श्री प्रबोधानन्द सरस्वती जी
श्री प्रबोधानन्द सरस्वती जी
पूर्णतः सुस्थिर नहीं हुआ और इन्होंने उसका प्रत्यक्ष प्रमाण मांगा। परमानन्द दासजी ने श्रुति-स्मृति, आगम-निगम-पुराण एवं इतिहास आदि ग्रन्थों से उस परात्पर तत्व को प्रमाणित करते हुए मानसरोवर की चर्चा भी की; साथ ही यह भी बताया कि वहाँ पर नाहरमल आदि रसिकजनों को नित्यविहार के दर्शन हुए हैं। मानसरोवर की रीति सुनकर प्रबोधानन्दजी के मन में कुछ श्रद्धा और प्रीति तो उत्पन्न हुई, किन्तु पूर्ण विश्वास नहीं हुआ; अतः परीक्षा करने के लक्ष्य से ये वैशाख शुक्ला पूर्णिमा के दिन मानसरोवर पहुँच गये। वहाँ के लता-दुम, खग-मृग, गोधन-वृन्द और सरोवर के दर्शन करके इनका मन बड़ा प्रसन्न हुआ। ये रात्रि में वहीं ठहर गये। दो घड़ी रात बीतने पर वह स्थल अधिकाधिक नीरव एवं निर्जन होने लगा तथा वहाँ एक भयानक उदासी का वातावरण छा गया। अब कहीं पर विषधर सर्प डोल रहे थे और कहीं पर प्राणघातक सिंह-सिंहनी गरज रहे थे; किन्तु ये विचलित नहीं हुए और निर्भय होकर वहीं जमे रहे। थोड़ी देर में जोर की आँधी के साथ काली काली घटाओं ने जल-वर्षा करके वातावरण ही बदल दिया, शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु बहने लगी। पवन का सुखद स्पर्श पाकर इन्हें गहरी नींद आ गई। वस्तुतः यह कुंजबिहारी की लीला ही थी। उन्होंने यह सोचकर कि "यह जीव अभी यहाँ रहने का अधिकारी नहीं है। अभी इसके मन में बहुत कचाई है। इसने अभी तक किसी रसिक का आश्रय ग्रहण नहीं किया है"- इन्हें, निद्रावस्था में ही वहाँ से हटाकर, इनकी मथुरा स्थित कुटी में पहुँचा दिया। जगने पर इन्हें मानसरोवर की सम्पूर्ण घटना याद आ गई और अब इनके मन ने स्वीकार कर लिया कि परमानन्ददासजी द्वारा कथित वित्यविहार परम सत्य है। मानसरोवर निश्चय ही युगल के नित्यविहार का स्थल है और उनको दर्शन का पात्र न समझकर यहाँ भेज दिया गया है। ये तत्काल परमानन्ददासजी के पास गये और उनसे भाव-विभोर होकर कहा कि मानसरोवर के बारे में आपने ठीक ही बताया था। आपके वचन प्रामाणिक हैं। मुझे उन पर पूर्ण विश्वास हो गया है; अतः आप मुझे इस नित्यविहार रस का दान करने की कृपा करें। यह सुनकर परमानन्ददासजी बहुत प्रसन्न हुए। परमानन्ददासजी ने कहा कि इस रस के एकमात्र दाता गो. श्रीहित हरिवंशचन्द्रजी ही हैं। उनकी चरण रज सेवन करने से ही इस रसोपासना का मर्म जाना जा सकता है। यह सुनकर प्रबोधानन्दजी उन्हें साथ लेकर वृन्दावन आये और श्रीहिताचार्य के दर्शन करके बहुत प्रसन्न हुए। परमानन्ददासजी ने श्रीहिताचार्य से निवेदन किया कि ये नित्यविहार रस की प्राप्ति की लालसा से आपसे निज मन्त्र प्राप्त करने के लिए अत्यन्त उत्सुक हो रहे हैं। प्रबोधानन्दजी ने भी कहा कि महाराज ! मैंने गेरुए वस्त्र तो बहुत दिन पहन लिये, अब तो आप मुझे अपने परमोज्ज्वल रंग में रंगने की कृपा करें। प्रबोधानन्दजी के हृदय की उत्कट अभिलाषा से पूर्ण कातर वाणी से द्रवित होकर, कृपामूर्त्ति श्रीहिताचार्यचरण ने इन्हें नित्यविहार की शिक्षा-दीक्षा देते हुए यह विशेष आज्ञा भी प्रदान की कि चूँकि आप एक सन्यासी हैं और मैं एक गृहस्थी हूँ, अतः इस गुरु-शिष्य सम्बन्ध को मन में ही रखें तथा इस सन्यासी वेश में रहते हुए ही, वृन्दावन-रस का आस्वाद लें। प्रबोधानन्दजी का हृदय उल्लास से भर गया और इन्होंने तत्काल एक अष्टक की रचना करके श्रीहितप्रभुजी की स्तुति की। महाप्रभुजी ने प्रसन्न होकर इनका प्रवेश नित्यविहार में करा दिया और अद्भुत सुख का सागर इनके नेत्रों का विषय बन गया। अब इन्होंने आजीवन वृन्दावन-वास का व्रत लेकर श्रीराधावल्लभलालजी से अपनी अनन्य प्रीति स्थापित कर ली थी।
जिस प्रकार दीपक का संयोग पाकर दीपक प्रकट हो जाता है, उसी प्रकार प्रबोधानन्दजी के हृदय में महाप्रभुजी का उपास्य रस अनायास प्रकट हो गया। इस रस के अपने अनुभव को प्रबोधानन्द जी ने 'वृन्दावन महिमामृतम्' नामक शतकों की रचना करके प्रकट किया है। शतकों के अतिरिक्त इन्होंने युगल की रहस्यमयी केलि वर्णनात्मक और भी कई ग्रन्थों की रचना की है। इनकी वाणी वेदों के समान प्रामाणिक एवं रसिक अनन्यों को अत्यन्त सुख देने वाली है।