श्री कर्मठीबाई जी
श्री कर्मठीबाई जी
कि ये तो भक्तों के हाथ बिकने वाली है; अतः उनमें से एक इन्हीं जैसी भक्त वेशभूषा बनाकर इनके पास आने-जाने लगी और इनके साथ इन्हीं की सी कथा-कीर्तन, साधु-सेवा आदि में अपनी हार्दिक रुचि का दिखावा करके इनके मन को अपनी ओर आकर्षित करने लगी, साथही नित्यही हसन वेग को भी अपने द्वारा किये गये कार्यों से सूचित करती रही। इस प्रकार इनकी इच्छाओं के अनुसार सभी सेवा कार्यों को करके उसने अपने आप को इनका पूर्ण विश्वासपात्र बना लिया।
एक बार वह दूती इनके पास दो दिन तक न आकर तीसरे दिन आयी। कर्मठीबाईजी ने जब उससे दो दिनों तक अनुपस्थित रहने का कारण पूँछा, तो उसने झूठा बहाना बनाकर कहा कि हमारे यहाँ एक परम भागवत रसिक अनन्य महात्मा जी पधारे हैं, उन्हीं की सेवा सुश्रूषा एवं उनके सत्संग में रुक जाने के कारण ही मैं यहाँ दो दिन तक नहीं आ पायी। कर्मठीबाईजी दूती के इस छल को कैसे समझ पार्टी, इन्होंने तो अपने सहज स्वभाव से उन महात्मा के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की। दूती इनकी अभिलाषा
को पूरा करने के बहाने इन्हें मथुरा ले आयी और इन्हें अपने घर में बैठाकर कहने लगी कि मैं पहले यमुना स्नान करके आती हूँ, फिर आपको उन महात्माजी के दर्शन कराऊँगी। इस प्रकार यमुना स्नान का बहाना बनाकर वह बाहर चली आई और हसनबेग को इनके आने की सूचना दे दी। हसन बेग आकर दूती के मकान के एक एकान्त कमरे में छिपकर बैठ गया। फिर दूती कर्मठी के पास जाकर बोली कि जल्दी चलो, मैं तुम्हें महात्माजी के दर्शन करा देती हूँ, मुझे ठाकुरजी की रसोई बनाने में देरी हो रही है। यह कहते हुए दूती ने इन्हें अपने मकान के उस एकान्त कमरे में लाकर बैठा दिया, जहाँ पर हसन बेग पहले से छुपा बैठा था तथा अपने आँखों के इशारे से हसन बेग को इस बात को बताते हुए स्वयं उस कमरे से बाहर आकर उसके किवाड़ बाहर से बन्द कर दिये। किवाड़ बन्द करते हुए उसने कर्मठीबाईजी कहा कि आप महात्माजी से प्रकट होकर दर्शन देने की प्रार्थना करो। कर्मठीबाईजी को अकेली जानकर हसन बेग इनके सामने आ खड़ा हुआ। उसे देखते ही ये बहुत डर गई। काम-वासना से पीड़ित हसन बेग इनके वक्षस्थल पर अपना हाथ रखने एवं दुराचार करने के लिये आगे बढ़ता ही चला आ रहा था, तभी इन्होंने सर्वथा असमर्थ होकर अपने नेत्रों को बन्द करके परम आर्त हृदय से श्रीहितजी महाराज का स्मरण किया। हितप्रभु तो सर्वत्र व्याप्त है। वे तत्काल ही वहाँ सिंहनी के रूप में प्रकट हो गये। अब हसन बेग को कर्मठीबाईजी के स्थान पर महा भयानक सिंहनी दिखाई पड़ने लगी। उससे बचने के लिये वह जहाँ-जहाँ दौड़कर जाता, उसे दिखाई पड़ता कि सिंहनी गरजते हुए उसकी ओर ही आ रही है और झपट्टा मारकर उसे खा ही जायेगी। अब हसन बेग की सारी काम चेष्टाऐं तो दूर भग गई और अपनी साक्षात मृत्यु उसे अपने सामने खड़ी दिखाई देने लगी; अतः वह दरवाजे पर आकर जोर-जोर से चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगा कि दूती ! जल्दी किवाड़ खोलो, यह सिंहनी मुझे खा जाना चाहती है। किवाड़ खोलने पर दूती ने देखा कि वह कह रहा है- "मैं मरा, मैं मरा"। यद्यपि उसके मुँह से आवाज नहीं निकल पा रही थी, फिर भी उसने काँपते-काँपते ही सारी घटना दूती को कह सुनायी। अब उसे कमरे में कहीं भी न तो सिंहनी ही दिखाई दे रही थी और न कहीं कर्मठीबाईजी ही नजर आ रही थीं। हसन बेग ने अनुचरों को वृन्दावन भेजकर इनका पता लगवाया। कर्मठीबाईजी तो यहाँ पहले ही पहुँचकर अपने इष्ट की सेवा में निमग्न थीं। हसन बेग को भक्त के प्रताप का परिचय मिल गया था। वह वृन्दावन आकर इनसे मिला और अनेक प्रकार से सकरुण निवेदन करके इनसे अपना अपराध क्षमा करवाया। उसने इन्हें सौ मोहरें भी भेंट कीं; किन्तु इन्होंने कहा कि हमें तो साधुजनों के चरणों की रज अच्छी लगती है, ये धन हमारे किसी काम का नहीं है। कर्मठीबाईजी के दर्शन से हसन बेग के हृदय में भी वैराग्य का उदय हो गया और उसने वह धन साधुजनों की सेवा में ही लगा दिया। भगवान भक्तों के धर्म की रक्षा करते हैं और भक्तों के संसर्ग से संसार के बन्धन कट जाते हैं।