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 श्री गंगा-यमुना बाई जी

 श्री गंगा-यमुना बाई जी

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 श्री गंगा-यमुना बाई जी

 श्री गंगा-यमुना बाई जी

मुगल बादशाह हुमायूँ के शासनकाल में यों तो सम्पूर्ण ब्रज ही मवासियों का क्षेत्र घोषित होता था; किन्तु कामवन विशेष रूप से मवासियों का एक सुदृढ़ गढ़ था। तत्कालीन फौजदार ने कामवन के मवासियों पर चढ़ाई की। दोनों ओर के बहुत से लोग मारे गये; किन्तु बादशाही सेना के आगे मवासी सेना के पैर उखड़ गये और वह भाग खड़ी हुई। विजय में उन्मत्त यवन सेवा, जो स्वभावतः क्रूर और नृशंस थी, कत्लेआम करने लगी। सारा ग्राम लाशों का ढेर बन गया। जो भाग सके, वे ही यहाँ-वहाँ छिपकर अपने प्राणों की रक्षा कर सके। उन्हीं भागे हुए प्राणियों में ही दो बालिकाएँ गंगा और यमुना भी थीं, जो एकान्त वन में जाकर छिप गई। उस समय इनकी आयु मात्र नौ-नौ वर्ष की ही थी। ये हीन कुल में पैदा हुई थीं तथा अत्यधिक सुन्दर थीं। इनके माता-पिता आदि सभी अभिभावक फौज द्वारा मारे जा चुके थे और ये भूख-प्यास से व्याकुल रोती हुई इधर-उधर भटकती फिर रही थीं।

प्रभु इच्छा से एक वृद्ध वैष्णव मनोहरदास की नजर इन पर पड़ी। उसके पूँछने पर इन्होंने अपनी करुण कथा उसे कह सुनायी। उसे इन पर दया आ गई और सुरक्षा का आश्वासन देते हुए, वह इन्हें मथुरा में स्थित अपने निवास स्थान पर ले आया। मनोहरदास संगीत कला के तीनों अंगों में अतिशय निपुण था; अतः उसने अपनी बेटियों के समान इनका लाड़ प्यार से पालन-पोषन करते हुए, इन्हें संगीत कला की सम्यक प्रकार से शिक्षा देना प्रारम्भ कर दिया। होनहार और चतुर ये दोनों बालिकायें भी दत्त चित्त हो कठिन परिश्रम करने लगीं और पाँच वर्ष की स्वल्प अवधि में ही इन्होंने संगीत कला का सम्यक ज्ञान प्राप्त कर लिया। अब ये दोनों युवा हो चुकी थीं; अतः इनकी संगीत कला पूर्ण यौवनावस्था को देखकर मनोहरदास की चित्तवृत्ति दूषित हो गई और उसने निश्चय किया कि इन्हें बेचकर कुछ धनोपार्जन करना चाहिये। वैसे तो पहले से ही मनोहरदास ने अपनी संगीत कला से बहुत सा धन संचय करके गाड़ रखा था; किन्तु 'दिन प्रति लाभ लोभ अधिकाई' के नियमानुसार उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई। वह धनोपार्जन के उद्देश्य से आगरा आया और राजा मानसिंह को अपनी संगीत कला निपुणता से चमत्कृत करने के पश्चात, इन दोनों बालिकाओं के रूप-सौन्दर्य एवं इनकी संगीत कला में पारंगत होने की चर्चा करने लगा। राजा के मन में इन्हें देखने-सुनने की उत्सुकता जाग उठी। वह मनोहरदास को एक हजार रुपये देने की कह रहा था; किन्तु मनोहरदास दो हजार रुपये से कम लेने पर राजी नहीं हो रहा था। तब राजा ने मनोहरदास से कहा कि "तुम लड़कियों को यहाँ ले आओ, तुम्हारी बातों की यथार्थता को देखकर मैं तुम्हें दो हजार रुपये से भी अधिक धन दे सकता हूँ।" मनोहरदास इन्हें आगरा ले जाने के लिये वापिस मथुरा आया; किन्तु यहाँ आते ही ज्वर से पीड़ित हो जाने के कारण वह गंगा-यमुना से कोई बात नहीं कह सका। उसे यमदूत दिखाई देने लगे। अपना अन्त समय निकट देखकर, उसने अपने गड़े हुए तीस हजार रुपयों का ठिकाना इन्हें बता दिया और उसी रात यमलोक को प्रस्थान कर गया। उसकी मृत्यु के पश्चात्, उसकी तीस हजार रुपये की सम्पत्ति में से, इन्होंने ही उसका दाह संस्कार एवं उत्तर क्रियायें

सम्पन्न करायीं।अपने माता-पिता एवं आत्मीयजनों की अकाल मृत्यु, अपने ऊपर आयी विपत्तियों, मनोहरदास का आश्रय एवं फिर उसका भी देह-त्याग आदि-आदि भूतकालिक घटनाओं पर सोच-विचार करते हुए गंगा-यमुना ने यही निश्चय किया कि यह संसार असत्य एवं असार है; अतः श्रीराधावर का भजन करना ही परम श्रेयस्कर है। यह ज्ञान इन्हें श्रीपरमानन्ददासजी, जो कभी-कभी संगीत सुनने की अभिलाषा से मनोहरदासजी के पास वृन्दावन से मथुरा आया-जाया करते थे, के सत्संग से प्राप्त हुआ था। अपने इस निश्चय के अनुसार ये दोनों चल पड़ीं वृन्दावन की ओर तथा श्रीपरमानन्ददासजी से मिलीं। इन्होंने उन्हें साष्टांग प्रणाम करते हुए उनसे संसार से छुड़ाने की प्रार्थना की। श्रीपरमानन्ददासजी इन दोनों को लेकर गो. श्रीहितहरिवंशचन्द्र महाप्रभु के पास आये और उनसे सानुरोध विनम्र होकर बोले कि महाराजश्री! इन

दोनों बालिकाओं पर करुणा करके इन्हें अपनाने की कृपा करें। परम कृपालु श्रीहिताचार्यचरण ने श्रीपरमानन्ददासजी की प्रार्थना स्वीकार करके इन दोनों को दीक्षा देकर अपनी उपासना पद्धति की शिक्षा दी। तत्पश्चात् इन दोनों ने मनोहरदासजी का समग्र संचित धन श्रीहितजी महाराज को अर्पित करते हुए, उन्हें अपनी पूर्वकथा भी कह सुनायी। श्रीहित महाप्रभु ने उस धन का स्पर्श न करते हुए इन्हें उसे हरि-हरिजन की सेवा में लगाने की आज्ञा प्रदान की। अब ये दोनों अपने घर पर श्रीजी की नाम-सेवा विराजमान करके उनका विविध प्रकार से लाड़ लड़ाने लगीं। इन्हें सेवा के निमित्त धन खर्च करने में किसी प्रकार की कोई हिचकिचाहट नहीं होती थी। ये श्रीजी का उत्तम से उत्तम भोग लगातीं और उसे साधु-सन्तों को वितरण कर देती थीं। ये दोनों अब नित्य ही कभी वीणा वादन द्वारा, कभी अपने नृत्य

द्वारा और कभी गुरुदेव द्वारा रचित अथवा स्वरचित पदों को सुन्दर राग-रागिनियों में गाकर श्रीराधावल्लभलालजी को रिझाने लगीं। ये भोग-विलास को मिथ्या मानती थीं और हानि-लाभ, सुख-दुख को समान समझती थीं। ये प्रभु के नित्य और नैमित्यिक उत्सवों को अत्यन्त उत्साह पूर्वक धूम-धाम

के साथ किया करती थीं।

किसी दिन मनोहरदास ने इनसे स्वप्न में कहा कि- "मैं अपने कुकृत्यों के कारण प्रेत हुआ हूँ, तुमने मेरे धन का सदुपयोग करते हुए, उसे सत्कर्म में लगाकर अच्छा किया है; अब तुम मुझे अपना चरणामृत पिलाकर, प्रेत योनि से मेरा उद्धार भी कर दो"। दूसरे दिन दोनों बहिनें मथुरा गई और मनोहरदास के बताये हुए स्थल पर, सब भक्तों का चरणोदक के साथ अपना भी डालकर मनोहर दास का प्रेत योनि से उद्धार कर दिया। तत्पश्चात् इनके द्वारा वहाँ पर साधुओं का भण्डारा तथा कीर्तन का आयोजन भी किया

गया।मथुरा के तत्कालीन हाकिम अजीजबेग ने जब गंगा-यमुना बाईयों की संगीत-कुशलता और रूप-सौन्दर्य की बात सुनी, तो उसने अपने अनुचरों द्वारा इन्हें अपने यहाँ बुला लिया। इनके रूप-सौन्दर्य को देखकर उसकी दुर्वासना जागृत हो उठी और वह अनेक प्रकार के प्रलोभन देने लगा; किन्तु ये दोनों बिना कुछ बोले, उसकी दुर्वासना को समझकर, मन ही मन में परमेष्ट प्रभु का नाम स्मरण करने लगीं। दुराचारी म्लेच्छ ने उपयुक्त अवसर व देख, सोच-विचार करने के लिये इन्हें एक एकान्त स्थान में बैठा दिया। रात्रि होने पर जब वह उनके पास जाने को हुआ तो उसने देखा कि वहाँ द्वार पर एक विकराल सिंह इनकी रक्षा के लिये खड़ा है और उसे खा जाने के लिये भयंकर गर्जना करते हुए उसकी ओर ही चला आ रहा है। अजीजबेग उल्टे ही पैरों अपने घर की ओर दौड़ा और अपनी शैया पर ज्वर पीड़ित होकर गिर पड़ा। अत्यधिक वेदना के कारण रात्रि बड़ी कठिनता से व्यतीत हुई। ये दोनों तो श्रीहित-कृपा से पहले ही वृन्दावन आ चुकी थीं। प्रातःकाल होने पर अजीजबेग इनके घर आया और अत्यन्त कातरता युक्त शब्दों में, इन्हें माता कहकर पुकारते हुए, इनसे अपने अपराध को क्षमा करने की याचना करने लगा। उसने इन्हें सिंह की कथा सुनाते हुए अपने साथ लाया हुआ बहुत-सा धन भी इन्हें भेंट करना चाहा; किन्तु इन्होंने उसे अस्वीकार करते हुए, उसे हरि-भक्तों की सेवा में लगाने की शिक्षा प्रदान की। वह बार-बार इनके चरणों की रज को अपने सिर पर लगाकर इन्हें यह विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहा था कि उसे अपने द्वारा किये गये महत् अपराध का बोध हो चुका है और इसके लिये वह पश्चाताप करना चाहता है। इन्होंने भी यह मानकर कि उसे अपने अपराध का अहसास हो गया है, उसे आदर के साथ विदा किया गया। अपने घर पहुँचकर वह सोचने लगा "यह परम सत्य है कि भगवान भक्त की रक्षा करने निश्चित रूप से आते हैं, जिस प्रकार कि इन दोनों भक्तिमती माताओं की रक्षा के लिये श्रीराधावल्लभलालजी मेरे सामने सिंह रूप धारण करके प्रकट हुए थे। अब इन दोनों के प्रति उसका भाव मातृ-भाव के समान आदरणीय हो चुका था। उसने पुनः बहुत-सा धन किसी के माध्यम ये इन्हें भिजवाया, यह कहते हुए कि "हे माताओं! आप इसे अस्वीकार मत करना"। इस धन से इन दोनों ने एक महोत्सव का आयोजन किया, जिसे देखने के लिये वह स्वयं यहाँ आया। यह देखकर कि ऐसे वृहद् महोत्सव के लिये सभी लोग गंगा-यमुना बाइयों के भाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे हैं, वह अति प्रसन्न हुआ। अब उसका जगत के प्रति वैराग और हरि-हरिजनों के प्रति असीम अनुराग हो गया था। वस्तुतः सत्संगति से बड़े से बड़े पापी का भी उद्धार हो जाता है, वह उसे जिस भी प्रकार मिली हो। इस बात में किसी को कभी कोई संशय नहीं करना चाहिये।

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