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श्री सेवक वाणी

Shri Sevak Vani 

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।। श्री सेवक वाणी ।।

- श्री हित सेवक जी महाराज कृत

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|| श्रीहित जस विलास प्रकरण ||
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{त्रिपदी छंद}

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श्री हरिवंशचन्द्र शुभ नाम | सब सुखसिंधु प्रेम रस धाम ||

याम घटी बिसरै नहीं ||

यह जु परयौ मोहि सहज सुभाव | श्रीहरिवंश नाम रस चाव ||

नाव सुद्रढ़ भव तरन कौं ||

नाम रटत आई सब सोहि | देहु सुबुद्धि कृपा कर मोहि ||

पोहि सु गुन माला रचौं ||

नित्य सुकंठ जु पहिरौं तासु | जस वरनौ हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||

||||

श्रीवृन्दावन वैभव जिती | वरनत बुद्धि प्रमानौं किती ||

तिती सबै हरिवंश की ||

सखीसखा क्यों कहौं निवेरि| तौ मेरे मन की अवसेरि ||

टेरि सकल प्रभुता कहौं ||

हरिहरिवंश भेद नहि होय | प्रभु ईश्वर जानै सब कोइ ||

दोइ कहै न अनन्यता ||

विश्वंभर सब जग आभास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||

||||

जन्मकर्म गुण रूप अपार | बाढ़ै कथा कहत विस्तार ||

बारबार सुमिरन करौ ||

हौं लघु मति जु अंत नही लहौ | बुद्धि प्रमान कछू कथि कहौं ||

रहौ शरण हरिवंश की ||

सोधौं कहि मोहि केतिक मती | जस बरनत हारैं सरस्वती ||

तिती सबै हरिवंश की ||

देहु कृपा करी बुद्धि प्रकास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||

||||

कलियुग कठिन वेदविधि रही | धर्म कहूँ नहिं दीसत सही ||

कही भली कोउ ना करै ||

उदवस विश्व भयौ सब देश | धर्म रहित मेदिनीनरेश ||

म्लेच्छ सकल पुहुमी बढ़े ||

सब जन करहिं आधुनिक धर्म | वेदविहित जानहिं नहिं कर्म ||

मर्म भक्ति कौ क्यों लहै ||

बूडत भव आवै न उसास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||

||||

धर्मरहित जानी सब दुनी | म्लेच्छनि भार दुखित मेदिनी ||

धनी और दूजौ नहीं ||

करी कृपा मन कियौ विचार | श्रुतिपथविमुख दुखित संसार ||

सार वेदविधि उद्धरी ||

सब अवतार भक्ति विस्तरी | पुनि रसरीति जगत उद्धरी ||

करयौ धर्म अपनौ प्रगट ||

प्रगटे जानि धर्म कौ नास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||

||||

मथुरा मंडल भूमि आपुनी | जहाँ बाद प्रगटे जग धनी ||

भनी अवनि वर आप मुख ||

शुभ बासर शुभ रुक्ष विचारि |माधव मास ग्यास उजियारि ||

नारिनु मंगल गाइयौ ||

तच्छिन देव दुंदुभी बाजिये | जैजै शब्द सुरनि मिलि किये ||

हिये सिराने सबनि के ||

तारा जननि जनक रिषि व्यास || जस वरनौ हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||

||||

श्रीभागवत् जु शुक उच्चरी | तैसी विधि जु व्यास विस्तरी ||

करी नंद जैसी हुती ||

घरघर तोरन वन्दनवार | घरघर प्रति चित्रहिं दरबार ||

घरघर पंच शब्द बाजिये ||

घरघर दान प्रतिग्रह होइ | घरघर प्रति निर्तत सब कोइ ||

घरघर मंगल गावही ||

घरघर प्रति अति होत हुलास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||

||||

निर्जल सजल सरोवर भये | उखटे वृक्षनि पल्लव नये ||

दये सकल सुख सबनि कौ ||

असन सयन सुख नितनित नये | अन्न सुकाल चहूँ दिशि भये ||

गये अशुभ सब विश्व के ||

मलेच्छ सकल हरिजस विस्तरहिं | परम ललित वानी उच्चरहिं ||

करहिं प्रजा पालन सबै ||

अपनीअपनी रूचि बस वास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||

||||

चलहिं सकल जन अपने धर्म | ब्राह्मण सकल करहि षट कर्म ||

भर्म सबनि कौ भाजियौ ||

छूटी गई कलियुग की रीति | नितनित नवनव होत समीति ||

प्रीति परस्पर अति बढ़ी ||

प्रगट होत ऐसी विधि भई | सब भव जनित आपदा गई ||

नईनई रूचि अति बढ़ी ||

सब जन करहि धर्म अभ्यास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौ ||

||१०||

बाल विनोद न बरनत बनहि | अपनौ सौ उपदेशत मनहि ||

गनहि कवन लीला जिती ||

सब हरिसम गुणरूप अपार | महापुरुष प्रगटे संसार ||

मार विमोहन तन धरयौ ||

छिन न तृपित शुभ दर्शन आस | दुलरावत बोलत मृदु हास ||

व्यास मिश्र कौ लाडिलौ ||

मुदित सकल नहि छाँडत पास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||

||११||

अब उपदेश भक्ति कौ कह्यौ | जैसी विधि जाकै चित रह्यौ ||

लह्यौ जु मन वांछित सफल ||

सब हरिभक्ति कही समुझाइ | जैसीजैसी जाहि सुहाइ ||

आइ सकल चरननि भजे ||

साधन सकल कहे अविरुद्ध | वेदपुरान सु आगम शुद्ध ||

बुद्धि विवेक जे जानही ||

समुझ्यौ सबनि सु भक्ति उजास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||

||१२||

अब अवतार भेद तिन कहे | सकल उपासक तिन मन रहे ||

कहे भक्तिसाधन सबै ||

मथुरा नित्य कृष्ण कौ वास | निशिदिन श्याम न छाँडत पास ||

तासु सकल लीला कही ||

कही सबनि की एकै रीति | श्रवनकथनसुमिरन परतीति ||

बीति काल सब जाइयौ ||

उपज्यौ सबनि सुद्दढ विश्वास | जस वरनौ हरिवंशविलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||

||१३||

अब जु कही सब व्रज की रीति | जैसी सबनि नंदसुत प्रीति ||

कीर्ति सकल जग विस्तरी ||

बाल चरित्र प्रेम की नींव | कहतसुनत सब सुख की सींव ||

जीवन ब्रजवासिनु सफल ||

ब्रज की रीति सु अगम अपार | विस्तरि कही सकल संसार ||

कारज सबहिनु के भये ||

ब्रज की प्रीतिरीति अनियास | जस वरनौं हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||

||१४||

जिहिं विधि सकल भक्ति अनुसार | तैसी विधि सब कियौ विचार ||

सारासार विवेकि कैं ||

अब निजु धर्म आपुनौं कहत | तहाँ नित्य वृन्दावन रहत ||

बहत प्रेमसागर जहाँ ||

साधन सकल भक्ति जा तनौ | निजुवैभव प्रगटत आपुनौ ||

भनौं एक रसना कहा ||

श्रीराधा युग चरन निवास | जस वरनौं हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौ ||

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|| श्रीहित रस विलास प्रकरण ||
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[त्रिपदी छंद]

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श्रीहरिवंश नित्य वर केलि | बाढत सरस प्रेमरसबेलि ||

मेलि कंठ भुज खेलहीं ||

बनितनगन मन अधिक सिरात | निरखिनिरखि लोचन न अघात ||

गात गौरसाँवल बने ||

जूथजूथ जुवतिनु के घने | मध्य किशोरकिशोरी बने ||

गनै कवन रतिअति बढ़ी ||

नितनित लीला,नितनित रास | सुनहु रसिक हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||

||||

लता भवन सुख शीतल छहाँ | श्रीहरिवंश रहत नित जहाँ ||

तहाँ न वैभव आन की ||

जबजब होत धर्म की हानि | तबतब तन धरि प्रगटत आनि ||

जानि और दूजौ नहीं ||

जो रसरीति सबनि ते दूरी | सो सब विश्व रही भरपूरि ||

मूरि सजीवन कहि दई ||

सब जन मुदित करत मन हास | सुनहु रसिक हरिवंशविलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||

||||

ललितादिक श्यामा अरु श्याम | श्रीहरिवंश प्रेम रस धाम ||

नाम प्रगट जग जानिये ||

श्रीहरिवंशजनित जहाँ प्रेम | तहाँ कहाँ व्रत संयम नेम ||

क्षेम सकल, सुखसम्पदा ||

तहाँ जातिकुल नहीं विचार | कौन सु उत्तम,कौन गँवार ||

सार भजन हरिवंश कौ ||

या रस मगन मिटै भवत्रास | सुनहु रसिक हरिवंशविलास ||

श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||

||||

श्रीहरिवंश सुजस गाइयौ | सो रस सब रसिकनि पाइयौ ||

कियौ सुकृत सबकौ फल्यौ ||

या रस में विधि नहीं निषेध | तहाँ न लगन ग्रहण के वेध ||

तहाँ कुदीनदिन कछु नहीं ||

नहिं शुभअशुभ, मानअपमान | नहिं अनृतभ्रमकपटसयान ||

स्नानक्रिया, जपतप नहीं ||

ज्ञानध्यान तहाँ सकल प्रयास | सुनहु रसिक हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहिं गाइहौं ||

||||

जहाँ हरिवंश प्रेमउन्माद | तहाँ कहाँ स्वारथ निस्वाद ||

वादविवाद तहाँ नहीं ||

जे हरिवंशनाद मोहिये | तिन फिर बहुरि न कुलकर्म किये ||

जिये काल बस ना परे ||

कुल बिनु कहौ कौन सौ चाक | सहज प्रेमरस साँचे पाक ||

रंकईश समुझत नहीं ||

विप्र न शुद्र कौन कुल कास | सुनहु रसिक हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहिं गाइहौं ||

||||

या रसविमुख करत आचार | प्रेम बिना जु सबै कृत आर ||

भार धरत कत विप्र कौ ||

श्रीहरिवंश किशोर अहीर | अरु तिन संग बनितन की भीर ||

तीर जमुन नित खेलहीं ||

तिनकी दई जु जूठन खात | आचारी निज कहत खिस्यात ||

बात यहै साँची सदा ||

श्रीहरिवंश कहत नित जास | सुनहु रसिक हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहिं गाइहौ ||

||||

निशि दिन कहत पुकारिपुकारि | अस्तुति करहु देहु कोउ गारि ||

हारि न अपनी मानिहौ ||

श्रीहरिवंश चरण नहिं तजौं | अरु तिनके भजतनि कौ भजौं ||

लजौं नहीं अति निडर ह्वै ||

श्रीहरिवंश नामबल लहौं | अपने मन भाई सब कहौं ||

रहौं शरण हरिवंश की ||

कहत न बनत प्रेम उज्जास | सुनहु रसिक हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहिं गाइहौं ||

||||

जे हरिवंश प्रेमरस झिले | क्यों सोहैं लोगन में मिले ||

गिल्यौकाल जग देखिये ||

कर्म सकाम न कबहूँ करै | स्वर्ग न इच्छै, नर्क न डरै ||

धरै धर्म हरिवंश कौ ||

श्रीहरिवंशधर्म निर्वहैं | श्रीहरिवंश प्रेमरस लहै ||

ते सब श्रीहरिवंश के ||

सेवक तिन दासनि कौ दास | सुनहु रसिक हरिवंश विलास ||

श्रीहरिवंशहिं गाइहौ ||

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|| श्रीहित नाम प्रताप प्रकरण ||
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[त्रिपदी छंद]

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श्रीहरिवंश नाम नित कहौं | नाम प्रताप नामफल लहौ ||

नाम हमारी गति सदा ||

जे सेवैं हरिवंश सु नाम | पावैं तिन चरननि विश्राम ||

नाम रटन संतत करैं ||

नाम प्रसंग कहत उपदेश | जहां यह धर्म धन्य सो देश ||

धन्य सु कुल जिहिं जन्म भयौ ||

धन्य सु तात धन्य सो माइ | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||

श्रीहरिवंश प्रताप जस ||

||||

प्रथम हदय श्रध्दा जो करै | आचारजनि जाइ अनुसरै ||

जहाँजहाँ हरिवंश के ||

रसिकनि की सेवा जब होइ | प्रीति सहित बूझहु सब कोइ ||

कौन धर्म हरिवंश कौं ||

कौन सुरीति कौन आचरन | कौन सुकृत जिहिं पावै शरन ||

क्यों हरिवंश कृपा करै ||

तबसब धर्म कह्यौ समुझाइ | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||

श्रीहरिवंश प्रताप जस ||

||||

प्रथमहि सेवहु गुरु के चरन | जिन यह धर्म कह्यौ सब करन ||

नाम प्रताप बताइयौ ||

जो हरिवंश नाम अनुसरहु | निशिदिन गुरु कौ सेवन करहु ||

सकल समर्पन प्राण धन ||

गुरुसेवा तजि करहिं जे बानि | यहै अधर्म यहै सब हानि ||

कानि न रसिकनि में रहै ||

गुरुगोविन्द न भेद कराय | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||

श्रीहरिवंश प्रताप जस ||

||||

गुरुउपदेश सुनहु सब धर्म | श्रीहरिवंश नाम फल मर्म ||

भर्म भग्यो वचननि सुनत ||

शुकमुखवचन जु श्रवन सुनावहु | तब श्रीहरिवंश सु नाम कहावहु ||

मन सुमिरन बिसरै नहीं ||

हरिगुरुचरनसेवा अनुसरहू | अर्चनवंदन संतत करहु ||

दासंतन करि सुख लहौ ||

सख्य समर्पन भक्ति बढ़ाइ | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||

श्रीहरिवंश प्रताप जस ||

||||

गुरुउपदेश चलहु इहिं चाल | ऐसी भक्ति करहि बहु काल ||

ये नव लक्षण भक्ति के ||

यह हरिभक्ति करै जब कोई | तब श्रीहरिवंशनामरति होई ||

यह जु बहुत हरि की कृपा ||

हरिहरिवंश भेद नहिं करै | श्रीहरिवंश नाम उच्चरै ||

छिनछिन प्रति बिसरै नहीं ||

प्रीति सहित यह नाम कहाइ | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||

श्रीहरिवंश प्रताप जस ||

||||

गुरुउपदेश चलहु इहिं रीति | श्रीहरिवंश नामपदप्रीति ||

प्रेममूल यह नाम हैं ||

प्रेमी रसिक जपत यह नाम | प्रेम मगन निज वन विश्राम ||

श्रीहरिवंश जहाँ रहैं ||

प्रेम प्रवाह परैं जन सौइ | तब क्यों लोकवेद सुधि होइ ||

जब श्रीहरिवंश कृपा करी ||

व्रतसंयम तब कौन कराय | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||

श्रीहरिवंश प्रताप जस ||

||||

जब यह नाम ह्रदय आइहै | तब सब सुखसम्पति पाइहै ||

श्रीहरिवंश सुजस कहै ||

अरु अपनी प्रभुता नहिं सहैं | तृण तें नीच अपुनपौ कहैं ||

शुभ अरु अशुभ न जानहीं ||

समुझै नहीं कछू कुलकर्म | सूधौ चले आपने धर्म ||

रसिकनि सौं प्रीतम कहै ||

कबहूँ काल वृथा नहिं जाइ | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||

श्रीहरिवंश प्रताप जस ||

||||

जब हरिवंश नाम जानि हैं | तब सबही ते लघु मानि हैं ||

हँसि बोलै बहु मान दै ||

तरु सम सहनशीलता होइ | परम उदार कहैं सब कोइ ||

सोच न मन कबहूँ करै ||

श्रीहरिवंश सुजस मन रहै | कोमल वचनरचन मुख कहै ||

परम सुखद सबकौ सदा ||

दुखद वचन कबहूँ न कहाइ | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||

श्रीहरिवंश प्रताप जस ||

||||

प्रगट धर्म जैसैं जानियैं | श्रीहरिवंश नाम जा हियैं ||

नाम सिद्धि पहिचानियैं ||

श्रीहरिवंश नाम सब सिद्धि | सबै रसिक विलसै नवनिद्धि ||

भूगतै दैहि न जाँचहीं ||

पोषण भरण न चिंत कराहिं | श्रीहरिवंश विभव;विलसाहिं ||

श्रीवृन्दावन की माधुरी ||

गुन गावत जु रसिक सचु पाइ | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||

श्रीहरिवंश प्रताप जस ||

||१०||

श्रीहरिवंश धर्म जे धरहिं | श्री हरिवंशनाम उच्चरहिं ||

ते सब श्रीहरिवंश के ||

श्रवण सुनहिं जे श्रीहरिवंश | मुख वरनत वाणी हरिवंश ||

मन सुमिरन हरिवंश कौं ||

ऐसे रसिक कृपा जो करै | तौ हम से सेवक निस्तरैं ||

जूठनि लै पावैं सदा ||

सेवक शरण रहैं गुण गाइ | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||

श्रीहरिवंश प्रताप जस ||

|| इति श्रीहित नाम प्रताप प्रकरण ||

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|| श्रीहित वाणी प्रताप प्रकरण ||
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समुझौ श्रीहरिवंश सु वानी | रसद मनोहर सब जग जानी ||

कोमल मधुर ललित पदश्रेनी | रसिकन कौं जु परम सुख दैनी ||

श्रीहरिवंश नाम उच्चारा | नित्यबिहार रस कह्यौ अपारा ||

श्रीवृन्दावन भूमि वखानौं | श्रीहरिवंश कहे तें जानौं ||

श्रीहरिवंशगिरा रस सूधी | कछु नहीं कहौं आपनी बूधि ||

श्रीहरिवंशकृपा मति पाॐ | तब रसिकनि कौं गाइ सुनाऊँ ||

||||

श्रीहरिवंश जु श्रीमुख भाखी | सो वन भूमि चित्त में राखी ||

हौं लधु मति नहीं लहौं प्रमाना | जानत श्रीहरिवंश सुजाना ||

नव पल्लव फलफूल अनंता | सदा रहत रितु शरदबसंता ||

श्रीवृन्दावन सुन्दरताई | श्री हरिवंश नित्यप्रति गाई ||

||||

श्रीवृन्दावन नवनव कुंज | श्रीहरिवंश प्रेम रस पुंज ||

श्रीहरिवंश करत नित केली | छिनछिन प्रति नवनव रस झेली ||

कबहुँक निर्मित तरल हिंडोला | झूलतफूलत करत कलोला ||

कबहुँक नवदल सेज रचावहिं | श्रीहरिवंश सुरतरति गावहिं ||

||||

सुरत अन्त छबि वरनि न जाई | छिनछिन प्रति हरिवंश जु गाई ||

आजु सँभारत नाहिन गोरी | अंगअंग छवि कहौं सु थोरी ||

नैंनबैंनभूषन जिहिं भाँती | सो छबि मोपै वरनी न जाती ||

प्रेमप्रीति रसरीति बढ़ाई | श्रीहरिवंश वचन सुखदाई ||

||||

वंश बजाइ विमोहित नारी | बोलीं संग सु नित्यबिहारी ||

परिरम्भन चुंबन रस केली | विहरत कुँवरि कंठ भुज मेली ||

सुन्दर रास रच्यौ वन माँही | जमुनापुलिन कल्पतरु छाँही ||

रास रंग रति वरनि न जाई | नितनित श्रीहरिवंश जु गाई ||

||||

श्रीहरिवंश प्रेम रस गाना | रसिक विमोहित परम सुजाना ||

अंशनि पर भुज दिये विलोकत | तृपित न सुन्दर मुख अवलोकत ||

इन्दुवदन दीसत विवि ओरा | चारु सु लोचन तृषित चकोरा ||

करत पान रसमत्त सदाई | श्रीहरिवंश प्रेमरति गाई ||

||||

श्रीहरिवंश सु रीति सुनाऊँ | श्यामाश्याम एक सँग गाऊँ ||

छिन इक कबहुँ न अन्तर होई | प्राण सु एक देह हैं दोई ||

राधा संग बिना नहीं श्याम | श्याम बिना नहीं राधानाम ||

छिनछिन प्रति आराधत रहहीं | राधा नाम श्याम तब कहहीं ||

ललितादिकनि संग सचु पावैं | श्रीहरिवंश सुरतरति गावैं ||

||||

श्रीहरिवंश गिरा जस गायैं | श्रीहरिवंश रहत सचु पायैं ||

श्रीहरिवंश नाम परसंगा | श्रीहरिवंशगान इक संगा ||

मनक्रमवचन कहौं नित टेरैं | श्रीहरिवंश प्राण धन मेरैं ||

सेवक श्रीहरिवंशहि गावै | श्रीहरिवंश नाम रति पावैं ||

||||

जयति जगदीश जस जगमत जगतगुरु, जगत वन्दित सु हरिवंशवानी |

मधुर कोमल सु पद प्रीति आनन्द रस, प्रेम विस्तरित हरिवंशवानी ||

रसिक रसमत्त श्रुति सुनत पीवन्त रस, रसनि गावन्त हरिवंशवानी |

कहत हरिवंश हरिवंश हरिवंश हित, जपत हरिवंश हरिवंशवानी ||

||||

कही नित केलि रस खेल वृन्दाविपिन, कुंज तैं कुंज डोलनि वखानी |

पट न परसंत निकसंत वीथिनु सघन, प्रेम विह्वल सु नहि देह मानी ||

मगन जित जित चलत छिन सु डगमग मिलत, पंथ वन देत अति हेत जानी |

रसिक हित परम आनन्द अवलोकि तन, सरस विस्तरित हरिवंश वानी ||

||||

वंश रस नाद मोहित सकल सुन्दरी, आनि रति मानी कुल छाँडि कानी |

बाहु परिरम्भ नीवी उरज परसि हँसी, उमगि रतिपति रमित रीति जानी ||

जूथ जुवतिनु खचित रासमंडल रचित, गान गुन निर्त आनन्द दानी |

तत्तथेईथेई करत गतिव नौतन धरत, रास रस रचित हरिवंश वानी ||

||||

रास रस रचित वाणी सु प्रगटित जगत, शुद्ध अबिरुद्ध परसिद्ध जानी |

श्यामश्यामा प्रगट, प्रगट अक्षर निकट, प्रगट रस श्रवत अति मधुर वानी ||

सो जु वानी रसिक नित्य निशिदिन रटत, कहत अरु सुनत रसरीति जानी |

ताहि तजि और गाऊँ न कबहूँ कछू, प्राण रमी रही हरिवंश वानी ||

||||

भागअनभाग जानत जु नहिं आपुनौं, कौंन घौं लाभ अरु कौंन हानी |

प्रगट निधि छाँडी कत फिरत रुँका करत, भरम भटकत सु नहिं भूलि जानी ||

प्रीति बिनु रीति रुखी जु लागत सकल, जुगति करी होत कत कवितमानी |

रसिक जो सघ्य चाहत जु रसरीति फल, तौं कहु अरु सुनहु हरिवंशवानी ||

||||

यहै नित केलि येई जु नाइक निपुन, यहै वन भूमि नितनित वखानी |

बहुत रचना करत रागरागिनी धरत, तान बंधान सब ठाँनि आनी ||

ज्यौं मुंद नहिं मिलत टकसार तैं बाहिरी, लाख में गैर मुहरी जु जानी |

यौ जु रसरीति वरनत न ठाँई मिलत, जो न उच्चरत हरिवंशवानी ||

||||

रसिक बिनु कहै सबही जु मानत बुरौं, रसिकई कहौं कैसे जु जानी |

आपुनीआपुनी ठौर जेई तहां, आपुनी बुद्धि कैं होत मानी ||

निपट करी रसिक जो होहु तेंसी कहौं, अब जु यह सुनहु मेंरी कहानी |

जौरू तुम रसिक रसरीति के चाडिलें, तौरू मन देहु हरिवंशवानी ||

||||

वेद विधा पढ़त कर्मधर्मनि करत, जल्प तन कल्प की अवधि आनी |

चारु गति छाँडि संसार भटकत भ्रमत, आस की पाशि नहिं तोरि जानी ||

सकल स्वारथ करत रहत जन्मतमरत, दुःख अरु सुःख के होत मानी |

छाँडि जंजार कैसैं न निश्चय धरत, एक किन रमत हरिवंशवानी ||

||||

वृथा बलगन करत घौस खोवत सकल, सोवतन रात नहिं जात जानी |

ऐसी ही भाँति समुझ्यौ न कबहूँ कछू, कौन सुखदुख को लाभहानी ||

तब सुःख हरिवंश गुन नाम रसना रटत, और बहु वचन अति दुःख दानी |

हानि हरिवंश के नाम अन्तर परे, लाभ हरिवंश उच्चरत वानी ||

||१०||

नामवानी निकट श्यामश्यामा प्रगट, रहत निशिदिन परम प्रीति जानी |

नामवानी सुनत श्यामश्यामा सु बस, रसद माधुर्य अति प्रेमदानी ||

नामवानी जहाँश्यामश्यामा तहाँ, सुनत गावंत मो मन जु मानी |

बलित शुभ नाम बलि विशद कीरति जगत, हौं जु बलि जाऊं हरिवंशवानी ||

||११||

बलिबलि श्रीहरिवंश नाम, बलिबलित विमल जस |

बलिबलि श्रीहरिवंश, कर्म व्रत कृत सु नाम बस ||

बलिबलि श्रीहरिवंश वरन, धर्मनि गति जानत |

बलिबलि श्रीहरिवंश नाम, कली प्रगट प्रमानत || 

हरिवंश नाम सु प्रताप बलि, बलित जगत कीरति विशद |

हरिवंश विमल वानी सु बलि, मृदु कमनीय सु मधुर पद ||

|| इति श्रीहित वाणी प्रताप प्रकरण ||

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|| श्रीहित इष्टाराधन प्रकरण ||
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प्रथम प्रणम्य सुरम्य मति, मनबुध्धिचित्त प्रसंश |

चरनशरन सेवक सदा, सुजयजय श्रीहरिवंश ||

श्रीहरिवंश विपुल गुण मिष्टं, श्रीहरिवंश उपासक इष्टं |

श्रीहरिवंश कृपा मति पाऊँ, श्रीहरिवंश विमल गुण गाऊँ ||

गाऊँ हरिवंश नाम जस निर्मल, श्रीहरिवंश रमित प्रानं |

कारज हरिवंश प्रताप सु उद्दित, कारन श्रीहरिवंश भनं ||

विध्या हरिवंश मंत्र चतुरक्षर, जपत सिद्धि भव उद्धरनं |

जै जै हरिवंश जगत मंगल पर श्रीहरिवंशचरनशरनं ||

||||

हरिरिति अक्षर बीज रिषि, वंशी शक्ति सु अंश |

नखशिख सुन्दर ध्यान धरी, जैजै श्रीहरिवंश ||

श्रीहरिवंश सु सुन्दर ध्यानं, श्रीहरिवंश विशद विज्ञानं |

श्रीहरिवंश नामगुनश्रुपं, श्रीहरिवंश प्रेमरस रूपं ||

रसमय हरिवंश परम परमाक्षर, श्रीहरिवंश कृपासदनं |

आत्मा हरिवंश प्रगट परमानँद, श्रीहरिवंश प्रमान मनं ||

जीवन हरिवंश विपुल सुख सम्पति, श्री हरिवंश बलित बरनं |

जैजै हरिवंश जगत मंगल पर, श्रीहरिवंश चरनशरनं ||

||||

शरन निरापक पद रमित, सकल अशुभशुभ नंश |

देत सहज निश्चल भगति, जैजै श्रीहरिवंश ||

श्रीहरिवंश मुदित मन लोभं, श्रीहरिवंश वचन वर शोभं |

श्रीहरिवंश कायकृत कारं, श्रीहरिवंश त्रिशुद्ध विचारं ||

पूजा हरिवंश नाम परमारथ, श्रीहरिवंश विवेक परं |

धीरज हरिवंश विरद बल बीरज, श्रीहरिवंश अभद्र हरं ||

तृस्णा हरिवंश सुजस रस लम्पट, श्रीहरिवंश कर्म करनं |

जैजै हरिवंश जगत मंगल पर, श्रीहरिवंश चरन शरनं ||

||||

श्रीहरिवंश सुगोत  कुल, देव जाति हरिवंश |

श्रीहरिवंश स्वरूप हित, रिद्धिसिद्धि हरिवंश ||

श्रीहरिवंश विदित विधि वेदं, श्रीहरिवंश जु तत्व अभेदं |

श्रीहरिवंश प्रकाशित योगं, श्रीहरिवंश सुकृत सुख भोगं ||

प्रज्ञा हरिवंश प्रतीति प्रमानत, प्रीतम श्रीहरिवंश प्रियं |

गाथा हरिवंश गीत गुन गोचर, गुपत, गुनित हरिवंश गियं ||

सेवक हरिवंश सार संचित सब, श्रीहरिवंश धर्म धरनं |

जैजै हरिवंश जगत मंगल पर, श्रीहरिवंश चरन शरनं ||

||||

जैजै श्रीहरिवंशचन्द्र, व्दिजवर कुलमण्डन |

जैजै श्रीहरिवंशचन्द्र, कलितम भव खण्डन ||

जैजै श्रीहरिवंशचन्द्र, अकलंक प्रकाशित |

जैजै श्रीहरिवंशचन्द्र, सब जग आभासित ||

श्रीहरिवंशचन्द्र अमृत वरषि, सकलजन्तु तापनि हरनं |

सेवक समीप संतत रहै सु, श्रीहरिवंश चरन शरनं ||

||इति श्रीहित इष्टाराधन प्रकरण ||

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|| श्रीहित धर्मीकृत प्रकरण ||
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||||

पहिलैं हरिवंश सु नाम कहौं | हरिवंश सु धर्मिनु संग लहौं ||

हरिवंश सु नाम सदा तिनकैं | सुख सम्पति दम्पति जू जिनकैं ||

||||

हरिवंश सु नाम कहौं नित कैं | मिल ही कहौं कृत्त सु धर्मिनु कैं ||

हरिवंश उपासन हैं तिनकैं | सुख सम्पति दम्पति जू जिनकैं ||

||||

हरिवंशगिरा रसरीति कहैं | सुकृतीजन संगति नित्य रहैं || 

कछु धर्म विरुद्ध नहीं नितकैं | सुख सम्पति दम्पति जू जिनकैं ||

||||

हरिवंश प्रसंशित नित्य रहैं | रसरीति विवर्धित कृत्य कहैं ||

जु कछु कुल कर्म नहीं तिनकैं | सुख सम्पति दम्पति जू जिनकैं || 

||||

हरिवंश सु नाम जु नित्य रटैं | छिन याम समान न नैंकु घटैं || 

विधि और निषेध नहीं तिनकैं | सुख सम्पति दम्पति जू जिनकैं || 

||||

हरिवंश सु धर्म जु नित्य करैं | हरिवंश कही सु नहीं बिसरैं ||

हरिवंश सदा निधि हैं तिनकैं | सुख संपति दंपति जू जिनकैं || 

||||

हरिवंश प्रतापहिं जानत हैं | हरिवंश प्रबोध प्रमानत हैं || 

हरिवंश सु सर्वस है तिनकैं | सुख सम्पति दम्पति जू जिनकैं || 

||||

हरिवंश विचार परे जु रहैं | हरिवंश धरम्म धुरा निवहैं ||

हरिवंश निवाहक हैं तिनकैं | सुख संपति दम्पति जू जिनकैं || 

||||

हरिवंश रसायन पीवतु हैं | हरिवंश कहैं सुख जीवतु हैं ||

हरिवंश पतिव्रत है तिनकैं | सुख संपति दम्पति जू जिनकैं || 

||१०||

हरिवंशगिरारसरीति भनै | हरिवंश कहैं, हरिवंश सुनै || 

हरिवंश ह्रदय व्रत हैं तिनकैं | सुख संपति दम्पति जू जिनकैं || 

||११||

हरिवंशकृपा हरिवंश कहैं | हरिवंश कहैं, हरिवंश लहैं || 

हरिवंश सु लाभ सदा तिनकैं | सुख संपति दम्पति जू जिनकैं || 

||१२||

हरिवंश पराइन प्रेम भरे | हरिवंश सु मंत्र जपै सुधरे || 

हरिवंश सु ध्यान सदा तिनकैं | सुख संपति दम्पति जू जिनकैं || 

||१३||

नित श्रीहरिवंश सु नाम कहैं | नित राधिकाश्याम प्रसन्न रहैं ||

नित साधन और नहीं तिनकैं | सुख संपति दम्पति जू जिनकैं || 

||१४||

जब राधिकाश्याम प्रसन्न भये | तब नित्य समीप सु खैचि लये || 

हरिवंश समीप सदा तिनकैं | सुख संपति दम्पति जू जिनकैं || 

||१५||

नितनित श्रीहरिवंशनाम, छिनछिन जु रटत नर

नितनित रहत प्रसन्न, जहाँ दम्पति किशोरवर ||

जहाँ हरि तहाँ हरिवंश, जहाँ हरिवंश तहाँ हरि

एक शब्द हरिवंश नाम, राख्यौ समीप करि || 

हरिवंश नाम सु प्रसन्न हरि, हरि प्रसन्न हरिवंश रति

हरिवंश चरन सेवक जिते, सुनहु रसिक रसरीति गति || 

||इति श्रीहित धर्मीकृत प्रकरण ||

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|| श्रीहित रसरीति प्रकरण ||
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व्यासनन्दन जगतआधार,

जगमगत जग जस सब जग वंदनीय, जग भय विहंडन |

जगशोभा जगसम्पदा, जग जीवन सब जगमण्डन ||

जगमंगल जगउद्धरन, जगनिधि जगतप्रसंश |

चरनशरन सेवक सदा, सु जैजै श्रीहरिवंश ||

||||

जयति जमुना विमल वर वारि,

शीतल तरल तरंगिनी, रत्नबद्ध विवि तट विराजत |

प्रफुलित विविध सरोजगन, चक्रवादि कुल हंस राजत ||

कूल विशद वन द्रुम सघन, लता भवन अति रम्य |

नित्य केलि हरिवंश हित, ब्रम्हादिकनि अगम्य ||

||||

सुघर सुन्दर सुमति सर्वज्ञ,

संतत सहज सदा सदन, सघन कुंज सुखपुंज वरषत |

सौरभ सरस सुमन चैन, सज्जित सैन सचु रंग हरषत ||

केलि विशद आनन्द रसद, बेलि बढ़ति नित याम |

ठेलि निगममग पग सुभग, खेलि कुंवर वर वाम ||

||||

रसिक रवनी रसद रसरासि,

रससींवा रससागरी, रस निकुज्ज सुखपुजं वरषत |

रसनिधि सुविधि रसज्ञ रस, रेख रीति रस, प्रीति हरषत ||

रस मूरति सूरति सरस, रस विलसनि रस रंग |

रस प्रवाह सरिता सरस, रति रस लहर तरंग ||

||||

श्यामसुन्दर उरसि वनमाल,

उरगभोग भुज दण्ड वर, कम्बु कण्ठ मनिगन विराजत |

कुंचित कच मुख ताम रस, मधु लम्पट जनु मधुप राजत ||

सीस मुकट कुण्डल श्रवन, मुरली अधर त्रिभंग |

कनक कपिस पट शोभियत, जनु घनदामिनि संग ||

||||

सुभगसुन्दरी सहज सिंगार,

सहज शोभा सर्वांग प्रति, सहज रूप वृषभाननन्दिनी |

सहजानन्द कदम्बिनी, सहज विपिन उर उदित चन्दिनी ||

सहज केलि नितनित नवल, सहज रंग सुखचैंन |

सहज माधुरी अंग प्रति, सु मोपै कहत बनैं न ||

||||

विपिन निर्तत रसिक रसरासि,

दंपति अति आनन्द बस, प्रेम मत्त निसंक क्रीडत |

चंचल कुण्डल कर चरन, नैंन लोल रतिरंग ब्रीडत ||

झटकति पट चुटकिनु चटक, लटकत लट मृदु हास |

पटकत पद उघटत शबद, मटकत भृकुटि विलास ||

||||

नवल नागरी नवल युवराज,

नवनव वन घन क्रीडन्त, नव निकुंज विलसंत सर्वस |

नवनव रति नितनित बढ़त, नयौ नेह नव रंग नयौ रस ||

नव विलास कल हास नव, सरस मधुर मृदु बैंन |

नव किशोर हरिवंश हित, सु नवलनवल सुख चैंन ||

||||

नवलनवल सुख चैंन, ऐन आपने आपु बस |

निगमलोकमर्याद भंजि, क्रीडंत रंग रस ||

सुरत प्रसंग निशंक करत, जोइजोइ भावत मन |

ललित अंग चलि भंगि भाइ, लज्जित सु कोक गन ||

अदभुत बिहार हरिवंश हित, निरखि दासि सेवक जियत |

विस्तरतसुनतगावत रसिक, सु नितनित लीला रस पियत ||

|| इति श्रीहित रसरीति प्रकरण ||

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|| श्रीहित अनन्य टेक प्रकरण ||
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||||

कर्मधर्म कोउ करहु वेदविधि, कोउ बहु विधि देवतनि उपासी |

कोउ तीरथतपज्ञानध्यानव्रत, अरु कोउ निर्गुण ब्रह्म उपासी ||

कोउ यमनेम करत अपनी रूचि, कोउ अवतारकदम्ब उपासी |

मनक्रमवचन त्रिशुध्द सकल मत, हम श्रीहित हरिवंश उपासी ||

||||

जाति पाँति कुल कर्मधर्मव्रत, संसृति हेतु अविद्या नासी |

सेवक रीति प्रतीति प्रीति हित, विधि निषेध श्रृंखला विनासी ||

अब जोई कही करैं हम सोई, आयसु लियैं चलैं निजु दासी |

मनक्रमवचन त्रिशुध्द सकल मत, हम श्रीहित हरिवंश उपासी ||

||||

जो हरिवंश कौ नाम सुनावै, तनमनप्राण तासु बलिहारी |

जो हरिवंशउपासक सेवै, सदा सेऊँ ताके चरन विचारी ||

जो हरिवंशगिराजस गावै, सर्वसु दैहुं तासु पर वारी |

जो हरिवंश कौ धर्म सिखावै, सोई तौ मेरे प्रभु तें प्रभु भारी ||

||||

श्रीहरिवंश सु नाद विमोही, सुनि धुनि नित्य तहाँ मन दैहौं |

श्रीहरिवंश सुनंत चलीं सँग, हौं तिन संग नित्य प्रति जेहौं ||

श्रीहरिवंशविलासरास रस, श्रीहरिवंश संग अनुभैहौं |

जो हरिनाम जगत्र शिरोमणि, वंश बिना कबहूँ नहिं लैहौं ||

||||

प्रेमी अनन्य भजन्न न होइ जु, अन्तरयामी भजै मन में |

जो भजि देख्यौ यशोदा कौ नन्दन, तौ विश्व दिखाई सबै तन में ||

श्रीहरिवंश सुनाद विमोहीं, ते शुध्द समीप मिलीं छन में |

अब यामें मिलौनीं मिलै न कछू, जब खेलत रास सदा वन में ||

||||

जो बहु मान करै कोउ मेरौ, कियैं बहु मानत नाहिं बडाई |

जौ अपमान करै कोउ क्यौं हूँ, कियैं अपमान नहीं लघुताई ||

श्रीहरिवंशगिरा रससागर, मांझ मगन्न सबै निधि पाई |

जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ||

||||

कही वनकेलि निकुंजनिकुंजनि, नव दल नूतन सेज रचाई |

नाथ विरंमिविरंमि कही तब, सो रति तैसी धौं कैसैं भुलाई ||

सत्वर उठे महा मधु पीवत, माधुरी बानी मेरैं मन भाई |

जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंशदुहाई ||

||||

भुज अंशनि दीने विलोकि रहे, मुख चन्द उभय मधु पान कराई |

आपु विलोकि ह्रदय कियौ मान, चिबुक्क सुचारू प्रलोइ मनाई ||

श्रीहरिवंश बिना यह हेत को, जानैं कहा को कहै समुझाई |

जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ||

||||

श्रीहरिवंश सु नाद सु रीति, सु गान मिलै बनमाधुरी गाई |

श्रीहरिवंश वचन्न रचन्न सु, नित्य किशोरकिशोरी लड़ाई ||

श्रीहरिवंशगिरारसरीति सु, चित्त प्रतीति न आन सुहाई |

जो हरिवंश तजौं भजौं ओरहि, तौं मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ||

||१०||

श्रीहरिवंश कौं नाम सु सर्वसु, जानि सु राख्यौ मैं चित्त समाई |

श्रीहरिवंश के नाम प्रताप कौं, लाभ लह्यौ सु कह्यौ नहिं जाई ||

श्रीहरिवंश कृपा तें त्रिशुद्ध कै, साँची यहै जु मेरैं मन भाई |

जो हरिवंश तजौं भजौं औरहि, तौं मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ||

||११||

देखे जु मैं अवतार सबै भजि, तहाँतहाँ मन तैसौ न जाई |

गोकुलनाथ महा ब्रज वैभव, लीला अनेक न चित्त खटाई ||

एकहि रीति प्रतीति बँध्यौ मन, मोही सबै श्रीहरिवंश बजाई |

जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौं मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ||

||१२||

नाम अरद्ध हरै अघपुंज, जगत्त करै हरि नाम बड़ाई |

सो हरिवंश समेत संपूरन, प्रेमी अनन्यनि कौं सुखदाई ||

श्रीहरिवंश कहंतसुनंत, छिनैछिन काल वृथा नहिं जाई |

जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौं मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ||

||१३||

श्रीहरिवंश सु प्रान, सु मन हरिवंश गनिज्जै |

श्रीहरिवंश सु चित्त, मित्त हरिवंश भनिज्जै ||

श्रीहरिवंश सु बुद्धि, वरन हरिवंश नाम जस |

श्रीहरिवंश प्रकाश, वचन हरिवंश गिरा रस ||

हरिवंश नाम बिसरै न छिन, श्रीहरिवंश सहाय भल |

हरिवंश चरन सेवक सदा, सु शपथ करी हरिवंशबल ||

||इति श्रीहित अनन्य टेक प्रकरण ||

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|| श्रीहित कृपाअकृपा प्रकरण ||
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||अकृपा सोरठा||

||||

सब जब देख्यौ चाहि, काहि कहौं हरिभक्ति बिनु |

प्रीति कहूँ नहि आहि, श्रीहरिवंशकृपा बिना ||

||||

गुप्त प्रीति कौ भंग, संग प्रचुर अति देखियत |

नाहिंन उपजत रंग, श्रीहरिवंशकृपा बिना ||

||||

मुख बरनत रसरीति, प्रीति चित्त नहिं आवई |

चाहत सब जग कीर्ति, श्रीहरिवंशकृपा बिना ||

||||

गावत गीत रसाल, भाल तिलक शोभित घना |

बिनु प्रीतिहिं बेहाल, श्रीहरिवंशकृपा बिना ||

||||

नाचत अतिहिं रसाल, ताल न शोभित प्रीति बिनु |

जनु बीधे जंजाल, श्रीहरिवंशकृपा बिना ||

||||

मानत अपनौं भाग, राग करत अनुराग बिनु |

दीसत सकल अभाग, श्रीहरिवंशकृपा बिना ||

||||

पढत जु वेदपुरान, दान न शोभित प्रीति बिनु |

बींधे अति अभिमान, श्रीहरिवंशकृपा बिना ||

||||

दर्शन भक्त अनूप, रूप न शोभित प्रीति बिनु |

भरम भटक्कत भूप, श्रीहरिवंशकृपा बिना ||

||||

सुन्दर परम प्रवीन, लीन न शोभित प्रीति बिनु |

ते सब दीसत दीन, श्रीहरिवंशकृपा बिना ||

||१०||

गुन मानी संसार, और सकल गुन प्रीति बिनु |

बहुत धरत सिर भार, श्रीहरिवंशकृपा बिना ||

||कृपा सोरठा||

||||

मुख वरनत हरिवंश, चित्त नाम हरिवंशरति |

मन सुमिरन हरिवंश, यह जु कृपा हरिवंश की ||

||||

सब जीवन सौं प्रीति, रीति निवाहत आपुनी |

श्रवणकथन परतीति, यह जु कृपा हरिवंश की ||

||||

शत्रुमित्र सम जानि, मानि मान अपमान सम |

दुखसुख लाभ न हानि, यह जु कृपा हरिवंश की ||

||||

नित इक धर्मिनु संग, रंग बढ़त नितनित सरस |

नितनित प्रेम अभंग, यह जु कृपा हरिवंश की ||

||||

निरखत नित्यबिहार, पुलकित तन रोमावली |

आनँद नैंन सुढार, यह जु कृपा हरिवंश की ||

||||

छिनछिन रुदन करंत, छिन गावत आनन्दभरि |

छिनछिन हहर हसंत, यह जु कृपा हरिवंश की ||

||||

छिनछिन बिहरत संग, छिनछिन निरखत प्रेम भरि |

छिन जस कहत अभंग, यह जु कृपा हरिवंश की ||

||||

निरखत नित्य किशोर, नित्यनित्य नवनव सुरति |

नित निरखत छबि भोर, यह जु कृपा हरिवंश की ||

||||

तृपित न मानत नैंन, कुंज रंध्र अवलोकि तन |

यह सुख कहत बनैं न, यह जु कृपा हरिवंश की ||

||१०||

कहा कहौं बडभाग, नितनित रति हरिवंश हित |

नित वद्धिॅत अनुराग, यह जु कृपा हरिवंश की ||

||११||

नित वद्धिॅत अनुराग, भाग अपनौं करि मानत |

नित्यनित्य नव केलि, निरखि नैंननि सचु मानत ||

नितनित श्रीहरिवंश नाम, नवनव रति मानत |

नितनित श्रीहरिवंश कहत, सोइसोइ सिर मानत ||

आपुनौ भाग आपुन प्रगट, कहत जु श्रीहरिवंशबल |

हरिवंश भरोसे भये निडर, सु नित गर्जत हरिवंश बल ||

|| इति श्रीहित कृपाअकृपा प्रकरण ||

———

[१०]

||श्रीहित भक्त भजन प्रकरण ||
———

|| बाईस कुण्डलिया,प्रथम ११ सिद्धांत की ||

||||

श्री हरिवंश सु धर्म दृढ, अरु समुझत निजु रीति |

तिनकौं हौं सेवक सदा, मनक्रमवचन प्रतीति ||

मनक्रमवचन प्रतीति, प्रीति दिन चरन पखारौं |

नित प्रति जूठन खाऊँ वरन भेदहि न विचारौं ||

तिनकी संगति रहत, जातिकुलमद सब नंशहि |

संतत सेवक सदा, भजत जे श्रीहरिवंशहिं ||

||||

सब अनन्य साँचे सुविधि, सबकौ हौं निजु दास |

सुमिरन नाम पवित्र अति, दरस परस अघ नास ||

दरस परस अघ नास, बास निज संग करौं दिन |

तिन मुख हरिजस सुनत, श्रवण मानौं न तृपित छिन ||

कलि अभद्र वरनत सहस, कलि कामादिक द्वंद तब

सेवक शरण सदा रहैं, सुविधि साँचे अनन्य सब ||

||||

श्रीराधाबल्लभ भजत भजि, भली भली सब होय |

रसिक अनन्य सजाति भजि, भली भली सब होय ||

भलीभली सब होइ, जबहि हरिवंशचरनरति |

भली भली तब होइ, रचित रसरीति सदा मति ||

भली भली तब होइ, भक्ति गुरुरीति अगाधा |

भली भली तब होइ, भजत भजि श्रीहरि राधा ||

||||

श्रीराधाबल्लभ भजत भजि, भलीभली सब होइ |

अशुभ अनर्भल संग जन, विमुख तजौ सब कोइ ||

विमुख तजौ सब कोइ, झूठ बोलत सचु मानत |

दोष करत निरशंक, रंक करि संतनि जानत ||

अभिमानी गर्विष्ठ, लोभमदमत्त अगाधा |

दुष्ट परिहरौ दूर, भजत भजि श्रीहरिराधा ||

||||

श्रीराधाबल्लभ भजत भजि, भलीभली सब होइ |

जिते विनायक शुभअशुभ, विघ्न करै नहिं कोइ ||

विघ्न करै नहिं कोइ, डरै कलि कष्ट काल भय |

हरैं सकल संताप, हरषि हरि नाम जपत जय ||

श्रीवृंदावन नित्य केलि, नवनवल अगाधा |

हित हरिवंश किशोर, भजत भजि श्रीहरिराधा ||

||||

श्रीराधाबल्लभ भजत भजि, भलीभली सब होइ |

त्रिविध ताप नासहिं सकल, सब सुख सम्पति होइ ||

सब सुख सम्पति होइ, होइ हरिवंशचरनरति |

होइ विषयविष नास, होइ वृन्दावन बसि गति ||

होइ सुद्दढ़ सत्संग, होइ रसरीति अगाधा |

होइ सुजस जग प्रगट, होइ पद प्रीति सु राधा ||

||||

श्रीराधाबल्लभ भजत भजि, भलीभली सब होइ |

भीर मिटै भट यमन की, भयभंजन हरि सोइ ||

भयभंजन हरि सोइ, भरम भूल्यौ भटकत कति |

भगवतभक्ति विचार, वेद भागवत प्रीति रति ||

भक्तचरण धरि भाव तरत, भवसिन्धु अगाधा |

हित हरिवंश प्रशंस, भजत भजि श्रीहरिराधा ||

||||

श्रीराधाबल्लभ भजत भजि, भलीभली सब होइ |

अन्य देवसेवी सकल, चलत पूँजी सी खोइ ||

चलत पूँजी सी खोइ, रोइ झखि द्यौस गँवावहिं |

सोइ छपत सब रैंन, जोइ कपि सम जु नचावहिं ||

भोइ विषम विष विषय, कोइ सतगुरु नहिं लाधा |

धोइ सकल कलिकलुष, दोइ भजि श्रीहरिराधा ||

||||

श्रीराधाबल्लभलाल बिनु, जीवन जनम अकत्थ |

बाधा सब कुलकर्मकृत, तुच्छ न लागै हत्थ ||

तुच्छ न लागै हत्थ, सत्थ समरथ न बियौ तब |

माथ धुनत हरिविमुख, संग यमपंथ चलत जब ||

गाथ विमल गुन गान, कत्थ जस श्रवन अगाधा |

नाथ अनाथनि हित समर्थ, मोहनश्रीराधा ||

||१०||

कर्मठ कठिन सशल्य नित, सोचत शीश धुनंत |

श्रीहरिवंश जु उद्धरी, सोई रसरीति सुनंत ||

सोई रसरीति सुनंत, अन्त अनसहन करत सब |

जबजब जियनि विचारि, सार मानत मनमन तब ||

छिनछिन लोलुप चित्त, समुझि छाँड़त तातें सठ |

करत न संत समाज, जिते अभिमानी कर्मठ ||

||११||

हित हरिवंश प्रसंशि मन, नित सेवन विश्राम |

चित निषेध विधि सुधि नहीं, वितु संचित निधि नाम ||

वितु संचित निधि नाम, काम सुमिरन दासन्तन |

याम घटी न बिलम्ब, वाम कृत करत निकट जन ||

ग्राम पंथ आरण्य, दाम दृढ प्रेम ग्रथित नित |

ता मति रति सुखरासि, वामदृश नवकिशोर हित ||

||१२||

श्रीराधाआननकमल, हरिअलि नित सेवंत |

नवनव रति हरिवंश हित, वृन्दाविपिन बसंत ||

वृन्दाविपिन बसंत, परस्पर बाहु दंड धरि |

चलत चरन गति मत्त, करिनिगजराज गर्व भरि ||

कुंज भवन नित केलि करत, नवनवल अगाधा |

नाना काम प्रसंग करत, मिलि हरिश्रीराधा ||

||१३||

मुख विहँसत हरिवंश हित, रुख रसरासि प्रवीन |

सुखसागर नागरगुरु, पुहुपसैन आसीन ||

पुहुपसैन आसीन, कीन निजु प्रेम केलि बस |

पीन उरज वर परसि, भीन नव सुरत रंगरस ||

खीन निरखि मद मदन दीन, पावत जु विलखि दुख |

मीनकेतु निर्जित सु लीन, प्रिय निरखि विहँस मुख ||

||१४||

रससागर हरिवंश हित, लसत सरित वर तीर |

जग जस विशद सु विस्तरित, बसत जु कुंज कुटीर ||

बसत जु कुंज कुटीर, भीर नव रँग भामिनि भर |

चीर नील गौरांग सरस घन तन पीताम्बर ||

धीर बहत दक्षिन समीर, कल केलि करत अस |

नीरज सैंन सु रचित वीर, वर सुरत रंग रस ||

||१५||

प्रिय विचित्र बन हरषि मन, जिय जस वैंनु कुनंत |

तिय तरुनी सुनि तुष्ट धुनि, कियौं तहां गवन तुरंत ||

कियौं तहां गवन तुरंत, कंत मिलि बिलसत सर्वस |

तंत रासमंडल जुरन्त, रस निर्त रंग रस ||

संतत सुर दुन्दुभि बजंत, वरषंत सुमन लिय |

अंत केलि जल जनुकि, मत्त इभराटकरिनि प्रिय ||

||१६||

हरि बिहरत वन जुगल जनु, तड़ित सु वपु घन संग |

करि किशलय दल सैंन भल, भरि अनुराग अभंग ||

भरि अनुराग अभंग, रंग अपने सचु पावत |

अंगअंग सजि सुभट, जंग मनसिजहिं लजावत ||

पंगु दृष्टि ललितादिक, तंक निरखत रंध्रनि करि |

मंग आदि रचि शिथिल, सजित उच्छंग धरत हरि ||

||१७||

श्याम सुभग तन विपिन घन, धाम विचित्र बनाइ |

ता मँहिं संगम जुगल जन, कामकेलि सचु पाइ ||

कामकेलि सचु पाइ, दाइ छल प्रियहिं रिझावत |

धाइ धरत उर अंक, भाइ गन कोक लजावत ||

चाय चवग्गुन चतुर राइ, रसरति संग्रामहिं |

छाइ सुजस जग प्रगट, गाइ गुन जीवत श्यामहिं ||

||१८||

सरितातट सुरद्रुम निकट, अलि ता सुमन सुवास |

ललितादिक रसननि विवस, चलि ता कुंज निवास ||

चलि ता कुंज निवास, आस तब हित मग परषत |

रासस्थल उत्तम विलास, सचि मिलि मन हरषत ||

तासु वचन सुनि चित हुलास, विरहज दुख गलिता |

दासन्तनि कुल जुवति, मास माधव सुखसरिता ||

||१९||

परषत पुलिन सुलिन गिरा, करषत चित सुरघोर |

हरषत हित नित नवल रस, वरषत जुगल किशोर ||

वरषत जुगल किशोर, जोर नव कुंज सुरत रन |

मोर चन्द्र चय चलत, डोर कच शिथिल सुभग तन ||

चोर चित्त ललितादि, कोर रन्ध्रनि निजु निरखत |

थोर प्रीति अंतर न भोर, दम्पतिछवि परखत ||

||२०||

रितु बसन्त वन फल सुमन, चित प्रसन्न नव कुंज |

हित दम्पति रति कुशल मति, बितु संचित सुखपुंज ||

बितु संचित सुखपुंज, गुंज मधुकर सु नाद धुनि |

रुंजमृदंगउपंग धुंज, डफ झंंझ ताल सुनि ||

मंजु जुवति रसगान, लुंज इव खग तहां विथकितु |

भुंजत रासविलास कुंज नव, सचि बसंत रितु ||

||२१||

कहतकहत न कही परैं, रहत जु मनहिं विचारि |

सहतसहत बाढ़ै भगति, गृह तन गुरु हित गारि ||

गृह तन गुरु हित गारि, हारि अपनी करि मानत |

चार वेद स्मृति सु चार, क्रम कर्म न जानत ||

डारि अविद्या करि विचार चित, हित हरिवंशहिं |

नारि रसिक ह्रद वन विहार, महिमा न परै कहि ||

||२२||

सेवक श्रीहरिवंश के, जग भ्राजत गुन गाइ |

निशिदिन श्रीहरिवंश हित, हरषि चरन चित लाइ ||

हरषि चरन चित लाइ, जपत हरिवंश गिराजस |

मनसिवचसि चित लाइ, जपत हरिवंश नामजस ||

श्रीहरिवंश प्रतापनाम नौंका निजु खेवक |

भवसागर सुख तरत, निकट हरिवंश जु सेवक ||

||इति श्रीहित भक्त भजन प्रकरण ||

———

[११]

|| श्रीहित ध्यान प्रकरण ||
———

||||

स जयति हरिवंश चन्द्र नामोच्चार , वर्द्धित सदा सु बुद्धि |

रसिक अनन्य प्रधान सतु, साधु मंडली मंडनो जयति ||

जै जै श्रीहरिवंश हित, प्रथम प्रणऊँ सिर नाइ |

परम रसद निर्विघ्न ह्वै, जैसैं कवित सिराइ ||

सुकवित्त सुछ्न्द गनिज्जै, समय प्रबंध वन |

सुकवि विचित्र भनिज्जै, हरिजस लीन मन ||

श्रोता सोई परम सुजान, सुनत चित्त रति करै |

सोइ सेवक रसिक अनन्य, विमल जस विस्तरै ||

सुजस सुनत वरनत सुख पायौं, कीरभृंग नारदशुक गायौं |

श्रीवृंदावन सब सुखदानी, रतनजटित वर भूमि रवाँनी ||

वर भूमि रवाँनी सुखद द्रुमबल्ली, प्रफुलित फलित विविध वरनं |

नित शरदबसंत मत्त मधुकरकुल, बहु पतत्रि नादहि करनं ||

नाना द्रुमकुंज मंजु वर वीथी, वन बिहार राधारवनं |

तहाँ संतत रहत श्यामश्यामासंग, श्रीहरिवंशचरनशरनं ||

||||

रहत सदा सखि संग, रासरँग रस रसाल उल्लासं |

लीला ललित रसालं, सम सुरतालं वरषत सुखपुंज ||

अतुलित रस वरषत सदा, सुख निधान वन वासि |

अदभुत महिमा महि प्रगट, सुन्दरता की रासि ||

सुन्दरता की रासि, कनक दुति देह रूचि |

वारिज वदन प्रसन्न, हास मृदु रंग शुचि ||

सुभ्रु,सुष्ठु ललाट पट, सुन्दर करनं |

नैन कृपा अवलोकि, प्रणतआरतिहरनं |

सुन्दर ग्रीव उरसि वनमालं, चारु अंश वर, बाहु विशालं |

उदर सु नाभि चारु कटि देशं, चारु जानु शुभ चरन सु वेषं ||

शुभ चरन सु वेष मत्त गज वर गति, पर उपकार देह धरनं |

निज गुन विस्तार अधार अवनि पर, वानी विशद सु विस्तरनं ||

करुनामय परम पुनीत कृपानिधि, रसिकअनन्य सभाभरनं |

जै जग उद्योत व्यासकुलदीपक, श्रीहरिवंश चरन शरनं ||

||||

सारासार विवेकी, प्रेमपुंज अदभुत अनुराग |

हरिजसरसमधुमत्त, सर्व त्यक्त्वा दुस्त्यज कुल कर्म ||

कर्म छाँडि कर्मठ भजे, ज्ञानी ज्ञान विहाइ |

व्रतधारी व्रत तजि भजे, श्रवणादिक चित लाइ ||

श्रवणादिक चित लाइ, जोग जप तप तजे |

औरौ कर्म सकाम, सकल तजि सब भजे ||

साधन विविध प्रयास, ते सकल विहावहीं |

श्रवनकथन सुमिरन, सेवन चित लावहीं ||

अर्चनवंदन अरु दासन्तन, सख्य और आत्मा समर्पन |

ये नवलक्षण भक्ति बढ़ाई, तब तिन प्रेम लक्षणा पाई ||

पाई रसभक्ति गूढ़ जुगजुग जग, दुर्लभ भव इन्द्रादि विधिं |

आगम अरु निगमपुरान अगोचर, सहज माधुरी रुप निधि ||

अनभय आनन्दकंद निजु सम्पति, गुपत सुरीति प्रकट करनं |

जै जग उघोत व्यासकुलदीपक, श्रीहरिवंशचरनशरनं ||

||||

प्रगटित प्रेम प्रकाशं, सकल जंतु शिशरीकृत चितं |

गत कलितिमिर समूहं, निर्मल अकलंक उदित जग चद्रं ||

विशद चन्द्र तारातनय, शीतल किरन प्रकाश |

अमृत सींचत मम ह्रदय, सुखमय आनंदरासि ||

सुखमय आनन्दरासि, सकल जन शोकहर |

समुझि जे आये शरन, ते डरत न कालडर ||

दियौं दान तिन अभय, व्दंव्द दुख सब घटे |

नितनित नवनव प्रेम, कर्मबन्धन कटे ||

कटे कर्मबन्धन संसारी, सुखसागर पूरित अति भारी |

विधिनिषेधश्रृंखला छुडावै, निज आलय वन आनि बसावै ||

आलय वन बसत संग पारस के, आयस कनक समान भयं |

माँगौं मन मनसि दासि अपनी करि, पूरनकाम सदा ह्रदयं ||

सेवक गुननाम आस करि वरनै, अब निजु दासि कृपा करनं |

जै जग उद्योत व्यासकुलदीपक, श्रीहरिवंशचरनशरनं ||

||||

पढतगुनत गुननाम, सदा सत्संगति पावै |

अरु बाढ़ै रसरीति, विमल वानी गुन गावै ||

प्रेम लक्षणा भक्ति, सदा आनन्द हितकारी |

श्रीराधा जुग चरन, प्रीति उपजै अति भारी ||

निजु महल टहल नव कुंज में, नित सेवक सेवा करनं |

निशिदिन समीप संतत रहै सु, श्रीहरिवंशचरनशरनं ||

||इति श्रीहित ध्यान प्रकरण ||

———

[१२]

|| श्रीहित मंगल गान प्रकरण ||
———

||राग सूहौ बिलावत||

||||

जै जै श्रीहरिवंश, व्यासकुलमण्डना |

रसिकअनन्यनि मुख्य गुरु, जन भय खंडना ||

श्रीवृंदावन वास, रासरस भूमि जहाँ |

क्रीडत श्यामाश्याम, पुलिन मंजुल तहाँ ||

पुलिन मंजुल परम पावन, त्रिविध तहँ मारुत बहै |

कुंज भवन विचित्र शोभा, मदन नित सेवत रहै ||

तहाँ संतत व्यासनन्दन, रहत कलुष विहंड़ना |

जै जै श्रीहरिवंश, व्यासकुलमण्डना ||

||||

जैजै श्रीहरिवंशचन्द्र उद्दित सदा |

व्दिजकुलकुमुद प्रकाश, विपुल सुखसम्पदा ||

पर उपकार विचार, सुमति जग विस्तरी |

करुनासिंधु कृपालु, कालभय सब हरी ||

हरी सब कलि काल की भय, कृपा रूप जु वपु धर्यौ |

करत जे अनसहन निंदक, तिनहूँ पै अनुग्रह कर्यौ ||

निरभिमान निर्वैर निरुपम, निष्कलंक जु सर्वदा |

जै जै श्रीहरिवंशचन्र्द उदित सदा ||

||||

जै जै श्रीहरिवंश, प्रसंशित सब दुनी |

सारासार विवेकित, कोविद बहु गुनी ||

गुप्त रीति आचरण, प्रगट सब जग दिये |

ज्ञानधर्मव्रतकर्म, भक्तिकिंकर किये ||

भक्ति हित जे शरण आये, व्दंव्ददोष जु सब घटे |

कमल कर जिन अभय दीने, कर्मबन्धन सब कटे ||

परम सुखद सुशील सुन्दर, पाहि स्वामिनी मम धनी |

जै जै श्रीहरिवंश, प्रसंशित सब दुनी ||

||||

जै जै श्रीहरिवंश, नामगुण गाइ है |

प्रेमलक्षणा भक्ति, सुदृढ़ करी पाइ है ||

अरु बाढ़ै रसरीति, प्रीति चित ना टरै |

जीति विषम संसार, कीरति जग विस्तरै ||

विस्तरै सब जग विमल कीरति, साधुसंगति ना टरै |

बास वृन्दाविपिन पावै, प्यारी श्रीराधिका जू कृपा करै ||

चतुर जुगल किशोर सेवक, दिन प्रसादहिं पाइहै |

जैजै श्रीहरिवंश, नामगुण गाइहै ||

|| इति श्रीहित मंगल गान प्रकरण ||

———

[१३]

|| श्रीहित पाके धर्मी प्रकरण ||
———

||||

साधन विविध सकाम मति सब, स्वारथ सकल सबै जु अनिती

ग्यानध्यानव्रतकर्म जिते सब, काहू में नहि मोहि प्रतिती ||

रसिक अनन्य निशान बजायौ, एक श्यामश्यामा पदप्रीति |

श्रीहरिवंश चरन निजु सेवक, विचले नही छांडी रसरीति ||

||||

श्रीहरिवंश धरम्म प्रगट्ट, निपट्ट्कै ताकी उपमा कौ नाहिंन |

साधन ताकौ सबै नव लक्षण, तच्छिन वेग विचारत जाहि न ||

जो रसरीति सदा अविरुद्ध, प्रसिद्ध विरुद्ध तजत्त क्यौं ताहि न |

जो पै धरम्मी कहावत हौ तौ, धरम्मी धरम्म समुझ्झत काहि न ||

||||

जो पै धरम्मिन सौं नहि प्रीति, प्रतीति प्रमानत आन न आनिबौ ।

एकहि रीति सबन्नि सौं हेत, समीति समेत समान न मानिबौ ||

बात सौं बात मिलै न प्रमान, प्रकृत्ति विरूद्ध जुगत्ति कौ ठानिबौ |

श्रीहरिवंश के नाम न प्रेम, धरम्मीधरम्म समुझ्यौ क्यौ जानिबौ ||

||||

श्रीहरिवंशवचन्न प्रमानि कैं,

शाकत संग सबै जु बिसारत | संसृति मांझ वर्याइकै पायौ जु,

मानुष देह वृथा कत डारत || क्यौं न करत धरम्मिन कौ संग, जानि बूझि कत आन विचारत |

जौ पै धरम्मी मरम्मी हौ तौ, धरम्मिन सौं कत अंतर पारत ||

||||

धरम्मीधरम्म कह्यौ जु करो, तौ धरम्मिन संग बडौ सबतें |

स्वर्ग अपुनर्भव जो नाहि बराबर, तौ सुख मर्त्य कहौ कब तें ||

कहौ काहे प्रमान वचन्न बिसारत, प्रेमी अनन्य भये जबतें |

श्रीहरिवंश कही जु कृपा करि, सांचौ प्रबोध सुन्यौं अब ते ||

||||

श्रीहरिवंश जु कही श्यामश्यामापदकमलसंगी सिर नायौ |

ते न वचन मानत गुरुद्रोही, निशिदिन करत आपुनौ भायौ ||

इत व्यौहार न उत परमारथ, बीचहिंबीच जु जनम गंवायौ |

जो धर्मिनु सौ प्रीति करत नहि, कहा भयौ धर्मी जु कहायौ ||

||||

करौ श्रीहरिवंशउपासक संग, जु प्रीति तरंग सुरंग बह्यौ |

करौ श्रीहरिवंश की रीति सबै, कुललोकविरुद्ध जु जाइ सह्यौ || 

करौ श्रीहरिवंश के नाम सौ प्रीति, जा नामप्रताप धरम्म लह्यौ |

जु धरम्मीधरम्मस्वरुप कह्यौ, बिसरौ जिन श्रीहरिवंश कह्यौ ||

||||

श्रीहरिवंशधरम्म जे जानत, प्रीति की ग्रंथि तिही मिलि खोलत |

श्रीहरिवंशधरम्मिनुमांझ, धरम्मी सुहात धरम्म लै बोलत ||

श्रीहरिवंश धरम्मि कृपा करैं, तासु कृपा रसमादक डोलत |

श्रीहरिवंश की बानीसमुद्र कौ, मीन भयौ जु अगाध कलोलत ||

||||

व्रतसंयमकर्मसुधर्म जिते, सब शुद्ध विरुद्ध पिछानत है |

अपनीअपनी करतूत करैं, रसमादिक शंक न आनत हैं ||

हरिवंशगिरारसरीति प्रसिद्ध, प्रतीति प्रगट्ट प्रमानत हैं |

बलि जाउ अपन्ने धरम्मिनु की, जे धरम्मी धरम्महि जानत हैं ||

||१०||

श्रीहरिवंशधरम्म सुनंत जु, छाती सिरात धरम्मिनु की |

धरम्म सुनंत प्रसन्न ह्वे बोलत, बोलनि मीठी धरम्मिनु की ||

धरम्म सुनंत पुलक्कित रोमनि, हौं बलि प्रेमी धरम्मिनु की |

जु धरम्म सुनाय धरम्महि जाचत, चाहौ कृपा जु धरम्मिनु की ||

||११||

श्रीहरीवंश प्रसिद्ध धर्म, समुझै न अलप तप |

समुझौ श्रीहरिवंश कृपा, सेवहु धर्मिनु जप ||

धर्मी बिनु नहि धर्म, नाहि बिनु धर्म जे धर्मी |

श्रीहरिवंशप्रताप, मर्म जानहि जे मर्मी ||

श्रीहरिवंश नाम धर्मी जु रति, तिन शरण्य संतत रहै |

सेवक निशिदिन धर्मिनु मिलैं, श्रीहरिवंशसुजस कहै ||

|| इती श्रीहित पाकै धर्मी प्रकरण ||

———

[१४]

|| श्रीहित काचे धर्मी प्रकरण ||

———

||||

श्रीहरिवंशधरम्मिन के संग, आगैं हि आगैं जु रीति बखानत |

आपुनौ जानि कहै जु मिलै मन, उत्तर फेरि चवग्गुन ठानत ||

बैठत जाय विधर्मिन में तब, बात धरम्म की एकौं न आनत |

काचे धरम्मिनु के सुनौं छन्द, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||

||||

बातनि जूठनि खान कहै, मुख देत प्रसाद अनूठौइ छाँडत |

ग्रन्थ प्रमानिकैं जो समुझाइयैं, तौ तब क्रोध रार फिर माँडत ||

तच्छिन छाँडि प्रेम की बातहि, फेरि जातिकुलरीति प्रमानत |

काचे धरम्मिनु के सुनौ छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||

||||

धरम्मिनु माँझ प्रसन्न ह्वे बैठत, जाइ विधर्मिनु माँझ उपासत |

लालच लगि जहाँ जैसैं तहाँ तैसैं, सोईसोई तिन मध्य प्रकाशत ||

बादहिं होत कुम्हार कौ कूकर, खाली ह्रदय गुरु रीति न मानत |

काचे धरम्मिनु के सुनौं छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||

||||

नाना तरंग करत्त छिनहिछिन, रोवत रेंट न लार संभारत |

तच्छिन प्रेम जनाइ कहंत जु, मेरी सी रीति काहे अनुसारत ||

तच्छिन झगरि रिसाइ कहंत जु, मेरी बराबर औरनि मानत |

काचे धरम्मिनु के सुनौ छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||

||||

मेरौ सौ प्रेम मेरौ सौ कीर्तन, मेरी सी रीति काहैं न अनुसारत |

मेरौ सो गान मेरौ सो बजाइवो, मेरो सो कृत्य सबै जु बिसारत ||

छांडि मर्जाद गुरून् सौं बोलत, कंचनकाँच बराबर मानत |

काचे धरम्मिनु के सुनौं छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||

||||

देखे जु देखे भलैं जु भलैं तुम, आपुनौं और परायौ न जानत |

हौं जु सदा रसरीति वखानत, मेरी बराबर ठागनि मानत ||

कैसैं धौं पाऊँ तिहारे ह्रदय कौं, आन व्दार कैं मोहि न जानत |

काचे धरम्मिनु के सुनौ छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||

||||

और तरंग सुनौ अति मीठी, सखीनु के नाम परस्पर बोलत |

तच्छिन केश गहंत मुष्टि हनि, साकत शुद्ध बचावत डोलत ||

तच्छिन बोलै तू प्रेत, तू राक्षस, फेरि परस्पर जाति प्रमानत |

काचे धरम्मिनु के सुनौ छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||

||||

जान्यौ धरम्म देखी रसरीति जु, निष्ठुर बोलत वदन प्रकाशित |

ऐसैं न वैसैं रहे मझरैंडव, पाछिलियौ जु करी निरभासित ||

ह्वै हैं फेरि जैसे के तैसे हम, वारे ते आये सन्यासिनु मानत |

काचे धरम्मिनु के सुनौ छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||

||||

एक रिसाने से रूखे से दीखत, पूछत रीति भभुकत धावत |

एक रँगमगे बोलत चालत, मामिलेहु वपुरे जु जनावत ||

एक वदन्न कै साँचीसाँची कहै, चित्त सचाई की एकौ न आनत |

काचे धरम्मिनु के सुनौ छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||

||१०||

एक धरम्म समुज्झे बिनाऽव, गुसाईं के ह्वै जु जगत्र पुजावत |

मूल न मंत्र टटोरा की रीति, धरम्मिनु पूछत वदन दुरावत ||

एक मुलम्मा सौ देत उघारि जु, वल्लभ सौं वल्लभ परमानत |

काचे धरम्मिनु के सुनौं छंद, धरम्मीधरम्म मरम्म न जानत ||

||११||

एक गुरून्न सौं वाद करंत जु, पंडित मानी ह्वै जीभहि एैठत |

एक दरब्ब के जोर बरब्बट, आसन चाँपि सभा मधि बैठत ||

एक जु फेरि रीति उपदेशत, एक बड़े ह्वै न बात प्रमानत |

काचे धरम्मिनु के सुनौं छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||

||१२||

एक धरम्मी अनन्य कहाइ, बड़ाई कौं न्यारी ये बाजी सी माँडत |

और के बाप सौं बाप कहंत, दरब्ब कै काज धरम्महि छाँडत ||

बोलत बोल बटाऊ से लागत, ह्वै गुरु मानी न बात प्रमानत |

काचे धरम्मिनु के सुनौं छन्द, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||

||१३||

परखे सुनहु सुजान, जहाँ कछु और कचाई |

भक्त कहै परसन्न, नतरुता कहैं बुरवाई ||

दिये सराहै सुख रहै, दुख में दिनराती |

खैवे कौं जु सजाति, खरच कौं होत विजाती ||

||१४||

लै उपदेश कहाइ अनन्य, अन्हाइ अनर्पित जाइ गटक्कत |

आश करै विषयीन के आगे जु, देखे में जोरत हाथ लटक्कत ||

केतिक आयु कितेक सौ जीवन, काहे विनासत काज हटक्कत |

श्रीहरिवंशधरम्मिनु छाँड़िकैं, घरघर काहे फिरत भटक्कत ||

||१५||

साकतसंग अगिन्नलपट्ट, लपट्ट जरत्त क्यौं संगत कीजै |

साधु सुबुद्धि समान सु संतनि, जानिके शीतल संगति कीजै ||

एक जु काचे प्रकृति विरुद्ध, प्रकृति विरुद्ध करै तौं कहा कीजै |

जे आग कैं दाझे गये भजि पानी में, पानी में आग लगै तौं कहा कीजै ||

||१६||

प्रीति भंग वरनत रस रीतहि, श्रीहरिवंशवचन बिसरावहु |

आपआपनी ठौर जहाँ तहाँ, करि विरुद्ध सबपै निदरावहु ||

एक संसार दुष्ट की संगति, ताहू में तुम पुष्ट करावहु |

विनती करहु सकल धर्मिनु सौं, धर्मी ह्वै जिन नाम धरावहु ||

||१७||

स्वारथ सकल तजि गुरुचरननि भजि, गुननामसुनि कथि संतनि सौं संग करि |

कालव्याल मुख परयौ कफबातपित्त भरयौ, भ्रम्यौ कत, अनन्य कहे की जिय लाज धरि ||

सेवक निकट रसरीति प्रीति मन धरि, हित हरिवंश कुलकानि सब परिहरि |

काचे रसिकनि सौं विनती करत ऐसी, गोविन्ददुहाई भाई ! जो न सेवौं श्यामाहरि ||

||१८||

प्रगटित श्रीहरिवंश सूर, दुन्दुभि बजाइ बल |

मदनमोहमद मलित, निदरि निर्दलित दम्भदल ||

भ्रर्म भग्य भयभीत, गर्व दुर्जन रज खण्डन |

लोभक्रोध कलीकपट, प्रबल पाखंड विहंडन ||

तृष्नाप्रपंचमत्सरविसन, सर्व दण्ड निर्बल करैं |

शुभअशुभदुर्गविध्वंश बल, तब जयतिजयति जग उच्चरैं ||

||इती श्रीहित काचे धर्मी प्रकरण ||

———

[१५]

|| श्रीहित अलभ्य लाभ प्रकरण ||
———

<

||||

हरिवंश नाम है जहाँ तहाँतहाँ उदारता, सकामता तहाँ नहीं कृपालुता विशेषिये |

हरिवंश नाम लीन जे अजातशत्रु ते सदा, प्रपंचदंभ आदि दै तहाँ कछू न पेखिये ||

हरिवंश नाम जे कहै अनन्त सुक्ख ते लहैं, दुराप्य प्रेम की दशा तहाँ प्रत्यक्श देखिये |

सोई अनन्य साधु सो जगत्र पूजिये सदा, सु धन्यधन्य विश्व में जनम्म सत्य लेखिये ||

||||

श्रीव्यसनन्द नाम कौ अलभ्य लाभ जानियैं |

हरिवंशचन्द्र जो कही सु चित ह्वै सबै लही, वचन्न चारु माधुरी सु प्रेम सौं पिछानिये |

सुने प्रपन्न जे भये अभद्र सर्व के गये, तिन्है मिले प्रसन्न ह्वै न जाति भेद मानिये ||

सु भाग लागि पाइहै, प्रशंसि कण्ठ लाइहै, सिराइ नैन देखिकै अभेद बुद्धि आनिये |

कृपालु ह्वै सु भाखिहैं, धरम्म पुष्ट राखिहैं, श्रीव्यासनन्द नाम कौ अलभ्य लाभ जानिये ||

||||

हरिवंश नाम सर्व सार छाँड़ि लेत बहुत भार, राज विभौं देखिकैं विषय विषम्म भोवहीं |

जोरू होत साधुसंग आनी करत प्रीति भंग, मान काज राजसीनु के जु मुक्ख जोवहीं ||

जहाँ तहाँ अन्न खात सखी कहत आपु गात, सकल घौंस व्दंव्द जात रात सर्व सोवहीं |

प्रसिद्ध व्यासनन्दनाम जान बुझि छोड़हीं, प्रमाद तें लिये बिना जनम्म बाद खोवहीं ||

||||

हरिवंशनामहीन खीन दीन देखिये सदा, कहा भयौ बहुज्ञ ह्वै पुरानवेद पढ़्ढहीं |

कहा भयौ भये प्रवीन जानि मानिये जगत्र, लोक रिझि शोभ कौं बनाइ बात गढ़्ढहीं ||

कहा भयौ किये करम्म यज्ञदान देतदेत, फलनि पाइ उच्चउच्च देवलोक चढ़्ढहीं |

परयौ प्रवाह काल कैं कदापि छूटिहै नहीं, श्रीव्यासनन्दनाम जो प्रतीति सौं न रट्टहीं ||

|| इती श्रीहित अलभ्य लाभ प्रकरण ||

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[१६]

|| श्रीहित मान सिद्धान्त प्रकरण ||
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||||

वानी श्रीहरिवंश की, सुनहु रसिक चित लाइ |

जिहि विधि भयौ अबोलनौ, सो सब कहौं समुझाइ ||

||||

श्रीहरिवंश जु कथि कही, सोरु सुनाऊँ गाइ |

वानी श्रीहरिवंश की, नित मन रही समाइ ||

||||

श्रीहरिवंश अबोलनौ, प्रगट प्रेम रस सार |

अपनी बुध्दि न कछु कहौं, सो वानी उच्चार ||

||||

हित हरिवंश जु क्रीडहिं, दंपति रससमतूल |

सहज समीप अबोलनौ, करत जु आनँद मूल ||

||||

काहे कौं डारत भामिनी, हौं जु कहत इक बात |

नैंक वदन सन्मुख करौ, छिनछिन कलप सिरात ||

||||

वे चितवत तव चन्द वदन तन, तू निजु चरन निहारत |

वे मृदु चिवुक प्रलोवहीं, तू कर सौं कर टारत ||

||||

वचन अधीन सदा रहैं, रूपसमुद्र अगाध |

प्राण रवन सौं कत करत, बिनु आगस अपराध ||

||||

चितयौ कृपा करि भामिनी, लीने कंठ लगाइ |

सुखसागर पूरित भये, देखत हियौ सिराइ ||

||||

सेवक शरन सदा रहै, अनत नहीं विश्राम |

कै वानी हरिवंश की, कै हरिवंशहिं नाम ||

|| इति श्रीहित मान सिद्धान्त प्रकरण ||
||
श्रीदामोदरदासजी सेवकजी महाराज कृत सेवक वाणी समाप्त ||

|| श्रीसेवकवानीफलस्तुति||

जयतिजयति हरिवंश, नामरति सेवकवानी|

परम प्रीती रसरीति, रहसि कलि प्रगट वखानी ||

प्रेमसम्पतिधाम, सुखद विश्राम धरम्मिन |

भनतगुनत गुन गूढ़, भक्त भ्रम भजत करम्मिन ||

श्रीव्यासनंदअरविन्दचरण मद, तासु रंग रस राचही |

जैश्रीकृष्णदास हित हेत सौं, जे सेवकवानी बाचही ||

सेवक दरसायौ प्रगट, हितमग सब सुख सार |

चलैं तिही अनुकूल जे, पावैं नित्याबिहार ||

सेवै श्रीहरिवंशपद, सेवक सो ही मानि |

और कहै औरहिं भजै, सो विभचारी जानि ||

सेवकगिरा प्रमाण करि, सेवै व्यासकुमार |

सेवक सोई जानिये, और सकल व्यभिचार ||

सेवक कही सोई करैं, परसैं नहिं कछू आन |

सेवक सोई जानिये, रसिकअनन्य सुजान ||

|| इति फलस्तुति ||