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 श्री रसिकदास जी

 श्री रसिकदास जी

 श्री रसिकदास जी

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 श्री रसिकदास जी

 श्री रसिकदास जी

भावना परायण रसिकदासजी बैराठ नगर के रहने वाले थे। इनका जन्म एक कायस्थ परिवार में हुआ था। किसी हितधर्मी रसिक के सत्संग से इन्हें इस नश्वर जगत से विरक्ति और श्रीहितहरिवंशचन्द्रजी महाप्रभु द्वारा प्रकटित रसभक्ति से हार्दिक अनुरक्ति हो गई। फलतः ये अपने विशाल वैभवपूर्ण गृहस्थाश्रम एवं आज्ञाकारी आत्मीयजनों को छोड़कर वृन्दावन में अखण्ड वास करने के लिये यहाँ आ गये। यहाँ आकर इन्हें श्रीहितमहाप्रभु के यशस्वी प्रपौत्र गो. दामोदरवरजी के कृपापात्र होने का परम सौभाग्य संप्राप्त हुआ।

रसिकदासजी अपने से पूर्व हुए रसिकों की वाणियों को केवल पढ़ते ही नहीं थे; अपितु उनमें वर्णित लीलामय रूप और रूपमयी लीलाओं का निरन्तर चिन्तन-मनन भी किया करते थे। श्रीहिताचार्य द्वारा रचित श्रीहितचौरासी आदि वाणियों के पाठ तो ये प्रतिदिन ही किया करते थे; साथही उन वाणियों के आधार पर अहर्निशि मानसी भावना करते हुए ये प्रेम-रस में निमग्न बने रहते थे। कभी-कभी तो इनका मन किसी पद में वर्णित श्रीहितललितलाड़िलीलाल के अद्भुत रूप-सौन्दर्य पर ऐसा अटक जाता था कि उस पद की भावना में छके हुए, इनके कई-कई दिन बिना खाये-पीये ही व्यतीत हो जाते थे, ये अपनी सुध-बुध खो देते थे और कई दिनों तक मूर्छा में पड़े रहते थे।

एक दिन ये रसोईघर में खड़े-खड़े भावना कर रहे थे। उसी समय इन्हें प्रेमावेश हुआ और अपनी सुधि-बुधि खोकर ये धड़ाम से धरती पर गिर पड़े। वहाँ पर दाल की बटलोई में एक कलछी रखी हुई थी। वह कलछी इनकी जाँघ के घुस गई। इनके गिरने की आवाज सुनकर बहुत से लोग वहाँ आ गये। उन्होंने बलपूर्वक उस कलछी को इनकी जाँघ से निकालकर घाव पर एक पट्टी बाँध दी और इन्हें वहाँ से उठाकर एक सुखदायी शैया पर लिटा दिया। रसिकदासजी चौबीस घण्टे तक श्रीहितदम्पति की छवि छटा में छके हुए मूर्छित ही पड़े रहे। होश आने पर इन्होंने उपस्थितजनों से आश्चर्य के साथ पूँछा कि यह पट्टी क्यों बाँध दी है? लोगों ने इन्हें बताया कि आप मूर्छित होकर गिर पड़े थे और कलछी आपकी जाँघ में घुस गई थी; इसीलिये उस घाव में पट्टी बाँध दी गई है। इन्होंने सबके सामने वह पट्टी खोल दी; किन्तु आपकी जाँघ में घाव का नामोनिशान भी नहीं था, वह पूरी तरह से गायब हो चुका था।

एक दिन रसिकदासजी अपने गुरुवर गो. श्रीदामोदरवरजी के घर की तीसरी मंजिल पर बैठे हुए अर्द्धरात्रि में मानसी भावना कर रहे थे। इन्होंने देखा कि श्रीयमुनाजी में अनेक रत्नजटित नौकाएँ जगमगा रही हैं। इन नौकाओं में कई खन बने हुए हैं। प्रत्येक खन में अनन्त मणिमय दीपक प्रज्वलित हो रहे हैं। इन्ही नौकाओं में अनन्तानन्त सखियों से घिरे हुए एकात्म युगल श्रीश्यामा-श्याम विराजमान हैं। मन को मुग्ध कर देने वाली इस लीला के दर्शन से रसिकदासजी को इतनी तन्मयता हो गई कि इन्हें यह भी ज्ञान न रहा कि मैं यमुना तट पर नहीं; अपितु श्रीगुरु-गृह की छत पर बैठा हुआ हूँ और भावावेश में श्रीयुगलसरकार की उस लीला में स्वयं भी सम्मिलित होने के लिये ये दौड़ पड़े। फल वही हुआ, जो होना चाहिये था। साठ हाथ ऊँची छत से नीचे गिरकर ये जमीन पर आ गये; किन्तु परम आश्चर्य की बात तो यह हुई कि इन्हें किसी प्रकार की कोई कष्ट की अनुभूति नहीं हुई, इसके विपरीत इन्हें तो केवल इतना ही अनुभव हुआ कि किसी ने इन्हें वहाँ से उठाकर फूलों के आसन पर बैठा दिया है। पूर्ण चैतन्य होने पर, ये घर के दरवाजे पर आकर किवाड़ खोलने की प्रार्थना करने लगे। आखिर किवाड़ खोले गये। घर में रहने वाले सब लोग इनसे पूँछने लगे कि तुम तो घर की तीसरी मंजिल पर सो रहे थे, तुम कहाँ होकर बाहर चले गये ? रसिकदासजी ने तो इसके उत्तर में कुछ नहीं कहा; किन्तु कुछ लोगों ने इनके छत पर दौड़ने की आवाज सुनी थी, उन्होंने ही इनके छत से गिरने की सम्भावना प्रकट की। इनके छत से गिरने का वास्तविक कारण तो इनके सिवाय दूसरा कौंन और कैसे जान सकता है? जब इनके गुरुवर ने सौगन्ध दिलाकर इनसे छत से गिरने का कारण पूँछा, तब इन्होंने अपनी मानसिक भावना का रहस्य कह सुनाया।

एक दिन रसिकदासजी मान सरोवर जा रहे थे। चलते-चलते ही इन्हें भावना स्फुरित होने लगी। ये यमुना पुलिन में ही बैठ गये। इन्होंने मानसी भावना में रसिक युगलवर को राजभोग समर्पित किया। राजभोग आरोगने के पश्चात युगलवर ने इन्हें अपनी जो प्रसादी जूठन दी, उसका रसास्वादन लेना इन्होंने स्वयं प्रारम्भ कर दिया था; किन्तु प्रत्यक्ष में सबने देखा कि ये यमुना पुलिन को उठा-उठाकर खा रहे हैं। रसिकदासजी के ऐसे अनेक चरित्र हैं जिन्हें सुन-सुनकर मनुष्य में रसिकता के लक्षण प्रकट होने लगते हैं।

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