श्री चतुर्भुजदास जी
श्री चतुर्भुजदास जी
रस-भक्ति के आद्य आचार्य गो. श्रीहितहरिवंशचन्द्र महाप्रभु के चरण कमलों की कृपा से और अपने गुरु गो. वनचन्द्रजी पर पूरा भरोसा रखते हुए रसिकवर चतुर्भुजदासजी ने गौड़वाना प्रान्त का उद्धार किया था। ये अपने समय के बहुत प्रसिद्ध महात्मा थे। ये अपने साथ साधुओं की जमात लेकर श्री हिताचार्य द्वारा स्थापित श्रीहितधर्म का सर्वत्र प्रचार-प्रसार किया करते थे। इन्होंने 'द्वादश यश' नामक एक ग्रन्थ की रचना की थी, जिसका अवलोकन करने पर श्रीहितधर्म के प्रति इनकी अनन्य आस्था, इनके उदारता पूर्ण दृष्टिकोण एवं इनकी प्रकाण्ड विद्वत्ता का परिचय मिलता है। ये स्वयं सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता थे और अनेक विद्वान पंडित भी इनके साथ रहा करते थे। इन्होंने अपने सेव्य इष्ट-विग्रह का नाम.. 'मुरलीधर' रखा हुआ था तथा ये अपनी काव्य-रचनाओं में भी उन्हीं के नाम की छाप लगाते थे। प्रवास काल में भी ये अपने इष्ट के उत्सवों का विशाल आयोजन बड़े उत्साह एवं उमंग के साथ किया करते थे और जो भी द्रव्य आता था, उसे उत्सव में ही लुटा देते थे। इस प्रकार इनका यश नगर के चारों ओर फैल जाता और नगरवासी इनकी जय-जयकार करने लगते। यह देखकर कुछ प्रभु-विमुख लोगों ने इनका विरोध करना आरम्भ कर दिया; किन्तु जिनके हृदय में श्रीराधावल्लभलालजी नित्य विराजमान रहते हैं।, उनका कोई क्या बिगाड़ सकता है? वे तो हर्ष-विषाद, सुख-दुख, मान-अपमान आदि सभी परिस्थितियों में एक
समान ही बने रहते हैं।
एक बार चतुर्भुजदासजी दो सौ साधुओं की जमात के साथ गौंड़वाना के किसी ऐसे नगर में पहुँचे, जहाँ पर हरि-विमुख लोग बहुतायत में रहा करते थे। ये वस्ती के शोरगुल से हटकर, किसी खुले एवं एकान्त स्थान की खोज में थे, जिससे कि सभी सन्त वहाँ सुखपूर्वक रह सकें और परमेष्ट श्रीमुरलीधरजी की सेवा-पूजा भी शान्ति के साथ की जा सकें। इस हेतु जब इन्होंने वहाँ के निवासियों से पूँछा, तब उन्होंने हँसकर यह कहते हुए कि "महाराज ! यहाँ एक बहुत बड़ा बाग है, जिसमें छायादार पेड़, फल देने वाले वृक्ष एवं अनेक प्रकार के फूलों के पौधे लगे हुए हैं तथा जो भी साधु-मंडली यहाँ आती है, उसी बाग में रुकती है तथा आनन्द में मग्न होकर हरि-गुणों का गायन करती है।" इन्हें उस बाग में ठहरा दिया; जबकि यह बाग वास्तव में भूत-प्रेतों के निवास स्थल के रूप में प्रसिद्ध था। भूत-प्रेत लोग न तो आस पास के खेतों में खेती ही होने देते थे और न उस बगीचे में किसी को ठहरने ही देते थे। ये खेतों में काम कर रहे बैलों को मारकर खेती को ही नुकसान नहीं पहुँचाते थे, वहाँ के लोगों एवं उनके बच्चों को भी
मार दिया करते थे।
इस वास्तविकता से अनजान रहते हुए चतुर्भुजदासजी ने पहले सभी सन्तों को भेजकर एवं उस बाग की सफाई कराकर, उनके ठहरने की समुचित व्यवस्था की, फिर अपने ठाकुर श्रीमुरलीधरजी को लेकर ये स्वयं वहाँ पहुँचे तथा आम के वृक्ष के नीचे वितान तनाकर एवं एक सिंहासन पर उन्हें विराजमान करके, उनकी अष्टयाम सेवा चालू कर दी। जब घंटा घड़ियाल के साथ आरती आरम्भ हुई, तब वहाँ उपस्थित तीस प्रेत तो आरती के दर्शनकरके भगवद्धाम को प्राप्त हो गये; किन्तु शेष सभी प्रेत, जो पहले कहीं खेलने चले गये थे, लौटने पर उन तीस प्रेतों को वहाँ न पाकर, जोर-जोर से हाहाकार करने लगे। जब चतुर्भुजदासजी ने उन्हें बुलाकर उनके हाहाकार करने का कारण पूँछा तो वे इनसे प्रार्थना करने लगे कि महाराज ! हमें अपने पाप कर्मों के फलस्वरूप ये प्रेत-योनि मिली है और यमराज ने अपने यमदूतों को हमारे अन्दर प्रवेश कराकर दूसरों के प्राणों का अपहरण करने के लिये हमें इस बाग में रखा हुआ है; किन्तु जिस प्रकार आपने हमारे तीस साथियों को इस पाप योनि से मुक्ति दिलाकर उनका उद्धार किया है, उसी प्रकार हम पर भी कृपा करके हमें कृतार्थ करें। इसके लिये आप एक बड़ा सा गड्ढ़ा खुदवाकर उसमें सन्तों का चरणामृत डलवा दें, जिसका पान करके हम सभी का भी उद्धार हो जायगा। चतुर्भुजदासजी ने वैसा ही किया और शेष प्रेतगण भी चरणोदक पान करके भगवद्धाम को प्राप्त हो गये तथा उनके भीतर छिपकर बैठे यमदूत दौड़कर यमराज के पास पहुँचे और ये सब कथा उन्हें कह सुनाई। यमराज ने उन्हें समझाते हुए कहा कि देखो ! तुम लोग हरि-भक्तों के प्राण-हरण करने में सर्वथा असमर्थ हो; क्योंकि श्रीहरि जिन्हें अपना बना लेते हैं, वे तो अजर-अमर हो जाते हैं और बिना आयु पूर्ण हुए किसी के भी प्राणों का हरण नहीं किया जा सकता। इस संदर्भ में उन्होंने एक पौराणिक कथा भी उन्हें बताई कि एक बार धोखे में आकर यमगण किसी अन्य की जगह एक ब्राह्मण, जिसकी आयु पूरी नहीं हुई थी, के प्राणों का हरण करके धर्मराज के पास पहुँचे; किन्तु धर्मराज ने यमगणों को तत्काल उसके प्राणों को लौटाने की आज्ञा प्रदान की थी।
भूत-प्रेतों के उद्धार की यह चमत्कारपूर्ण बात सुनकर उस नगर के निवासी ही नहीं आस-पास की जगहों के लोग भी स्वामीजी के पास अनेक प्रकार की भेंट-सामग्री लेकर आने लगे और इनकी शरण हो गये। प्रजा के लोगों के माध्यम से जब वहाँ के राजा को यह बात ज्ञात हुई, तो वह भी इनके दर्शन करने के लिये आया और इनसे दीक्षा ले ली। इस प्रकार राजा और प्रजा दोनों ही भक्ति भाव से सम्पन्न हो गये तथा तब से वह बगीचा भी सभी के रहने योग्य बन गया।एक बार गढ़ा के निकट किसी नगर में चतुर्भुजदासजी साधुओं की जमात के साथ चातुर्मास कर रहे थे। वहाँ के सभी लोग राधावल्लभ सम्प्रदाय के अनुयायी थे। ये अपने इष्ट श्रीमुरलीधरजी की अष्टयाम सेवा तो प्रतिदिन किया ही करते थे, इनका शेष समय कथा-कीर्तन एवं भगवद् चर्चा आदि में ही व्यतीत होता था। उस नगर में एक बड़ा नामी चोर रहता था। एक दिन वह दिन दहाड़े हाट से आते हुए किसी साहूकार की कंधे पर रखी हुई थैली को छीनकर भाग खड़ा हुआ। उसके शोर मचाने पर वहाँ पर खड़े राजकर्मचारी उसे पकड़ने के लिये उसके पीछे दौड़े। यद्यपि उस चोर ने स्वयं को उनसे बचने के अनेकानेक प्रयत्न किये; किन्तु असफल ही रहा। अचानक उसकी नजर चतुर्भुजदासजी की कथा पर पड़ी और तभी उसके मन में विचार आया कि क्यों न इस भीड़ के मध्य में, मैं साधुओं जैसा वेश बनाकर, छिपकर बैठ जाऊँ, जिससे वे मुझे ढूँढ ही नहीं पायेंगे और निराश होकर वापिस चले जायेंगे। हुआ भी ऐसा ही। उस समय कथा में यह प्रसंग चल रहा था कि दीक्षा लेने के बाद मनुष्य का नया जन्म हो जाता है तथा उसके करोड़ों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। भगवान की शरण ग्रहण किये हुए व्यक्ति को लोक और परलोक में कोई दण्डित करने में समर्थ नहीं होता। उससे यमराज तक डरने लगते हैं, तो संसार के राजाओं का तो कहना ही क्या ? जीव जब गुरु चरणों का आश्रय ले लेता है, तभी उसका प्राकृत देह अप्राकृत हो जाता है। यह
सब कथा उसने सुनी और सद्भाग्य से वह उसके मन में उतर गई। कथा के बाद वह एकान्त में चतुर्भुजदासजी से मिला और उनको अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उसने इनसे कहा कि स्वामी जी! आपने आज जो कथा सुनाई है, उसकी सत्यता पर आपने बहुत बल दिया है। मेरे हृदय में आपके वचनों पर पूर्ण विश्वास हो गया है; अतः अब आप मुझे अपनी शरण में ले लीजिये, जिससे कि मेरे पूर्व में किये गये पापों का समूल उन्मूलन हो जाय और मुझे नया जन्म प्राप्त हो जाय। चतुर्भुजदासजी ने उसकी इच्छा के अनुसार उसका मुण्डन कराकर उसे स्नान कराया और फिर सन्त वेश प्रदान करते हुए उसे मन्त्र-दान किया, साथही चोरी आदि दुष्कृत्यों को आगे से न करने की शिक्षा भी दी। अब वह सन्त वेशधारी चोर निर्भय होकर दूसरे दिन से ही बाजार में घूमने लगा; किन्तु साहूकार ने उसे पहचान लिया और कई लोगों की मदद से उसको पकड़कर राजद्वार ले जाया गया। राजा के सामने जाकर साहूकार और चोर ने
अपने-अपने पक्ष बड़ी दृढ़ता के साथ उपस्थित किये। साहूकार रो-रोकर कह रहा था कि कल दिन दहाड़े
ही सभी के सामने ये मेरे एक हजार रुपये लेकर भगा था और आज सन्त होने का ढोंग कर रहा है, जबकि सन्त वेशधारी चोर पूरे विश्वास के साथ कह रहा था कि मैंने पूर्व जन्मों में भले ही चोरी आदि के बहुत से कुकर्म किये हों; किन्तु इस जन्म में तो चोरी का कोई भी कार्य नहीं किया है। राजा बड़ी दुविधा में पड़ गया और सोचने लगा अब तो सत्य बात का पता 'फारे' की क्रिया के द्वारा ही हो सकता है। इस क्रिया में अपराधी के हाथ पर पहले तो सूत लपेटा जाता है, फिर घी में भिगोया हुआ पीपल का पत्ता उसके ऊपर चिपका दिया जाता है और फिर उसके ऊपर आग में लाल किया हुआ लोहे का पिण्ड रखा जाता है। चोर के साथ यही किया गया। चोर ने गुरु के वचनों को स्मरण करते हुए अपने मन में प्रार्थना की कि हे प्रभु! मेरे गुरुजी ने कहा है कि मेरा नया जन्म हुआ है, अतः मेरा हाथ नहीं जलना चाहिये और यह कहते हुए उसने 'फारा' हाथ में ले लिया और सात कदम चलकर उसे फेंककर वापिस वहीं आ गया। इस क्रिया में पत्ता तो जल गया; किन्तु चोर के हाथ में लपेटा हुआ सूत बिल्कुल नहीं जला। जब 'फारे' की यही क्रिया साहूकार के द्वारा की गयी, तब उसके हाथ में फफोला पड़ गया। यह देखकर राजा साहूकार के ऊपर बड़ा नाराज हुआ और एक सन्त को सताने के अपराध की सजा में उसे फाँसी का आदेश दे दिया। यह सुनकर उस सन्त वेशधारी चोर ने कहा कि हे महाराज ! आप उसे मृत्यु दण्ड मत दीजिये; क्योंकि वह सच बोल रहा है, परन्तु मेरा कहना भी पूर्ण रूप से सत्य है,मेरे गुरुवर्य स्वामी श्रीचतुर्भुजदासजी ने कथा में कहा था कि गुरु-शरणागति के पश्चात मनुष्य के अनन्त जन्मों में किये गये पापों का नाश हो जाता है तथा उसे नया जन्म मिल जाता है। अतः यह जो कुछ भी कह रहा है, सब सच कह रहा है। मैंने निश्चित रूप से चोरी की, लेकिन वह मेरे पूर्व जन्म की बात है। यह वृत्तान्त सुनकर राजा और राज-सभा में उपस्थित सभी लोग आश्चर्य में पड़ गये तथा इस घटना से प्रभावित होकर राजा और प्रजा के चारों वर्ण के लोग स्वामीं चतुर्भुजदासजी के दर्शनार्थ इनके पास आये और इनसे दीक्षा लेकर श्रीहितधर्म के अनन्य अनुयायी बन गये। वस्तुतः जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है, ठीक उसी प्रकार चतुर्भुजदास जी के सत्संग से चोर का प्राकृत देह अप्राकृत बन गया था। स्वामी चतुर्भुजदासजी के चरित्र अत्यन्त अद्भुत हैं। ये बड़ी अनन्यता के साथ श्रीहिताचार्य द्वारा संस्थापित श्रीहितधर्म का पालन किया करते थे। शिव और शक्ति के उपासकों से इनको बड़ा परहेज था। इनके पास जो भेंट आती थी, उसके लिये पहले ये पूँछ लेते थे कि यह भेंट कोई शैव या शाक्त की तो नहीं है। इसी प्रकार रास्ते में यदि कोई कुआँ पड़ता था, तो यह पहले इस बात की जानकारी प्राप्त करते थे कि ये किसका बनवाया हुआ है; यदि वह किसी शैव या शाक्त का बनवाया होता था, तो ये उसका पानी भी नहीं पीते थे। इनकी कट्टर अनन्यता से प्रभावित होकर, अनेक लोगों ने अनन्यता है प्राण जिसका, ऐसे श्रीहितधर्म को अपना लिया था और श्रीराधावल्लभलालजी के चरण कमलों के परम अनुरागी बन गये
थे।
एक दिन भ्रमण करते हुये ये एक नगर में पधारे। वहाँ के हरियाली युक्त सुन्दर स्थान, स्वच्छ जल से भरे सरोवर एवं पक्षियों के मधुर कलरव को देख-सुनकर इनका मन वहीं ठहरने के लिये लालायित हो उठा; किन्तु उस स्थान पर देवी का एक मन्दिर था। देवी के पण्डे ने स्वामी जी को बतलाया कि यहाँ राजा आता रहता है और देवी को भैंसों तथा बकरों की बलि चढ़ाता रहता है; अतः यह स्थान आपके ठहरने लायक नहीं हैं। लेकिन चतुर्भुजदास जी ने देवी के मन्दिर में ही डेरा डाल दिया और देवी को उठाकर किसी दूसरे स्थान में रख दिया। पण्डा बाहर खड़ा हुआ चिल्लाता रहा और देवी से ऐसे विधर्मियों को नष्ट करने की प्रार्थना करता रहा। चतुर्भुजदासजी ने देवी के स्थान में श्रीमुरलीधरजी का सिंहासन विराजमान कर दिया। श्रीमुरलीधरजी के तेज से डरकर काँपते हुए देवी की प्रतिमा उड़कर मन्दिर के बाहर जा पड़ी तथा उसकी समस्त सामग्री भी उड़ उड़कर बाहर आने लगी। भक्त के तेज ने देवी के शरीर में जलन पैदा कर रखी थी। उससे बचने के लिए वह एक कन्या के सिर पर आयी और पण्डे से बोली कि तू जाकर स्वामी जी से प्रार्थना कर कि मुझे अपना शिष्य बना लें और मुझे शान्ति प्रदान करें। स्वामीजी ने देवी को बुलाया और उसको दीक्षा देकर कहा कि अब तू जीव-हिंसा कभी मत करना और भक्तों से सदैव प्रेम रखना। यह सब देखकर पण्डे ने भी स्वामीजी से दीक्षा ले ली।
अब देवी ने राजा को वैष्णव बनाना चाहा और जिस पलंग पर वह सो रहा था, उसे उलटा दे मारा तथा उस पर चढ़कर कहने लगी कि मैं अब भक्त बन गई हूँ, तू भी यदि अपना हित चाहता है, तो अपने परिवार सहित जाकर चतुर्भुजदासजी से दीक्षा ले ले। यदि तैंने या अन्य किसी ने आज के बाद मुझे किसी जीव की बलि दी तो मैं उसका सर्वनाश कर दूँगी। राजा ने शहर में इस बात की मनाही करा दी और उस दिन से देवी के सामने नारियल की बलि दी जाने लगी। चतुर्भुजदासजी ने अपने चरित्रों से भक्त की महिमा को प्रकाशित किया है तथा श्री युगल के चरणों में विश्वास रखकर सम्पूर्ण साधनों की तुच्छता को प्रदर्शित
किया है।