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 श्री खरगसेन जी

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 श्री खरगसेन जी

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 श्री खरगसेन जी

 श्री खरगसेन जी

एक कायस्थ परिवार में जन्मे खरगसेवजी का निवास स्थान ग्वालियर राज्य के अन्तर्गत 'भानुगढ़' नामक एक उत्तम नगर में था। ये ग्वालियर नरेश श्रीमाधौसिंहजी के प्रधानमंत्री थे तथा उनके द्वारा दिये गये कार्यों को ये सच्ची निष्ठा और पूरी ईमानदारी के साथ किया करते थे। इनके घर पर सन्तों का आना-जाना लगा रहता था; जिससे इन्हें साधु-सन्तों की सेवा करने का सौभाग्य सहज रूप से प्राप्त हो गया था तथा घर पर ही मिले उनके सत्संग ने इनके मन को वैराग्यवान बना दिया था। एक बार इन्हें वृन्दावन-रस के उपासक रसिकों का स्नेहपूर्ण सानिध्य एवं रसमय सत्संग मिला, जिसने इन्हें वृन्दावन-रस-उपासना का परम अनुरागी ही बना दिया और ये किसी रसिक सन्त के शरणापन्न हो गये। उन्होंने इन्हें इष्ट और धाम के विषय में पूरी जानकारी प्रदान की और परमेष्ट श्रीराधावल्लभलालजी एवं प्रेमधाम वृन्दावन के दर्शनों के लिये इनके मन में तीव्र उत्कंठा उत्पन्न कर दी।

गृहस्थ में रहते हुए भी इनका अधिकाधिक समय कथा-कीर्तन, हरि-गुण-गाव, घर पर आये साधुजनों की सेवा एवं सम्मान, इष्ट की सेवा एवं उनके सुमिरन आदि में ही व्यतीत होता था। अपने इष्ट की रूप माधुरी का निरन्तर दर्शन करते हुए इनके नेत्र कभी थकते ही नहीं थे। ये सदैव श्रीराधावल्लभलालजी के नाम का उच्चारण एवं उनके यश का गान किया करते थे। इष्ट के महाप्रसाद में इनकी दृढ़ निष्ठा थी। ये दुख-सुख, लाभ-हानि में समान रूप से हर्षित बने रहते थे तथा अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति एवं पुत्र आदि को प्रभु का ही मानते थे। इनकी शान्त, सहज एवं कोमल वचनावली एवं प्रेम पूर्ण व्यवहार ने सभी के चित्त को चुरा लिया था।

इस प्रकार का आनन्दपूर्ण जीवन यापन करते हुए, इन्हें कसौटी पर कसने का समय आ गया। दूसरों के उत्कर्ष से ईर्ष्या रखने वाले कुछ चुगलखोरों ने राजा से इनकी चुगली करते हुए कहा कि आपका प्रधान आपके खजाने से धन चुराकर साधु-सेवा आदि में लुटाये जा रहा है, बिना चोरी किये इतना अधिक खर्च करना इसके लिये असम्भव ज्ञात होता है। राजा इस बात को सुनकर बहक गया और उसने खरगसेनजी को तुरन्त बुलाया और उनके ऊपर एक लाख रुपये का दण्ड सुनाते हुए कहा कि या तो इसे जल्दी से जल्दी खजाने में जमा करो, नहीं तो मैं तुमको बहुत कड़ा दण्ड दूँगा। खरगसेन जी ने विनम्रता पूर्वक निवेदन किया "आपने जो हाथ उठाकर दिया है, वही मैंने लिया है, आपके खजाने से मैंने एक पैसा भी नहीं लिया है। आप सत्य का पता लगाकर मुझे दण्ड दीजिये।" यह बात सुनकर राजा ने इन्हें बन्दीगृह में डलवा दिया और इनका अन्न-जल भी बन्द कर दिया। इनके चित्त पर तो इस बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ा; किन्तु प्रभु से अपने जन के अपमान की यह दुर्दशा नहीं देखी गयी। रात्रि में सोने पर राजा को यमदूत दिखाई पड़े, जिन्हें देखकर राजा अत्यन्त भयभीत हो गया; किन्तु यमदूत उसे पकड़कर अनेक प्रकार के कष्ट देने लगे। राजा जब रोने लगा, तब यम के गणों ने उससे कहा कि तूने एक भक्त को बन्दीगृह में डालकर उसे बहुत सताया है; इसलिये यमराज ने हम लोगों को यहाँ तुम्हारे पास भेजा है। राजा मूर्छित होकर मृतक के समान हो गया और उसके शरीर में केवल स्वाँस ही चल रही थीं। राजा की यह हालत देखकर चुगलखोरों को भी कष्ट हुआ और यह सोचकर कि खरगसेनजी को सताने के कारण ही राजा की यह हालत हुई है, वे लोग खरगसेनजी के पास आये और इनके चरणों में गिरकर एवं अनुनय-विनय करके, इन्हें राजा के पास ले आये। खरगसेनजी को देखते ही यम के दूत भाग गये और सभी ने देखा कि राजा के प्राण भी वापिस आ गये हैं। खरगसेनजी के इस अद्भुत प्रभाव को देखकर राजा अत्यन्त लज्जित हुआ। वह उठा और इनके चरण स्पर्श कर इनसे अपने अपराध के लिये क्षमा-याचना करने लगा। साधु तो स्वभाव से ही दयालु होते हैं। खरगसेनजी ने कहा कि मैंने अपराध ही क्या किया था, साधु-सेवा कर इस मनुष्य देह को सफल ही तो बनाया था।तब से खरगसेनजी पर राजा का पूर्ण विश्वास हो गया, वह इनका बहुत आदर करने लगा, इन्हें प्रभु के समान मानने लगा एवं इन्हें अपने यहाँ न बुलाकर स्वयं इनके घर जाकर इनके दर्शन एवं सत्संग के लाभसे अपने आप को धन्य मानने लगा। इनके सत्संग के प्रभाव से उसके हृदय में भी भक्ति अंकुरित हो गई और उसने श्रीराधावल्लभलालजी की शरण ग्रहण कर ली। सत्संग से मनुष्य सम्पूर्ण रूप से बदल जाता है, सत्संग मंगल रूप है, सत्य स्वरूप है। सत्संग से मन में विश्वास उत्पन्न होता है और सुखों का प्रकाश होता है। सत्संग से रास-विलास के दर्शन होते हैं और वृन्दावन वास प्राप्त होता है। खरगसेनजी जीवन भर सत्संग करते रहे और श्रीराधावल्लभलालजी को लाड़ लड़ाते रहे। एक दिन वे श्रीराधावल्लभलालजी का गुणगान करते हुए, उनको हार धारण करा रहे थे कि उनके प्राण शरीर को छोड़कर प्रभु के चरणों में

पहुँच गये।

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