श्री कल्याणपुजारी जी
श्री कल्याणपुजारी जी
कल्याणपुजारीजी ने अपने जीवन में लीक और वेद की सुदृढ़ श्रृंखलाओं को तोड़ते हुए, प्रेम-रस-उपासना के रसिकों के अनन्य व्रत का अत्यन्त उत्कट रीति से पालन किया था। इनकी रहनी और कहनी सबसे अलग थी। ये गो. वनचन्द्रजी महाराज के शिष्य थे। श्रीसुन्दरदासजी द्वारा बनवाये जा रहे श्रीराधावल्लभलालजी के मन्दिर के निर्माण के समय इनके अनुरागपूर्ण सेवा कार्यों से रीझकर, गोस्वामीजी ने इन्हें श्रीजी की सेवा सौंपकर इनके मन की अभिलाषा को पूर्ण किया था।
कल्याणपुजारीजी श्रीजी की अंग-सेवा हार्दिक रुचि और बड़े अनुराग के साथ किया करते थे। ये दिन-रात मन्दिर में ही बने रहते थे। इन्हें मन्दिर से जो भी प्रसाद मिलता, उसे ये साधु-सन्तों को खिला देते थे और स्वयं उनकी जूठन लेकर खाते थे। पुराणों में गायी गई भक्तों की महिमा को सुनकर एवं समझकर इनके मन को पूर्ण विश्वास हो गया था कि भक्त और भगवान दोनों ही समान रूप से पूजनीय हैं; अतः सदैव भक्तजनों का उच्छिष्ट और उनके चरणामृत को ग्रहण करने को ही, इन्होंने अपनी दैनिक चर्या का नियम बना लिया था।
कल्याणपुजारीजी की इस क्रिया से अनेक लोग अप्रसन्न रहने लगे। वे नहीं चाहते थे कि मन्दिर का एक पुजारी, वर्णाश्रम धर्म से निर्बन्ध हो चुके साधु-सन्तों की जूठन खाये और फिर मन्दिर में जाकर श्रीजी की अंग-सेवा करे। ये विरोधी लोग यद्यपि आपस में बैठकर इनकी इस क्रिया के विरुद्ध खूब शास्त्रीय चर्चा किया करते थे; किन्तु इनसे साक्षात रूप से कहने का साहस किसी को न हुआ। तब उन्होंने सर्व सम्मत होकर गो. श्रीवनचन्द्रजी के नाती गो. श्रीदामोदरवरंजी से प्रार्थना की कि कल्याणपुजारीजी संतों के साथ मिल बैठकर प्रसाद पाते हैं, उनकी जूठन लेते हैं और फिर श्रीजी की अंग-सेवा भी करते हैं। इस प्रकार मन्दिर की मान-मर्यादा को भी नष्ट कर रहे हैं; किन्तु गो. श्रीदामोदरवरजी ने इनका ही पक्ष लेते हुए उन्हें समझाया कि "अरेभैया ! वाही कौ मन राखौ, यही आछी बात है।" चुगलखोरों के भी हित चिन्तक गोस्वामीजी ने उनके चित्त परिवर्तन के लिये, शास्त्रीय प्रमाणों से प्रमाणित करते हुए, उन्हें यह समझाने की कृपा की कि भक्त और भगवान एक ही हैं, इनमें द्वैत बुद्धि रखने वाला दुर्भाग्यशाली और एक बुद्धि रखने वाला सौभाग्यशाली कहलाता है। गोस्वामीजी के इन वचनों को सुनकर चुगली खाने वाले चुप तो हो गये; परन्तु उन्हें सन्तोष नहीं हुआ और वे कोई अन्य उपाय ढूँढने में प्रयत्नशील हो गये।
गो. श्रीदामोदरवरजी के युवावस्था को प्राप्त दो पुत्र थे, जिनमें गो. श्रीरासदासजी बड़े तथा गो. विलासदासजी छोटे थे। चुगलखोरों ने इन दोनों को बहकाकर, अपने पिताश्री से उक्त बात कहने के लिये तैयार कर लिया। एक दिन ये दोनों गो. श्रीदामोदरवरजी से हठपूर्वक कहने लगे कि यह पुजारी एकदम भ्रष्ट हो गया है, श्रीजी की अंग-सेवा करनेयोग्य नहीं है; अतः इसे निकाल ही देना चाहिये। जब यह बात कल्याणपुजारीजी को ज्ञात हुई, तो इन्होंने स्वयं ही मन्दिर की ताली, गो. श्रीदामोदरवरजी के श्रीचरणों में समर्पित कर दी और अत्यन्त उदास चित्त से वहाँ से उठकर चले आये; क्योंकि ये नहीं चाहते थे कि इनकी किसी बात से गुरुकुल का कोई बालक भी असन्तुष्ट हो। गोस्वामीजी तो साक्षात हितमूर्त्ति ही थे। उन्हें सबके हित की चिन्ता रहती थी। वे दोनों ही अवस्था में शान्त और गंभीर बने रहे और किसी से कुछ नहीं कहा। उस दिन श्रीजी की सेवा किसी दूसरे व्यक्ति ने ही की।
श्रीजी तो प्रीति के भूखे हैं, जिसका नवीन पुजारी में सर्वथा अभाव था। रात्रि को श्रीराधावल्लभलालजी ने गो. श्रीदामोदरवरजी से स्वप्न में कहा कि-"नवीन पुजारी द्वारा समर्पित कोई भी भोग हमने स्वीकार नहीं किया है; अतः हम कल से ही भूखे हैं। कल्याणपुजारी के हटा देने से हमारा चित्त बहुत दुःखी है; क्योंकि उसकी तरह प्रीतिपूर्वक एवं सुरीतिपूर्वक सेवा, श्रृंगार तथा भोग अन्य कोई भी नहीं कर पाता है। मुझमें और मेरे भक्त में किंचित मात्र भी भेद नहीं है, इसलिये तुम शीघ्र ही कल्याण को बुलाकर सेवा करने की आज्ञा दो। कल्याण की सेवा, श्रृंगार तथा भोग सामग्री पाना ही हमें स्वीकार है, अन्य की नहीं। वही आकर जब भोग लगायेगा, तभी हम जेवेंगे और तभी हमारा कष्ट दूर होगा।" गुसाईजी ने कल्याणपुजारीजी के साथ समस्त नाद-बिन्दु परिकर को बुलाकर स्वप्न द्वारा प्राप्त परमेष्ट के उस आदेश को सुनाते हुए उन्हें भलीभाँति से समझाया और कल्याणपुजारीजी को मन्दिर की ताली देकर आज्ञा दी कि तुम अपनी निष्ठा एवं पूर्व रीति से ही प्रभु की सेवा करो। इस घटना से सबके चित्त परिवर्तित हो गये और मन-क्रम-वचन से उनकी प्रभु और उनके भक्तों में अभेद बुद्धि हो गई।
कल्याणपुजारीजी की एक और बात भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जो तत्कालीन महानुभावों के लिये एक आदर्श थी, और वह थी श्रीहितधर्म के प्रति इनकी उत्कट अनन्यता। ये अपने इष्ट श्रीराधावल्लभलालजी के मन्दिर के अतिरिक्त अन्य किसी मन्दिर में दर्शन करने तक नहीं जाते थे, प्रसाद और चरणामृत लेने की बात तो दूर की ही है। अन्य महानुभाव, जोकि अन्य अन्य मन्दिरों के दर्शन करके आते थे, वे इनसे वहाँ के सुख-सौन्दर्य तथा वहाँ की श्रीशोभा का वर्णन अतिरंजित रूप से किया करते थे। तब ये उनसे पूँछते कि क्या आपने कहीं पर श्रीलालजी की जीवन-संजीवनी श्रीप्रियाजी की प्रधानता देखी है अथवा श्रीकृष्णजी को उनकी वन्दना करते देखा है? यह बात यहाँ के सिवाय कहीं नहीं है; इसलिये आप लोगों को उचित है कि इधर-उधर न भटककर अन्तरंग और बहिरंग इन दोनों दृष्टियों से सदा सर्वदा अपने इष्ट के ही दर्शन करने चाहिये। दूसरी जगह दर्शन करने में एक और आपत्ति यह भी है कि यदि वहाँ की सेवा में अपने यहाँ से कोई विशेषता दिखलाई दे जाय, तो अपने मन्दिर के प्रति हीनता का भाव उदय हो सकता है; और यदि वहाँ कोई कमी दिखलाई दे जाय, तो इससे अपराध मेंपड़ना पड़ता है। अतः अपने एक पातिव्रत धर्म में एकनिष्ठ होकर, सर्वत्र एक वही अपने इष्ट ही विराज रहे हैं, यही विचारना चाहिये। जब यह भावना परिपक्व हो जायेगी, तब जगह-जगह डोलने की अनावश्यक इच्छा का जन्म ही नहीं होगा और इस प्रकार से कहीं पर न्यूनाधिक देखने के अपराध से भी बचे रहेंगे; क्योंकि वास्तव में बात यह है कि जो सच्चे और टकसाली रसिक हैं, उन्हें श्रीराधा-चरण-प्रधानता वाले स्थलों में ही सुख की अनुभूति होती है, अन्यत्र नहीं। इस प्रकार से कल्याणपुजारीजी अपने आदर्श चरित्रों द्वारा अपने जीवन में प्रेम-रस-उपासना एवं हित-रस-रीति का प्रत्यक्ष दर्शन कराते थे। कल्याणपुजारीजी की अपने इष्ट श्रीराधावल्लभलालजी में बड़ी अनन्य निष्ठा थी और उसी के बल पर इन्होंने उनकी पूर्ण कृपा प्राप्त की थी।