Vyahula Festival
रास के पद
– श्री हित हरिवंश महाप्रभु जी कृत (श्रीहित चतुरासीजी पद सं-६२)
खेलत रास दुलहनि दुलहु ।
सुनहु न सखी सहित ललितादिक, निरखि-निरखि नैंनन किन फूलहु ॥
अति कल मधुर महा मोहन धुनि, उपजत हंस-सुता के कूलहु ।
थेई- थेई वचन मिथुन मुख निसरत, सुनि-सुनि देह दशा किन भूलहु ॥
मृदु पदन्यास उठत कुमकुम रज, अद् भुत बहत समीर दुकूलहु ।
कबहुँ श्याम श्यामा-दसनांचल, कच-कुच हार छुवत भुज मूलहु ॥
अति लावन्य रूप अभिनय गुन, नाहिन कोटि काम समतूलहु ।
भृकुटि विलास हास रस बरषत, जै श्रीहित हरिवंश प्रेम रस झूलहु ॥
व्याहुला के पद
– श्री हित ध्रुवदासजी कृत
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॥१॥
सखियनि के उर ऐसी आई । ब्याह-विनोद रचैं सुखदाई ।
यहै बात सबकैं मन भाई । आनँद-मोद बढ्यौ अधिकाई ॥
बढ्यौ आनँद मोद सब कैं, महा प्रेम सुरँग रँगी । और कछु न सुहाइ तिनकौं, जुगल सेवा-सुख पगी ॥
निसि-द्यौस जानत नाँहि सजनी, एक रस भींजी रहैं । गोप-गोपिनु आदि दुर्लभ, तिहिं सुखहि दिन-प्रति लहैं ॥
॥२॥
यह नव दुलहिनि अति सुकुमारी । ये नव दूलहु लाल-विहारी । रँग-भीने दोउ प्रान-पियारे । नवसत अंगनि अंग सिंगारे ॥
नवसत सिंगारे अंग-अंगनि, झलक तन की अति बढ़ी । मौर-मौरी सीस सोहैं, मैंन-पानिप मुख चढ़ी ॥
जलज सुमन सुसेहरे रचि, रतन हीरे जगमगैं । देखि अद्भुत रूप मनमथ, कोटि रति पाँइनिं लगैं ॥
॥३॥
सोभा मंडप कुंज द्वारैं । हित की बाँधी बंदनवारैं । कुम-कुम सौं लै अजिर लिपायौ । अद्भुत मोतिनु चौक पुरायौ ॥
पुराइ अद्भुत चौक मोतिनु, चित्र-रचना बहु करी । आइ दोउ ठाढ़े भये तहाँ, सबनि की गति-मति हरी ॥
सुरँग महँदी रंग राचे, चरन-कर अति राजहीं । विविध रागिनि किंकिनि, अरु मधुर नूपुर बाजहीं ॥
॥४॥
वेदी सेज सुदेस सुहाई । मन दृग अंचल ग्रंथि जुराई। रीति-भाँति विधि उचित बनाई । नेह की देवी तहाँ पुजाई ॥
पूजि देवी नेह की दोउ, रति-विनोद विहारहीं । तिहि समैं सखि ललितादि हित सौं, हेरि प्राँननि वारहीं ॥
एक वैस सुभाव एकै, सहज जोरी सोहनी । एक डोरी प्रेम की ‘ध्रुव’, बँधे मोहन-मोहनी ॥
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श्री वृंदावन धाम रसिक मन मोहई । दूलहु दुलहिनि ब्याह सहज तहाँ सोहई ॥१॥
नित्य सहाने पट अरु भूषन साजहीं । नित्य नवल सम वैस एक रस राजहीं ॥२॥
सोभा कौ सिरमौर चंद्रिका मोर की । बरनी न जाइ कछू छबि नवल किसोर की ॥३॥
सुभग माँग रँग-रेख मनौं अनुराग की । झलकत मौरी सीस सुरंग सुहाग की ॥४॥
मनिनु-खचित नव-कुंज रही जगमग जहाँ। छबि कौ बन्यौ वितान सोई मंडप तहाँ ॥५॥
वेदी सेज सुदेस रची अति बानि कैं । भाँति-भाँति के फूल सुरँग बहु आँनि कैं ॥६॥
गावत मोर मराल सुहाये गीत री । सहचरि भरी आनंद करति रस-रीति री ॥७॥
अलबेले सुकुँवार फिरत तिहिं ठाँव री । दृग-अंचल परी ग्रंथि लेत मन भाँवरी ॥८॥
कँगना प्रेम अनूप कबहुँ नहिं छूटही । पोयौ डोरी-रूप सहज सो न टूटही ॥९॥
रचि रहे कोमल कर अरु चरन सुरंग री । सहज छबीले कुँवर निपुन सब अंग री ॥१०॥
नूपुर कंकन किंकिनी बाजे बाजहीं । निर्त्तत कोटि अनंग-नारि सब लाजहीं ॥११॥
बाढ्यौ है मन माहिं अधिक आनंद री । फूले फिरत किसोर वृंदावन-चंद री ॥१२॥
सखियनि किये बहु चार अनेक विनोद री ।
दूधाभाती हेत बढयौ मन मोद री ॥१३॥
ललित लाल की बात जबहि सखियनि कही । लाज सहित सुकुँवारि ओट पट दै रही ॥१४॥
नमित ग्रींव छबि सींव कुँवरि नहिं बोलही । बुधि-बल करत उपाइ घूँघट पट खोलही ॥१५॥
कनक-कमल कर-नील कलह अति कल बनी । हँसतिं सखी सुख हेरि सहज सोभा घनी ॥१६॥
वाम-चरन सौं सीस लाल कौ लावहीं । पानी वारि कुँवरि पर पियहि पिवावहीं ॥१७॥
मेलि सुगंध उगार सौं बीरी खवावहीं । समझि कुँवर मुसिकाइ अधिक सुख पावहीं ॥१८॥
और हास-परिहास रहसि रस-रँग रह्यौ । नित्य-विहार विनोद जथामति कछु कह्यौ ॥१९॥
अंचल ओट असीस सखी सब दैहिंरी ।
पल-पल बढ़ौ सुहाग नैंन-सुख लैहिं री ॥२०॥
जैसैं नवल-विलास नवल-नवला करैं । मन-मन की रुचि जानि नेह-विधि अनुसरैं ॥२१॥
बैठी है निज कुंज कुँवरि मन-मोहनी । झलकत रूप अपार सहज अति सोहनी ॥२२॥
चाहि-चाहि सो रूप रसिक-सिरमौर री । भरी आये दोउ नैंन भई गति और री ॥२३॥
अति आनँद कौ मोद न उरहि समात री । रीझि-रीझि रस भींजि आपु बलि जात री ॥२४॥
अरुझे मन अरु नैंन बढ़्यौ अनुराग री । एक प्रान द्वै देह नागर अरु नागरी ॥२५॥
यौं राजत दोउ प्रीतम हँसि-मुसिकात री । निरखि परस्पर रूप न कबहुँ अघात री ॥२६॥
तिनही के सुख रंग सखी दिन रँग-मँगी । और न कछू सुहाइ एक-रस सब पगी ॥२७॥
उभय रूप रस-सिंधु मगन जहाँ सब भये । दुर्लभ श्रीपति आदि सोई सुख दिन नये ॥२८॥
‘हित-ध्रुव ‘ मंगल सहज नित्य जो गावही । सर्वोपरि सोइ होइ प्रेम-रस पावही ॥२९॥
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असीस का पद
– गोस्वामी श्रीहित रूपलालजी कृत
लाड़ी जू थारौ अविचल रहौ जी सुहाग । अलक लड़े रिझवार छैल सौं, नित नव बढ़ौ अनुराग ॥
यौं नित विहरौ ललितादिक सँग, वृंदावन निजु बाग । ’रूप अली’ हित जुगल नेह लखि, मानत निजु बड़ भाग ॥