श्री पुहुकरदास जी
श्री पुहुकरदास जी
पुहुकरदासजी काढ़ले ग्राम के निवासी थे। इनका जन्म एक वैश्य कुल में हुआ था। लक्ष्मी की इन पर पूर्ण कृपा थी। बहुत बड़े व्यापारी होने पर भी आपकी परम उदार वृत्ति थी। धर्म-कर्म के कार्यों में हार्दिक रुचि होने के कारण, इन्होंने स्थल-स्थल पर गौशाला, पाठशाला, धर्मशाला एवं अन्न क्षेत्र आदि खुलवाये हुए थे।
पुहुकरदासजी के यहाँ कभी कोई हितधर्मी सन्त पधारे एवं उनके सत्संग से इन्हें नाना कर्म-धर्मों की निस्सारता एवं श्रीहितधर्म के शुद्ध स्वरूप का ज्ञान सहज में ही संप्राप्त हो गया और ये वृन्दावन आकर गो. श्रीदामोदरवरजी के शिष्य हो गये। अब इन्होंने अपने घर पर ही श्रीजी की सेवा विराजमान कर ली और उनकी सेवा में ही अहर्निशि व्यतीत करने लगे। नित्य और नैमित्तिक उत्सवों के अवसर पर इनके यहाँ श्रीहितधर्मियों की भीड़ लगी रहती थी। हरि और हरि के जनों में अभेद बुद्धि से, ये उनकी सेवा तन-मन-धन से किया करते थे। श्रीराधावल्लभलालजी की प्रकट सेवा से इन्हें अत्यन्त अनुराग था और सेवा में उपयोगी वस्तुओं को ये सदैव भेजते रहते थे। कोई भी उत्तम नवीन वस्तु, जो इनकी दृष्टि में आती थी, वह चाहे कितने भी अधिक मूल्य से प्राप्त क्यों न हो, ये उसे खरीद कर श्रीजी सेवा में भेज देते थे। जब ये वृन्दावन आते थे, तो झूला, होली, वन-
विहार, फूल बँगला आदि उत्सव बड़े ठाठ से किया करते थे। इन्होंने
श्रीराधावल्लभलालजी के लिये सुनहली जरीदार वस्त्रों की अगली-बगली-छत-पिछवाई-परदा, सोने-चाँदी के वर्तन, उत्सवों की बैठकें, चौडोले, सिंहासन, शैयाघर का पलंग, पोशाकें, बहुमूल्य आभूषण आदि बनवाये थे। नित्य और नैमित्तिक उत्सवों के
अवसर पर विशेष भोगों का व्यय भी ये ही देते थे। इतना ही नहीं, इन्होंने ही सेवाकुंज के निकुंज मन्दिर एवं उसके विशाल परकोटे का निर्माण भी कराया था एवं वहाँ का सेवा व्यय भी ये ही दिया करते थे। नन्दगाँव, बरसाना आदि ब्रज के अन्य स्थानों में, जहाँ प्राचीन महात्माओं द्वारा प्रकट किये गये श्रीविग्रह विराजमान थे, वहाँ का समस्त सेवा प्रबन्ध भी ये अपनी ओर से ही किया करते थे। इस प्रकार सेवकवाणी की 'सकल समर्पण प्राणधन'- इस पंक्ति का अक्षरशः पालन करते हुए, पुहुकरदासजी ने अपनी समस्त आयु श्रीजी की सेवा में ही व्यतीत की थी।