श्री सुन्दरदास जी
श्री सुन्दरदास जी
कायस्थों के भटनागर परिवार में जन्मे सुन्दरदासजी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के निवासी थे। ये बादशाह अकबर की नवरत्न सभा के सदस्य अब्दुर्रहीम खानखाना के दीवान थे और इनका बादशाह अकबर बहुत आदर करते थे। गद्दी पर बैठने के कुछ दिनों बाद, बादशाह अकबर ने सब राजाओं को आज्ञा दी कि जहाँ-जहाँ वैष्णवों के तीर्थ स्थान हैं, वहाँ मन्दिरों का निर्माण कराया जाय। ऐसे सात तीर्थ स्थानों में वृन्दावन भी शामिल था। बादशाह की इस घोषणा के बाद अनेक हिन्दू राजा लोग मन्दिर बनवाने की अभिलाषा लेकर राधावल्लभ मन्दिर के तत्कालीन सेवाधिकारी गो. श्रीवनचन्द्रजी के पास भी आये। इनमें बादशाह अकबर के एक मनसबदार गोपालसिंह जादौं सर्वप्रथम थे। गो. श्रीवनचन्द्रजी ने उनसे कहा कि तुम्हारा प्रस्ताव तो ठीक है; किन्तु यहाँ की एक बात बहुत अटपटी है, जो तुम्हें अच्छी नहीं लगेगी। वह बात यह है कि "जब ठाकुरजी नव निर्मित मन्दिर में विराजमान होंगे, उसके एक वर्ष के बीच में ही मन्दिर निर्माता की मुत्यु हो जायेगी।" गोपालसिंह जादौं इस बात को सुनकर अत्यन्त उदास हो गया और मरने के डर से उठकर वापिस चला गया। उसके बाद आमेर नरेश राजा मानसिंह तथा अन्य अनेकों व्यक्ति मन्दिर बनवाने की लालसा के साथ यहाँ आये; किन्तु मृत्यु से भयभीत हो जाने के कारण, किसी ने भी मन्दिर बनवाने का साहस नहीं दिखाया और लौटकर वापिस चले गये।
गो. श्रीवनचन्द्रजी के अनेकों शिष्य दिल्ली में रहा करते थे तथा वे उनसे दिल्ली पधारने का विनम्रतापूर्ण आग्रह कर रहे थे, उन्होंने इसके लिये उन्हें अनेकों बार पत्र भी लिखकर भेजे। यद्यपि गो. श्रीवनचन्द्रजी अपने लाड़िले श्रीराधावल्लभलालजी की अनुरागपूर्ण अष्टयाम-सेवा ऐसे तल्लीन रहते थे कि उन्हें कहीं बाहर जाने का अवकाश ही नहीं मिलता था; तथापि एक बार वे अपने किसी शिष्य विशेष की प्रीतिपूर्ण प्रार्थना के वशीभूत होकर दिल्ली पधारे और उस शिष्य के यहाँ ठहर कर उपदेश करने लगे। उनके दिल्ली में रहने वाले अन्य शिष्यगण भी वहीं आकर उनके दर्शन एवं उनके उपदेशों से अपने आप को लाभान्वित
करने लगे।
सुन्दरदासजी, गो. श्रीवनचन्द्रजी के छोटे भाई गो. श्रीगोपीनाथजी, जो देववन में रहते थे, के शिष्य थे। जब इन्होंने अपने गुरु के बड़े भाई के दिल्ली पधारने की खबर सुनी, तो इन्होंने भी अपने घर पर उनकी पधरावनी की और उन्हें एक लाख रुपये भेंट करते हुए उनसे प्रार्थना की कि अब आप स्थाई रूप से वृन्दावन में रहते हुए, इस धन से श्रीराधावल्लभलालजी की अपनी मनरुचती सेवा अबाध रूप से कर सकते हैं। गो. श्रीवनचन्द्रजी, सुन्दरदासजी की घमंड से भरी इस बात को सुनकर बिगड़ उठे और बोले, "अरे मूढ़ ! स्वयं प्रभु भी भक्तों के अधीन रहते हैं और भक्त जब उनको जहाँ पुकारते हैं, वहाँ उपस्थित हो जाते हैं। ऐसा ही स्वभाव उनके भक्तों का होता है। वे भी संसार का हित करते हुए विचरण करते हैं और जहाँ भी वे जाते हैं, प्रभु की प्रेरणा से ही जाते हैं; क्योंकि भक्त कभी स्वतन्त्र नहीं होते।" यह कहकर गो. श्रीवनचन्द्रजी, सुन्दरदासजी की भेंट को वहीं रखी हुई छोड़कर, श्रीवृन्दावन चले आये। इस घटना से सुन्दरदासजी को बहुत पश्चाताप और आत्म ग्लानि होने लगी और तब इन्होंने यह प्रण कर लिया कि जब तक गुसाई जी प्रसन्न नहीं होंगे, तब तक मैं प्रसाद ग्रहण नहीं करूंगा, केवल दूध पीकर ही अपना गुजारा
करूँगा।देववन में सुन्दरदासजी के गुरु गो. श्रीगोपीनाथजी ने जब यह घटना सुनी, तब वह इन्हें अपने साथ लेकर, अपने ज्येष्ठ भ्राता के पास वृन्दावन आये और उन्होंने इनके अपराध को क्षमा करने की प्रार्थना की। भाई के आग्रह पर गो. श्रीवनचन्द्रजी ने सुन्दरदासजी को क्षमा करके प्रसाद ग्रहण कराया; किन्तु इनकी भेंट ग्रहण नहीं की। सुन्दरदासजी ने गो. श्रीवनचन्द्रजी के चरणों में गिरते हुए उनसे पुनः प्रार्थना की कि महाराजश्री ! यदि आप यह भेंट ग्रहण नहीं करते हैं, तो आप मुझे श्रीराधावल्लभलालजी के मन्दिर के निर्माण की आज्ञा ही प्रदान कर दें, जिससे कि मैं इस तरह अपने इष्ट की सेवा कर इस असार संसार से पार हो सकूँ। गुसाईंजी ने इनके सामने भी वही शर्त रखी कि मन्दिर बनने पर, श्रीठाकुरजी के विराजमान होने के एक साल के भीतर, तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी। सुन्दरदास जी यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और कहने लगे कि मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरे पूर्वभाग्य का उदय होने जा रहा है; क्योंकि जो वृन्दावन की रज ब्रह्मादिकों को भी दुर्लभ है, उसे मैं आपकी कृपा से, आपका कहलाकर, सहज ही प्राप्त कर लूँगा। मेरे मन में यह अभिलाषा अवश्य है कि यदि मैं आपके द्वारा किये गये एक वर्ष के सम्पूर्ण उत्सवों का सुख ही देख सकूँ, तो यह मेरा अहो भाग्य ही होगा। मेरी मृत्यु के बाद आप एक कृपा और करें कि मन्दिर के बिल्कुल सामने मेरी समाधि बनवा दें। प्रभु ने भी स्वप्न में गो. श्रीवनचन्द्रजी से कहा कि सुन्दरदासजी जो चाहते हैं, उसे वैसा करने की आज्ञा देकर उसका मनोरथ पूर्ण करें। गो.
श्रीवनचन्द्रजी ने सुन्दरदासजी को इस प्रभु-आज्ञा को सुनाते हुए, इन्हें मन्दिर निर्माण करने की आज्ञा दे दी। मन्दिर निर्माण की आज्ञा को सुनते ही सुन्दरदासजी को ऐसा लगा कि इनके प्राणों को संजीवनी शक्ति प्राप्त हो गई हो। लाल पत्थरों द्वारा बनवाये गये इस मन्दिर के निर्माण कार्य में सुन्दरदासजी ने बिना किसी संकोच किये खुले मन से अपना बहुत धन खर्च कर दिया। यह देखकर कुछ चुगलखोरों ने अब्दुलर्रहीम खानखाना से चुगली की कि सुन्दरदास तुम्हारे खजाने से अपार धन चुरा-चुराकर तुम्हारे खजाने को खाली किये दे रहा है और उससे वृन्दावन में एक मन्दिर का निर्माण करा रहा है। खानखाना ने इस समाचार को सुनकर सुन्दरदासजी को एक पत्र लिखा कि तू मेरा कर्मचारी है और तू जो कुछ भी कार्य करे, वह उत्तम से उत्तम रूप में करना, नहीं तो मेरी बदनामी होगी; यदि आवश्यकता हो तो और भी मँगा लेना। सुन्दरदासजी यह पत्र पाकर एकदम आश्वस्त हो गये और अधिक से अधिक खर्च करना आरम्भ कर दिया। मन्दिर निर्माण का यह कार्य तीन वर्षों में पूरा हुआ था।इस नव निर्मित मन्दिर में श्रीराधावल्लभलालजी का प्रथम पाटोत्सव वि. सं. 1641 की कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी के दिन हुआ था। इस दिन को चिर स्मरणीय बनाने के लिये सुन्दरदासजी ने किसी प्रकार की कोई कमी नहीं रखी। मन्दिर में आने-जाने वालों के लिये दिव्य पाँवड़े बिछाये गये, द्वार पर दुन्दुभि आदि विविध वाद्यन्त्र बजाये गये, मन्दिर को झालरों, पताकाओं एवं वन्दनवारों से सजाया गया, परमेष्ट श्रीराधावल्लभलालजी को नवीन वस्त्र एवं दिव्य आभूषण धारण कराये गये, गुरु एवं गुरुकुल का पूजन करके उन्हें सम्मानित किया गया, सन्तों एवं रसिकों को यथोचित भेंट-दक्षिणा दी गई, सम्पूर्ण ब्रज के ब्रजवासियों को जाति-धेर छोड़कर भोजन कराया गया, अष्ट प्रहर का समाज-गान का आयोजन किया गया तथा गुणी-गन्धों को पुरुस्कृत किया गया। इस प्रकार इस पट्ट महोत्सव पर सुन्दरदासजी ने सभी को सन्तुष्ट करने का पूर्ण प्रयास किया तथा वे सब भी इनके भाग्य की सराहना करते हुए इनकी जय-
जयकार करने लगे।
इसी प्रकार एक वर्ष के सभी उत्सवों को भी इन्होंने हार्दिक उल्लास के साथ अत्यन्त धूमधाम से आयोजित किया और जब एक वर्ष पश्चात वही दिन लौटकर आया, जिस दिन प्रभु को मन्दिर में पधराया गया था, तो सुन्दरदासजी देह त्यागने के लिए पूर्ण रूप से तैयार हो गये। इन्होंने श्रीठाकुरजी का
चरणोदक लिया और गुरुजनों का दर्शन करके उनको भेंट चढ़ाई। उसके बाद समाजियों ने हित चतुरासी जी का "बनी वृषभानु नन्दिनी आजु" वाला पद गाया। सुन्दरदासजी ने श्रीश्यामा-श्याम का हृदय में ध्यान करते हुए एवं मुख से पद का गान करते हुए, उपस्थित सब लोगों को दण्डवत प्रणाम की और प्राण त्याग दिये। गो. श्रीवनचन्द्रजी ने भी सुन्दरदासजी को दिये वचनानुसार वि. सं. 1642 में इनका स्मारक स्थल मन्दिर के बाहरी प्रवेश द्वार के सामने ही बनवा दिया था।
वस्तुतः संसार में धन अनर्थता का मूल है; किन्तु वही जब प्रभु की सेवा में लगा दिया जाता है, तो नरक से उद्धार करने वाला बन जाता है। अपना तन-मन और धन श्रीजी की सेवा में लगाकर सुन्दरदासजी प्रेम-रस में निमग्न हो गये।