Shri Sevak Vani
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[१]
|| श्रीहित जस विलास प्रकरण ||
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{त्रिपदी छंद}
||१||
श्री हरिवंश–चन्द्र शुभ नाम | सब सुख–सिंधु प्रेम रस धाम ||
याम घटी बिसरै नहीं ||
यह जु परयौ मोहि सहज सुभाव | श्रीहरिवंश नाम रस चाव ||
नाव सुद्रढ़ भव तरन कौं ||
नाम रटत आई सब सोहि | देहु सुबुद्धि कृपा कर मोहि ||
पोहि सु गुन माला रचौं ||
नित्य सुकंठ जु पहिरौं तासु | जस वरनौ हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||
||२||
श्रीवृन्दावन वैभव जिती | वरनत बुद्धि प्रमानौं किती ||
तिती सबै हरिवंश की ||
सखी–सखा क्यों कहौं निवेरि| तौ मेरे मन की अवसेरि ||
टेरि सकल प्रभुता कहौं ||
हरि–हरिवंश भेद नहि होय | प्रभु ईश्वर जानै सब कोइ ||
दोइ कहै न अनन्यता ||
विश्वंभर सब जग आभास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||
||३||
जन्म–कर्म गुण रूप अपार | बाढ़ै कथा कहत विस्तार ||
बार–बार सुमिरन करौ ||
हौं लघु मति जु अंत नही लहौ | बुद्धि प्रमान कछू कथि कहौं ||
रहौ शरण हरिवंश की ||
सोधौं कहि मोहि केतिक मती | जस बरनत हारैं सरस्वती ||
तिती सबै हरिवंश की ||
देहु कृपा करी बुद्धि प्रकास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||
||४||
कलियुग कठिन वेद–विधि रही | धर्म कहूँ नहिं दीसत सही ||
कही भली कोउ ना करै ||
उदवस विश्व भयौ सब देश | धर्म रहित मेदिनी–नरेश ||
म्लेच्छ सकल पुहुमी बढ़े ||
सब जन करहिं आधुनिक धर्म | वेद–विहित जानहिं नहिं कर्म ||
मर्म भक्ति कौ क्यों लहै ||
बूडत भव आवै न उसास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||
||५||
धर्म–रहित जानी सब दुनी | म्लेच्छनि भार दुखित मेदिनी ||
धनी और दूजौ नहीं ||
करी कृपा मन कियौ विचार | श्रुति–पथ–विमुख दुखित संसार ||
सार वेद–विधि उद्धरी ||
सब अवतार भक्ति विस्तरी | पुनि रसरीति जगत उद्धरी ||
करयौ धर्म अपनौ प्रगट ||
प्रगटे जानि धर्म कौ नास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||
||६||
मथुरा मंडल भूमि आपुनी | जहाँ बाद प्रगटे जग धनी ||
भनी अवनि वर आप मुख ||
शुभ बासर शुभ रुक्ष विचारि |माधव मास ग्यास उजियारि ||
नारिनु मंगल गाइयौ ||
तच्छिन देव दुंदुभी बाजिये | जै–जै शब्द सुरनि मिलि किये ||
हिये सिराने सबनि के ||
तारा जननि जनक रिषि व्यास || जस वरनौ हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||
||७||
श्रीभागवत् जु शुक उच्चरी | तैसी विधि जु व्यास विस्तरी ||
करी नंद जैसी हुती ||
घर–घर तोरन वन्दनवार | घर–घर प्रति चित्रहिं दरबार ||
घर–घर पंच शब्द बाजिये ||
घर–घर दान प्रतिग्रह होइ | घर–घर प्रति निर्तत सब कोइ ||
घर–घर मंगल गावही ||
घर–घर प्रति अति होत हुलास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||
||८||
निर्जल सजल सरोवर भये | उखटे वृक्षनि पल्लव नये ||
दये सकल सुख सबनि कौ ||
असन सयन सुख नित–नित नये | अन्न सुकाल चहूँ दिशि भये ||
गये अशुभ सब विश्व के ||
मलेच्छ सकल हरि–जस विस्तरहिं | परम ललित वानी उच्चरहिं ||
करहिं प्रजा पालन सबै ||
अपनी–अपनी रूचि बस वास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||
||९||
चलहिं सकल जन अपने धर्म | ब्राह्मण सकल करहि षट कर्म ||
भर्म सबनि कौ भाजियौ ||
छूटी गई कलियुग की रीति | नित–नित नव–नव होत समीति ||
प्रीति परस्पर अति बढ़ी ||
प्रगट होत ऐसी विधि भई | सब भव जनित आपदा गई ||
नई–नई रूचि अति बढ़ी ||
सब जन करहि धर्म अभ्यास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौ ||
||१०||
बाल विनोद न बरनत बनहि | अपनौ सौ उपदेशत मनहि ||
गनहि कवन लीला जिती ||
सब हरि–सम गुण–रूप अपार | महापुरुष प्रगटे संसार ||
मार विमोहन तन धरयौ ||
छिन न तृपित शुभ दर्शन आस | दुलरावत बोलत मृदु हास ||
व्यास मिश्र कौ लाडिलौ ||
मुदित सकल नहि छाँडत पास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||
||११||
अब उपदेश भक्ति कौ कह्यौ | जैसी विधि जाकै चित रह्यौ ||
लह्यौ जु मन वांछित सफल ||
सब हरि–भक्ति कही समुझाइ | जैसी–जैसी जाहि सुहाइ ||
आइ सकल चरननि भजे ||
साधन सकल कहे अविरुद्ध | वेद–पुरान सु आगम शुद्ध ||
बुद्धि विवेक जे जानही ||
समुझ्यौ सबनि सु भक्ति उजास | जस वरनौ हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||
||१२||
अब अवतार भेद तिन कहे | सकल उपासक तिन मन रहे ||
कहे भक्ति–साधन सबै ||
मथुरा नित्य कृष्ण कौ वास | निशि–दिन श्याम न छाँडत पास ||
तासु सकल लीला कही ||
कही सबनि की एकै रीति | श्रवन–कथन–सुमिरन परतीति ||
बीति काल सब जाइयौ ||
उपज्यौ सबनि सुद्दढ विश्वास | जस वरनौ हरिवंश–विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||
||१३||
अब जु कही सब व्रज की रीति | जैसी सबनि नंद–सुत प्रीति ||
कीर्ति सकल जग विस्तरी ||
बाल चरित्र प्रेम की नींव | कहत–सुनत सब सुख की सींव ||
जीवन ब्रजवासिनु सफल ||
ब्रज की रीति सु अगम अपार | विस्तरि कही सकल संसार ||
कारज सबहिनु के भये ||
ब्रज की प्रीति–रीति अनियास | जस वरनौं हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||
||१४||
जिहिं विधि सकल भक्ति अनुसार | तैसी विधि सब कियौ विचार ||
सारासार विवेकि कैं ||
अब निजु धर्म आपुनौं कहत | तहाँ नित्य वृन्दावन रहत ||
बहत प्रेम–सागर जहाँ ||
साधन सकल भक्ति जा तनौ | निजु–वैभव प्रगटत आपुनौ ||
भनौं एक रसना कहा ||
श्रीराधा युग चरन निवास | जस वरनौं हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौ ||
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[२]
|| श्रीहित रस विलास प्रकरण ||
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[त्रिपदी छंद]
||१||
श्रीहरिवंश नित्य वर केलि | बाढत सरस प्रेम–रस–बेलि ||
मेलि कंठ भुज खेलहीं ||
बनितन–गन मन अधिक सिरात | निरखि–निरखि लोचन न अघात ||
गात गौर–साँवल बने ||
जूथ–जूथ जुवतिनु के घने | मध्य किशोर–किशोरी बने ||
गनै कवन रति–अति बढ़ी ||
नित–नित लीला,नित–नित रास | सुनहु रसिक हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||
||२||
लता भवन सुख शीतल छहाँ | श्रीहरिवंश रहत नित जहाँ ||
तहाँ न वैभव आन की ||
जब–जब होत धर्म की हानि | तब–तब तन धरि प्रगटत आनि ||
जानि और दूजौ नहीं ||
जो रसरीति सबनि ते दूरी | सो सब विश्व रही भरपूरि ||
मूरि सजीवन कहि दई ||
सब जन मुदित करत मन हास | सुनहु रसिक हरिवंश–विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||
||३||
ललितादिक श्यामा अरु श्याम | श्रीहरिवंश प्रेम रस धाम ||
नाम प्रगट जग जानिये ||
श्रीहरिवंश–जनित जहाँ प्रेम | तहाँ कहाँ व्रत संयम नेम ||
क्षेम सकल, सुख–सम्पदा ||
तहाँ जाति–कुल नहीं विचार | कौन सु उत्तम,कौन गँवार ||
सार भजन हरिवंश कौ ||
या रस मगन मिटै भव–त्रास | सुनहु रसिक हरिवंश–विलास ||
श्रीहरिवंशहि गाइहौं ||
||४||
श्रीहरिवंश सुजस गाइयौ | सो रस सब रसिकनि पाइयौ ||
कियौ सुकृत सबकौ फल्यौ ||
या रस में विधि नहीं निषेध | तहाँ न लगन ग्रहण के वेध ||
तहाँ कुदीन–दिन कछु नहीं ||
नहिं शुभ–अशुभ, मान–अपमान | नहिं अनृत–भ्रम– कपट–सयान ||
स्नान–क्रिया, जप–तप नहीं ||
ज्ञान–ध्यान तहाँ सकल प्रयास | सुनहु रसिक हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहिं गाइहौं ||
||५||
जहाँ हरिवंश प्रेम–उन्माद | तहाँ कहाँ स्वारथ निस्वाद ||
वाद–विवाद तहाँ नहीं ||
जे हरिवंश–नाद मोहिये | तिन फिर बहुरि न कुल–कर्म किये ||
जिये काल बस ना परे ||
कुल बिनु कहौ कौन सौ चाक | सहज प्रेम–रस साँचे पाक ||
रंक–ईश समुझत नहीं ||
विप्र न शुद्र कौन कुल कास | सुनहु रसिक हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहिं गाइहौं ||
||६||
या रस–विमुख करत आचार | प्रेम बिना जु सबै कृत आर ||
भार धरत कत विप्र कौ ||
श्रीहरिवंश किशोर अहीर | अरु तिन संग बनितन की भीर ||
तीर जमुन नित खेलहीं ||
तिनकी दई जु जूठन खात | आचारी निज कहत खिस्यात ||
बात यहै साँची सदा ||
श्रीहरिवंश कहत नित जास | सुनहु रसिक हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहिं गाइहौ ||
||७||
निशि दिन कहत पुकारि–पुकारि | अस्तुति करहु देहु कोउ गारि ||
हारि न अपनी मानिहौ ||
श्रीहरिवंश चरण नहिं तजौं | अरु तिनके भजतनि कौ भजौं ||
लजौं नहीं अति निडर ह्वै ||
श्रीहरिवंश नाम–बल लहौं | अपने मन भाई सब कहौं ||
रहौं शरण हरिवंश की ||
कहत न बनत प्रेम उज्जास | सुनहु रसिक हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहिं गाइहौं ||
||८||
जे हरिवंश प्रेम–रस झिले | क्यों सोहैं लोगन में मिले ||
गिल्यौ–काल जग देखिये ||
कर्म सकाम न कबहूँ करै | स्वर्ग न इच्छै, नर्क न डरै ||
धरै धर्म हरिवंश कौ ||
श्रीहरिवंश–धर्म निर्वहैं | श्रीहरिवंश प्रेम–रस लहै ||
ते सब श्रीहरिवंश के ||
सेवक तिन दासनि कौ दास | सुनहु रसिक हरिवंश विलास ||
श्रीहरिवंशहिं गाइहौ ||
———
[३]
|| श्रीहित नाम प्रताप प्रकरण ||
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[त्रिपदी छंद]
||१||
श्रीहरिवंश नाम नित कहौं | नाम प्रताप नाम–फल लहौ ||
नाम हमारी गति सदा ||
जे सेवैं हरिवंश सु नाम | पावैं तिन चरननि विश्राम ||
नाम रटन संतत करैं ||
नाम प्रसंग कहत उपदेश | जहां यह धर्म धन्य सो देश ||
धन्य सु कुल जिहिं जन्म भयौ ||
धन्य सु तात धन्य सो माइ | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||
श्रीहरिवंश प्रताप जस ||
||२||
प्रथम हदय श्रध्दा जो करै | आचारजनि जाइ अनुसरै ||
जहाँ–जहाँ हरिवंश के ||
रसिकनि की सेवा जब होइ | प्रीति सहित बूझहु सब कोइ ||
कौन धर्म हरिवंश कौं ||
कौन सुरीति कौन आचरन | कौन सुकृत जिहिं पावै शरन ||
क्यों हरिवंश कृपा करै ||
तब–सब धर्म कह्यौ समुझाइ | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||
श्रीहरिवंश प्रताप जस ||
||३||
प्रथमहि सेवहु गुरु के चरन | जिन यह धर्म कह्यौ सब करन ||
नाम प्रताप बताइयौ ||
जो हरिवंश नाम अनुसरहु | निशि–दिन गुरु कौ सेवन करहु ||
सकल समर्पन प्राण धन ||
गुरु–सेवा तजि करहिं जे बानि | यहै अधर्म यहै सब हानि ||
कानि न रसिकनि में रहै ||
गुरु–गोविन्द न भेद कराय | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||
श्रीहरिवंश प्रताप जस ||
||४||
गुरु–उपदेश सुनहु सब धर्म | श्रीहरिवंश नाम फल मर्म ||
भर्म भग्यो वचननि सुनत ||
शुक–मुख–वचन जु श्रवन सुनावहु | तब श्रीहरिवंश सु नाम कहावहु ||
मन सुमिरन बिसरै नहीं ||
हरि–गुरु–चरन–सेवा अनुसरहू | अर्चन–वंदन संतत करहु ||
दासंतन करि सुख लहौ ||
सख्य समर्पन भक्ति बढ़ाइ | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||
श्रीहरिवंश प्रताप जस ||
||५||
गुरु–उपदेश चलहु इहिं चाल | ऐसी भक्ति करहि बहु काल ||
ये नव लक्षण भक्ति के ||
यह हरि–भक्ति करै जब कोई | तब श्रीहरिवंश–नाम–रति होई ||
यह जु बहुत हरि की कृपा ||
हरि–हरिवंश भेद नहिं करै | श्रीहरिवंश नाम उच्चरै ||
छिन–छिन प्रति बिसरै नहीं ||
प्रीति सहित यह नाम कहाइ | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||
श्रीहरिवंश प्रताप जस ||
||६||
गुरु–उपदेश चलहु इहिं रीति | श्रीहरिवंश नाम–पद–प्रीति ||
प्रेम–मूल यह नाम हैं ||
प्रेमी रसिक जपत यह नाम | प्रेम मगन निज वन विश्राम ||
श्रीहरिवंश जहाँ रहैं ||
प्रेम प्रवाह परैं जन सौइ | तब क्यों लोक–वेद सुधि होइ ||
जब श्रीहरिवंश कृपा करी ||
व्रत–संयम तब कौन कराय | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||
श्रीहरिवंश प्रताप जस ||
||७||
जब यह नाम ह्रदय आइहै | तब सब सुख–सम्पति पाइहै ||
श्रीहरिवंश सुजस कहै ||
अरु अपनी प्रभुता नहिं सहैं | तृण तें नीच अपुनपौ कहैं ||
शुभ अरु अशुभ न जानहीं ||
समुझै नहीं कछू कुल–कर्म | सूधौ चले आपने धर्म ||
रसिकनि सौं प्रीतम कहै ||
कबहूँ काल वृथा नहिं जाइ | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||
श्रीहरिवंश प्रताप जस ||
||८||
जब हरिवंश नाम जानि हैं | तब सबही ते लघु मानि हैं ||
हँसि बोलै बहु मान दै ||
तरु सम सहनशीलता होइ | परम उदार कहैं सब कोइ ||
सोच न मन कबहूँ करै ||
श्रीहरिवंश सुजस मन रहै | कोमल वचन–रचन मुख कहै ||
परम सुखद सबकौ सदा ||
दुखद वचन कबहूँ न कहाइ | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||
श्रीहरिवंश प्रताप जस ||
||९||
प्रगट धर्म जैसैं जानियैं | श्रीहरिवंश नाम जा हियैं ||
नाम सिद्धि पहिचानियैं ||
श्रीहरिवंश नाम सब सिद्धि | सबै रसिक विलसै नव–निद्धि ||
भूगतै दैहि न जाँचहीं ||
पोषण भरण न चिंत कराहिं | श्रीहरिवंश विभव;विलसाहिं ||
श्रीवृन्दावन की माधुरी ||
गुन गावत जु रसिक सचु पाइ | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||
श्रीहरिवंश प्रताप जस ||
||१०||
श्रीहरिवंश धर्म जे धरहिं | श्री हरिवंश–नाम उच्चरहिं ||
ते सब श्रीहरिवंश के ||
श्रवण सुनहिं जे श्रीहरिवंश | मुख वरनत वाणी हरिवंश ||
मन सुमिरन हरिवंश कौं ||
ऐसे रसिक कृपा जो करै | तौ हम से सेवक निस्तरैं ||
जूठनि लै पावैं सदा ||
सेवक शरण रहैं गुण गाइ | संतत सकल सुनहु चित लाइ ||
श्रीहरिवंश प्रताप जस ||
|| इति श्रीहित नाम प्रताप प्रकरण ||
———–
||४||
|| श्रीहित वाणी प्रताप प्रकरण ||
———-
||१||
समुझौ श्रीहरिवंश सु वानी | रसद मनोहर सब जग जानी ||
कोमल मधुर ललित पद–श्रेनी | रसिकन कौं जु परम सुख दैनी ||
श्रीहरिवंश नाम उच्चारा | नित्यबिहार रस कह्यौ अपारा ||
श्रीवृन्दावन भूमि वखानौं | श्रीहरिवंश कहे तें जानौं ||
श्रीहरिवंश–गिरा रस सूधी | कछु नहीं कहौं आपनी बूधि ||
श्रीहरिवंश–कृपा मति पाॐ | तब रसिकनि कौं गाइ सुनाऊँ ||
||२||
श्रीहरिवंश जु श्रीमुख भाखी | सो वन भूमि चित्त में राखी ||
हौं लधु मति नहीं लहौं प्रमाना | जानत श्रीहरिवंश सुजाना ||
नव पल्लव फल–फूल अनंता | सदा रहत रितु शरद–बसंता ||
श्रीवृन्दावन सुन्दरताई | श्री हरिवंश नित्यप्रति गाई ||
||३||
श्रीवृन्दावन नव–नव कुंज | श्रीहरिवंश प्रेम रस पुंज ||
श्रीहरिवंश करत नित केली | छिन–छिन प्रति नव–नव रस झेली ||
कबहुँक निर्मित तरल हिंडोला | झूलत–फूलत करत कलोला ||
कबहुँक नव–दल सेज रचावहिं | श्रीहरिवंश सुरत–रति गावहिं ||
||४||
सुरत अन्त छबि वरनि न जाई | छिन–छिन प्रति हरिवंश जु गाई ||
आजु सँभारत नाहिन गोरी | अंग–अंग छवि कहौं सु थोरी ||
नैंन–बैंन–भूषन जिहिं भाँती | सो छबि मोपै वरनी न जाती ||
प्रेम–प्रीति रसरीति बढ़ाई | श्रीहरिवंश वचन सुखदाई ||
||५||
वंश बजाइ विमोहित नारी | बोलीं संग सु नित्यबिहारी ||
परिरम्भन चुंबन रस केली | विहरत कुँवरि कंठ भुज मेली ||
सुन्दर रास रच्यौ वन माँही | जमुना–पुलिन कल्पतरु छाँही ||
रास रंग रति वरनि न जाई | नित–नित श्रीहरिवंश जु गाई ||
||६||
श्रीहरिवंश प्रेम रस गाना | रसिक विमोहित परम सुजाना ||
अंशनि पर भुज दिये विलोकत | तृपित न सुन्दर मुख अवलोकत ||
इन्दु–वदन दीसत विवि ओरा | चारु सु लोचन तृषित चकोरा ||
करत पान रस–मत्त सदाई | श्रीहरिवंश प्रेम–रति गाई ||
||७||
श्रीहरिवंश सु रीति सुनाऊँ | श्यामा–श्याम एक सँग गाऊँ ||
छिन इक कबहुँ न अन्तर होई | प्राण सु एक देह हैं दोई ||
राधा संग बिना नहीं श्याम | श्याम बिना नहीं राधा–नाम ||
छिन–छिन प्रति आराधत रहहीं | राधा नाम श्याम तब कहहीं ||
ललितादिकनि संग सचु पावैं | श्रीहरिवंश सुरत–रति गावैं ||
||८||
श्रीहरिवंश गिरा जस गायैं | श्रीहरिवंश रहत सचु पायैं ||
श्रीहरिवंश नाम परसंगा | श्रीहरिवंश–गान इक संगा ||
मन–क्रम–वचन कहौं नित टेरैं | श्रीहरिवंश प्राण धन मेरैं ||
सेवक श्रीहरिवंशहि गावै | श्रीहरिवंश नाम रति पावैं ||
||१||
जयति जगदीश जस जगमत जगतगुरु, जगत वन्दित सु हरिवंश–वानी |
मधुर कोमल सु पद प्रीति आनन्द रस, प्रेम विस्तरित हरिवंश–वानी ||
रसिक रस–मत्त श्रुति सुनत पीवन्त रस, रसनि गावन्त हरिवंश–वानी |
कहत हरिवंश हरिवंश हरिवंश हित, जपत हरिवंश हरिवंश–वानी ||
||२||
कही नित केलि रस खेल वृन्दाविपिन, कुंज तैं कुंज डोलनि वखानी |
पट न परसंत निकसंत वीथिनु सघन, प्रेम विह्वल सु नहि देह मानी ||
मगन जित जित चलत छिन सु डगमग मिलत, पंथ वन देत अति हेत जानी |
रसिक हित परम आनन्द अवलोकि तन, सरस विस्तरित हरिवंश वानी ||
||३||
वंश रस नाद मोहित सकल सुन्दरी, आनि रति मानी कुल छाँडि कानी |
बाहु परिरम्भ नीवी उरज परसि हँसी, उमगि रतिपति रमित रीति जानी ||
जूथ जुवतिनु खचित रासमंडल रचित, गान गुन निर्त आनन्द दानी |
तत्त–थेई–थेई करत गतिव नौतन धरत, रास रस रचित हरिवंश वानी ||
||४||
रास रस रचित वाणी सु प्रगटित जगत, शुद्ध अबिरुद्ध परसिद्ध जानी |
श्याम–श्यामा प्रगट, प्रगट अक्षर निकट, प्रगट रस श्रवत अति मधुर वानी ||
सो जु वानी रसिक नित्य निशि–दिन रटत, कहत अरु सुनत रसरीति जानी |
ताहि तजि और गाऊँ न कबहूँ कछू, प्राण रमी रही हरिवंश वानी ||
||५||
भाग–अनभाग जानत जु नहिं आपुनौं, कौंन घौं लाभ अरु कौंन हानी |
प्रगट निधि छाँडी कत फिरत रुँका करत, भरम भटकत सु नहिं भूलि जानी ||
प्रीति बिनु रीति रुखी जु लागत सकल, जुगति करी होत कत कवित–मानी |
रसिक जो सघ्य चाहत जु रसरीति फल, तौं कहु अरु सुनहु हरिवंश–वानी ||
||६||
यहै नित केलि येई जु नाइक निपुन, यहै वन भूमि नित–नित वखानी |
बहुत रचना करत राग–रागिनी धरत, तान बंधान सब ठाँनि आनी ||
ज्यौं मुंद नहिं मिलत टकसार तैं बाहिरी, लाख में गैर मुहरी जु जानी |
यौ जु रसरीति वरनत न ठाँई मिलत, जो न उच्चरत हरिवंश–वानी ||
||७||
रसिक बिनु कहै सबही जु मानत बुरौं, रसिकई कहौं कैसे जु जानी |
आपुनी–आपुनी ठौर जेई तहां, आपुनी बुद्धि कैं होत मानी ||
निपट करी रसिक जो होहु तेंसी कहौं, अब जु यह सुनहु मेंरी कहानी |
जौरू तुम रसिक रसरीति के चाडिलें, तौरू मन देहु हरिवंश–वानी ||
||८||
वेद विधा पढ़त कर्म–धर्मनि करत, जल्प तन कल्प की अवधि आनी |
चारु गति छाँडि संसार भटकत भ्रमत, आस की पाशि नहिं तोरि जानी ||
सकल स्वारथ करत रहत जन्मत–मरत, दुःख अरु सुःख के होत मानी |
छाँडि जंजार कैसैं न निश्चय धरत, एक किन रमत हरिवंश–वानी ||
||९||
वृथा बलगन करत घौस खोवत सकल, सोवतन रात नहिं जात जानी |
ऐसी ही भाँति समुझ्यौ न कबहूँ कछू, कौन सुख–दुख को लाभ–हानी ||
तब सुःख हरिवंश गुन नाम रसना रटत, और बहु वचन अति दुःख दानी |
हानि हरिवंश के नाम अन्तर परे, लाभ हरिवंश उच्चरत वानी ||
||१०||
नाम–वानी निकट श्याम–श्यामा प्रगट, रहत निशि–दिन परम प्रीति जानी |
नाम–वानी सुनत श्याम–श्यामा सु बस, रसद माधुर्य अति प्रेम–दानी ||
नाम–वानी जहाँ–श्याम–श्यामा तहाँ, सुनत गावंत मो मन जु मानी |
बलित शुभ नाम बलि विशद कीरति जगत, हौं जु बलि जाऊं हरिवंश–वानी ||
||११||
बलि–बलि श्रीहरिवंश नाम, बलि–बलित विमल जस |
बलि–बलि श्रीहरिवंश, कर्म व्रत कृत सु नाम बस ||
बलि–बलि श्रीहरिवंश वरन, धर्मनि गति जानत |
बलि–बलि श्रीहरिवंश नाम, कली प्रगट प्रमानत ||
हरिवंश नाम सु प्रताप बलि, बलित जगत कीरति विशद |
हरिवंश विमल वानी सु बलि, मृदु कमनीय सु मधुर पद ||
|| इति श्रीहित वाणी प्रताप प्रकरण ||
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[५]
|| श्रीहित इष्टाराधन प्रकरण ||
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[१]
प्रथम प्रणम्य सुरम्य मति, मन–बुध्धि–चित्त प्रसंश |
चरन–शरन सेवक सदा, सुजय–जय श्रीहरिवंश ||
श्रीहरिवंश विपुल गुण मिष्टं, श्रीहरिवंश उपासक इष्टं |
श्रीहरिवंश कृपा मति पाऊँ, श्रीहरिवंश विमल गुण गाऊँ ||
गाऊँ हरिवंश नाम जस निर्मल, श्रीहरिवंश रमित प्रानं |
कारज हरिवंश प्रताप सु उद्दित, कारन श्रीहरिवंश भनं ||
विध्या हरिवंश मंत्र चतुरक्षर, जपत सिद्धि भव उद्धरनं |
जै जै हरिवंश जगत मंगल पर श्रीहरिवंश–चरन–शरनं ||
||२||
हरिरिति अक्षर बीज रिषि, वंशी शक्ति सु अंश |
नख–शिख सुन्दर ध्यान धरी, जै–जै श्रीहरिवंश ||
श्रीहरिवंश सु सुन्दर ध्यानं, श्रीहरिवंश विशद विज्ञानं |
श्रीहरिवंश नाम–गुन–श्रुपं, श्रीहरिवंश प्रेम–रस रूपं ||
रसमय हरिवंश परम परमाक्षर, श्रीहरिवंश कृपा–सदनं |
आत्मा हरिवंश प्रगट परमानँद, श्रीहरिवंश प्रमान मनं ||
जीवन हरिवंश विपुल सुख सम्पति, श्री हरिवंश बलित बरनं |
जै–जै हरिवंश जगत मंगल पर, श्रीहरिवंश चरन–शरनं ||
||३||
शरन निरापक पद रमित, सकल अशुभ–शुभ नंश |
देत सहज निश्चल भगति, जै–जै श्रीहरिवंश ||
श्रीहरिवंश मुदित मन लोभं, श्रीहरिवंश वचन वर शोभं |
श्रीहरिवंश काय–कृत कारं, श्रीहरिवंश त्रिशुद्ध विचारं ||
पूजा हरिवंश नाम परमारथ, श्रीहरिवंश विवेक परं |
धीरज हरिवंश विरद बल बीरज, श्रीहरिवंश अभद्र हरं ||
तृस्णा हरिवंश सुजस रस लम्पट, श्रीहरिवंश कर्म करनं |
जै–जै हरिवंश जगत मंगल पर, श्रीहरिवंश चरन शरनं ||
||४||
श्रीहरिवंश सुगोत कुल, देव जाति हरिवंश |
श्रीहरिवंश स्वरूप हित, रिद्धि–सिद्धि हरिवंश ||
श्रीहरिवंश विदित विधि वेदं, श्रीहरिवंश जु तत्व अभेदं |
श्रीहरिवंश प्रकाशित योगं, श्रीहरिवंश सुकृत सुख भोगं ||
प्रज्ञा हरिवंश प्रतीति प्रमानत, प्रीतम श्रीहरिवंश प्रियं |
गाथा हरिवंश गीत गुन गोचर, गुपत, गुनित हरिवंश गियं ||
सेवक हरिवंश सार संचित सब, श्रीहरिवंश धर्म धरनं |
जै–जै हरिवंश जगत मंगल पर, श्रीहरिवंश चरन शरनं ||
||५||
जै–जै श्रीहरिवंश–चन्द्र, व्दिजवर कुल–मण्डन |
जै–जै श्रीहरिवंश–चन्द्र, कलि–तम भव खण्डन ||
जै–जै श्रीहरिवंश–चन्द्र, अकलंक प्रकाशित |
जै–जै श्रीहरिवंश–चन्द्र, सब जग आभासित ||
श्रीहरिवंश–चन्द्र अमृत वरषि, सकल–जन्तु तापनि हरनं |
सेवक समीप संतत रहै सु, श्रीहरिवंश चरन शरनं ||
||इति श्रीहित इष्टाराधन प्रकरण ||
———-
[६]
|| श्रीहित धर्मी–कृत प्रकरण ||
————
||१||
पहिलैं हरिवंश सु नाम कहौं | हरिवंश सु धर्मिनु संग लहौं ||
हरिवंश सु नाम सदा तिनकैं | सुख सम्पति दम्पति जू जिनकैं ||
||२||
हरिवंश सु नाम कहौं नित कैं | मिल ही कहौं कृत्त सु धर्मिनु कैं ||
हरिवंश उपासन हैं तिनकैं | सुख सम्पति दम्पति जू जिनकैं ||
||३||
हरिवंश–गिरा रसरीति कहैं | सुकृतीजन संगति नित्य रहैं ||
कछु धर्म विरुद्ध नहीं नितकैं | सुख सम्पति दम्पति जू जिनकैं ||
||४||
हरिवंश प्रसंशित नित्य रहैं | रसरीति विवर्धित कृत्य कहैं ||
जु कछु कुल कर्म नहीं तिनकैं | सुख सम्पति दम्पति जू जिनकैं ||
||५||
हरिवंश सु नाम जु नित्य रटैं | छिन याम समान न नैंकु घटैं ||
विधि और निषेध नहीं तिनकैं | सुख सम्पति दम्पति जू जिनकैं ||
||६||
हरिवंश सु धर्म जु नित्य करैं | हरिवंश कही सु नहीं बिसरैं ||
हरिवंश सदा निधि हैं तिनकैं | सुख संपति दंपति जू जिनकैं ||
||७||
हरिवंश प्रतापहिं जानत हैं | हरिवंश प्रबोध प्रमानत हैं ||
हरिवंश सु सर्वस है तिनकैं | सुख सम्पति दम्पति जू जिनकैं ||
||८||
हरिवंश विचार परे जु रहैं | हरिवंश धरम्म धुरा निवहैं ||
हरिवंश निवाहक हैं तिनकैं | सुख संपति दम्पति जू जिनकैं ||
||९||
हरिवंश रसायन पीवतु हैं | हरिवंश कहैं सुख जीवतु हैं ||
हरिवंश पतिव्रत है तिनकैं | सुख संपति दम्पति जू जिनकैं ||
||१०||
हरिवंश–गिरा–रसरीति भनै | हरिवंश कहैं, हरिवंश सुनै ||
हरिवंश ह्रदय व्रत हैं तिनकैं | सुख संपति दम्पति जू जिनकैं ||
||११||
हरिवंश–कृपा हरिवंश कहैं | हरिवंश कहैं, हरिवंश लहैं ||
हरिवंश सु लाभ सदा तिनकैं | सुख संपति दम्पति जू जिनकैं ||
||१२||
हरिवंश पराइन प्रेम भरे | हरिवंश सु मंत्र जपै सुधरे ||
हरिवंश सु ध्यान सदा तिनकैं | सुख संपति दम्पति जू जिनकैं ||
||१३||
नित श्रीहरिवंश सु नाम कहैं | नित राधिका–श्याम प्रसन्न रहैं ||
नित साधन और नहीं तिनकैं | सुख संपति दम्पति जू जिनकैं ||
||१४||
जब राधिका–श्याम प्रसन्न भये | तब नित्य समीप सु खैचि लये ||
हरिवंश समीप सदा तिनकैं | सुख संपति दम्पति जू जिनकैं ||
||१५||
नित–नित श्रीहरिवंश–नाम, छिन–छिन जु रटत नर |
नित–नित रहत प्रसन्न, जहाँ दम्पति किशोर–वर ||
जहाँ हरि तहाँ हरिवंश, जहाँ हरिवंश तहाँ हरि |
एक शब्द हरिवंश नाम, राख्यौ समीप करि ||
हरिवंश नाम सु प्रसन्न हरि, हरि प्रसन्न हरिवंश रति |
हरिवंश चरन सेवक जिते, सुनहु रसिक रसरीति गति ||
||इति श्रीहित धर्मी–कृत प्रकरण ||
———–
[७]
|| श्रीहित रसरीति प्रकरण ||
———–
||१||
व्यासनन्दन जगत–आधार,
जगमगत जग जस सब जग वंदनीय, जग भय विहंडन |
जग–शोभा जग–सम्पदा, जग जीवन सब जग–मण्डन ||
जग–मंगल जग–उद्धरन, जग–निधि जगत–प्रसंश |
चरन–शरन सेवक सदा, सु जै–जै श्रीहरिवंश ||
||२||
जयति जमुना विमल वर वारि,
शीतल तरल तरंगिनी, रत्न–बद्ध विवि तट विराजत |
प्रफुलित विविध सरोजगन, चक्रवादि कुल हंस राजत ||
कूल विशद वन द्रुम सघन, लता भवन अति रम्य |
नित्य केलि हरिवंश हित, ब्रम्हादिकनि अगम्य ||
||३||
सुघर सुन्दर सुमति सर्वज्ञ,
संतत सहज सदा सदन, सघन कुंज सुख–पुंज वरषत |
सौरभ सरस सुमन चैन, सज्जित सैन सचु रंग हरषत ||
केलि विशद आनन्द रसद, बेलि बढ़ति नित याम |
ठेलि निगम–मग पग सुभग, खेलि कुंवर वर वाम ||
||४||
रसिक रवनी रसद रस–रासि,
रस–सींवा रस–सागरी, रस निकुज्ज सुख–पुजं वरषत |
रस–निधि सुविधि रसज्ञ रस, रेख रीति रस, प्रीति हरषत ||
रस मूरति सूरति सरस, रस विलसनि रस रंग |
रस प्रवाह सरिता सरस, रति रस लहर तरंग ||
||५||
श्यामसुन्दर उरसि वनमाल,
उरगभोग भुज दण्ड वर, कम्बु कण्ठ मनिगन विराजत |
कुंचित कच मुख ताम रस, मधु लम्पट जनु मधुप राजत ||
सीस मुकट कुण्डल श्रवन, मुरली अधर त्रिभंग |
कनक कपिस पट शोभियत, जनु घन–दामिनि संग ||
||६||
सुभग–सुन्दरी सहज सिंगार,
सहज शोभा सर्वांग प्रति, सहज रूप वृषभाननन्दिनी |
सहजानन्द कदम्बिनी, सहज विपिन उर उदित चन्दिनी ||
सहज केलि नित–नित नवल, सहज रंग सुख–चैंन |
सहज माधुरी अंग प्रति, सु मोपै कहत बनैं न ||
||७||
विपिन निर्तत रसिक रस–रासि,
दंपति अति आनन्द बस, प्रेम मत्त निसंक क्रीडत |
चंचल कुण्डल कर चरन, नैंन लोल रति–रंग ब्रीडत ||
झटकति पट चुटकिनु चटक, लटकत लट मृदु हास |
पटकत पद उघटत शबद, मटकत भृकुटि विलास ||
||८||
नवल नागरी नवल युवराज,
नव–नव वन घन क्रीडन्त, नव निकुंज विलसंत सर्वस |
नव–नव रति नित–नित बढ़त, नयौ नेह नव रंग नयौ रस ||
नव विलास कल हास नव, सरस मधुर मृदु बैंन |
नव किशोर हरिवंश हित, सु नवल–नवल सुख चैंन ||
||९||
नवल–नवल सुख चैंन, ऐन आपने आपु बस |
निगम–लोक–मर्याद भंजि, क्रीडंत रंग रस ||
सुरत प्रसंग निशंक करत, जोइ–जोइ भावत मन |
ललित अंग चलि भंगि भाइ, लज्जित सु कोक गन ||
अदभुत बिहार हरिवंश हित, निरखि दासि सेवक जियत |
विस्तरत–सुनत–गावत रसिक, सु नित–नित लीला रस पियत ||
|| इति श्रीहित रसरीति प्रकरण ||
———-
[८]
|| श्रीहित अनन्य टेक प्रकरण ||
———-
||१||
कर्म–धर्म कोउ करहु वेद–विधि, कोउ बहु विधि देवतनि उपासी |
कोउ तीरथ–तप–ज्ञान–ध्यान–व्रत, अरु कोउ निर्गुण ब्रह्म उपासी ||
कोउ यम–नेम करत अपनी रूचि, कोउ अवतार–कदम्ब उपासी |
मन–क्रम–वचन त्रिशुध्द सकल मत, हम श्रीहित हरिवंश उपासी ||
||२||
जाति पाँति कुल कर्म–धर्म–व्रत, संसृति हेतु अविद्या नासी |
सेवक रीति प्रतीति प्रीति हित, विधि निषेध श्रृंखला विनासी ||
अब जोई कही करैं हम सोई, आयसु लियैं चलैं निजु दासी |
मन–क्रम–वचन त्रिशुध्द सकल मत, हम श्रीहित हरिवंश उपासी ||
||३||
जो हरिवंश कौ नाम सुनावै, तन–मन–प्राण तासु बलिहारी |
जो हरिवंश–उपासक सेवै, सदा सेऊँ ताके चरन विचारी ||
जो हरिवंश–गिरा–जस गावै, सर्वसु दैहुं तासु पर वारी |
जो हरिवंश कौ धर्म सिखावै, सोई तौ मेरे प्रभु तें प्रभु भारी ||
||४||
श्रीहरिवंश सु नाद विमोही, सुनि धुनि नित्य तहाँ मन दैहौं |
श्रीहरिवंश सुनंत चलीं सँग, हौं तिन संग नित्य प्रति जेहौं ||
श्रीहरिवंश–विलास–रास रस, श्रीहरिवंश संग अनुभैहौं |
जो हरि–नाम जगत्र शिरोमणि, वंश बिना कबहूँ नहिं लैहौं ||
||५||
प्रेमी अनन्य भजन्न न होइ जु, अन्तरयामी भजै मन में |
जो भजि देख्यौ यशोदा कौ नन्दन, तौ विश्व दिखाई सबै तन में ||
श्रीहरिवंश सुनाद विमोहीं, ते शुध्द समीप मिलीं छन में |
अब यामें मिलौनीं मिलै न कछू, जब खेलत रास सदा वन में ||
||६||
जो बहु मान करै कोउ मेरौ, कियैं बहु मानत नाहिं बडाई |
जौ अपमान करै कोउ क्यौं हूँ, कियैं अपमान नहीं लघुताई ||
श्रीहरिवंश–गिरा रस–सागर, मांझ मगन्न सबै निधि पाई |
जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ||
||७||
कही वन–केलि निकुंज–निकुंजनि, नव दल नूतन सेज रचाई |
नाथ विरंमि– विरंमि कही तब, सो रति तैसी धौं कैसैं भुलाई ||
सत्वर उठे महा मधु पीवत, माधुरी बानी मेरैं मन भाई |
जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश–दुहाई ||
||८||
भुज अंशनि दीने विलोकि रहे, मुख चन्द उभय मधु पान कराई |
आपु विलोकि ह्रदय कियौ मान, चिबुक्क सुचारू प्रलोइ मनाई ||
श्रीहरिवंश बिना यह हेत को, जानैं कहा को कहै समुझाई |
जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ||
||९||
श्रीहरिवंश सु नाद सु रीति, सु गान मिलै बन–माधुरी गाई |
श्रीहरिवंश वचन्न रचन्न सु, नित्य किशोर–किशोरी लड़ाई ||
श्रीहरिवंश–गिरा–रसरीति सु, चित्त प्रतीति न आन सुहाई |
जो हरिवंश तजौं भजौं ओरहि, तौं मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ||
||१०||
श्रीहरिवंश कौं नाम सु सर्वसु, जानि सु राख्यौ मैं चित्त समाई |
श्रीहरिवंश के नाम प्रताप कौं, लाभ लह्यौ सु कह्यौ नहिं जाई ||
श्रीहरिवंश कृपा तें त्रिशुद्ध कै, साँची यहै जु मेरैं मन भाई |
जो हरिवंश तजौं भजौं औरहि, तौं मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ||
||११||
देखे जु मैं अवतार सबै भजि, तहाँ–तहाँ मन तैसौ न जाई |
गोकुलनाथ महा ब्रज वैभव, लीला अनेक न चित्त खटाई ||
एकहि रीति प्रतीति बँध्यौ मन, मोही सबै श्रीहरिवंश बजाई |
जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौं मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ||
||१२||
नाम अरद्ध हरै अघ–पुंज, जगत्त करै हरि नाम बड़ाई |
सो हरिवंश समेत संपूरन, प्रेमी अनन्यनि कौं सुखदाई ||
श्रीहरिवंश कहंत–सुनंत, छिनै–छिन काल वृथा नहिं जाई |
जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौं मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ||
||१३||
श्रीहरिवंश सु प्रान, सु मन हरिवंश गनिज्जै |
श्रीहरिवंश सु चित्त, मित्त हरिवंश भनिज्जै ||
श्रीहरिवंश सु बुद्धि, वरन हरिवंश नाम जस |
श्रीहरिवंश प्रकाश, वचन हरिवंश गिरा रस ||
हरिवंश नाम बिसरै न छिन, श्रीहरिवंश सहाय भल |
हरिवंश चरन सेवक सदा, सु शपथ करी हरिवंश–बल ||
||इति श्रीहित अनन्य टेक प्रकरण ||
———-
[९]
|| श्रीहित कृपा–अकृपा प्रकरण ||
———-
||अकृपा सोरठा||
||१||
सब जब देख्यौ चाहि, काहि कहौं हरि–भक्ति बिनु |
प्रीति कहूँ नहि आहि, श्रीहरिवंश–कृपा बिना ||
||२||
गुप्त प्रीति कौ भंग, संग प्रचुर अति देखियत |
नाहिंन उपजत रंग, श्रीहरिवंश–कृपा बिना ||
||३||
मुख बरनत रसरीति, प्रीति चित्त नहिं आवई |
चाहत सब जग कीर्ति, श्रीहरिवंश–कृपा बिना ||
||४||
गावत गीत रसाल, भाल तिलक शोभित घना |
बिनु प्रीतिहिं बेहाल, श्रीहरिवंश–कृपा बिना ||
||५||
नाचत अतिहिं रसाल, ताल न शोभित प्रीति बिनु |
जनु बीधे जंजाल, श्रीहरिवंश–कृपा बिना ||
||६||
मानत अपनौं भाग, राग करत अनुराग बिनु |
दीसत सकल अभाग, श्रीहरिवंश–कृपा बिना ||
||७||
पढत जु वेद–पुरान, दान न शोभित प्रीति बिनु |
बींधे अति अभिमान, श्रीहरिवंश–कृपा बिना ||
||८||
दर्शन भक्त अनूप, रूप न शोभित प्रीति बिनु |
भरम भटक्कत भूप, श्रीहरिवंश–कृपा बिना ||
||९||
सुन्दर परम प्रवीन, लीन न शोभित प्रीति बिनु |
ते सब दीसत दीन, श्रीहरिवंश–कृपा बिना ||
||१०||
गुन मानी संसार, और सकल गुन प्रीति बिनु |
बहुत धरत सिर भार, श्रीहरिवंश–कृपा बिना ||
||कृपा सोरठा||
||१||
मुख वरनत हरिवंश, चित्त नाम हरिवंश–रति |
मन सुमिरन हरिवंश, यह जु कृपा हरिवंश की ||
||२||
सब जीवन सौं प्रीति, रीति निवाहत आपुनी |
श्रवण–कथन परतीति, यह जु कृपा हरिवंश की ||
||३||
शत्रु–मित्र सम जानि, मानि मान अपमान सम |
दुख–सुख लाभ न हानि, यह जु कृपा हरिवंश की ||
||४||
नित इक धर्मिनु संग, रंग बढ़त नित–नित सरस |
नित–नित प्रेम अभंग, यह जु कृपा हरिवंश की ||
||५||
निरखत नित्यबिहार, पुलकित तन रोमावली |
आनँद नैंन सुढार, यह जु कृपा हरिवंश की ||
||६||
छिन–छिन रुदन करंत, छिन गावत आनन्द–भरि |
छिन–छिन हहर हसंत, यह जु कृपा हरिवंश की ||
||७||
छिन–छिन बिहरत संग, छिन–छिन निरखत प्रेम भरि |
छिन जस कहत अभंग, यह जु कृपा हरिवंश की ||
||८||
निरखत नित्य किशोर, नित्य–नित्य नव–नव सुरति |
नित निरखत छबि भोर, यह जु कृपा हरिवंश की ||
||९||
तृपित न मानत नैंन, कुंज रंध्र अवलोकि तन |
यह सुख कहत बनैं न, यह जु कृपा हरिवंश की ||
||१०||
कहा कहौं बडभाग, नित–नित रति हरिवंश हित |
नित वद्धिॅत अनुराग, यह जु कृपा हरिवंश की ||
||११||
नित वद्धिॅत अनुराग, भाग अपनौं करि मानत |
नित्य–नित्य नव केलि, निरखि नैंननि सचु मानत ||
नित–नित श्रीहरिवंश नाम, नव–नव रति मानत |
नित–नित श्रीहरिवंश कहत, सोइ–सोइ सिर मानत ||
आपुनौ भाग आपुन प्रगट, कहत जु श्रीहरिवंश–बल |
हरिवंश भरोसे भये निडर, सु नित गर्जत हरिवंश बल ||
|| इति श्रीहित कृपा–अकृपा प्रकरण ||
———
[१०]
||श्रीहित भक्त भजन प्रकरण ||
———
|| बाईस कुण्डलिया,प्रथम ११ सिद्धांत की ||
||१||
श्री हरिवंश सु धर्म दृढ, अरु समुझत निजु रीति |
तिनकौं हौं सेवक सदा, मन–क्रम–वचन प्रतीति ||
मन–क्रम–वचन प्रतीति, प्रीति दिन चरन पखारौं |
नित प्रति जूठन खाऊँ वरन भेदहि न विचारौं ||
तिनकी संगति रहत, जाति–कुल–मद सब नंशहि |
संतत सेवक सदा, भजत जे श्रीहरिवंशहिं ||
||२||
सब अनन्य साँचे सुविधि, सबकौ हौं निजु दास |
सुमिरन नाम पवित्र अति, दरस परस अघ नास ||
दरस परस अघ नास, बास निज संग करौं दिन |
तिन मुख हरि–जस सुनत, श्रवण मानौं न तृपित छिन ||
कलि अभद्र वरनत सहस, कलि कामादिक द्वंद तब |
सेवक शरण सदा रहैं, सुविधि साँचे अनन्य सब ||
||३||
श्रीराधाबल्लभ भजत भजि, भली भली सब होय |
रसिक अनन्य सजाति भजि, भली भली सब होय ||
भली–भली सब होइ, जबहि हरिवंश–चरन–रति |
भली भली तब होइ, रचित रसरीति सदा मति ||
भली भली तब होइ, भक्ति गुरु–रीति अगाधा |
भली भली तब होइ, भजत भजि श्रीहरि राधा ||
||४||
श्रीराधाबल्लभ भजत भजि, भली–भली सब होइ |
अशुभ अनर्भल संग जन, विमुख तजौ सब कोइ ||
विमुख तजौ सब कोइ, झूठ बोलत सचु मानत |
दोष करत निरशंक, रंक करि संतनि जानत ||
अभिमानी गर्विष्ठ, लोभ–मद–मत्त अगाधा |
दुष्ट परिहरौ दूर, भजत भजि श्रीहरि–राधा ||
||५||
श्रीराधाबल्लभ भजत भजि, भली–भली सब होइ |
जिते विनायक शुभ–अशुभ, विघ्न करै नहिं कोइ ||
विघ्न करै नहिं कोइ, डरै कलि कष्ट काल भय |
हरैं सकल संताप, हरषि हरि नाम जपत जय ||
श्रीवृंदावन नित्य केलि, नव–नवल अगाधा |
हित हरिवंश किशोर, भजत भजि श्रीहरि–राधा ||
||६||
श्रीराधाबल्लभ भजत भजि, भली–भली सब होइ |
त्रिविध ताप नासहिं सकल, सब सुख सम्पति होइ ||
सब सुख सम्पति होइ, होइ हरिवंश–चरन–रति |
होइ विषय–विष नास, होइ वृन्दावन बसि गति ||
होइ सुद्दढ़ सत्संग, होइ रसरीति अगाधा |
होइ सुजस जग प्रगट, होइ पद प्रीति सु राधा ||
||७||
श्रीराधाबल्लभ भजत भजि, भली–भली सब होइ |
भीर मिटै भट यमन की, भय–भंजन हरि सोइ ||
भय–भंजन हरि सोइ, भरम भूल्यौ भटकत कति |
भगवत–भक्ति विचार, वेद भागवत प्रीति रति ||
भक्त–चरण धरि भाव तरत, भव–सिन्धु अगाधा |
हित हरिवंश प्रशंस, भजत भजि श्रीहरि–राधा ||
||८||
श्रीराधाबल्लभ भजत भजि, भली–भली सब होइ |
अन्य देव–सेवी सकल, चलत पूँजी सी खोइ ||
चलत पूँजी सी खोइ, रोइ झखि द्यौस गँवावहिं |
सोइ छपत सब रैंन, जोइ कपि सम जु नचावहिं ||
भोइ विषम विष विषय, कोइ सतगुरु नहिं लाधा |
धोइ सकल कलि–कलुष, दोइ भजि श्रीहरि–राधा ||
||९||
श्रीराधाबल्लभलाल बिनु, जीवन जनम अकत्थ |
बाधा सब कुल–कर्म–कृत, तुच्छ न लागै हत्थ ||
तुच्छ न लागै हत्थ, सत्थ समरथ न बियौ तब |
माथ धुनत हरि–विमुख, संग यम–पंथ चलत जब ||
गाथ विमल गुन गान, कत्थ जस श्रवन अगाधा |
नाथ अनाथनि हित समर्थ, मोहन–श्रीराधा ||
||१०||
कर्मठ कठिन सशल्य नित, सोचत शीश धुनंत |
श्रीहरिवंश जु उद्धरी, सोई रसरीति सुनंत ||
सोई रसरीति सुनंत, अन्त अनसहन करत सब |
जब–जब जियनि विचारि, सार मानत मन–मन तब ||
छिन–छिन लोलुप चित्त, समुझि छाँड़त तातें सठ |
करत न संत समाज, जिते अभिमानी कर्मठ ||
||११||
हित हरिवंश प्रसंशि मन, नित सेवन विश्राम |
चित निषेध विधि सुधि नहीं, वितु संचित निधि नाम ||
वितु संचित निधि नाम, काम सुमिरन दासन्तन |
याम घटी न बिलम्ब, वाम कृत करत निकट जन ||
ग्राम पंथ आरण्य, दाम दृढ प्रेम ग्रथित नित |
ता मति रति सुख–रासि, वाम–दृश नवकिशोर हित ||
||१२||
श्रीराधा–आनन–कमल, हरि–अलि नित सेवंत |
नव–नव रति हरिवंश हित, वृन्दाविपिन बसंत ||
वृन्दाविपिन बसंत, परस्पर बाहु दंड धरि |
चलत चरन गति मत्त, करिनि–गजराज गर्व भरि ||
कुंज भवन नित केलि करत, नव–नवल अगाधा |
नाना काम प्रसंग करत, मिलि हरि–श्रीराधा ||
||१३||
मुख विहँसत हरिवंश हित, रुख रस–रासि प्रवीन |
सुख–सागर नागर–गुरु, पुहुप–सैन आसीन ||
पुहुप–सैन आसीन, कीन निजु प्रेम केलि बस |
पीन उरज वर परसि, भीन नव सुरत रंग–रस ||
खीन निरखि मद मदन दीन, पावत जु विलखि दुख |
मीनकेतु निर्जित सु लीन, प्रिय निरखि विहँस मुख ||
||१४||
रस–सागर हरिवंश हित, लसत सरित वर तीर |
जग जस विशद सु विस्तरित, बसत जु कुंज कुटीर ||
बसत जु कुंज कुटीर, भीर नव रँग भामिनि भर |
चीर नील गौरांग सरस घन तन पीताम्बर ||
धीर बहत दक्षिन समीर, कल केलि करत अस |
नीरज सैंन सु रचित वीर, वर सुरत रंग रस ||
||१५||
प्रिय विचित्र बन हरषि मन, जिय जस वैंनु कुनंत |
तिय तरुनी सुनि तुष्ट धुनि, कियौं तहां गवन तुरंत ||
कियौं तहां गवन तुरंत, कंत मिलि बिलसत सर्वस |
तंत रासमंडल जुरन्त, रस निर्त रंग रस ||
संतत सुर दुन्दुभि बजंत, वरषंत सुमन लिय |
अंत केलि जल जनुकि, मत्त इभराट–करिनि प्रिय ||
||१६||
हरि बिहरत वन जुगल जनु, तड़ित सु वपु घन संग |
करि किशलय दल सैंन भल, भरि अनुराग अभंग ||
भरि अनुराग अभंग, रंग अपने सचु पावत |
अंग–अंग सजि सुभट, जंग मनसिजहिं लजावत ||
पंगु दृष्टि ललितादिक, तंक निरखत रंध्रनि करि |
मंग आदि रचि शिथिल, सजित उच्छंग धरत हरि ||
||१७||
श्याम सुभग तन विपिन घन, धाम विचित्र बनाइ |
ता मँहिं संगम जुगल जन, काम–केलि सचु पाइ ||
काम–केलि सचु पाइ, दाइ छल प्रियहिं रिझावत |
धाइ धरत उर अंक, भाइ गन कोक लजावत ||
चाय चवग्गुन चतुर राइ, रसरति संग्रामहिं |
छाइ सुजस जग प्रगट, गाइ गुन जीवत श्यामहिं ||
||१८||
सरिता–तट सुर–द्रुम निकट, अलि ता सुमन सुवास |
ललितादिक रसननि विवस, चलि ता कुंज निवास ||
चलि ता कुंज निवास, आस तब हित मग परषत |
रासस्थल उत्तम विलास, सचि मिलि मन हरषत ||
तासु वचन सुनि चित हुलास, विरहज दुख गलिता |
दासन्तनि कुल जुवति, मास माधव सुख–सरिता ||
||१९||
परषत पुलिन सुलिन गिरा, करषत चित सुर–घोर |
हरषत हित नित नवल रस, वरषत जुगल किशोर ||
वरषत जुगल किशोर, जोर नव कुंज सुरत रन |
मोर चन्द्र चय चलत, डोर कच शिथिल सुभग तन ||
चोर चित्त ललितादि, कोर रन्ध्रनि निजु निरखत |
थोर प्रीति अंतर न भोर, दम्पति–छवि परखत ||
||२०||
रितु बसन्त वन फल सुमन, चित प्रसन्न नव कुंज |
हित दम्पति रति कुशल मति, बितु संचित सुख–पुंज ||
बितु संचित सुख–पुंज, गुंज मधुकर सु नाद धुनि |
रुंज–मृदंग–उपंग धुंज, डफ झंंझ ताल सुनि ||
मंजु जुवति रस–गान, लुंज इव खग तहां विथकितु |
भुंजत रास–विलास कुंज नव, सचि बसंत रितु ||
||२१||
कहत–कहत न कही परैं, रहत जु मनहिं विचारि |
सहत–सहत बाढ़ै भगति, गृह तन गुरु हित गारि ||
गृह तन गुरु हित गारि, हारि अपनी करि मानत |
चार वेद स्मृति सु चार, क्रम कर्म न जानत ||
डारि अविद्या करि विचार चित, हित हरिवंशहिं |
नारि रसिक ह्रद वन विहार, महिमा न परै कहि ||
||२२||
सेवक श्रीहरिवंश के, जग भ्राजत गुन गाइ |
निशि–दिन श्रीहरिवंश हित, हरषि चरन चित लाइ ||
हरषि चरन चित लाइ, जपत हरिवंश गिरा–जस |
मनसि–वचसि चित लाइ, जपत हरिवंश नाम–जस ||
श्रीहरिवंश प्रताप–नाम नौंका निजु खेवक |
भव–सागर सुख तरत, निकट हरिवंश जु सेवक ||
||इति श्रीहित भक्त भजन प्रकरण ||
———
[११]
|| श्रीहित ध्यान प्रकरण ||
———
||१||
स जयति हरिवंश चन्द्र नामोच्चार , वर्द्धित सदा सु बुद्धि |
रसिक अनन्य प्रधान सतु, साधु मंडली मंडनो जयति ||
जै जै श्रीहरिवंश हित, प्रथम प्रणऊँ सिर नाइ |
परम रसद निर्विघ्न ह्वै, जैसैं कवित सिराइ ||
सुकवित्त सुछ्न्द गनिज्जै, समय प्रबंध वन |
सुकवि विचित्र भनिज्जै, हरिजस लीन मन ||
श्रोता सोई परम सुजान, सुनत चित्त रति करै |
सोइ सेवक रसिक अनन्य, विमल जस विस्तरै ||
सुजस सुनत वरनत सुख पायौं, कीर–भृंग नारद–शुक गायौं |
श्रीवृंदावन सब सुखदानी, रतन–जटित वर भूमि रवाँनी ||
वर भूमि रवाँनी सुखद द्रुम–बल्ली, प्रफुलित फलित विविध वरनं |
नित शरद–बसंत मत्त मधुकर–कुल, बहु पतत्रि नादहि करनं ||
नाना द्रुम–कुंज मंजु वर वीथी, वन बिहार राधा–रवनं |
तहाँ संतत रहत श्याम–श्यामा–संग, श्रीहरिवंश–चरन–शरनं ||
||२||
रहत सदा सखि संग, रास–रँग रस रसाल उल्लासं |
लीला ललित रसालं, सम सुर–तालं वरषत सुख–पुंज ||
अतुलित रस वरषत सदा, सुख निधान वन वासि |
अदभुत महिमा महि प्रगट, सुन्दरता की रासि ||
सुन्दरता की रासि, कनक दुति देह रूचि |
वारिज वदन प्रसन्न, हास मृदु रंग शुचि ||
सुभ्रु,सुष्ठु ललाट पट, सुन्दर करनं |
नैन कृपा अवलोकि, प्रणत–आरति–हरनं |
सुन्दर ग्रीव उरसि वनमालं, चारु अंश वर, बाहु विशालं |
उदर सु नाभि चारु कटि देशं, चारु जानु शुभ चरन सु वेषं ||
शुभ चरन सु वेष मत्त गज वर गति, पर उपकार देह धरनं |
निज गुन विस्तार अधार अवनि पर, वानी विशद सु विस्तरनं ||
करुनामय परम पुनीत कृपा–निधि, रसिकअनन्य सभाभरनं |
जै जग उद्योत व्यास–कुल–दीपक, श्रीहरिवंश चरन शरनं ||
||३||
सारासार विवेकी, प्रेम–पुंज अदभुत अनुराग |
हरि–जस–रस–मधु–मत्त, सर्व त्यक्त्वा दुस्त्यज कुल कर्म ||
कर्म छाँडि कर्मठ भजे, ज्ञानी ज्ञान विहाइ |
व्रतधारी व्रत तजि भजे, श्रवणादिक चित लाइ ||
श्रवणादिक चित लाइ, जोग जप तप तजे |
औरौ कर्म सकाम, सकल तजि सब भजे ||
साधन विविध प्रयास, ते सकल विहावहीं |
श्रवन–कथन सुमिरन, सेवन चित लावहीं ||
अर्चन–वंदन अरु दासन्तन, सख्य और आत्मा समर्पन |
ये नव–लक्षण भक्ति बढ़ाई, तब तिन प्रेम लक्षणा पाई ||
पाई रस–भक्ति गूढ़ जुग–जुग जग, दुर्लभ भव इन्द्रादि विधिं |
आगम अरु निगम–पुरान अगोचर, सहज माधुरी रुप निधि ||
अनभय आनन्दकंद निजु सम्पति, गुपत सुरीति प्रकट करनं |
जै जग उघोत व्यास–कुल–दीपक, श्रीहरिवंश–चरन– शरनं ||
||४||
प्रगटित प्रेम प्रकाशं, सकल जंतु शिशरी–कृत चितं |
गत कलि–तिमिर समूहं, निर्मल अकलंक उदित जग चद्रं ||
विशद चन्द्र तारातनय, शीतल किरन प्रकाश |
अमृत सींचत मम ह्रदय, सुखमय आनंद–रासि ||
सुखमय आनन्द–रासि, सकल जन शोक–हर |
समुझि जे आये शरन, ते डरत न काल–डर ||
दियौं दान तिन अभय, व्दंव्द दुख सब घटे |
नित–नित नव–नव प्रेम, कर्म–बन्धन कटे ||
कटे कर्म–बन्धन संसारी, सुख–सागर पूरित अति भारी |
विधिनिषेध–श्रृंखला छुडावै, निज आलय वन आनि बसावै ||
आलय वन बसत संग पारस के, आयस कनक समान भयं |
माँगौं मन मनसि दासि अपनी करि, पूरन–काम सदा ह्रदयं ||
सेवक गुन–नाम आस करि वरनै, अब निजु दासि कृपा करनं |
जै जग उद्योत व्यास–कुल–दीपक, श्रीहरिवंश–चरन–शरनं ||
||५||
पढत–गुनत गुन–नाम, सदा सत्संगति पावै |
अरु बाढ़ै रसरीति, विमल वानी गुन गावै ||
प्रेम लक्षणा भक्ति, सदा आनन्द हितकारी |
श्रीराधा जुग चरन, प्रीति उपजै अति भारी ||
निजु महल टहल नव कुंज में, नित सेवक सेवा करनं |
निशि–दिन समीप संतत रहै सु, श्रीहरिवंश–चरन–शरनं ||
||इति श्रीहित ध्यान प्रकरण ||
———
[१२]
|| श्रीहित मंगल गान प्रकरण ||
———
||राग सूहौ बिलावत||
||१||
जै जै श्रीहरिवंश, व्यास–कुल–मण्डना |
रसिकअनन्यनि मुख्य गुरु, जन भय खंडना ||
श्रीवृंदावन वास, रास–रस भूमि जहाँ |
क्रीडत श्यामा–श्याम, पुलिन मंजुल तहाँ ||
पुलिन मंजुल परम पावन, त्रिविध तहँ मारुत बहै |
कुंज भवन विचित्र शोभा, मदन नित सेवत रहै ||
तहाँ संतत व्यासनन्दन, रहत कलुष विहंड़ना |
जै जै श्रीहरिवंश, व्यास–कुल–मण्डना ||
||२||
जै–जै श्रीहरिवंश–चन्द्र उद्दित सदा |
व्दिज–कुल–कुमुद प्रकाश, विपुल सुख–सम्पदा ||
पर उपकार विचार, सुमति जग विस्तरी |
करुना–सिंधु कृपालु, काल–भय सब हरी ||
हरी सब कलि काल की भय, कृपा रूप जु वपु धर्यौ |
करत जे अनसहन निंदक, तिनहूँ पै अनुग्रह कर्यौ ||
निरभिमान निर्वैर निरुपम, निष्कलंक जु सर्वदा |
जै जै श्रीहरिवंश–चन्र्द उदित सदा ||
||३||
जै जै श्रीहरिवंश, प्रसंशित सब दुनी |
सारासार विवेकित, कोविद बहु गुनी ||
गुप्त रीति आचरण, प्रगट सब जग दिये |
ज्ञान–धर्म–व्रत–कर्म, भक्ति–किंकर किये ||
भक्ति हित जे शरण आये, व्दंव्द–दोष जु सब घटे |
कमल कर जिन अभय दीने, कर्म–बन्धन सब कटे ||
परम सुखद सुशील सुन्दर, पाहि स्वामिनी मम धनी |
जै जै श्रीहरिवंश, प्रसंशित सब दुनी ||
||४||
जै जै श्रीहरिवंश, नाम–गुण गाइ है |
प्रेम–लक्षणा भक्ति, सुदृढ़ करी पाइ है ||
अरु बाढ़ै रसरीति, प्रीति चित ना टरै |
जीति विषम संसार, कीरति जग विस्तरै ||
विस्तरै सब जग विमल कीरति, साधु–संगति ना टरै |
बास वृन्दाविपिन पावै, प्यारी श्रीराधिका जू कृपा करै ||
चतुर जुगल किशोर सेवक, दिन प्रसादहिं पाइहै |
जै–जै श्रीहरिवंश, नाम–गुण गाइहै ||
|| इति श्रीहित मंगल गान प्रकरण ||
———
[१३]
|| श्रीहित पाके धर्मी प्रकरण ||
———
||१||
साधन विविध सकाम मति सब, स्वारथ सकल सबै जु अनिती |
ग्यान–ध्यान–व्रत–कर्म जिते सब, काहू में नहि मोहि प्रतिती ||
रसिक अनन्य निशान बजायौ, एक श्याम–श्यामा पद–प्रीति |
श्रीहरिवंश चरन निजु सेवक, विचले नही छांडी रसरीति ||
||२||
श्रीहरिवंश धरम्म प्रगट्ट, निपट्ट्कै ताकी उपमा कौ नाहिंन |
साधन ताकौ सबै नव लक्षण, तच्छिन वेग विचारत जाहि न ||
जो रसरीति सदा अविरुद्ध, प्रसिद्ध विरुद्ध तजत्त क्यौं ताहि न |
जो पै धरम्मी कहावत हौ तौ, धरम्मी धरम्म समुझ्झत काहि न ||
||३||
जो पै धरम्मिन सौं नहि प्रीति, प्रतीति प्रमानत आन न आनिबौ ।
एकहि रीति सबन्नि सौं हेत, समीति समेत समान न मानिबौ ||
बात सौं बात मिलै न प्रमान, प्रकृत्ति विरूद्ध जुगत्ति कौ ठानिबौ |
श्रीहरिवंश के नाम न प्रेम, धरम्मी–धरम्म समुझ्यौ क्यौ जानिबौ ||
||४||
श्रीहरिवंश–वचन्न प्रमानि कैं,
शाकत संग सबै जु बिसारत | संसृति मांझ वर्याइकै पायौ जु,
मानुष देह वृथा कत डारत || क्यौं न करत धरम्मिन कौ संग, जानि बूझि कत आन विचारत |
जौ पै धरम्मी मरम्मी हौ तौ, धरम्मिन सौं कत अंतर पारत ||
||५||
धरम्मी–धरम्म कह्यौ जु करो, तौ धरम्मिन संग बडौ सबतें |
स्वर्ग अपुनर्भव जो नाहि बराबर, तौ सुख मर्त्य कहौ कब तें ||
कहौ काहे प्रमान वचन्न बिसारत, प्रेमी अनन्य भये जबतें |
श्रीहरिवंश कही जु कृपा करि, सांचौ प्रबोध सुन्यौं अब ते ||
||६||
श्रीहरिवंश जु कही श्याम–श्यामा–पद–कमल–संगी सिर नायौ |
ते न वचन मानत गुरु–द्रोही, निशि–दिन करत आपुनौ भायौ ||
इत व्यौहार न उत परमारथ, बीचहिं–बीच जु जनम गंवायौ |
जो धर्मिनु सौ प्रीति करत नहि, कहा भयौ धर्मी जु कहायौ ||
||७||
करौ श्रीहरिवंश–उपासक संग, जु प्रीति तरंग सुरंग बह्यौ |
करौ श्रीहरिवंश की रीति सबै, कुल–लोक–विरुद्ध जु जाइ सह्यौ ||
करौ श्रीहरिवंश के नाम सौ प्रीति, जा नाम–प्रताप धरम्म लह्यौ |
जु धरम्मी–धरम्म–स्वरुप कह्यौ, बिसरौ जिन श्रीहरिवंश कह्यौ ||
||८||
श्रीहरिवंश–धरम्म जे जानत, प्रीति की ग्रंथि तिही मिलि खोलत |
श्रीहरिवंश–धरम्मिनु–मांझ, धरम्मी सुहात धरम्म लै बोलत ||
श्रीहरिवंश धरम्मि कृपा करैं, तासु कृपा रस–मादक डोलत |
श्रीहरिवंश की बानी–समुद्र कौ, मीन भयौ जु अगाध कलोलत ||
||९||
व्रत–संयम–कर्म–सुधर्म जिते, सब शुद्ध विरुद्ध पिछानत है |
अपनी–अपनी करतूत करैं, रस–मादिक शंक न आनत हैं ||
हरिवंश–गिरा–रसरीति प्रसिद्ध, प्रतीति प्रगट्ट प्रमानत हैं |
बलि जाउ अपन्ने धरम्मिनु की, जे धरम्मी धरम्महि जानत हैं ||
||१०||
श्रीहरिवंश–धरम्म सुनंत जु, छाती सिरात धरम्मिनु की |
धरम्म सुनंत प्रसन्न ह्वे बोलत, बोलनि मीठी धरम्मिनु की ||
धरम्म सुनंत पुलक्कित रोमनि, हौं बलि प्रेमी धरम्मिनु की |
जु धरम्म सुनाय धरम्महि जाचत, चाहौ कृपा जु धरम्मिनु की ||
||११||
श्रीहरीवंश प्रसिद्ध धर्म, समुझै न अलप तप |
समुझौ श्रीहरिवंश कृपा, सेवहु धर्मिनु जप ||
धर्मी बिनु नहि धर्म, नाहि बिनु धर्म जे धर्मी |
श्रीहरिवंश–प्रताप, मर्म जानहि जे मर्मी ||
श्रीहरिवंश नाम धर्मी जु रति, तिन शरण्य संतत रहै |
सेवक निशि–दिन धर्मिनु मिलैं, श्रीहरिवंश–सुजस कहै ||
|| इती श्रीहित पाकै धर्मी प्रकरण ||
———
[१४]
|| श्रीहित काचे धर्मी प्रकरण ||
———
||१||
श्रीहरिवंश–धरम्मिन के संग, आगैं हि आगैं जु रीति बखानत |
आपुनौ जानि कहै जु मिलै मन, उत्तर फेरि चवग्गुन ठानत ||
बैठत जाय विधर्मिन में तब, बात धरम्म की एकौं न आनत |
काचे धरम्मिनु के सुनौं छन्द, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||
||२||
बातनि जूठनि खान कहै, मुख देत प्रसाद अनूठौइ छाँडत |
ग्रन्थ प्रमानिकैं जो समुझाइयैं, तौ तब क्रोध रार फिर माँडत ||
तच्छिन छाँडि प्रेम की बातहि, फेरि जाति–कुल–रीति प्रमानत |
काचे धरम्मिनु के सुनौ छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||
||३||
धरम्मिनु माँझ प्रसन्न ह्वे बैठत, जाइ विधर्मिनु माँझ उपासत |
लालच लगि जहाँ जैसैं तहाँ तैसैं, सोई–सोई तिन मध्य प्रकाशत ||
बादहिं होत कुम्हार कौ कूकर, खाली ह्रदय गुरु रीति न मानत |
काचे धरम्मिनु के सुनौं छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||
||४||
नाना तरंग करत्त छिनहि–छिन, रोवत रेंट न लार संभारत |
तच्छिन प्रेम जनाइ कहंत जु, मेरी सी रीति काहे अनुसारत ||
तच्छिन झगरि रिसाइ कहंत जु, मेरी बराबर औरनि मानत |
काचे धरम्मिनु के सुनौ छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||
||५||
मेरौ सौ प्रेम मेरौ सौ कीर्तन, मेरी सी रीति काहैं न अनुसारत |
मेरौ सो गान मेरौ सो बजाइवो, मेरो सो कृत्य सबै जु बिसारत ||
छांडि मर्जाद गुरून् सौं बोलत, कंचन–काँच बराबर मानत |
काचे धरम्मिनु के सुनौं छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||
||६||
देखे जु देखे भलैं जु भलैं तुम, आपुनौं और परायौ न जानत |
हौं जु सदा रसरीति वखानत, मेरी बराबर ठागनि मानत ||
कैसैं धौं पाऊँ तिहारे ह्रदय कौं, आन व्दार कैं मोहि न जानत |
काचे धरम्मिनु के सुनौ छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||
||७||
और तरंग सुनौ अति मीठी, सखीनु के नाम परस्पर बोलत |
तच्छिन केश गहंत मुष्टि हनि, साकत शुद्ध बचावत डोलत ||
तच्छिन बोलै तू प्रेत, तू राक्षस, फेरि परस्पर जाति प्रमानत |
काचे धरम्मिनु के सुनौ छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||
||८||
जान्यौ धरम्म देखी रसरीति जु, निष्ठुर बोलत वदन प्रकाशित |
ऐसैं न वैसैं रहे मझरैंडव, पाछिलियौ जु करी निरभासित ||
ह्वै हैं फेरि जैसे के तैसे हम, वारे ते आये सन्यासिनु मानत |
काचे धरम्मिनु के सुनौ छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||
||९||
एक रिसाने से रूखे से दीखत, पूछत रीति भभुकत धावत |
एक रँगमगे बोलत चालत, मामिलेहु वपुरे जु जनावत ||
एक वदन्न कै साँची–साँची कहै, चित्त सचाई की एकौ न आनत |
काचे धरम्मिनु के सुनौ छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||
||१०||
एक धरम्म समुज्झे बिनाऽव, गुसाईं के ह्वै जु जगत्र पुजावत |
मूल न मंत्र टटोरा की रीति, धरम्मिनु पूछत वदन दुरावत ||
एक मुलम्मा सौ देत उघारि जु, वल्लभ सौं वल्लभ परमानत |
काचे धरम्मिनु के सुनौं छंद, धरम्मी–धरम्म मरम्म न जानत ||
||११||
एक गुरून्न सौं वाद करंत जु, पंडित मानी ह्वै जीभहि एैठत |
एक दरब्ब के जोर बरब्बट, आसन चाँपि सभा मधि बैठत ||
एक जु फेरि रीति उपदेशत, एक बड़े ह्वै न बात प्रमानत |
काचे धरम्मिनु के सुनौं छंद, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||
||१२||
एक धरम्मी अनन्य कहाइ, बड़ाई कौं न्यारी ये बाजी सी माँडत |
और के बाप सौं बाप कहंत, दरब्ब कै काज धरम्महि छाँडत ||
बोलत बोल बटाऊ से लागत, ह्वै गुरु मानी न बात प्रमानत |
काचे धरम्मिनु के सुनौं छन्द, धरम्मी धरम्म मरम्म न जानत ||
||१३||
परखे सुनहु सुजान, जहाँ कछु और कचाई |
भक्त कहै परसन्न, नतरुता कहैं बुरवाई ||
दिये सराहै सुख रहै, दुख में दिन–राती |
खैवे कौं जु सजाति, खरच कौं होत विजाती ||
||१४||
लै उपदेश कहाइ अनन्य, अन्हाइ अनर्पित जाइ गटक्कत |
आश करै विषयीन के आगे जु, देखे में जोरत हाथ लटक्कत ||
केतिक आयु कितेक सौ जीवन, काहे विनासत काज हटक्कत |
श्रीहरिवंश–धरम्मिनु छाँड़िकैं, घर–घर काहे फिरत भटक्कत ||
||१५||
साकत–संग अगिन्न–लपट्ट, लपट्ट जरत्त क्यौं संगत कीजै |
साधु सुबुद्धि समान सु संतनि, जानिके शीतल संगति कीजै ||
एक जु काचे प्रकृति विरुद्ध, प्रकृति विरुद्ध करै तौं कहा कीजै |
जे आग कैं दाझे गये भजि पानी में, पानी में आग लगै तौं कहा कीजै ||
||१६||
प्रीति भंग वरनत रस रीतहि, श्रीहरिवंश–वचन बिसरावहु |
आप–आपनी ठौर जहाँ तहाँ, करि विरुद्ध सबपै निदरावहु ||
एक संसार दुष्ट की संगति, ताहू में तुम पुष्ट करावहु |
विनती करहु सकल धर्मिनु सौं, धर्मी ह्वै जिन नाम धरावहु ||
||१७||
स्वारथ सकल तजि गुरु–चरननि भजि, गुन–नाम–सुनि कथि संतनि सौं संग करि |
काल–व्याल मुख परयौ कफ–बात–पित्त भरयौ, भ्रम्यौ कत, अनन्य कहे की जिय लाज धरि ||
सेवक निकट रसरीति प्रीति मन धरि, हित हरिवंश कुल–कानि सब परिहरि |
काचे रसिकनि सौं विनती करत ऐसी, गोविन्द–दुहाई भाई ! जो न सेवौं श्यामा–हरि ||
||१८||
प्रगटित श्रीहरिवंश सूर, दुन्दुभि बजाइ बल |
मदन–मोह–मद मलित, निदरि निर्दलित दम्भ–दल ||
भ्रर्म भग्य भयभीत, गर्व दुर्जन रज खण्डन |
लोभ–क्रोध कली–कपट, प्रबल पाखंड विहंडन ||
तृष्ना–प्रपंच–मत्सर–विसन, सर्व दण्ड निर्बल करैं |
शुभ–अशुभ–दुर्ग–विध्वंश बल, तब जयति–जयति जग उच्चरैं ||
||इती श्रीहित काचे धर्मी प्रकरण ||
———
[१५]
|| श्रीहित अलभ्य लाभ प्रकरण ||
———
<
||१||
हरिवंश नाम है जहाँ तहाँ–तहाँ उदारता, सकामता तहाँ नहीं कृपालुता विशेषिये |
हरिवंश नाम लीन जे अजातशत्रु ते सदा, प्रपंच–दंभ आदि दै तहाँ कछू न पेखिये ||
हरिवंश नाम जे कहै अनन्त सुक्ख ते लहैं, दुराप्य प्रेम की दशा तहाँ प्रत्यक्श देखिये |
सोई अनन्य साधु सो जगत्र पूजिये सदा, सु धन्य–धन्य विश्व में जनम्म सत्य लेखिये ||
||२||
श्रीव्यसनन्द नाम कौ अलभ्य लाभ जानियैं |
हरिवंशचन्द्र जो कही सु चित ह्वै सबै लही, वचन्न चारु माधुरी सु प्रेम सौं पिछानिये |
सुने प्रपन्न जे भये अभद्र सर्व के गये, तिन्है मिले प्रसन्न ह्वै न जाति भेद मानिये ||
सु भाग लागि पाइहै, प्रशंसि कण्ठ लाइहै, सिराइ नैन देखिकै अभेद बुद्धि आनिये |
कृपालु ह्वै सु भाखिहैं, धरम्म पुष्ट राखिहैं, श्रीव्यासनन्द नाम कौ अलभ्य लाभ जानिये ||
||३||
हरिवंश नाम सर्व सार छाँड़ि लेत बहुत भार, राज विभौं देखिकैं विषय विषम्म भोवहीं |
जोरू होत साधु–संग आनी करत प्रीति भंग, मान काज राजसीनु के जु मुक्ख जोवहीं ||
जहाँ तहाँ अन्न खात सखी कहत आपु गात, सकल घौंस व्दंव्द जात रात सर्व सोवहीं |
प्रसिद्ध व्यासनन्द–नाम जान बुझि छोड़हीं, प्रमाद तें लिये बिना जनम्म बाद खोवहीं ||
||४||
हरिवंश–नाम–हीन खीन दीन देखिये सदा, कहा भयौ बहुज्ञ ह्वै पुरान–वेद पढ़्ढहीं |
कहा भयौ भये प्रवीन जानि मानिये जगत्र, लोक रिझि शोभ कौं बनाइ बात गढ़्ढहीं ||
कहा भयौ किये करम्म यज्ञ–दान देत–देत, फलनि पाइ उच्च–उच्च देव–लोक चढ़्ढहीं |
परयौ प्रवाह काल कैं कदापि छूटिहै नहीं, श्रीव्यासनन्द–नाम जो प्रतीति सौं न रट्टहीं ||
|| इती श्रीहित अलभ्य लाभ प्रकरण ||
———
[१६]
|| श्रीहित मान सिद्धान्त प्रकरण ||
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||१||
वानी श्रीहरिवंश की, सुनहु रसिक चित लाइ |
जिहि विधि भयौ अबोलनौ, सो सब कहौं समुझाइ ||
||२||
श्रीहरिवंश जु कथि कही, सोरु सुनाऊँ गाइ |
वानी श्रीहरिवंश की, नित मन रही समाइ ||
||३||
श्रीहरिवंश अबोलनौ, प्रगट प्रेम रस सार |
अपनी बुध्दि न कछु कहौं, सो वानी उच्चार ||
||४||
हित हरिवंश जु क्रीडहिं, दंपति रस–समतूल |
सहज समीप अबोलनौ, करत जु आनँद मूल ||
||५||
काहे कौं डारत भामिनी, हौं जु कहत इक बात |
नैंक वदन सन्मुख करौ, छिन–छिन कलप सिरात ||
||६||
वे चितवत तव चन्द वदन तन, तू निजु चरन निहारत |
वे मृदु चिवुक प्रलोवहीं, तू कर सौं कर टारत ||
||७||
वचन अधीन सदा रहैं, रूप–समुद्र अगाध |
प्राण रवन सौं कत करत, बिनु आगस अपराध ||
||८||
चितयौ कृपा करि भामिनी, लीने कंठ लगाइ |
सुख–सागर पूरित भये, देखत हियौ सिराइ ||
||९||
सेवक शरन सदा रहै, अनत नहीं विश्राम |
कै वानी हरिवंश की, कै हरिवंशहिं नाम ||
|| इति श्रीहित मान सिद्धान्त प्रकरण ||
|| श्रीदामोदरदासजी सेवकजी महाराज कृत सेवक वाणी समाप्त ||
|| श्रीसेवकवानी– फलस्तुति||
जयति– जयति हरिवंश, नाम–रति सेवकवानी|
परम प्रीती रसरीति, रहसि कलि प्रगट वखानी ||
प्रेम–सम्पति–धाम, सुखद विश्राम धरम्मिन |
भनत–गुनत गुन गूढ़, भक्त भ्रम भजत करम्मिन ||
श्रीव्यासनंद–अरविन्द–चरण मद, तासु रंग रस राचही |
जैश्रीकृष्णदास हित हेत सौं, जे सेवकवानी बाचही ||
सेवक दरसायौ प्रगट, हित–मग सब सुख सार |
चलैं तिही अनुकूल जे, पावैं नित्याबिहार ||
सेवै श्रीहरिवंश–पद, सेवक सो ही मानि |
और कहै औरहिं भजै, सो विभचारी जानि ||
सेवक–गिरा प्रमाण करि, सेवै व्यासकुमार |
सेवक सोई जानिये, और सकल व्यभिचार ||
सेवक कही सोई करैं, परसैं नहिं कछू आन |
सेवक सोई जानिये, रसिकअनन्य सुजान ||
|| इति फलस्तुति ||