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श्रीबसन्तोत्सव

श्रीबसन्तोत्सव

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श्रीबसन्तोत्सव

श्रीबसन्तोत्सव माघ शुक्ला पंचमी से प्रारम्भ

गोस्वामी श्रीहितहरिवंशचन्द्रजी महाप्रभु के पद-राग बसन्त-

मधुरितु वृन्दावन आनन्द न थोर ।

राजत नागरी नव कुशल किशोर ॥

जूथिका युगल रूप मंजरी रसाल।

विथकित अलि मधु माधवी गुलाल ॥

चम्पक बकुल कुल विविध सरोज।

केतकी मेदिनी मद मुदित मनोज॥

रोचक रुचिर बहै त्रिविध समीर।

मुकुलित नूत नदत पिक कीर ॥

पावन पुलिन घन मंजुल निकुंज।

किसलय शयन रचित सुख पुंज ॥

मंजीर मुरज डफ मुरली मृदंग।

बाजत उपंग बीना वर मुखचंग ॥

मृगमद मलयज कुमकुम अबीर।

बन्दन अगरसत सुरंगित चीर ॥

गावत सुन्दरि हरि सरस धमारि।

पुलकित खग मृग बहत न वारि ॥

जय श्रीहित हरिवंश हंस-हंसिनी समाज।

एैसे ही करहु मिल जुग-जुग राज॥

राधे, देख वन की बात।

रितु बसंत अनन्त मुकुलित कुसुम अरु फल पात॥

बेनु धुनि नन्दलाल बोली सुनिव क्यों अरसात।

करत कतव विलम्ब भामिनि वृथा औसर जात॥

लाल मरकत मणि छबीलौ तुम जु कंचन गात।

बनी (जै श्री) हित हरिबंश जोरी उभै गुन गन मात॥

गोस्वामी श्रीवनचन्द्रजी महाराज कृत-

राधे बन विनोद बसंत।

अनिल त्रिविध सुगन्ध हाटक’ खचित सुधा लसंत॥

विविध बिकच प्रसून पल्लव नूत कोकिल कीर।

निरखि दम्पति मुदित निर्त्तत भवन बरहि अधीर ॥

मत्त अलिचय’ गुञ्ज मधु रव पुलक खग मृग वृन्द।

गान जुवति कदम्ब किंकिनि मुखर नूपुर मन्द।

मलय सार सुगंध चंदन चरचि जुग वर अंग।

जैश्री दासि वनमाली कपिश पट कुतप अरुनिम’ रंग ॥

गोस्वामी श्रीकृष्णचन्द्रजी कृत-

देखहु स्याम विपिन जैसौ लागत।

उपजत सुख दुख तन मन भाजत॥

अरुन किंशुक छवि मनोहर भाँति ।

मानहु बन्दन डारैं खेलैं तरु पाँति ॥

रसाल’ मंजरी चल सैनन बुलावत।

बल्लरिनु तजि भृंग विटकुल धावत॥

भ्रमत भ्रमर चय” बहु विधि गावत।

मनहुँ अपने सचु१२ लतन नचावत॥

कुञ्ज सिखर पिक बचन सुनावत।

मनु मनसिज नृप डिंडिमी बजावत॥

सौरभ पवन भुव मण्डल सुवासित॥

मनहु सयन उठि मदन उसासित१३॥

कमल कोर किहि विधि विकसात।

मनहु सोवत निसि आलस जम्हात॥

तैसीय तुम्हारी छवि राधाजू सों छाजत।

मनु बिन रितु घन दामिनि में राजत।

जै श्रीकृष्णदास हित नित रसना लड़ावत।

याही तें राधिका पति पद सुख पावत ॥

श्रीबसन्तोत्सव

देखौ वृन्दावन कुसुमित बसंत।

(जहाँ ) नदत कीर कोकिला लसंत॥

(जहाँ) जाई जुही मल्ली रसाल।

(जहाँ ) भ्रमत मुदित अति भृंग माल।

(जहाँ ) कल कुल केकी नव मराल।

बन बिहरत दोऊ रसिक लाल ॥१॥

( जहाँ ) ललितादिक सब सखी संग।

जहाँ-तहाँ बाढ़े अगनित अनंग ।।

(जहाँ) प्रीति प्रेम सुख सहज अंग।

(जहाँ) हँसत परस्पर भरत रंग ॥२॥

डारत बंदन बहु रंग अबीर।

(जहाँ) साख अरगजा रँगे चीर॥

( जहाँ) खेल मच्यौ अति भई भीर ।

(जहाँ) उमँगि चल्यौ आनन्द नीर॥३॥

(जहाँ) कुंज सदन चले करत केलि।

बहु विधि बाढ़ी रति रंग बेलि॥

जै श्रीदामोदर हित सुख सिंधु झेलि।

नित-नित बिलसौ भुज कण्ठ मेलि ॥४॥

गोस्वामी श्रीकमलनैंनजी कृत-

श्रीवृन्दावन पूजन बसंत।

मनोरथ’ बैठे दम्पति लसंत॥

इत धुजा पताका फरहरैं।

उत कदलि आदि ताहि अनुसरें ॥

इत कंचन मणि मुक्ता दुकूल।

उत हेम खचित रवि तनया कूल ॥

इत नाना धुनि सुनि भई भीर।

उत कोकिल पिक तहाँ नदत कीर॥

इत भाजन’ कुमकुम धरे पूरि।

उत पराग जुत उड़त धूरि ॥

इत पिचकारी भरत रंग।

उत केसर बहु सुमन अंग॥

इत चंदन बंदन गुलाल।

उत हरखत बनराज पाल॥

(जहाँ ) अष्टसखी वर सुखद गान।

जैश्री कमलनैंन हित करत पान।।

गोस्वामी श्रीकुञ्जलालजी कृत-

वन तन जुगल अँग-अँग फूल।

फूल द्रुम गन रंग रंगन लतन फूलन झूल।

झूम जल में फूल बरसत हरखि जमुना कूल।

फूल पुञ्ज निकुञ्ज बैठे पहरि पीत दुकूल।

कँचुकी लहँगा कनक कृत फूल सारिनु तूल।

फूल पाग झँगारु पटुका हेममय रस मूल ॥

फूल फूलन रचित भूषन परस्पर अनुकूल।

फूल भ्रम कोऊ फूल फल गहि रहत प्रीतम भूल ॥

कर फूल सौं कर फूल टारत कटि मटक प्रतिकूल ।

फूल हँसि हित कुञ्जलाल बिलास रस समतूल।’

गोस्वामी श्रीहित हरिलालजी कृत-

कौतुक बन कौतुक अति मधुरितु नाना विधि दरसायौ ।

अति कौतुक तामें मोहन सिर सखिनु बसंत बँधायौ ॥

श्रीराधा सजि टोल आपुने कौतुक मन्त्र उपायौ।

मृगमद केसर अतर अरगजा भाजन विविध भरायौ ॥

बाजत हैं बाजे बहु भाँतिनु मदन उमाह बढ़ायौ।

झुरमट प्रेम मच्यौ बन कुञ्जन इत उत भीज भिजायौ ॥

होरी बोलत डोलत बीथिन अबीर गुलाल उड़ायौ।

आज रंग सुखसागर नागर कानन गहर बढ़ायौ ॥

शोभा भीर तीर रविजा के कौतुक खेल मचायौ।

छिरकत चीर शरीर सने रंग मानहुँ प्रेम रँगायौ ॥

प्रथम फाग दिन मानि बोहनी’ सखिनु प्राण सौ पायौ।

जै श्रीहित हरिलाल रूप रस अम्बुद राधा हरि बरसायौ ॥

गोस्वामी श्रीरूपलालजी कृत-

दिन दूलह मेरौ लाल बिहारी, दुलहिनि नित्य किशोरी ।

प्रेम रूप आसक्ति विलोकत विवि मुख चन्द्र चकोरी।

फबि रह्यौ मुकुट चन्द्रिका भूषन तनसुख बसन बिराजैं।

रतनारे अति तीक्षन कुटिल कटाक्षन साधें।

मृदु मुसकान बिकान अनियारे लोचन रतिपति कौ दल साजै ॥

भृकुटी धनुष बान बानि अलि मनमथ को मन बाँधें।

फैटन भरे गुलाल ख्याल हित करन कनक पिचकारी ।

केसर अतर अरगजा चोबा भरत परस्पर भारी॥

तालमृदग करन डफ गावत अलि बसन्त लै आईं।

पहिराई वनमाल लाल उर बालहिं देत बधाई॥

पचरंग हरखि अबीर उड़ावत नाचत मधि पिय प्यारी ।

जै श्रीरूपलाल हित चित रँग भीने निरखि निरखि बलिहारी॥

श्री (दामोदर) सेवकजी महाराज कृत-

रितु बसन्त बन फल सुमन चित प्रसन्न नव कुञ्ज।

हित दम्पति रति कुशल मति वितु सञ्चित सुखपुञ्ज ॥

वितु सञ्चित सुख पुञ्ज गुञ्ज मधुकर सुनाद धुनि ॥

रुञ्ज मृदंग उपंग धुञ्ज डफ झंझ ताल सुनि॥

मंजु जुवति रस गान लुञ्ज’ इव खग तहाँ बिथकित ॥

भुञ्जत रास विलास कुञ्ज नव सचि बसन्त ऋतु ॥

स्वामी श्रीहरिदासजी कृत-

कुच गडुवा जोवन मौर कंचुकी वसन ढाँपि लै राख्यौ बसन्त।

ये गुन मन्दिर रूप बगीचा में बैठी हैं मुख लसन्त॥

कोटि काम लावण्य बिहारी जाहि देखत सब दुख नसन्त।

ऐसे रसिक श्रीहरिदास के स्वामी ताकौं भरन आईं मिलि हसन्त ॥

श्रीव्यासजी कृत-

देखि सखी अति आज बन्यौरी वृन्दाविपिन समाज ।

आनन्दित ब्रज लोग भोग सुख सदा श्याम कौ राज ॥

राधारवन बसन्त नचायौ पंचम धुनि सुनि कान।

धरनि गिरत सुर किन्नर कन्या बिथकित गगन विमान ॥

पुलकित कोकिल कुंजन ऊपर गुंजत मधुकर पुंज।

बाजत महुवर बैन झांझ डफ ताल पखावज रुंज ॥

केसर भरि भरि लै पिचकारी छिरकत श्यामहि धाइ ।

छिरकि कुँवरि बूका भरि चोबा लई कंठ लपटाय ॥

मुकुलित विविध विटपकुल वर्षत पावन पवन पराग।

तन-मन-धन न्यौछावर कीन्हौं निरखि व्यास बड़भाग॥

श्रीनागरीदासजी कृत-

बिहरत विपिन फिरत रंग ढरकी।

हरखि गुलाल उड़ाय लाड़िली सम्पति कुसुमाकर’ की॥

कसूंभी सारी सौंधे भीजी ऊपर बन्दन भुरकी’।

चोली नील ललित अंचल चल झलक उजागर उर की॥

मृदुल सुहास तरल दृग कुण्डल मुख अलकावलि रुरकी।

श्रीनागरीदासि केलि सुख सनि रहे मैन ललक नहीं मुरकी ॥

श्रीध्रुवदासजी कृत-

राजैं वृन्दावन श्री नव निकुंज।

तहाँ मधुप करत अनुराग गुंज ॥

जहाँ गौर श्याम छवि नवल रासि।

आई ऋतु बसन्त भयौ हिय हुलास ॥

जहाँ चन्दन बन्दन मथि सुवास ।

जहाँ छिरकत हँसि हँसि करि विलास ॥

राजैं नवल नवल सखी यूथ संग।

कर एकन बीना डफ मृदंग ।।

लियें एक गुलाल सुरंग रंग।

भये सुरंगित वसन सुदेस’ अंग॥।

जहाँ निर्त्तत रसिक किशोर जोर।

छबि निरखि छके चहूँ ओर मोर ॥

जहाँ वंशी रव सुनि श्रवन थोर ।

जहाँ खग कुरंग बँधे प्रेम डोर ॥

जहाँ कुमकुम झलकत तन सुदेस।

जहाँ फबि रहे कुंचित रुचिर केश॥

जहाँ हित ध्रुव निरखि अनूप वेश।

कछु कहि न सकत छबि छटा लेश॥

गोस्वामी श्रीकिशोरीलालजी कृत-

भाइ भरे रस चायन खेलत राधाकान्त बसन्त ।

प्रथम पंचमी मनसिज उद्भव बन बैभव नहीं अन्त ॥

सौरभ सार भरत रँग छींटन नौतन वसन लसन्त॥

जै श्रीकिशोरीलाल हित रूप मिथुन रस विलसत मन हुलसन्त॥

इति श्रृंखला॥

गोस्वामी श्रीहित हरिवंशचन्द्रजी के भेट के पद-राग बसन्त-

नवल बसन्त नवल वृन्दावन नवल लाल खेलैं होरी ।

नवसत साज नये रंग पहिरे नौतन केशर घोरी ॥

नव-नव साखि जवादि कुमकुमा अबीर भरे भरि झोरी ।

नई-नई सखी नई छवि पावैं नवल-नवल बनी जोरी ॥

नई सहनाई नई डफ बाजत नव मुरली धुनि थोरी ।

नवल सखी मिलि चाँचर गावत नवल राधिका गोरी॥

कालिंदी तट नौतन सोभा नवल चकोर चकोरी।

जै श्री हित हरिवंश प्रेम रस क्रीड़त नवल किशोर किशोरी ॥

गोस्वामी श्रीवनचन्द्रजी के पद-राग बसन्त

राधे श्याम संग बिहरत।

ऋतु बसन्त सुचारु अवनी अनिल सुभग बहंत ॥

नूत पल्लव बदत कोकिल विपिन जुत सोभ।

कुसुम कुन्द कदम्ब केतुकी द्रुमन षटपद लोभ ॥

लसत उन्मद मत्त निर्त्तत रुचिर अद्भुत मोर।

चकित मनमथ सरन जाँचत निरखि जुगल किशोर ॥

अगरसत घन चरचि कुमकुम अंग उड़त अबीर।

जै श्रीदासि वनमाली जुवति गान विवस अधीर ॥

गोस्वामी श्रीकृष्णचन्द्रजी के पद- राग बसन्त

क्षण मिह विश सखि कुंज निकेते।

मंजुल किशलय शयन समेते ॥

तपन सुता वलितांतिक देशे।

सञ्चरदुज्वल जल कण लेशे ॥

मृदुल पवन चल कुसुमित शाखे।

मत्त सुपेशल कोकिल भाषे॥

शशि किरणाकुल रंध्र विभागे ।

भृंग समूह कलित कल रागे।

तब वल्लभ वन मध्य निवासे ।

कुरु सुकेलि रति शीतल हासे ।।

जय श्रीकृष्णदास हित अद्भुत गीतं ।

इदमनुवहतु सुखं श्रुति पीतं ॥

बसतु मनो मम रुचिर किशोरे।

अतिशय निबिड़ जलद रुचि चोरे ॥

चलदंभोज सुलोचन शोभे।

भ्रू युग चलन युवति कृत लोभे ॥

मणि कुण्डल प्रतिविंबित गण्डे ।

स्फुरति शिरसि धृत मौलि शिखण्डे ॥

कुञ्चिदधर हित तत्व विचारे ।

नव गुंजा फल मंजुल हारे ॥

कटि तट कलित कनक परिधाने।

जगति वितत पद सरसिज गाने।।

राधा मुख-बिधु ललित पिपासे।

कृत वृन्दावन रास-विलासे ॥

जै श्रीकृष्णदास हित वर्णित सारम्।

गायति रसिकजनो बहु पारम्॥

गोस्वामी श्रीदामोदरवर जी के पद-राग बसन्त

मधुरितु रहत विपिन सुख धाम।

राजत सुन्दरि हरि पुलकित काम॥

मालती माधवी मल्ली धरनि करन सुवास।

बकुल कुल करना कमलकुल, कुन्द कुमुद प्रकास ॥

बहुत सुमन समूह पल्लव नवल सरस निकुंज।

करत कोकिल कीर कलरव सखी चलि अलि गुंज ॥

बहत मन्द सुगन्ध सीतल सुभग जमुना तीर।

रचित निर्मित तलप पर जुग नए मदन अधीर ॥

मन्द सस्मित स्याम स्यामा युग्म सनमुख जोरि ।

पानि कुच नव लाल परसत बसन दुरवत चोरि ॥

पुलकि भुज भरि गही भामिनि अधर पान सुकेलि।

जै श्रीदामोदर हित रहहु संतत विटप कंचन बेलि॥

बिहरत रँगमगे दोऊ लाल।

गौर स्याम सुधाम तन छवि निरखि हरखित बाल॥

अरुन पीत दुकूल सोभित सहज उर वनमाल।

प्रानपति वर कुचन परसत चलत गज गति चाल।।

रुनक झुनक सुकिंकिनी कल पदन नूपुर ताल।

देखि दुति अति प्रानबल्लभ चरन धरत सुभाल ॥

प्रिया पिय सों कहत हँसि – हँसि गहत कर मुख गाल।

जै श्रीदामोदर हित लाल लंपट परे प्रेम सुजाल॥

निर्त्तत हँसत आवत लाल।

नवल अंग सुधंग पदगति मन्द मृदुल सुचाल॥

चपल ग्रीव सुनैंन निर्त्तत चलत गजगति ढाल।

प्रिया सनमुख हरखि निरखत वदन अंस सुभाल ॥

महा मनमथ रूप सागर थकित रस नव बाल।

नागरी उर अंक भरि उर गान कृत कर ताल ॥

बहुत सुख रस प्रेम पूरण जुगल अरुझे माल।

जै श्रीदामोदर हित परे प्रियता अंग-अंग सुजाल॥

नव रँग रँगी आनँद बेलि।

परम लाल तमाल ऊपर लगे फल द्वै हेलि॥

लालची रस ललित मोहन अंग-अंग सुकेलि ।

जै श्रीदामोदर हित प्राण बिच-बिच अंस बाहु सुमेलि ॥

गोस्वामी श्रीकमलनैनजी के पद-राग बसन्त

श्रीवृन्दावन छवि कही न जाइ।

जहाँ प्रफुलित कुसुम अनेक भाइ ॥

जहाँ नलिनी नलिन दुति अपार।

अलिनी अलि तहाँ करैं गुंजार ॥

जहाँ कुंज धाम तहाँ रच्यौ बसन्त ।

तहाँ बैठे दंपति सुख अनन्त।

जहाँ कनक मृदुल अवनी सुचार।

प्रीतम प्यारी तहाँ करैं बिहार ।

ललितादिक तहाँ सखी वृन्द ।

तहाँ बदन जोति मानों कोटि इन्दु || प्रतिविंबित संपति विपिन जाल।

तहाँ लता भवन में मोर मराल ॥

त्रिविध पौन तहाँ रहै नित्त।

निरखि बिहारिन हरख चित।

जहाँ खेलत गावत सरस धमार।

तहाँ छवि पर वारौं कोटि मार ॥

जहाँ नाना रँगन सों रँगे हैं लाल।

तहाँ तापर सोहैं पट गुलाल।।

आए खेल न्हान जमुना के तीर ।

तहाँ सोहत गौर श्यामल सरीर ॥

जहाँ रंग बसन तजि नवल धार।

तहाँ सूहे पहिरे कर बिचार ॥

तहाँ विंजन भोजन करि रसाल।

तहाँ बीरी खात सखि लै उगाल ॥

करैं केलि आनन्द कुलकात ।

नूपुर किंकिनि सुर सुहात ॥

ऐसौ कौतुक संतत बखान।

शुक नारद निगम कहें पुरान॥

निरखि जुगल वर अति हुलास।

श्रीकमलनैंन हित सखी पास।

जै श्रीहित हरिवंश वर कृपा पाइ।

अति रहसि वन विभव सहज गाइ ॥

ए दोऊ राजत नागरी नागर।

प्रफुलित कुंज भवन में सखी संग मिलि लाल गुलाल उड़ावत भरि कर।

श्रीकमलनैंन क्रीड़त गान करत पिक मोर भँवर वर ॥

ललितादिक सब हित निरखि सुख दाइक धाइ आय सींचत हरि मुख पर॥

सजनी नव निकुंज कल केलि।

गौर स्याम तमाल लपटी सरस आनन्द बेलि।।

हरखि हरखित रसिक मोहन पान कृत रस झेलि।

श्रीकमलनैंन हित छिन छिन बिहरत . भुजा कंठ सु मेलि॥

गोस्वामी श्रीरूपलालजी के पद-राग बसन्त

बिहरत विपिन बाग सहचरि सँग लाल बाल रँग भीने।

अंग-अंग छवि निधि सुख निधि अति प्रेम सिन्धु मन दीने ॥

भूषण वसन विविध विध राजत अलिगन नैंन सिराये।

मानों शशि मनुहार करन कों नव उड़गन चलि आये।

फेंटन भरे गुलाल ख्याल हित करन कनक पिचकारी।

लहलहात तन चंचल अंचल देत परस्पर गारी ॥

अरुन पीत सित असित कुसुम नवलासी’ करन बिराजै।

चन्द्रमुखी विवि चन्द्र उदित लखि रति पति कौ दल साजै॥

चंग मृदग उपंग ताल डफ सरस सुघर सहनाई।

रागनि अनुरागन सों गावत अलि बसन्त लै आई॥

रस संसी वंशी प्रीतम की प्रान प्रिया मुख धारी।

ललित त्रिभंगी रीति विराजन मोहे लाल विहारी ॥

प्रमदामणि मुखचंद निरखि पिय नैन कमल अति फूले।

जै श्रीरूपलाल हित सहचरि गन मन भृंग भये अनुकूले ॥

यह रितु राज बसंत पंचमी मूरतवंत सुहाई।

मदन महीपति की जित तित तें त्रिभुवन दई है दुहाई ॥

वन उपवन बल्ली द्रुम कुंजन कुसमाकर दरसाई।

मधुर-मधुर गुंजार मधुप जुत मंगल धुनि रही छाई।

कोकिल कीर मोर पिक बानी दुन्दुभि भेरि बजाई।

साज समाज साजि नव तरुनी सहचरि जन सरसाई॥

श्रीवनराज राज राजेश्वरी चरनन कों सिरनाई।

कृपा दृष्टि करि नित्य बिहारी बिहारिनि जू अपनाई ॥

हिय अनुराग सुहाग झलमल्यौ रस संपति झर लाई।

जै श्रीरूपलाल हित केलि माधुरी लखि सखि बलि-बलि जाई ॥

नवल निकुंज नवल वृन्दावन नवल लाड़िली लाल ।

नव भूषन नव मुकुट चंद्रिका नवल विराजत माल ॥

नवलराग अनुराग नवल कल मुरली शब्द रसाल।

नव तरुनी इक नव बसन्त लै आई नवला बाल॥

नवल सुरन गावत नव कर डफ फेंटन भरे गुलाल।

नवल सुगंधन भरि पिचकारी डारत कर-कर ख्याल।।

नवल-नवल गति निर्त्तत सहचरि मंडल परम रसाल।

जै श्रीरूपलाल हित नवल प्रेम छकि परे रूप रस जाल॥

बनि-बनि बनिता भवन-भवन सजि साज समाजन आईं।

लखि रितुराज बसन्त पंचमी बाँटत विविध बधाई प्रमदा गन मणि श्रीवृषभानु कुँवरि चरनन सिर नाई।

मदन महीपति केलि-बेलि उर अन्तर सींच बढ़ाई केसर रंग रंगीली सारी प्यारी तन पहिराई।

तन दुति दीपत भूषन भूषित कवि मति रति बिलखाई ॥

करि संकेत स्याम प्रीतम कों सहचरि करि सँग लाई।

चरन परसि उर माल बाल पहिराइ मैन मन भाई ॥

चोबा चन्दन बूका बन्दन सरस सुगन्ध लगाई।

कोटि मोहनी रूप भूप छवि छटा सकल बन छाई ।।

कर डफ ताल मृदंग बजावत तानन रुचि उपजाई ।

लाइ गाइ फुलवारि विराजन निरखि दूगन सरसाई ॥

नूत मौर झोरा विवि फूलन अलि सजि सीस चढ़ाई।

जै श्रीरूपलाल हित करत आरती पुष्पांजलि बरसाई ॥

आई रितु बसन्त मन भई उमंग।

खेलें ब्रज की बाल नव लाल संग॥टेक॥

सुन्दर वर मनमोहन सुजान।

धरें अधर मुरलि करें मधुर गान ॥

सुनि मुनि मन तें टस्यौ ज्ञान ध्यान।

सुर गगन मगन छके रसीली तान।

वन पीत अरुन द्रुम कुसुम पात।

फूली लता मधुप जुत अति सुहात।।

पिक मोर कोकिला कुहकुहात।

बहै त्रिविध पवन मृदु कही न जात॥

आईं नव तरुनी सजि-सजि सिंगार।

कर कुसुम गेंद उर कुसुम हार ॥

छबि लखत परस्पर अति उदार।

उड़वत गुलाल गावैं रँगीली गारि॥

चहूँ ओर अली सँग करत गान।

मधि मोहन प्यारी सँग सुजान।

लखि रूपलाल हित हिय सिरान।

वारत तन-मन-धन कोटि प्रान॥

श्रीवृन्दावन बसन्त बधायौ।

कोकिल कीर भ्रमर पिक गावत काम नृपति आयौ ।।

लहि सुदेश जोवन दंपति तन आनन्द बढ़ायौ।

नूत मौर प्रफुलित द्रुम बेली सैनी सजि ल्यायौ।

नव तरुनी भूषन धुनि दुन्दुभि ब्रज जन मन भायौ।

हिय अनुराग निसान जहा तहाँ सोभित सरसायौ ।

चित हुलास अलिगन मन सम्पति बहु विधि दरसायौ।

जै श्रीरूपलाल हित रूप छक्यौ सुख सागर बरसायौ ||

खेलत विपिन बसन्त लाड़िले नेह भरे पिय प्यारी।

रतन जटित सिंहासन आसन बैठे मधि फुलवारी ॥

तनसुख केसर भीने बागे अनुरागे छवि धारी।

भूषन भूषित अंग-अंग दुति दमकन चमकन न्यारी ॥

ताल मृदंग उपंग बजावत गावत अलि सुखकारी।

रस सलिता ललितादिक निर्तत आनंद मगन महारी।

उड़त अबीर गुलाल लाल घन बन छबि छाई भारी॥

निरखत लाल रूपहित दम्पति प्रान सम्प्रदा बारी ॥

यह रितुराज बसन्त बधावौ मृदंग बजावौ गावौ री।

नित्यबिहारी बिहारिनि कौ अनुराग सुहाग लड़ावौ री ॥

मृगमद चोबा चन्दन बन्दन अबीर गुलाल उड़ावौ री।

केसर रँग भर-भर पिचकारी छिरकहु रंग बढ़ावौ री ॥

बागे सरस सुगन्ध सगबगे लाल प्रिया पहिरावौ री।

जै श्रीरूपलाल हित मदन मनोहर भेष दृगन सरसाबौ री ॥

गोस्वामी श्रीगोवर्द्धनलालजी के पद-राग बसन्त

खेलत बसन्त दोऊ प्रिया कन्त।

उर अभिलाष बाढ़त अनन्त ॥

चलिये प्यारी रवि तनया तीर।

तहाँ बहत सुगन्ध समीर धीर॥

वन प्रफुलित भयौ मौरे नूत।

चातक पिक बोलत हैं अकूत’ ॥

निर्त्तत हैं बरही मुदित होय।

गये लाल लाड़िली रहे हैं जोय ॥

लगे संग मोहन निर्त्तत त्रिभंग।

सखी बजवत हैं बीना मृदंग ।

जहाँ खेलत भरे अनंग रंग।

तहाँ चले हरख सों मिले संग।

लता कुंज में पहुँचे जाइ।

एकान्त सघन फूलन सुहाइ ॥

दल कुसुमन सज्या रची तीय।

तापर निवसे अंस दीय।

मनमथ कौ खेल बढ्यौ अपार ।

सुख भीजि भिजावत रंग डार ॥

बजैं नूपुर कटि किंकिनी संग।

पिचकारिनु धार कटाक्ष भंग॥

अनुराग रँगे मंडित गुलाल।

कुमकुमा रंग बने सोहै बाल॥

केसर रँग धारन देह दोत।

छायौ अबीर मुसकान हात॥

यह जो सुख कापै बरन्यौ जात।

हित सखी कृपा तें उर समात।।

रतिपति मोह्यौ देखि प्रेम केलि।

रसिकन के हिय में फूली बेलि ॥

मनो बोहनी कीनी प्रथम फाग रहे गोवर्द्धन हित रंग पाग॥

गोस्वामी श्रीललिताचरणजी कृत-

खेलत बसन्त मन भई फूल।

जहाँ रतन खचित रवि तनया फूल ॥

जहाँ शीतल सुरभित मलय पौन।

मंथर गति सों कर रह्यौ गौन।

मानौं थकित निरखि जुग नव किशोर ।

सींचत मृदु अंगन सुख निहोर।

जहाँ बहुविध फूल्यौ विपिन बाग।

फूल्यौ तरु बेलिन कौ सुहाग।

फूले नील पीत कमलन के पुंज।

फूली कुंजन मधुपन की गुंज॥

रितुराज हुलास बढ्यौ न थोर ।

जहाँ बिहरत रसिक छबीली जोर ॥

सखियन के मन बाढ़ी उमंग।

बाजत बहु वीणा वर मृदंग ।।

डारत गुलाल हँस पिय पै बाल।

नख सिख रंजित साँवल तमाल ॥

पिय पिचकन तें रंगन की धार।

गोरे अंगन कौ करैं सिंगार ॥

झिझकत कुलकत नैंनन की कोर।

छवि बर्षत भौंहन की मरोर ॥

जहाँ चौंप बढ़ी मन-मन रसाल।

उरझत सुरझत दोउ रूप जाल ॥

लखि सखिन दये अंचल पसार।

जुग-जुग विलस सुख अति उदार ॥

जहाँ श्रीहरिवंश दृगन को मोद।

हित ललित कह्यौ कछु वन विनोद ॥

गोस्वामी श्रीजतनलालजी कृत-राग बसन्त

मन श्रीहरिवंश ध्यान धर रे।

प्रफुलित वदन सदा आनंदमय दम्पति सुख रह्यौ भर रे॥

टहल लिये पिय प्यारी आगे छिन पल कहूँ न जाहीं।

दोऊ मन कौं लिये हिये में कुंजमहल विलसाहीं॥

जिनके भजन अहर्निसि कीयें जुगल चरन होइ आसा।

आवागमन मिटै रे भाई पावै वृन्दावन वासा॥

मन-क्रम-वचन वासना सब तज सुमिरन में नित रहुरे।

माया भ्रम सुपने की सम्पति जतनलाल हित लहुरे ॥

गोस्वामी श्रीहितलालजी कृत-राग बसन्त॥

खेलत बसन्त बिहारी बिहारिन।

अबीर गुलाल घुमड़ रस अम्बुद झर लायौ मनु रँग पिचकारिन॥

मधुर गरज बाजेनु धुनि मनु पिक मोर कुहुक हो-हो किलकारिन।

(जय) श्रीहितलाल प्रेम उर भीजन हँसत हँसाबत दै करतारिन ॥

गोस्वामी श्रीगोपीलालजी कृत-राग बसन्त

खेलत बसन्त राधिका दुलहिन दूलहु संग बिहारी ।

चोबा चन्दन अतर अरगजा चरचत प्रीतम प्यारी ॥

गाइ बजाइ सखी हो-हो कहि चोंप बढ़ावत भारी।

(जयश्री) गोपीलाल हितरूप प्रेम छकि निर्तत चतुर खिलारी ॥

गोस्वामी श्रीरसिकानन्दजी कृत-राग बसन्त

यह रितु आई री बसन्त फूल्यौ पिय प्यारी मन भाई ।

अली मदन फूलीं चहूँ ओरन गावत अतिहि सुहाई॥

राग हिंडोल तान सब लैहीं छबि कछु बरन न जाई।

श्रीहित रसिकानन्द त्रिभंगी बन्दन रँग झर लाई ॥

गोस्वामी श्रीदयासिंधुजी कृत-राग बसन्त

बसन्त खेलैं हिय सुख झेलैं रंगन मेलें हो-हो कहि-कहि।

प्यारी कुंजबिहारी निर्तत आवत सन्मुख चहि-चहि॥

डफ मृदंग बाजेनु बजावें सजनी गावें पाछे रहि-रहि।

(जयश्री ) दयासिन्धु हित रसिक खिलारी मुख माँड़त कर सों कर गहि-गहि ॥

गोस्वामी श्रीकृपासिंधुजी कृत-राग बसन्त

खेलत हैं बसन्त रस छाके राधा निर्त बिहारी ।

हो-हो-हो-हो थेइ थेइ कहि कहि निर्त्तत दै कर तारी ॥

बाजे बजत ताल भेदन मिल गावत सँग सहचारी।

(जयश्री) कृपासिन्धु हित लाल भुजन भर मुख माँड़त हँस प्यारी ॥

श्री (हरिराम ) व्यासजी के पद-राग बसन्त

चलि-चलि वृन्दावन बसन्त आयौ ।

झूलत फूलन के झोंरा मारुत मकरन्द उड़ायौ ॥

मधुकर कोकिल कीर केकि मिलि कोलाहल उपजायौ।

नाचत स्याम बजावत गावत राधा जू राग जमायौ ॥

चोबा चन्दन बूका बन्दन लाल गुलाल उड़ायौ ।

व्यास स्वामिनी की छबि निरखत रोम-रोम सचु पायौ ॥

बसन्त खेलत बिपिन बिहारी ।

ललित लवंग लता बीथिन में संग बनी वृषभान दुलारी॥

सखिनु ओट दै कुँवरहिं छिरकत श्रीराधा भरि भरि पिचकारी ।

लाल गुलाल चलावत तकि-तकि कुँवरि बचावत दै हँसि तारी ॥

बरसाने ते गोपी आईं स्यामहिं देत कामरस गारी।

छल करि आँको भरि काजर लै आँख आँजि पहिरावत सारी ॥

सैनन ही मन की जब पाई रुख कीनों है राधा प्यारी।

व्यास स्वामिनी बिहँसि मिली श्रीमोहन की छबि करत न न्यारी ॥

कुंजबिहारी प्यारी के सँग बसन्त खेलत वृन्दावन में।

गौर स्याम सोभा सुख सागर मोद विनोद समात न मन में ॥

तनसुख की चोली की चोली कुमकुम रँग भींजि रही न देखियत तन में।

उरज उघारे से अनियारे’ चुभि रहे नागर के लोचन में ।।

धाइ धरी आँकौं भरि भामिनि हिये लसत ज्यौं दामिनि घन में।

व्यास स्वामिनी की छबि छीटें प्रतिविंबित मोहन आनन में ॥

रितु बसन्त मैमन्त’ कन्त सँग गावत कुँवरि किशोरी ।

सुर बन्धान तान सुनि मोहन रीझि कहत हो-होरी ॥

रंग छींट छबि अंग बिराजत मंग जलजमनि रोरी।

बीथिन बीच कीच माची अरु मानसरोवर केसर घोरी॥

बाजत ताल मृदंग बेनु डफ मन मुहचंग उमंग न थोरी।

उड़त गुलाल अबीर कीर पिक बोलत मोरन मोरी॥

छूटी लट टूटी मालावलि बिगलित कंचुकी सों कटि डोरी।

व्यास स्वामिनी स्याम अंकभरि सुख
सागर मँह बोरी ॥

खेलत राधिका गावत बसन्त।

मोहन संग रंग सों देखत सब सोभा सुखकौ न अन्त।।

बाजत ताल मृदंग झाँझ डफ आवझ बीना बीन सुनन्त।

चोबा चन्दन बूका बन्दन साख गुलाल कुमकुमा उड़न्त ॥

मौरे आम काम उपजावत गावत कोकिल मनौ मैमन्त।

गुंजत मधुप पुंज कुंजन पर मंजु रेनु’ मलयज बहन्त ॥

गौर-स्याम तन छींटन की छबि निरखि बिमोहे कमला कन्त।

व्यास स्वामिनी के वन बिहरत आनन्दित सब जीव जन्त॥

खेलत बसन्त कन्त कामिनी मिलि हो-हो बोलत फूले।

सुख सागर गावत दोउ नाचत नट नागर बंशीवट मूले।

मौरे आमन कोकिल कूजत फूल झूमकन अलिकुल झूले ।

विविध रंग छिरकत छबि अंगन भूषण भूषित चित्र दुकूले ॥

पर नारी पर नाहु’ बाहु गहि विगत लाज जोवनमद भूले।

व्यास स्वामिनी सँग हरि बिहरत बिलपत पथिक-बधूरे जन सूले ॥

बसन्त खेलत राधा प्यारी।

नाचत गावत बेनु बजावत अंस भुजा धरि कुंजविहारी ॥

साख जवादि कुमकुमा केसर छिरकत मोहन झूमक सारी।

उड़त अबीर गुलाल परागहि गगन न दीसै दिन भयौ भारी॥

मधुकर कोकिल कुंजन गूंजत मानौं देत परस्पर गारी।

नखसिख अंग बनी सब बनिता गावत खेलत चढ़ीं अटारी ॥

ताल रबाव झाँझ डफ बाजत मुदित सबै वृन्दावन नारी।

यह सुख देखत नैन सिराने व्यासहि रोम-रोम सुख भारी॥

श्रीकल्याण पुजारी के पद-रांग बसन्त

देखौ मधुरितु मंगल ठौर-ठौर।

कूजत कोकिल कल नूत मौर॥टेक॥

कुसुमित कुन्द कदम्ब चारु।

बहु सेवती चप्प गुलाब सारु ॥

ये केतुकी कुंज सुवास फूल।

बहै त्रिबिधि पवन श्रीयमुना कूल ॥

आई रितु बसन्त सब सुख निधान ।

करें अरुन नूत केकी सुगान।।

फूले कुसुम अनेक रंग।

मते भ्रमर सुर करें अभंग॥

झरें पराग अति छबि की भीर।

वर मदन सम्पदा तरु शरीर ॥

प्यारी प्रिय मिलि खेलत बसन्त।

बाढ्यौ सुख सागर नाहिं अन्त।

सजि कसूंभी चीर शरीर चारु ।

वर ध्रुव बिलास मथि कोटि मार॥

रँग चोबा चन्दन बिबिध भाँति।

देखौ गौर स्याम अँग-अंग काँति ।

हँसि धाइ धरी पिय प्यारी अंक।

देखि फूली अली निधि पाई रंक॥

मिलि बिलसत राधा पिय प्रवीन।

बिहसीं सजनी लखि सुख नवीन॥

आनन्द अवधि कान निकेत।

दृग-बांछित’ निधि सबहीन देत॥

सने श्रीराधा पिय प्रेमपुंज।

अलि करत केलि कल्याण कुंज ॥

देखौ वृन्दावन अति रति की फूल।

कल खेलैं जुगल जमुना के कूल ॥टेक॥

नव दल फल रँग रँग निकुंज ।

मते हैं भ्रमर रस करहिं गुंज ॥

गावत केकी कोकिला पुंज।

प्रेम मगन मन गतिन लुंज ॥

रहै बसन्त दिन शरद साजु।

जहाँ अद्भुत रहसि रचीहै आजु॥

कुंज भवन कमनी बिराज।

जहाँ सेवत सब बिधि मदनराज ॥

रचि किशलय सैन सुचैन चारु।

मिलि बिलसत राधा रवन सारु ॥

त्रिबिध पवन पोषै बिहार ।

बाढ्यौ सुख सागर अपार ।।

ये श्रीहरिवंश विराजमान ।

वर सन्तत सब गुण गण निधान ।

हौं मन बच क्रम जाँचौ न आन।

करौ निज दासीन दासी कल्यान ॥