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श्री हित करुणा बेली

Shri Hit Karuna Beli

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।। करुणा बेली ।।

- श्री हित चाचा वृंदावन दास जी कृत

||||

श्री व्यास सुवन करुणा अब करौ, मो सिर चारू चरण रज धरौ |

श्री हितरूप कृपा की आशा , याचत उर धरि बडौ हुलासा ||

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करुणा निधि तुम नाम कहावै, मोसौ दीन चरन रति पावै |

प्रथम करौ करुणा गुरु राज, जिनकौ शरण गहे की लाज ||

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पुनि ये रसिक सुद्रष्टि निहारौ, मोपै करुणा सदा विचारौ |

करुणा दया साधू गुरु करि हैं, मो उर ताप तिमिर सब हरि है ||

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श्रीगुरु साधु जाहि अपनावै, तेई जन हरि के मन भावै |

जिनको विरद विदित जग माँही, अभय करै पकरै जा बाँही ||

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हें करुणा निधि करुणा कीजै, अब निज शरण रावरी दीजै |

ऐसी सदा विचारौ चितही, हौ तव कृपा मनावत नितही ||

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विनती सुनो साधु मन रंजन, तुम पद कमल सकल दुख गंजन |

अहो नाथ ! तुम दीन दयाला, अपने कौ कीजै प्रतिपाला ||

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मो करनी नहि चित में धरिये, अपनी कृपा ओर हि ढरिये |

जो मम औगुन ग्रहन करौगे, अपनौ विरद आप बिसरौगे ||

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करुणामय यह विरद बढ़ावौ, जो हमसे दीनन अपनावौ |

अहो कृष्ण पद रति अब पाऊँ, जुगल केलि कल कीरति गाऊँ ||

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देहु कृष्ण यह भक्ति सुधन है, तुम दासन के हिय दृढपन है |

भक्तन की अभिलाषा दायक, हो राधापति तुम सब लायक ||

||१०||

देहु देहु करुणा करि पद रति, तुम समान को त्रिभुवन में पति |

हे व्रज ईश सीस दीजै पद, तुम हौ परम दया करुणा हद ||

||११||

करौ अनुग्रह अपने जन कौ, जैसे गौ चाहत बच्छन कौ |

यौ हरि देहु भक्ति वरदानै, जा कीरति कौ जगत बखानै ||

||१२||

हे गोकुल विधु ! वदन दिखावौ, नैन चकोरन सुधा पिवावौ |

निरखि सफल ह्वे है दृग मेरे, पावन गुण गाऊँ मै तेरे ||

||१३||

अहो अहो त्रिभुवन के स्वामी, तुम हौ सब के अंतरयामी |

याते अपनी ओर निहारौ, मेरो दोष न चित में धारौ ||

||१४||

मिलन आस की बेलि निपाई, ऐसी करौ जू अफल न जाई |

तुम पद दरसन पूरण फल है, दै सतसंगत सींचत जल है ||

||१५||

यह अभिलाषा रहत मन नित है, प्राणनाथ मम आरत चित है |

तुम समरथ हौ दीन महाई, शरण गहे की तुम्है बड़ाई ||

||१६||

हे व्रज दूलह ! नन्द दुलारे ! कब ऐहो दृग आगे प्यारे |

नहि जानै किहि छिन दरसौगे, तपत हिये कब सुख बरसौगे || 

||१७||

कानन सघन वीथियन माँही, निरखौ प्रिया अंश गरवाही |

पूरित नेह वचन सुनि हौ जब, श्रवण लाभ फल हरि गनिहौ तब|| 

||१८||

हे वृन्दावनचन्द विनोदी, देहु दान हौ ओटत गोदी |

बात तुम्हारी जीवन मेरी, सब विधि पूजौ आश सबेरी ||

||१९||

परम दया के मन्दिर तुम हीं, यातैं शरण गहत है हमही |

राखो नाथ कृपा करि नेरैं, अहो कृपा निधि हम नित टेरै|| 

||२०||

तुम गुण गहर कमल दल लोचन, अपने जन के सब दुख मोचन |

हे सुन्दरवर तुम हौ नगधर, दिजै अभयदान सिर कर-वर|| 

||२१||

सुनौं कान दै विनती हो हरि, तुमहिं सुनाऊँ बहुत भाँति करि |

अपने को सुधि आपु न लीजै, ऐसी कहा निठुरता कीजै ||

||२२||

और बात नहि चितहि विचारौ, कृपा द्रष्टि मम ओर निहारौ |

इहि विधि नाथ तुम्हारो जस है, जो बिसरौ तौ का मम बस है ||

||२३||

अहो कृष्ण ! जो दास कहावै, सो क्यों जगत माँहि दुख पावै |

यह तौ बड़ी त्रास आवत है, कृपा अवधि क्यों तोहि भावत है ||

||२४||

कबहुँ न करौ दयाल ऐसौ अब, चाहत शरण तुम्हारी हम सब |

अपने जन की लज्जा गहिवै, बहुत न आवत है प्रभु कहिवै ||

||२५||

जाकौ अनुग सो न सुधि लेहि, वह न कहावै नाथ सनेही |

अगनित द्द्न्द देह के पथ है, तुम बिन टारन को समरथ है ||

||२६||

बार-बार हम हरि यह जाचै, तुम पद छाँडि अनत नहि राचै |

ऐसी सुमति देहु करुणानिधि, कहौ प्राणपति मिलिहौ किहि विधि ||

||२७||

कब उपजेगी यह मन माँही, राखौगे मोहि चरणन छाँहि |

मै तो निश्चय यहि करि है, तुम धौ जियमे कहा धरी है ||

||२८||

खोटो खरौ परौ जो शरणी, कहा देखिवे ताकी करणी |

विरद तुम्हारो विदित रसाला, अब तौ करे वनै प्रतिपाला ||

||२९||

कब ऐहो इन नैननि आगे, कब ये रूप तिहारे पागे |

हें राधापति तुम पद दरसौ, सुजस रावरो गावत सरसौ ||

||३०||

हें अभिराम श्याम वनवासी, कब परसौ वे पद सुखराशी |

अब उर आशा अधिक भई है, तुम धौ मनमे कहा ठई है ||

||३१||

देहु न नाथ अनाकनी मोसौ, अपनी व्यथा सुनाई तोसौ |

भली लगै सो करिहौ ब्रजपति, मेरे तौ तुम ही हौ हरि गति ||

||३२||

अहो जुगल विधु मो दृग भूषण, कब सींचौगे प्रेम पियुषण |

कौतुक मिथुन सकल सुख ऐना, बन घन रमत निहारौ नैना ||

||३३||

निभृत निकुंज ते निकसो जबही, मेरी द्रष्टि परौगे तब ही |

कब ह्वे है वह मंगल बिथियाँ, आवत युगल अंश भुज धरियाँ ||

||३४||

अब कछु कहत परस्पर बानी, सो तौ परम नेह-रस सानी |

ताहि सुनत बदलै गति तन की, पूजै अभिलाषा सब मन की ||

||३५||

हे सुखरासि दास्य अब पाउँ, हे प्रभु तुम पद कृपा मनाऊँ |

कानन कमनी केलि विलोको, निरखत पलक धरनि गति रोको ||

||३६||

ऐसौ बानक बनि है कबहूँ, करुणामय विनती सुन अबहूँ |

अति अभिराम श्याम सुखदाता, तुम पतितन पावन विख्याता ||

||३७||

अहो अकिंचन जन-मन भावन, भक्तन उर आनन्द बढ़ावन |

दासन भीर सदा लागत हौ, अब कछु नाथ दूर भागत हौ ||

||३८||

जो तुम कहो करम तुम खोटे, तौ तुम हरि का विधि हौ मोटे |

करमन के बस तुम जन होई, तौ तुव भजन करै क्यों कोई||

 ||३९||

जो तुम बड़े करम ठहरावौ, तौ तुम क्यों जग-ईश कहावौ |

जाके दंड जगत ये नाँचै, सोई धनी कहावै साँचै ||

||४०||

जो हरिदास करम बस कहिये, तो प्रभु तुमहि न ऐसी चहिये |

नीति अनीति आपही देखो, हमकौ याकौ बड़ो परेखौ ||

||४१||

उत्तम करमन करि जो तरिये, तौ तुमको काहे अनुसरिये |

ये हठ छाँडि देउ अब हरि किन, करमन लार बहावौ प्रभु जिन ||

||४२||

साधू सभा के तुम ही मंडन, करो कटाक्ष कर्म होय खंडन |

हो ब्रजनाथ साथ देउ मेरो, ऐचौ पकरि बाँहि हौ तेरौ ||

||४३||

हौ भूल्यो संसार-विषय-वन, भ्रमत फिरौ पाऊँ पीड़ा तन |

तुम सौ दयाल देखि छिटकावै, कहौ कृष्ण को पार लगावै ||

||४४||

यह गति देखि जो न कसकै मन, तो हरि कहा कहाये तौ जन |

अपने कौ स्वामी जो तजिहै, लेहु विचार कौन हरि लजिहै ||

||४५||

जो अगतिन की गति न करि है, कहो कृष्ण कौ फैट पकरि है |

अब चितवौ रंचक सुद्रष्टि कर, अखिल भुवन तौ जाय नाथ तर ||

||४६||

जाकौ जतन कहा करीवै है, रंचक दया ह्रदय धरिवै है |

तूम तौ दीनदयाल-प्रभु अति, हौ हित रूप चरण पाऊँ रति||

||४७||

तुम हरि उर आनन्द भरन हौ, भक्तन की आरति जु हरण हौ |

अब न गहर कीजै इत देखो, जैसे टरै करम की रेखो ||

||४८||

हो दुख दमन रसिक राधापति, भक्तिदान दीजै उदार-मति |

दाता देत कछू नहि राखै, श्रीगुरु-सन्त भागवत भाखै ||

||४९||

देहु देहु पद सेव सदाई, तुम दानी हौ कृपण महाई |

सब जुग माहि विदित यह गाथा, जो अनाथ सो किये सनाथा ||

 ||५०||

ताते विरद पुरातन गहिये, तुमसौ बार बार हरि कहिये |

वृन्दावन हित रूप रावरे, कब परी हौ मम द्रष्टि सांवरे||

||५१||

राधा रसिक कहावौ नागर, भक्तन की गति करुणा सागर |

वरद सुनाई बेली करुणा, अब तौ नाथ कृपा दिस ढरुणा ||

||५२||

हौ नहि लोक भ्रमन ते डरोई, एक बात कौ संशय करोई |

बिसरौ जिन उर ते भगवंत, इच्छा बस तन धरो अनन्त ||

||५३||

जो कोउ जाकी शरणे-आवै, यधपि ओगुनी दण्ड न पावै |

अहो शरणागत-पालक गिरधर, अब मो लाज राख सुन्दरवर ||

||५४||

सती चढी सर अगनि न जारै, कहौ नाथ वह कहाँ पुकारै |

प्यासे कौ जल नदी न देई, तौ हरि कहौ कौन सुधि लेई ||

||५५||

प्रफुलित कमल रोष रवि ठानै, इहि दुख वारिज कहाँ बखानै |

चन्द्र चकोरनि ते दूरि रहि है, हो हरि व्यथा कहाँ वह कहि है ||

||५६||

दीपक मन्दिर हरै न तमको, तौ प्रभु तुम बिसरावौ हमको |

जो जल काठ न तरै गुसाँई, तरुवर बैठन देत न छाई ||

||५७||

सुनौ प्राणपति तौ कहा बस है, जोपै उन मन धरयो विरस है |

ये व्रत तजै तो अचरज नाहीं, पै न संभवै प्रभु तुम मांही ||

||५८||

अहो कृष्ण अब करो न ऐसी, जैसी तुम जु विचारौ तैसी |

नैक सुद्रष्टि करौ मम ओरी, कारज होय बात यह थोरी ||

||५९||

हे बलबीर धीर मति पनके, रक्षक सदा आपने जनके |

त्राहिमाम शरणागति आयौ, त्याग न उचित जु भृत्य कहायौ ||

||६०||

सुनौ कान दै कानन वासी, अब जिन जगत करावौ हाँसी |

तुम जु ज्ञान घन त्रिभुवन ईसौ, अभय कर कमल धरौ मम सीसौ ||

 ||६१||

मै विनती प्रभु करी घनेरी, कही रूचि दैनी प्रेम पहेरी |

सुनके नाथ धरो मन माँही, जैसे परयौ रहौ पद छाँही||
 ||६२||

तुम लायक दायक सबही सुख, दर्शाऔ काहे न सुन्दर मुख |

पाउँ यह प्रसाद शोभा-घर, ब्रजपति नन्दन जो राधावर||

श्रीहरिवंश प्रताप तै, वरणी करुणा-बेलि |

ब्रजभूषण राधा धनी, दरसावो रस-केलि ||

सम्वत सै दस आठ गत, चार वरष उपरन्त |

कृष्ण दास अभिलाष हित, कथी सुनौ हरि सन्त ||

जेठ वदी पाँचे सु दिन, बलि हित रूप विचार |

हरि गुरु साधु कृपा करि, वरन्यौ यह सुखसार ||

दिनबन्धु करुणा अवधि, भक्तवत्सल यह नाम |

वृन्दावन हित लेउ सुधि, विरद बढै ज्यौ श्याम ||