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श्री मोहनदास जी एवं श्री माधुरीदास जी

श्री मोहनदास जी एवं श्री माधुरीदास जी

श्री मोहनदास जी एवं श्री माधुरीदास जी

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श्री मोहनदास जी एवं श्री माधुरीदास जी

 श्री मोहनदास जी एवं श्री माधुरीदास जी

भगवतमुदितजी ने मोहनदासजी तथा उनके पुत्र माधुरीदासजी का चरित्र बहुत ही संक्षिप्त रूप से वर्णित किया है; अतः इन दोनों के चरित्र इनके साथही चाचा श्रीहितवृन्दावनदासजी एवं श्रीगोविन्दअलिजी की रचनाओं से संप्राप्त तथ्यों के आधार पर दिये जा रहे हैं। मोहनदासजी ब्रज मण्डल के अन्तर्गत कामवन, जिसे आजकल कामा कहा जाता है, के निवासी थे। इनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। ये अपने समय के अच्छे संगीतज्ञों में थे। इनका हृदय अत्यन्त सरस था। साहित्य और संगीत के प्रति इनके विशेष लगाव ने इन्हें धन कमाने की प्रपंचपूर्ण अन्य कुचेष्टाओं में नहीं पड़ने दिया। इन्होंने एक रास मण्डली बना ली थी, जोकि इनके स्वयं के हृदय को परम सन्तुष्ट करने के साथ-साथ दूसरों को भी परम सुख प्रदान करने वाली थी और यही इनकी एकमात्र जीविका थी।

गो. श्रीदामोदरवरजी महाराज के यहाँ नियमित रूप से रासलीला हुआ करती थी। कभी उनके यहाँ मोहनदासजी की रासमण्डली के द्वारा भी रासलीलानुकरण किया गया, जोकि अभूतपूर्व रहा। सब उपस्थित रसिकजन आनन्द विभोर हो गये और उन्होंने इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।

गुसाईंजी के यहाँ नित्य सत्संग भी हुआ करता था, जिसमें रसिकजनों की भीड़ सी लगी रहती थी। इस सत्संग में यदा-कदा मोहनदासजी भी पहुँच जाते थे और देखते थे कि सभी लोग किसी ऐसी रसमयी लीला का अनुभव कर आनन्दमग्न हो रहे हैं, जिससे मैं सर्वथा वंचित हूँ। इनके हृदय में इस अद्भुतानन्दमूलक रस की प्राप्ति का लोभ दिन प्रतिदिन बढ़ता चला गया। आखिरकार एक दिन इन्हें इस नित्यानन्द के प्रदाता का पता लग ही गया और तब इन्होंने गो. श्रीदामोदरवरजी के श्रीचरणों में अपना तन-मन-धन सर्वस्व अर्पण कर दिया। उनकी कृपा दृष्टि तो इन पर पहले ही पड़ चुकी थी, तभी तो इनके हृदय में इस रस प्राप्ति का लोभ बढ़ रहा था। आज गुसाईंजी ने भी मोहनदासजी को अपनी अमूल्य निधि प्रदान कर इन्हें सनाथ कर दिया।

मोहनदासजी तब से वृन्दावन में ही रहने लगे। ये अपने इष्ट की सेवा-भावना में सदैव लीन रहा करते थे। इन्होंने चारों तरफ से अपने मन को खींचकर इष्ट में पूर्ण रूप से अनुरक्त कर लिया था। परम रसज्ञ एवं संगीत कला में अतिशय प्रवीन मोहनदासजी श्रीराधावल्लभलालजी की सेवा परिचर्या करते-करते एक दिन निकुंज महल में प्रविष्ट हो गये।

माधुरीदासजी इन्हीं मोहनदासजी के पुत्र रत्न थे। ये बचपन में बहुत सुन्दर थे; अतः इनके पिताश्री अपनी रासमण्डली में इन्हें श्रीप्रियाजी का स्वरूप बनाया करते थे। माधुरीदासजी के बाल हृदय पर श्रीप्रियाजी का वेश धारण करने का बड़ा गहरा प्रभावपड़ा और वे क्रमशः उस वेष में तन्मय होते चले गये। गो. श्रीदामोदरवरजी के श्रीचरणों का आश्रय तो इन्हें अपने पिताश्री के साथ ही मिल गया था और साथ ही प्राप्त हो गई थी, उनकी इन पर स्नेहपूर्ण कृपादृष्टि भी; फलतः इन्हें बाल्यकाल से ही इस नश्वर जगत से पूर्ण विरक्ति और श्रीहित चरणों से गाढ़ी अनुरक्ति हो गई थी। इतना ही नहीं, इन्हें अपने निज स्वरूप का अनुभव तथा अपने इष्ट की रस लीलाओं का स्फुरण भी होने लगा था। यही कारण है कि इनमें रसिकों की अनन्यता के लक्षण अपने पिताश्री से भी अधिक रूप में दिखाई पड़ते थे। इन्होंने अपने परमश्रेष्ठ गुरुवर की कृपा से जगत की क्रियाओं का स्पर्श तक भी नहीं किया था।

तरुणावस्था होने पर माधुरीदासजी के विवाह सम्बन्ध की चर्चा होने लगी। ये सुन्दर तो थे ही, साथ में संगीत के अच्छे कलाकार भी थे; अतः आये दिन कोई न कोई बेटी वाला इनके पिताश्री से अपनी लड़की का इनके साथ विवाह सम्बन्ध करने की प्रार्थना करता दिखाई देता। पिताश्री मन मारकर उनसे कहते कि मैं तो तैयार हूँ; किन्तु वह ब्याह ही नहीं करना चाहता। पिताश्री के साथ अन्य लोग भी इनसे ब्याह करने का अनुरोध करते; किन्तु ये इस सम्बन्ध, इस ब्याह संस्कार की शास्त्र सम्मत आलोचना करके सबको चुप कर देते थे। एक दिन एक बेटी वाला आया हुआ था। वह इनके पिताश्री एवं अनेक स्वजनों के साथ इनसे ब्याह स्वीकार करने का अत्यधिक अनुरोध करने लगा। ये भी रोज-रोज के इस प्रपंच से ऊब चुके थे; अतः आपने सबके सामने यह कहते हुए कि क्या स्त्री के साथ स्त्री का विवाह हो सकता है, अपना सखी रूप प्रकट कर दिया। इनके सखी रूप के दिव्य दर्शन से सब आश्चर्य चकित हो गये और उस दिन से सदा के लिये इनके विवाह की प्रापंचिक वार्ता समाप्त हो गई और सभी इन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे।

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