श्री मोहनदास जी
देववन निवासी मोहनदासजी नाहरमलजी के सबसे छोटे भाई थे। विट्ठलदासजी सहित तीनों भाईयों ने गुरुवर्य गो. श्रीहितहरिवंशचन्द्रजी की रसरीति में अपने को एकान्त रूप से निष्ठावान बना लिया था। मोहनदासजी ने अपने जीवन में गुरुवर्य द्वारा उपदिष्ट श्रीहितधर्म का निर्वाह भली प्रकार से किया था। इनका मन सांसारिक क्रिया-कलापों को करने में किंचिन्मात्र भी नहीं लगता था। ये अपने परम दृष्ट श्रीरंगीलालजी का लाड़ हार्दिक अनुराग के साथ लड़ाया करते थे। इनका सारा समय अनन्य रसिकों के साथ रस-चर्चा करने में ही व्यतीत होता था। पूज्य गुरुवर्य श्रीहितजीमहाराज के प्रति इनकी अपार श्रद्धा एवं इनका सर्वात्मभावेन समर्पण अत्यन्त अद्भुत था। इनका विचार था कि जो लोग अपने आराध्य के भजन में सहायक सिद्ध न हों, उनसे किसी प्रकार का सम्बन्ध रखना व्यर्थ है। यदि पत्नी, पुत्र आदि सगे सम्बन्धी जन भी इष्ट-भजन में बाधक हों, तो वे भी त्याग देने लायक हैं। मोहनदासजी ने अपने बड़े भाइयों के समान ही अपना सम्पूर्ण जीवन प्रेमधाम वृन्दावन में नित्य क्रीड़ा परायण अद्वय युगल श्रीश्यामा-श्याम की आराधना करते हुए एवं गुरु के प्रति अपूर्व निष्ठा रखते हुए ही व्यतीत किया था। इन्होंने जब यह सुना कि श्री हितप्रभु ने अपनी इह लोक लीला का संवरण करके निकुंज गमन किया है, तो इन्होंने भी बड़े भाई विठ्ठलदासजी की तरह ही उनके विरह में अपने प्राण त्याग दिये।