श्री श्यामशाह जी तूंवर
श्री श्यामशाह जी तूंवर
श्यामशाहजी का जन्म तूंवर संज्ञक क्षत्रियों के कुल में हुआ था। इनके जीवन में गो. श्रीहितहरिवंशचन्द्रजी द्वारा संस्थापित श्रीहितधर्म का निर्वाह करने वाले रसिकों की अनन्यता प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ती थी। श्रीहितधर्म में दीक्षित होने के साथ ही, इन्होंने अपने घर-परिवार आदि से अपनी ममता-मोह छोड़कर, अपना तन-मन-धन सब कुछ श्रीजी की सेवा में समर्पित कर दिया था। अब ये अपने धन को केवल हरि हरिजनों की सेवा के अतिरिक्त संसार के किसी व्यावहारिक कार्य में खर्च नहीं किया करते थे। इनके एक कन्या थी, जोकि इनकी इस उपेक्षा वृत्ति के कारण किशोरावस्था आ जाने तक अविवाहित ही रही आई। इनके परिवार एवं इनकी जाति वाले लोग, सामाजिक कटाक्ष के डर से, लड़की का विवाह अति शीघ्र करना-कराना चाहते थे और इसके लिये इनसे सब प्रकार से आग्रह भी करते रहते थे; किन्तु श्यामशाहजी ने उनसे कहा कि मैंने एक प्रण ले लिया है कि मैं इस कन्या का सम्बन्ध उसी से करूँगा, जोकि श्रीहितधर्म में दीक्षित होकर अनन्यता के व्रत का निष्ठापूर्वक पालन भी कर सके। धनिक वर्ग का कोई भी लड़के वाला, लड़की वाले की किसी भी प्रकार की कोई शर्त को भला क्यों स्वीकार करता; यही कारण था कि लड़की का विवाह रुका हुआ था। आखिर एक दिन एक गरीब अपने लड़के के विवाह के लिये इनके घर पर आ ही गया। उसने इनकी सारी बातें स्वीकार करलीं; अतः इन्होंने उसे तथा उसके परिवार को अपने गुरुजी से श्रीहितधर्म में दीक्षित करवा दिया तथा उन सबको अनन्यता का पाठ भी पढ़ाया। इसके पश्चात् अपनी पुत्री की सगाई उस गरीब लड़के के साथ कर दी। शुभ समय पर विवाह भी सम्पन्न हुआ; किन्तु इन्होंने न तो स्वयं कन्यादान ही किया और न श्रीराधावल्लभलालजी के अतिरिक्त गणपति, नवग्रह आदि किन्हीं अन्य देवी-देवताओं की पूजा ही होने दी। इन्होंने लड़की को जो कुछ भी दिया, उसका न तो संकल्प ही किया और न विवाह के व्यर्थ के व्यावहारिक कार्यों में कोई धन ही खर्च किया। इनका कहना था कि यह सारी सम्पत्ति तो श्रीजी की है, मुझे इन कार्यों में उसे खर्च करने का अधिकार ही कहाँ है; क्योंकि इनकी दृष्टि में इनका कुछ था ही नहीं, जो कुछ था, प्रभु का था।
पुत्री का विवाह करने के बाद श्यामशाहजी अपनी पत्नी के साथ वृन्दावन चले आये और यमुना तट पर स्थित श्रीजुगलकिशोरजी के मन्दिर में, जोकि इनके पूर्वजों का ही बनवाया हुआ था, रहने लगे। यहाँ रहते हुए ये अहर्निशि श्रीजुगलकिशोरजी की सेवा करते और स्वयं पद रचना करके श्री युगल सरकार के समक्ष सुमधुर स्वरों में उनका गान भी किया करते थे। एक बार इन्होंने बरसाने में नन्दगाँव के ब्रजवासियों को बुलाकर उनकी ज्यॉनार की, जिसका वर्णन इन्होंने अपनी वाणी में विस्तार के साथ किया है। इनकी वाणी रसिकजनों का मन हरण करने में पूर्णतः सक्षम है।
एक दिन ये यमुना पुलिन में बैठे हुए मानसी भावना कर रहे थे। भावना में इनके नेत्रों के सामने श्रीहितदम्पति श्यामा-श्याम प्रेम-रस की अद्भुत क्रीड़ा कर रहे थे। ये उनकी रूप-माधुरी में ऐसे तन्मय हो गये कि इन्हें अपने शरीर की भी सुध-बुध नहीं रह गई और इनके प्राण इस नाशवान शरीर को छोड़कर नित्यसिद्ध सखीवपु में प्रवेश करके युगल की नित्य सेवा में पहुँच गये।