Ashtyam Sewa Padawali
|| मंगल समय ||
||१||
आजु देखि ब्रजसुंदरी-मोहन बनी केलि |
अंश-अंश बाँहु दै किशोर जोर रूप-रासि, मनु तमाल अरुझि रही सरस कनक बेलि ||
नव निकुंज भवर-गुंज मंजु घोष प्रेम-पुंज, गान करत मोर-पिकनि अपने सुर सौ मेलि |
मदन-मुदित अंग-अंग बीच-बीच सुरत रंग, पलु-पलु हरिवंश पिवत नैंन-चषक झेलि ||
||२||
सखी लखि कुंज धाम अभिराम |
मणिनु प्रकास हुलास जुगलवर, राजत स्यामा-स्याम ||
हास-विलास विनोद मोद मद, होत न पुरन काम |
जय श्रीरूपलाल हित अलि दंपति-रस, सेवत आठौ याम ||
||३||
प्रात: समय नव कुंज द्वार पै, ललिता जू ललित बजाई बीना |
पौढ़े सुनत श्याम श्री श्यामा, दंपति चतुर प्रवीन प्रवीना ||
अति अनुराग सुहाग परस्पर, कोक कला गुन निपुन नवीना |
बिहारिनिदासि बलि-बलि बंदिस पर, मुदित प्राण न्यौछावर कीना ||
||४||
जागौ मोहन प्यारी श्रीराधा,
ठाढ़ी सखी तुज दरस के काजैं, दीजै दरस कुँवरजु होय न बाधा ||
हँसत-हँसत दोउ उठे हैं युगलवर, मरगजि बागे फबि रहे दुहुँ तन |
वारत तन-मन लेत बलैयाँ, निरखि-निरखि फूलत मन ही मन ||
रंग भरे आनंद जम्हावत, अंस-अंस धरि बाँहु रहे कसि |
जयश्री कमलनयन हित या छवि ऊपर वारौं, कोटिक भानु मधुर शशि ||
||५||
भोर भयैं सहचरि सब आई, यह सुख देखत करत बधाई ||
कोउ बीना सारंगी बजावैं, कोउ इक राग विभासहि गावैं ||
एक चरन हित सौं सहरावै, एक वचन परिहास सुनावै ||
उठि बैठे दोउ लाल रँगीले, विथुरी अलक सबै अँग ढीले ||
घुमत अरुन नैन अनियारे, भुषन-बसन न जात संभारे |
कहु अंजन कहु पीक रही फ़बि, कैसे कही जात है सो छबि ||
हार-वार मिली कै अरुझाने, निशि के चिन्ह निरखि मुस्काने |
निरखि-निरखि निशि के चिन्हहि, रोमांचित है जाहि |
मानौ अंकुर मैन के, फ़िरि निपजे तन माही ||
|| मंगल भोग ||
मंगल भोग अधिक रुचिकारी |
माखन मिश्री मोदक मेवा, सखियन आन धरी भरी थारी ||
आलस वलित नैन झपकौहै, सोहत करत लजत सुकुमारी |
पिय निहोरि मुख देत ग्रास पुनि, खात खवावत करत ह्हारी ||
गीत नृत्य अरु वाघ करन हित, सब सखि आनि भईं इक ठाँरी |
ललिता ललित देत मुख बीरी, जयश्री कमलनयन छवि पर बलिहारी ||१||
|| मंगल आरती ||
||१||
प्रातहिं मंगल आरति की जै |
जुगल किशोर रूपरस माते, अद्रभुत छवि नैननि भरि लीजै ||
ललिता ललित बजावत वीना, गुन गावति सुनि जीवन जीजै ||
जै श्री रूपलाल हित मंगल जोरी, निरखि प्राण न्यौछावर कीजै ||
||२||
निरखि आरती मंगल भोर, मंगल श्यामाश्याम किशोर ||
मंगल श्री वृन्दावन धाम, मंगल कुंज महल अभिराम ||
मंगल घंटा नाद सु होत, मंगल थार मणिन की जोत ||
मंगल दुंदुभि धुनि छबि जाई, मंगल सहचरि दर्शन आई ||
मंगल बीना मृदंग बजावैं, मंगल ताल झाँझ झर लावैं ||
मंगल सखी जूथ कर जो रैं, मंगल चँवर लियै चहुँ ओरैं ||
मंगल पुष्पांजलि वरषाई, मंगल जोति सकल वन छाई ||
जै श्री रूपलाल हित ह्रदय प्रकाश, मंगल अद्रभुत जुगल विलास ||
|| प्रात:कालीन वन विहार ||
आजु प्रभात लता मंदिर में, सुख वरषत अति हरषि जुगलवर ||
गौर-स्याम अभिराम रंग भरि, लटकि-लटकि पग धरत अवनि पर ||
कुच कुमकुम रंजित मालावलि, सुरत नाथ श्री श्याम धाम धर ||
प्रिया प्रेम कैं अंक अंलकृत, चित्रित चतुर शिरोमणि निजु कर ||
दंपति अति अनुराग मुदित कल, गान करत मन हरत परस्पर ||
जै श्री हित हरिवंश प्रसंशि परायन, गायन अलि सुर देत मधुर तर ||
|| धूप आरती ||
||१||
आजु नीकी बनी श्री राधिका नागरी |
व्रज जुवति-जूथ में रूप अरु चतुरई, सील सिंगार गुन सबनि ते आगरी ||
कमल दक्षिन भुजा बाम भुज अंश सखी, गावती सरस मिलि मधुर सुर रागरी |
सकल विघा विदित रहसि (श्री) हरिवंश हित, मिलत नव कुंज वर श्याम बडभागरी ।।
||२||
आजु नागरी किशोर भाँवती विचित्र जोर, कहा कहौ अंग-अंग परम माधुरी |
करत केलि कंठ मेलि बाहु दंड गंड-गंड, परस सरस रास-लास मंडली जुरी ||
श्याम सुंदरी बिहार बाँसुरी मृदंग तार, मधुर घोष नूपरादि किंकनी चुरी |
जय श्री देखत हरिवंश आलि निर्तनी सुधंग चालि, वारि फेर देत प्रान देह सौ दुरी ।।
|| श्रृंगार भोग ||
दर्पन लखि मोद भरे पाक विविध भोग धरे, रूप गर्व दोऊनि कै वदन झलकि आयौं |
मुकर कर न छोरत है आनन कौ मोरत है, हित की मरमी सहेली मन कौ भेद पायौ ||
दर्पन देहु मो जु हाथ जेवौ मिलि दोउ साथ, जाने मैं छबि गरुर नैननि दरसायौं |
सजनी कौ राख्यौ रुख ग्रास लैन लागे मुख, जो जो मन रुच्यौ पाक बहुरि सो मँगायौ ||
कीनी मनुहारी घनी लाल रसिक चुंडामनी, प्यारी मन भाँवती सहेली जो चितायौ |
अदलि बदलि ग्रास लेत सखियनि आनंद देत, चन्द्रकला घेवर ने स्वाद अति बढायौ ||
बतरस परे स्याम गौर कहत जात लाउ और, तुष्टि पुष्टि होत कियौ भोजन मन भायौ |
सिता मिल्यौ गाढ़ौ दही पीयौ पुनि ललक रही, मेवा फल पाइ स्वाद अधिक सो जनायौ ||
सीतल अति मिष्ट जानि जमुनोदक कियौ पानि, वदन कर अँगोछि सखी पान रचि खवायौ |
बलि बलि वृन्दावन हित रूप साजि आरती कौं, पंच नाद होत सीस चँवर लै ढूरायौ ||
|| श्रृंगार आरती ||
||१||
बनी श्री राधा मोहन की जोरी |
इन्द्र नीलमनि श्याम मनोहर, शातकुंभ तन गोरी ||
भाल विसाल तिलक हरी कामिनी, चिकुर चन्द्र बीच रोरी |
गज नायक प्रभु चाल गंयदनि, गति वृषभानु किशोरी ||
नील निचोल जुवति मोहन पट, पीत अरुण शिर खोरी |
जय श्री हित हरिवंश रसिक राधापति, सुरत रंग में बोरी ||
||२|
वेसर कौंन की अति नीकी |
होड़ परी लालन अरु ललना, चौप बढ़ी अति जीकी ||
न्याय परयौ ललिता जू कै आगै, कौन ललित कौन फीकी |
जयश्री दामोदर हित विलग न मानौं, झुकनि झुकी श्री प्यारी जू की ||
|| युगल ध्यान ||
श्रीप्रिया वदन-छबि चन्द्र मनौ, प्रीतम-नैन चकोर |
प्रेम-सुधा रस-माधुरी, पान करत निशि भोर ||१||
अंगन की छबि कहा कहौं, मन में रहत विचार |
भूषन भये भूषननि कौ, अति स्वरूप सुकुमार ||२||
सुरँग माँग मोतिन सहित, शीश-फूल सुख-मूल |
मोर चंद्रिका मोहिनी, देखत भूली भूल ||३||
श्याम-लाल बैंदी बनी, शोभा बढ़ी अपार |
प्रगट विराजत शशिन पर, मनु अनुराग सिंगार ||४||
कुंडल कल ताटंक चल, रहे अधिक झलकाइ |
मनौ छबि के शशि-भानु जुग, छबि कमलनि मिले आइ ||५||
नासा वेसर नथ बनी, सोहत चंचल नैन |
देखत भाँति सुहावनी, मोहे कोटिक मैंन ||६||
सुंदर चिबुक कपोल मुदु, अधर सुरंग सुदेश |
मुसिकनि बरसत फूल सुख, कहि न सकत छबि-लेश ||७||
अंगन भूषन झलकि रहे, अरु अंजन रँग पान |
नव-सत सरवर ते मनौं, निकसे करि अस्नान ||८||
कहि न सकत अंगनि-प्रभा, कुंज भवन रह्यौ छाइ |
मानौं बागे रूप के, पहिरे दुँहुनि बनाइ ||९||
रतनांगद पहुँची बनी, वलया-वलय सुढार |
अँगुरिन मुँदरी फबि रहीं, अरु मँहदी रँग सार ||१०||
चन्द्रहार मुक्तावली, राजत दुलरी पोत |
पानि पदिक उर जगमगै, प्रतिबिंबित अंग-जोत ||११||
मनिमय किंकिनि-जाल छबि, कहौ जोइ सोइ थोर |
मँनौ रूप-दीपावली, झलमलात चहुँ ओर ||१२||
जेहरि सुमिलि अनूप बनी, नूपुर अनवट चारी |
और छाँडिकैं या छबिहिं, हिय के नैन निहारि ||१३||
बिछुवन की छबि कहा कहौं, उपजत रव रूचि-दैन |
मनौं सावक कल हंस के, बोलत अति मृदु बैन ||१४||
नख-पल्लव सुठि सोहने, शोभा बढ़ी सुभाइ |
मानौ छबि चन्द्रावली, कंज दलन लगी आइ ||१५||
गौर वरन साँवल चरन, रचि मेहंदी के रंग |
तिन तरुवन तर लुठत रहै, रति-जुत कोटि अनंग ||१६||
अति सुकुमारी लाडिली, पिय किशोर सुकुवार |
इक छत प्रेम छके रहै, अदभुत प्रेम विहार ||१७||
अनुपम श्यामल गौर छबि, सदा वसौ मम चित्त |
जैसै घन अरु दामिनी, एक संग रहै नित ||१८||
बरने दोहा अष्ट-दस, युगल-ध्यान रसखान |
जो चाहत विश्राम ध्रुव, यह छबि उरमें आन ||१९||
पलकनि कै जैसै अधिक, पुतरिन सौ अति प्यार |
ऐसैहि लाडिली-लाल के, छिन-छिन चरन संभार ||२०||
|| राजभोग सेवा ||
||१||
आये भोजन कुंज किशोर री |
कर वर ध्वाइ धरे मणि पटटा, बैठे एकै जोर री ||
कटि पटुका मुद्रिका उतारी, करि-करि अधिक निहोर री |
वृन्दावन हित रूप परोसती, विजंन रचे न थोर री||
||२||
मिलि जैवत लाडिली-लाल दोऊ, षट विंजन चारु सबै सरसै |
मन में रस की रूचि जो उपजै, सखी माधुरी कुंज सबै परसै ||
हटकै मनमोहन हारि रह्यो, भटु हाथ जिमावनि कौ तरसैं |
बीच ही कर कंपित बीचहि छूटि परयौं, कबहूँ मुख ग्रास लियै परसै ||
दृग सौं दृग जोरि दोउ मुसिकाइ, भरे अनुराग सुधा बरसैं |
मनुहार विहार अहार करै, तन मे मनौ प्राण परे करषैं ||
सखि सौंज लियै चहुँ ओर खरी, हरखै निरखै दरसैं परसैं |
सुख-सिंधु अपार कह्यौ न परै, अवशेष सखी हरिवंश लसैं ||
||३||
हँसि-हँसि दोउ नागर नवल, ग्रास परस्पर लेत |
ललितादिक निजु सखिनु कै, नैननि कौं सुख देत ||
दूध पना सरबत रुचिकारी, बहुत भाँति सौं तक्र सँवारी |
हित की निधि सहचरि चहुँ ओरै, कौंर-कौर प्रति सबै निहोरै ||
हँसि-हँसि जैंवत हैं पिय-प्यारी, तेहिं छिन कौं सुख कहौ कहा री |
मन जानै कै दोऊ नैना, रसना पै कछु कहत बनै ना ||
यह आनंद कह्यौ नही जाई, रसना कोटि होहिं जो माई |
तब सखियन आचमन दिवायौ, सबके नैन-प्रान सुख पायौ ||
ललिता रचि-रचि बीरी कीनी, नवल कुँवरि अरु कुँवरहि दीनी |
सो प्रसाद सब सखियनि लीनौ, आपनौ शेष ध्रुवहि कछु दीनौं ||
इहि विधि कै जो भोग लगावै, ताकी चरन रेनु ध्रुव पावै ||
|| आचमन ||
सजनी समुझि दुहुँनि के मन की, जमुनोदक अँचवावै हो |
खरिका दै कै करन ध्वाइकैं, पुनि बीरी रचि लावै हो ||
पद पाँवरी जटित मणि आगै, राखि पौछि पहिरावै हो |
वृन्दावन हित रूप रतन-सिंहासन तहाँ बिठावैं हो ||
|| राजभोग आरती ||
||१||
राजभोग आरती उतारति है प्रेम छकी, सारँग अलापति सुर कोकिलै लजावै |
जुगल रूप भरी अवेस निर्तत इक गति सुदेस, भरि-भरि पुहुपांजुलीन हरषैं वरषावै ||
बाजेनु की मंजुल धुनि मुदित होत पंछी सुनि, हितअलि-ललिता प्रवीन चौंर सिर ढुरावैं |
बलि-बलि वृन्दावन हित रूप मंजरी बुलाइ, गौर-श्याम निर्त रीझि माला पहिरावैं ||
||२||
नवल घनश्याम नवल वर राधिका, नवल नव कुंज नव केलि ठानी |
नवल कुसुमावली नवल सिज्या रची, नवल कोकिल कीर-भृंग गानी ||
नवल सहचरी-वृन्द नवल वीणा-मृंदग, नवल स्वर-ताल नव राग बानी |
जै श्री नवल गोपीनाथ हित नवल रसरीति सौं, नवल श्रीहरिवंश अनुराग दानी ||
|| संध्या भोग ||
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पद-१
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दोहा-(भोग से पहेले)
आय बिराजे महल में, संध्या समयो जान।
आली ल्याइ भोग सब ,मेवा अरु पकवान।।
भोग का पद
संध्या भोग अली लै आई।
पेड़ा-खुरमा और जलेबी, लडुआ खजला और इमरती।
मोदक मगद मलाई॥
कंचन थार धरयौ भरि आगैं, पिस्ता अरु बादाम रलाई।
खात खवावत लेत परस्पर, हँसन दसन चमकन अधिकाई॥
दोहा
अद्भुत मीठे मधुर फल, ल्याई सखी बनाइ।
खवावत प्यारे लाल कौ, पहिलें प्रियाहि पवाइ॥
पानी परस मुख देत बीरी पिय, तिय तब नैंननि ही मुसिकाई।
ललितादिक सखि(जैश्री)कमलनैंन हित, धनि दिन मानत आपुनौं माई॥
-गो•श्रीहित कमलनैनजी कृत(पद)
-श्रीहित ध्रुवदासजी कृत (दोहा)
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पद-२
भोग से पहले का पद
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गावत हैं गौरी छबि पावत हैं साँझ समै,आवत सिंघासन रच्यौ कलपतरु के मूल री।
पाँवड़े बिछावति हैं करजनि चटकावति हैं, बैठे तहाँ गौर-स्याम बिछे नव दुकूल री॥
न्यौंछावर करति प्रान छबि पै छकि अलि सुजान, बार-बार वारति हैं अँजुरी भरि फूल री।
बलि बलि वृन्दावन हित रूप जुगल जीवन धन, पोषत हैं जुगल हू सखीनू प्रान तूल री॥
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भोग का पद
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हितुनि हियौ हेत भरयौ साँझ समै भोग धरयौ, प्रीति सौं जिमावति हैं लै-लै मुख कौर री।
भाँति-भाँति बने पाक लाईं अलि तहाँ छाक, मधुर पुनि सलौनै पगे मेवा दिये और री॥
भूलि गईं दृगनि पलक रूप धार पान ललक, कबहुँ ग्रास स्याम वदन कबहूँ मुख गौर री।
नेह करि निहोर देत लाल आपु करनि लेत, अधर परसि थकित तनक दृगनि की मरोर री।
लाईं फल मधुर चाइ भरीं जुगल-रंग भाइ, खोजे चित चौंपनि सौं उपवन वन ठौर री।
बलि-बलि वृन्दावन हित रूप भूरि भोजन करि, अँचवन पुनि बीरी लेत रसिकनि सिरमौर री।
-चाचा श्रीहित वृन्दावनदासजी कृत
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पद-३
भोग का पद
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साँझ समय जेंवत पिय प्यारी।
परम प्रीति सौं सखी जिमावति, मेवा पाक स्वाद रुचिकारी॥
हँसि-हँसि नेह निपुन ग्रासनि लै, देत प्रिया मुख लालबिहारी।
ये उनके वे इनके कर वर, भोजन करत भरे मुद भारी॥
फल बहु मधुर पान रस रोचक, होत त्रिपित छबि वदन निहारी।
‘वृन्दावन’ हितरूप मंजरी अलि, अँचवन दै बीरी सँवारी॥
-चाचा श्रीहित वृन्दावनदासजी कृत
|| संध्या आरती ||
आरती कीजै श्यामसुन्दरकी, नन्द के नंदन राधिकावर की |
भक्ति करी दीप प्रेम करि बाती, साधु-संगति करि अनुदिन राती ||
आरती व्रज जुवति जूथ मन भावैं, श्याम लीला श्रीहरिवंश हित गावैं |
सखि चहूँ ओर चँवर कर लीयैं, अनुरागन सौं भीने हियैं ||
सनमुख बीन मृदंग बजावै, सहचरी नाना राग सुनावैं |
कंचनथार जटित मणि सोहैं, मध्य वर्तिका त्रिभुवन मोहै ||
घंटा नाद कह्यौ नहिं जाई, आनँद मंगल की निधि पाई |
जयति-जयति यह जोरी सुखरासी, जय श्रीरूपलाल हित चरन निवासी ||
आरती श्रीराधावल्लभलालजू की कीजै, निरखि नयन छबि लाहौ लीजै ||
|| इष्ट-स्तुति ||
चन्द्र मिटै दिनकर मिटै, मिटै त्रिगुन विस्तार |
दृढ़ व्रत श्रीहरिवंश कौ, मिटै न नित्यविहार ||१||
जोरी जुगल किशोर की, और रची विधि वादि |
दृढ़ व्रत श्रीहरिवंश कौ, निवह्यौ आदि युगादि ||२||
निगम-ब्रहा परसत नहीं, जो रस सब ते दूरि |
कियौं प्रगट हरिवंश जू, रसिकनि जीवनि मूरी ||३||
रूप-बेलि प्यारी बनी, प्रीतम प्रेम-तमाल |
दोउ मन मिलि एकै भये, श्रीराधावल्लभलाल ||४||
निकसि कुंज ठाढ़े भये, भुजा परस्पर अंश |
श्रीराधावल्लभ मुख कमल, निरखि नयन हरिवंश ||५||
रे मन श्रीहरिवंश भजि, जो चाहत विश्राम |
जिहिं रस-बस व्रज सुन्दरिनु, छाँड़ि दिये सुख धाम ||६||
निगम नीर मिलि एक भयौ, भजन दूग्ध सम स्वेत |
श्रीहरिवंश हंस न्यारौ कियौ, प्रगट जगत कैं हेत ||७||
श्रीराधावल्लभ लाडिले, अति उदार सुकुमार |
ध्रुव तौं भूल्यौ ओर ते, तुम जिन देहु विसार ||८||
तुम जिन देहु विसारि, ठौर मोकौं कहुँ नाही |
पिय रंग भरी कटाक्ष, नैंक चितवौ मो माँही ||९||
बढ़ै प्रीति की रीति, बीच कछु होय न बाधा |
तुम हौ परम प्रवीन, प्राण वल्लभ श्रीराधा ||१०||
विसरिहौं न विसारिहौं, यही दान मोहि देहु |
श्री हरिवंश के लाडिले, मोहि अपनी करि लेहु ||११||
कैसौउ पापी क्यौं न होइ, श्रीहरिवंश नाम जो लेय |
अलक लडैती रिझि कैं, महल खवासी देय ||१२||
महिमा तेरी कहा कहौं, श्रीहरिवंश दयाल |
तेरे द्वारैं बँटत हैं, सहज लाडिली लाल ||१३||
सब अधमनि कौं भूप हौं, नाहिंन कछु समझन्त |
अधम उधारन व्याससुत, यह सुनकै हरषन्त ||१४||
बन्दौं श्रीहरिवंश के, चरण-कमल सुख-धाम |
जिनकौं वन्दत नित्य ही, छैल छबीलौं श्याम ||१५||
श्री हरिवंश स्वरूप कौं, मन-वच करौं प्रनाम |
सदा सनातन पाइयैं, श्रीवृन्दावन धाम ||१६||
जोरी श्रीहरिवंश की, श्रीहरिवंश स्वरूप |
सेवकवाणी-कुंज में, विरहत परम अनूप ||१७||
करुनानिधि अरु कृपानिधि, श्रीहरिवंश उदार |
वृन्दावन रस कहनि कौं, प्रगट धर्यौं अवतार ||१८||
हित की यहाँ उपासना, हित के है हम दास |
हित विशेष राखत रहौं, चित नित हित की आस ||१९||
हरिवंशी हरि-अधर चढि, गुंजति सदा अमन्द |
दृग-चकोर प्यासे सदा, पाय सुधा मकरन्द ||२०||
श्रीहरिवंशहिं गाइ मन, भावै यश श्री हरिवंश |
श्री हरिवंश बिना न निकासिहौं, पद निवास श्री हरिवंश ||२१||
|| सैंन -भोग (शयन-भोग) ||
भोग से पहले भोग निवेदन का पद
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लाड़िली-लाल राजत रुचिर कुंज में।
अरगजा अंग रंगरंग बागे बने, दोऊ जन प्रेम सौं सने रस पुंज में ॥
निर्त्तत ठाड़ी अली भली गति भेद सौं, रैन पहिली जाम एक अलि गुंज में।
परयौ परदा धरयौ सैन कौ भोग पय पूरी भरि थार श्री ब्रजलाल कर मंजु में ॥
-श्रीहित ब्रजलालजी कृत
भोग के पद
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पद-१
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सैन भोग ल्याईं भरि थारी।
रुचिर कचौरी पूआ पूरी, मोहन भोग जेंवत पिय प्यारी॥
धरे कटोरा भरे मुरब्बा, सरस सँधाने वर तरकारी।
औट्यौ दूध रजत भाजन भरि ता मधि पीस सिता बहु डारी॥
ललिता ललित करन अँचवावत, यमुना जल कंचन की जारी।
जै श्रीहित ब्रजलाल खवावत बीरी दंपति छबि संपति ऊर धारी॥
-श्रीहित ब्रजलालजी कृत
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पद-२
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भोजन सैंन समय करवावत।
लुचई-मोंहनभोग-इमरती, मिश्री-फैनी दूध मिलावत॥
दृग कोरनि मधि हँसत परस्पर, रदछद परसत ललन हँसावत।
जैश्री कमलनैंन हित देत आँचमन, बीरी लेत मुख अति सचु पावत॥
-श्रीहित कमलनैंनजी कृत
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पद-३
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राधा-मोहन लाल ब्यारू कीजै।
पूरी दूध मलाई मिश्री,पहिलौ कौर श्रीप्रिया जू कौं दीजै॥
जेवत लाल-लड़ैती दोऊ, ललितादिक निरखत सुख भीजैं॥
जै श्रीहित गोपीनाथ भामिनि मुख बीरी, पिकदानी मोहन कर लीजै॥
-श्रीहित गोपीनाथजी कृत
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पद-४
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करत राधा मोहन ब्यारू, बैठे सदन मिलि सौहैं।
एक थारी एकै जल झारी एक वैस दोउ रूप उजारी॥
मधु मेवा पकवान मिठाई, दंपति अति रुचिकारी॥
प्यारी कैं कर पावत प्यारौ, प्यारे कैं कर पावत प्यारी॥
दूध सिराय लै आईं श्रीललिता राधा प्यारी जू पियौ,प्यारौ लाल करै मनुहारी।
‘हित बालकृष्ण’ जूठन कौं बोली, लै लै री लै लै प्रान अघारी॥
-हित बाल कृष्णजी कृत
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पद-५
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ब्यारू हँसि-हँसि जुगल करत हैं।
विविध पाक रचि थार परोस्यौ लै मुख ग्रास धरत हैं ॥
चम्पक चतुर रची तरकारी तिनके स्वाद ढरत हैं।
मधुर सलोने भोजन रुचि सौ सादर सुख बितरत हैं ॥
करि-करि अति मनुहार कौर लै दम्पति रंग भरत हैं।
बीच-बीच बाते अति लड़ मनु मुख सुख बीज झरत हैं॥
रस के चसके रसना बीधी ललकनि जानि परत हैं।
वदन-माधुरी छबि अवलोकनि लोभी नैंन अरत हैं ॥
जो जो पाक प्रिया रुचि जेंवति सो पिय मनहिं हरत हैं।
बहुरि करत पान धापि कैं तृषित भये उच्चरत हैं॥
अँचवन देति रूप हित सजनी करि भोजन उसरत हैं।
वृन्दावनहित रूप पुनि मुख बीरी लेत रंग उघरत हैं॥
-चाचा श्रीहित वृन्दावनदासजी कृत
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पद-६
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हँसि- हँसि दूध पीवत बाल।
मधुर वर सौंधे सुवासित, रुचिर परम रसाल॥
भ्रुव भंग रंग अनंग वितरत, चितै मोहन ओर।
सुधानिधि मनौं प्रेम धारा, पुषित तृषित चकोर॥
प्यारौ लाल रस लंपट सु कर, अँचवाय मुख छवि हेर।
लेत तव अवशेष आपुन,परे मनमथ फेर॥
रीझि-रीझि सराहि स्वादहिं, दियौ निज सखि पान।
पाइ अद्भुत हरखि ‘सुखसखि’, निरखि वारत प्रान॥
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पद-७
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पिय पय धरयौ कनक कटोर।
सुगंध एला मिल्यौ मिश्री, लेत देत निहोर॥
कबहूँ ये लैं कबहूँ वे लैं, करि कटाक्षन कोर।
वदन विधु मनौं सुधा पीवत, सखिनु नैंन चकोर॥
करै कुल्ला खाई बीरी, रचे रंग तँबोर।
जुगल मुख हित वारि ‘मोहन’, डारि तिनका तोर॥
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पद-८
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नवल नवेली अलबेली सुकुमारी जू कौ, रूप प्रिय-प्राननिं कौ सहज अहार री।
बिंजन सुभाइनि के नेह धृत सौं जु बने, रोचक रुचिर हैं अनूप अति चारु री।।
नैननिं की रसना तृपित न होति क्यौंहू, नई-नई रुचि ‘ध्रुव ‘ बढ़ति अपार री।
पानिप कौ पानी प्याइ पान मुसिक्यान ख्वाइ, राखे उर सेज स्वाइ पायौ सुख सार री॥
-श्रीहित ध्रुवदासजी कृत
पान विटिका-निवेदन(बीरी-ताँबुल अर्पित करने) का पद
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ललिता आन खवावत पान।
तुष्ट-पुष्ट भये प्रान भाँवते, जुगल किसोर सुजान॥
सैंन-सदन – संरचना कहि-कहि, करत प्रेम सन्मान।
‘हित जस अलि’ सब हिय हरषित भई, कर हित कौ गुन-गान,
ललिता आन खवावत पान ॥
-हित जस अलिजी कृत
|| शयन आरती ||
रस निधि शयन आरती कीजै | निरखि-निरखि छवि जीवन जीजै ||
मणि-नग जगमग जोति जगमगै | दम्पति रूप प्रकाश रँगमगै ||
सहचरी चँवर मोरछल ढौरैं | पुहुप वृष्टि अंजुलि चहुँ ओरै ||
झाँझ ताल झालर दुन्दुभि रव | निर्त गान अलि हरत मनोभव ||
महा मोद धुनि मधुर मृदंगा | जै जै जै वानी मिलि संगा ||
यह सुख रसिक उपासक गावैं | जै श्रीरुपलाल हित चित्त दुलरावै ||