Shri Hit Karuna Beli
||१||
श्री व्यास सुवन करुणा अब करौ, मो सिर चारू चरण रज धरौ |
श्री हितरूप कृपा की आशा , याचत उर धरि बडौ हुलासा ||
||२||
करुणा निधि तुम नाम कहावै, मोसौ दीन चरन रति पावै |
प्रथम करौ करुणा गुरु राज, जिनकौ शरण गहे की लाज ||
||३||
पुनि ये रसिक सुद्रष्टि निहारौ, मोपै करुणा सदा विचारौ |
करुणा दया साधू गुरु करि हैं, मो उर ताप तिमिर सब हरि है ||
||४||
श्रीगुरु साधु जाहि अपनावै, तेई जन हरि के मन भावै |
जिनको विरद विदित जग माँही, अभय करै पकरै जा बाँही ||
||५||
हें करुणा निधि करुणा कीजै, अब निज शरण रावरी दीजै |
ऐसी सदा विचारौ चितही, हौ तव कृपा मनावत नितही ||
||६||
विनती सुनो साधु मन रंजन, तुम पद कमल सकल दुख गंजन |
अहो नाथ ! तुम दीन दयाला, अपने कौ कीजै प्रतिपाला ||
||७||
मो करनी नहि चित में धरिये, अपनी कृपा ओर हि ढरिये |
जो मम औगुन ग्रहन करौगे, अपनौ विरद आप बिसरौगे ||
||८||
करुणामय यह विरद बढ़ावौ, जो हमसे दीनन अपनावौ |
अहो कृष्ण पद रति अब पाऊँ, जुगल केलि कल कीरति गाऊँ ||
||९||
देहु कृष्ण यह भक्ति सुधन है, तुम दासन के हिय दृढपन है |
भक्तन की अभिलाषा दायक, हो राधापति तुम सब लायक ||
||१०||
देहु देहु करुणा करि पद रति, तुम समान को त्रिभुवन में पति |
हे व्रज ईश सीस दीजै पद, तुम हौ परम दया करुणा हद ||
||११||
करौ अनुग्रह अपने जन कौ, जैसे गौ चाहत बच्छन कौ |
यौ हरि देहु भक्ति वरदानै, जा कीरति कौ जगत बखानै ||
||१२||
हे गोकुल विधु ! वदन दिखावौ, नैन चकोरन सुधा पिवावौ |
निरखि सफल ह्वे है दृग मेरे, पावन गुण गाऊँ मै तेरे ||
||१३||
अहो अहो त्रिभुवन के स्वामी, तुम हौ सब के अंतरयामी |
याते अपनी ओर निहारौ, मेरो दोष न चित में धारौ ||
||१४||
मिलन आस की बेलि निपाई, ऐसी करौ जू अफल न जाई |
तुम पद दरसन पूरण फल है, दै सतसंगत सींचत जल है ||
||१५||
यह अभिलाषा रहत मन नित है, प्राणनाथ मम आरत चित है |
तुम समरथ हौ दीन महाई, शरण गहे की तुम्है बड़ाई ||
||१६||
हे व्रज दूलह ! नन्द दुलारे ! कब ऐहो दृग आगे प्यारे |
नहि जानै किहि छिन दरसौगे, तपत हिये कब सुख बरसौगे ||
||१७||
कानन सघन वीथियन माँही, निरखौ प्रिया अंश गरवाही |
पूरित नेह वचन सुनि हौ जब, श्रवण लाभ फल हरि गनिहौ तब||
||१८||
हे वृन्दावनचन्द विनोदी, देहु दान हौ ओटत गोदी |
बात तुम्हारी जीवन मेरी, सब विधि पूजौ आश सबेरी ||
||१९||
परम दया के मन्दिर तुम हीं, यातैं शरण गहत है हमही |
राखो नाथ कृपा करि नेरैं, अहो कृपा निधि हम नित टेरै||
||२०||
तुम गुण गहर कमल दल लोचन, अपने जन के सब दुख मोचन |
हे सुन्दरवर तुम हौ नगधर, दिजै अभयदान सिर कर-वर||
||२१||
सुनौं कान दै विनती हो हरि, तुमहिं सुनाऊँ बहुत भाँति करि |
अपने को सुधि आपु न लीजै, ऐसी कहा निठुरता कीजै ||
||२२||
और बात नहि चितहि विचारौ, कृपा द्रष्टि मम ओर निहारौ |
इहि विधि नाथ तुम्हारो जस है, जो बिसरौ तौ का मम बस है ||
||२३||
अहो कृष्ण ! जो दास कहावै, सो क्यों जगत माँहि दुख पावै |
यह तौ बड़ी त्रास आवत है, कृपा अवधि क्यों तोहि भावत है ||
||२४||
कबहुँ न करौ दयाल ऐसौ अब, चाहत शरण तुम्हारी हम सब |
अपने जन की लज्जा गहिवै, बहुत न आवत है प्रभु कहिवै ||
||२५||
जाकौ अनुग सो न सुधि लेहि, वह न कहावै नाथ सनेही |
अगनित द्द्न्द देह के पथ है, तुम बिन टारन को समरथ है ||
||२६||
बार-बार हम हरि यह जाचै, तुम पद छाँडि अनत नहि राचै |
ऐसी सुमति देहु करुणानिधि, कहौ प्राणपति मिलिहौ किहि विधि ||
||२७||
कब उपजेगी यह मन माँही, राखौगे मोहि चरणन छाँहि |
मै तो निश्चय यहि करि है, तुम धौ जियमे कहा धरी है ||
||२८||
खोटो खरौ परौ जो शरणी, कहा देखिवे ताकी करणी |
विरद तुम्हारो विदित रसाला, अब तौ करे वनै प्रतिपाला ||
||२९||
कब ऐहो इन नैननि आगे, कब ये रूप तिहारे पागे |
हें राधापति तुम पद दरसौ, सुजस रावरो गावत सरसौ ||
||३०||
हें अभिराम श्याम वनवासी, कब परसौ वे पद सुखराशी |
अब उर आशा अधिक भई है, तुम धौ मनमे कहा ठई है ||
||३१||
देहु न नाथ अनाकनी मोसौ, अपनी व्यथा सुनाई तोसौ |
भली लगै सो करिहौ ब्रजपति, मेरे तौ तुम ही हौ हरि गति ||
||३२||
अहो जुगल विधु मो दृग भूषण, कब सींचौगे प्रेम पियुषण |
कौतुक मिथुन सकल सुख ऐना, बन घन रमत निहारौ नैना ||
||३३||
निभृत निकुंज ते निकसो जबही, मेरी द्रष्टि परौगे तब ही |
कब ह्वे है वह मंगल बिथियाँ, आवत युगल अंश भुज धरियाँ ||
||३४||
अब कछु कहत परस्पर बानी, सो तौ परम नेह-रस सानी |
ताहि सुनत बदलै गति तन की, पूजै अभिलाषा सब मन की ||
||३५||
हे सुखरासि दास्य अब पाउँ, हे प्रभु तुम पद कृपा मनाऊँ |
कानन कमनी केलि विलोको, निरखत पलक धरनि गति रोको ||
||३६||
ऐसौ बानक बनि है कबहूँ, करुणामय विनती सुन अबहूँ |
अति अभिराम श्याम सुखदाता, तुम पतितन पावन विख्याता ||
||३७||
अहो अकिंचन जन-मन भावन, भक्तन उर आनन्द बढ़ावन |
दासन भीर सदा लागत हौ, अब कछु नाथ दूर भागत हौ ||
||३८||
जो तुम कहो करम तुम खोटे, तौ तुम हरि का विधि हौ मोटे |
करमन के बस तुम जन होई, तौ तुव भजन करै क्यों कोई||
||३९||
जो तुम बड़े करम ठहरावौ, तौ तुम क्यों जग-ईश कहावौ |
जाके दंड जगत ये नाँचै, सोई धनी कहावै साँचै ||
||४०||
जो हरिदास करम बस कहिये, तो प्रभु तुमहि न ऐसी चहिये |
नीति अनीति आपही देखो, हमकौ याकौ बड़ो परेखौ ||
||४१||
उत्तम करमन करि जो तरिये, तौ तुमको काहे अनुसरिये |
ये हठ छाँडि देउ अब हरि किन, करमन लार बहावौ प्रभु जिन ||
||४२||
साधू सभा के तुम ही मंडन, करो कटाक्ष कर्म होय खंडन |
हो ब्रजनाथ साथ देउ मेरो, ऐचौ पकरि बाँहि हौ तेरौ ||
||४३||
हौ भूल्यो संसार-विषय-वन, भ्रमत फिरौ पाऊँ पीड़ा तन |
तुम सौ दयाल देखि छिटकावै, कहौ कृष्ण को पार लगावै ||
||४४||
यह गति देखि जो न कसकै मन, तो हरि कहा कहाये तौ जन |
अपने कौ स्वामी जो तजिहै, लेहु विचार कौन हरि लजिहै ||
||४५||
जो अगतिन की गति न करि है, कहो कृष्ण कौ फैट पकरि है |
अब चितवौ रंचक सुद्रष्टि कर, अखिल भुवन तौ जाय नाथ तर ||
||४६||
जाकौ जतन कहा करीवै है, रंचक दया ह्रदय धरिवै है |
तूम तौ दीनदयाल-प्रभु अति, हौ हित रूप चरण पाऊँ रति||
||४७||
तुम हरि उर आनन्द भरन हौ, भक्तन की आरति जु हरण हौ |
अब न गहर कीजै इत देखो, जैसे टरै करम की रेखो ||
||४८||
हो दुख दमन रसिक राधापति, भक्तिदान दीजै उदार-मति |
दाता देत कछू नहि राखै, श्रीगुरु-सन्त भागवत भाखै ||
||४९||
देहु देहु पद सेव सदाई, तुम दानी हौ कृपण महाई |
सब जुग माहि विदित यह गाथा, जो अनाथ सो किये सनाथा ||
||५०||
ताते विरद पुरातन गहिये, तुमसौ बार बार हरि कहिये |
वृन्दावन हित रूप रावरे, कब परी हौ मम द्रष्टि सांवरे||
||५१||
राधा रसिक कहावौ नागर, भक्तन की गति करुणा सागर |
वरद सुनाई बेली करुणा, अब तौ नाथ कृपा दिस ढरुणा ||
||५२||
हौ नहि लोक भ्रमन ते डरोई, एक बात कौ संशय करोई |
बिसरौ जिन उर ते भगवंत, इच्छा बस तन धरो अनन्त ||
||५३||
जो कोउ जाकी शरणे-आवै, यधपि ओगुनी दण्ड न पावै |
अहो शरणागत-पालक गिरधर, अब मो लाज राख सुन्दरवर ||
||५४||
सती चढी सर अगनि न जारै, कहौ नाथ वह कहाँ पुकारै |
प्यासे कौ जल नदी न देई, तौ हरि कहौ कौन सुधि लेई ||
||५५||
प्रफुलित कमल रोष रवि ठानै, इहि दुख वारिज कहाँ बखानै |
चन्द्र चकोरनि ते दूरि रहि है, हो हरि व्यथा कहाँ वह कहि है ||
||५६||
दीपक मन्दिर हरै न तमको, तौ प्रभु तुम बिसरावौ हमको |
जो जल काठ न तरै गुसाँई, तरुवर बैठन देत न छाई ||
||५७||
सुनौ प्राणपति तौ कहा बस है, जोपै उन मन धरयो विरस है |
ये व्रत तजै तो अचरज नाहीं, पै न संभवै प्रभु तुम मांही ||
||५८||
अहो कृष्ण अब करो न ऐसी, जैसी तुम जु विचारौ तैसी |
नैक सुद्रष्टि करौ मम ओरी, कारज होय बात यह थोरी ||
||५९||
हे बलबीर धीर मति पनके, रक्षक सदा आपने जनके |
त्राहिमाम शरणागति आयौ, त्याग न उचित जु भृत्य कहायौ ||
||६०||
सुनौ कान दै कानन वासी, अब जिन जगत करावौ हाँसी |
तुम जु ज्ञान घन त्रिभुवन ईसौ, अभय कर कमल धरौ मम सीसौ ||
||६१||
मै विनती प्रभु करी घनेरी, कही रूचि दैनी प्रेम पहेरी |
सुनके नाथ धरो मन माँही, जैसे परयौ रहौ पद छाँही||
||६२||
तुम लायक दायक सबही सुख, दर्शाऔ काहे न सुन्दर मुख |
पाउँ यह प्रसाद शोभा-घर, ब्रजपति नन्दन जो राधावर||
श्रीहरिवंश प्रताप तै, वरणी करुणा-बेलि |
ब्रजभूषण राधा धनी, दरसावो रस-केलि ||
सम्वत सै दस आठ गत, चार वरष उपरन्त |
कृष्ण दास अभिलाष हित, कथी सुनौ हरि सन्त ||
जेठ वदी पाँचे सु दिन, बलि हित रूप विचार |
हरि गुरु साधु कृपा करि, वरन्यौ यह सुखसार ||
दिनबन्धु करुणा अवधि, भक्तवत्सल यह नाम |
वृन्दावन हित लेउ सुधि, विरद बढै ज्यौ श्याम ||