श्री हरिराम व्यास जी
श्री हरिराम व्यास जी
ओरछा लौटकर उन्होंने जब राजा को यह घटना सुनायी, तब राजा स्वयं ही इन्हें मनाने वृन्दावन पहुंचे और आग्रह किया कि एक दिन के लिए ही सही, किन्तु आप एक बार ओरछा अवश्य पधारें। कहते हैं, जब किसी प्रकार भी राजा नहीं माने, तो व्यास जी ने कहा- "जब चलना ही है, तब मुझे अपने भाई-बन्धुओं से तो मिल लेने दो।" इस मिलन का दृश्य अलौकिक था। व्यास जी का वृन्दावन की लता पताओं से घनिष्ठ प्रेम था। किसी भी परिस्थिति में श्री वृन्दावन से बाहर जाना इनके लिए असम्भव हो गया था। राजा ने देखा कि व्यास जी वृन्दावन की लता और वृक्षों से लिपट लिपट कर रो रहे हैं और कह रहे हैं- "मुझसे ऐसा क्या अपराध बन गया, जो आज तुमसे अलग हो रहा हूँ।" व्यास जी के इन अद्भुत आचरणों को देखकर ओरछा नरेश मधुकरशाह अत्यधिक प्रभावित हुए, क्योंकि वे बड़े ही धर्मनिष्ठ राजा थे। उनका हृदय पिघल गया और व्यास जी के साथ वे भी रो पड़े। उन्होंने तब व्यासजी के चरणों पर गिरकर अपने दुराग्रह के लिए क्षमा माँगी और व्यास जी से भगवद्-भक्ति का उपदेश लेकर अपने राज्य
को लौट गये।
एक दिन व्यास जी अपने आराध्य ठाकुर श्रीजुगलकिशोरजीजी के मस्तक पर जरी की पाग धारण करा रहे थे, किन्तु सिर के चिकना होने के कारण वह बार-बार खिसल पड़ती थी। बहुत प्रयत्न करने के पश्चात भी जब पाग नहीं बँध पाई, तो ये ठाकुरजी से कहने लगे "महाराज ! या तो आप पाग बँधवा लो, या फिर अपने आप ही बाँध लो।" यह कहकर ये सेवाकुंज चले गये, लेकिन रह-रह कर इनको पाग की याद आती थी। अन्त में, जब नहीं रहा गया तो वे वापिस आये और देखा कि श्री ठाकुर जी के मस्तक पर बड़े सुन्दर ढंग से पाग बँधी हुई है। श्रीजुगलकिशोरजीजी की अद्भुत रूप माधुरी का दर्शन करके व्यास जी अत्यन्त आनन्द से भर गये और बोल उठे" जब आप ऐसी सुन्दर पाग बाँधना जानते हैं, तो भला मेरी बाँधी हुई पाग आपको क्यों पसन्द आने लगी ?"
ऐसी ही एक घटना वंशी धारण कराने की है। एक बार व्यास जी ठाकुर श्रीजुगलकिशोरजीजी के कर कमलों में जिस वंशी को धारण कराना चाहते थे, वह मोटी होने के कारण उनके हाथ में नहीं आ पा रही थी। बार-बार प्रयत्न करने पर भी जब ये उस कार्य में सफल नहीं हुए, तो वंशी को वहीं रखकर ये मन्दिर से बाहर आ गये। कुछ समय बाद मन्दिर में जाकर इन्होंने देखा कि ठाकुर जी वही वंशी धारण किये हुए मुस्करा रहे हैं।
इसी प्रकार एक बार वंशी धारण कराते समय ठाकुर श्रीजुगलकिशोरजी की कोमल अँगुली छिल गई, जिससे व्यास जी को बहुत वेदना हुई। इन्होंने तत्काल ही एक वस्त्र को जल में भिंजोकर पट्टी के रूप में बाँध दिया। बताते हैं कि आज भी ठाकुर श्रीजुगलकिशोरजी के मन्दिर में पट्टी बाँधने की परम्परा विद्यमान है।
श्री व्यास जी जाति तथा ब्राह्मणत्व से ऊपर उठकर श्रीहिताचार्य चरण द्वारा बतलाये गये प्रेम-धर्म किंवा अनन्य-धर्म में परिनिष्ठित हो गये थे। इन्होंने कहा है-
जाकी है उपासना, ताही की वासना, ताही कौ नाम-रूप-गुन लै गाइये। यहै अनन्य धर्म परिपाटी, वृन्दावन बसि अनत न जाइये ॥ सोइ व्यभिचारी आन कहै आन करै, ताकौ मुख देखें दारुन दुख पाइये। व्यास होय उपहास त्रास किये, आस अछत कत दास कहाइये ॥