाहति, श्याम कंठ की मालहि ||१७||
आरती मदन गोपाल की कीजियैं | देव – ॠषि – व्यास – शुकदास सब कहत निजु , क्यौं न बिनु कष्ट रस-सिन्धु कौं पीजियैं ||
अगर करि धूप कुमकुम मलय रंजित नव , वर्तिका घृत सौं पूरि राखौ ||
कुसुम कृत माल नँदलाल कैं भाल पर , तिलक करि प्रगट जस क्यौं न भाखौ ||
भोग प्रभु जोग भरि थार धरि कृष्ण पै , मुदित भुज-दण्ड वर चौंर ढारौ ||
आचमन पान हित, मिलत कर्पूर-जल , सुभग मुख वास, कुल-ताप जारौ ||
शंख दुन्दुभि पणव घंट कल वैंनु रव , झल्लरी सहित स्वर सप्त नाँचौ ||
मनुज-तन पाइ इहिं दाइ ब्रजराज भजि , सुखद हरिवंश प्रभु क्यौं न जाँचौ ||१८||
आरति कीजै श्याम सुन्दर की | नन्द के नन्दन राधिका वर की ||
भक्ति करि दीप प्रेम करि बाती | साधु-संगति करि अनुदिन राती ||
आरति जुवति-जूथ मन भावै | श्याम लीला श्रीहरिवंश हित गावै ||१९||
रहौ कोऊ काहू मनहिं दियैं | मेरैं प्राणनाथ श्रीश्यामा, शपथ करौं तृण छियैं ||
जे अवतार कदम्ब भजत हैं, धरि दृढ़ व्रत जु हियैं | तेऊ उमगि तजत मर्यादा, वन बिहार रस पियैं ||
खोये रतन फिरत जे घर-घर, कौंन काज अस जियैं | जै श्रीहित हरिवंश अनत सचु नाहीं, बिनु या रजहिं लियैं ||२०||
हरि रसना राधा-राधा रट | अति अधीन आतुर यद्दपि पिय , कहियत हैं नागर नट ||
संभ्रम द्रुम, परिरंभन कुंजन , ढूँढ़त कालिन्दी-तट | विलपत, हँसत, विषीदत, स्वेदित , सतु सींचत अँसुवनि वंशीवट ||
अंगराग परिधान वसन , लागत ताते जु पीतपट | जै श्रीहित हरिवंश प्रसंशित श्यामा , दै प्यारी कंचन-घट ||२१||
राग-कल्याण –
लाल की रूप माधुरी नैंननि निरखि नैंक सखी |
मनसिज-मनहरन हास,साँवरौ सुकुमार रासि, नख-सिख अँग-अंगनि उमगि,सौभग-सींव नखी ||
रँगमँगी सिर सुरँग पाग, लटकि रही वाम भाग , चंपकली कुटिल अलक बीच-बीच रखी |
आयत दृग अरुन लोल,कुंडल मंडित कपोल , अधर दसन दीपति की छबि,क्यौं हूँ न जात लखी ||
अभयद भुज-दंड मूल, पीन अंश सानुकूल, कनक-निकष लसि दुकूल, दामिनी धरषी |
उर पर मंदार-हार, मुक्ता-लर वर सुढार, मत्त दुरद-गति, तियन की देह-दषा करषी ||
मुकुलित वय नव किशोर, वचन-रचन चित के चोर, मधुरितु पिक-शाव नूत-मंजूरी चखी |
जै श्री नटवत हरिवंश गान, रागिनी कल्याण तान, सप्त स्वरन कल इते पर, मुरलिका वरखी ||२२||
राग-मलार –
दोउ जन भींजत अटके बातन | सघन कुंज कैं द्वारैं ठाढ़े, अम्बर लपटे गातन ||
ललिता ललित रूप-रस भीनी, बूँद बचावति पातन | जै श्रीहित हरिवंश परस्पर प्रीतम, मिलवत रति रस घातन ||२३||
दोहा –
सबसौं हित निष्काम मति, वृन्दावन विश्राम | श्रीराधाबल्लभलाल कौ, ह्रदय ध्यान मुख नाम ||
तनहिं राखि सतसंग में, मनहिं प्रेम रस भेव | सुख चाहत हरिवंश हित, कृष्ण-कल्पतरु सेव ||
निकसि कुंज ठाढ़े भये, भुजा परस्पर अंश | श्रीराधाबल्लभ-मुख-कमल, निरखि नैंन हरिवंश ||
रसना कटौ जु अन रटौं, निरखि अन फूटौ नैंन | श्रवण फूटौ जो अन सुनौं, बिनु राधा-जस बैंन ||२४||
|| इति श्रीहित स्फुटवाणी संपूर्ण ||