श्री दामोदरदास जी 'सेवक जी'
श्री दामोदरदास जी 'सेवक जी'
ने स्वप्न में देखा कि श्रीहितजी महाराज ने इन्हें वृन्दावन पहुंचा दिया है और वहां अपने साक्षात दर्शन देकर, इनके सिर पर अपना हाथ रखते हुए, इन्हें अपना बना लिया है। इतना ही नहीं, उन्होंने इन्हें निज मन्त्र की दीक्षा प्रदान करने के साथही इष्ट और अपने धर्म का सम्पूर्ण भेद बताकर वृन्दावन, वहाँ की कुंज-निकुंजों, यमुना पुलिव एवं श्री प्रिया-प्रियतम के प्रत्यक्ष दर्शन करा दिये हैं तथा इन्हें वाणी रचना की सामर्थ्य भी प्रदान कर दी है। इस अपूर्व गुरु-कृपा का दर्शन सभी को तभी ज्ञात हुआ, जब सेवकजी के मुख से हितमूर्त्ति श्यामा-श्याम की रहस्यमयी लीलाओं तथा श्रीहरिवंश के स्वरूप का गान होने लगा।
कुछ समय उपरान्त चतुर्भुजदासजी वृन्दावन से श्रीवनचन्द्रजी से दीक्षा लेकर वापिस गढ़ा पहुँचे, तब सेवकजी ने श्रीहितहरिवंशचन्द्रजी से मन्त्र प्राप्त होने का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। "जो मन्त्र मुझे श्रीवनचन्द्रजी से प्राप्त हुआ है, वही मन्त्र सेवकजी को भी मिला है"-यह जानकर चतुर्भुजदासजी आश्चर्यचकित हो गये और जब उन्होंने 'सेवक वाणी' पढ़ी, तब जो न जाने उन्हें क्या मिल गया, वे आनन्दित होकर सेवकजी के चरणों में ही गिर पड़े और उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। 'सेवक वाणी' में सर्वस्व श्री हरिवंश ही हैं तथा उन्हें श्यामा-श्याम से सर्वथा अभिन्न माना है। इसमें रसिक-अनन्यता, धर्मी और गर्म की रीति, कृपा और अकृपा के पात्र, काचे और पाके धर्मी आदि-आदि विषयों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है; यही कारण है कि जो लोग 'सेवक वाणी' नहीं जानते, रसिकजन उनकी बात को प्रामाणिक नहीं मानते "सेवक वाणी जे नहिं जानें। तिनकी बात रसिक नहिं मानें ॥"
वृन्दावन में श्रीवनचन्द्रजी ने जब इस वाणी को सुना, तो उनके मन में सेवकजी को देखने की बड़ी तीव्र इच्छा हुई और उन्होंने यह प्रण भी कर लिया किया कि मैं जिस दिन सेवकजी को देखूँगा, उसी दिन उनके ऊपर श्रीजी का सम्पूर्ण भण्डार न्यौछावर करके लुटा दूँगा। जब श्रीवनचन्द्रजी का यह प्रण सेवक जी को ज्ञात हुआ, तो इनका हृदय काँप उठा। ये विचार करने लगे कि मेरा विचार तो था कि मैं वृन्दावन जाकर श्रीराधावल्लभलालजी के दर्शन करूँ; किन्तु मेरे जाने पर तो उनका सारा भंडार ही लुटा दिया जायगा, अतः अब मैं जाऊँ तो जाऊँ कैसे? ये वहीं रुक गये। श्रीवनचन्द्रजी को सेवकजी का श्रीवन न आने का कारण जब ज्ञात हुआ, तब उन्होंने सेवकजी को बार-बार सौगन्ध देते हुए एक आग्रह पूर्ण पत्र लिखा, जिसे पढ़कर सेवकजी को श्रीवन आने के लिये विवश होना पड़ा; किन्तु भण्डार लुटने के भय से ये भेष बदलकर आये और भीड़ में खड़े होकर श्रीजी के दर्शन करने लगे; परन्तु श्रीवनचन्द्रजी ने इनकी नेह भरी चितवन देखकर इन्हें बहुत भीड़ में भी पहचान लिया। श्रीवनचन्द्रजी अत्यन्त हर्षित होकर इनसे उठकर मिले। सेवक जी ने देखा कि गोस्वामीजी अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार भंडार लुटाने ही वाले हैं, तभी इन्होंने प्रार्थना की कि मेरे आने से श्रीजी का भंडार व लुटाया जाय। बात अनसुनी होती देखकर इन्होंने गुसाई जी के चरणों में अपना माथा रखकर पुनः प्रार्थना की। तब गोस्वामीजी ने कहा कि मैंने तो तुम पर भंडार लुटाने का प्रण कर रखा है और तुम उसे न लुटाने का आग्रह भी कर रहे हो, अब तुम्हीं बताओ कि ये दोनों बातें कैसे बनें? अब तो इसका एक ही उपाय है कि मैं तुम्हारे ऊपर प्रसादी भण्डार न्यौछावर करके ही लुटा दूँ और यह कहते हुए उन्होंने सारा प्रसादी भण्डार लुटा दिया। इस प्रकार श्रीवनचन्द्रजी ने दोनों की बात की रक्षा की। इस घटना में यह प्रत्यक्ष दिखलाई देता है कि गुरु शिष्यों पर किस प्रकार से रीझते हैं और उनके ऊपर सर्वस्व न्यौछावर करके किस प्रकार रस में भींजते हैं।
श्रीवनचन्द्रजी ने उसी दिन सभी हित धर्मियों को यह आज्ञा भी दी कि हित चौरासी और सेवक वाणी को सदा एक साथ ही लिखना और पढ़ना चाहिये। सेवक जी के समान अन्य कोई ऐसा उपासक नहीं हुआ, जिसके प्रण की रक्षा स्वयं उनके गुरुदेव ने की हो।