श्री हरिवंशदास जी कायस्थ
श्री हरिवंशदास जी कायस्थ
हरिवंशदासजी का जन्म एक कायस्थ परिवार में हुआ था। इन्होंने गो. श्रीहितहरिवंशचन्द्रजी से श्रीहित-धर्म की दीक्षा प्राप्त की थी। शरणापन्न होने के पश्चात इनका मन श्रीराधावल्लभलाल के रस-भजन में एकान्त रूप से रम गया था। परिवार की चिन्ता छोड़कर ये अपने इष्ट की सेवा और सन्तों के सत्संग में अपना सारा समय बिताने लगे। दीक्षा के समय श्रीहितजी महाराज ने इन्हें साधु-सन्तों की सेवा करने की शिक्षा भी प्रदान की थी, जिसका निर्वाह ये जीवन भर करते रहे। साधु-सन्तों के प्रति इनके मन में गुरु के समान आदर एवं श्रद्धा का भाव था। ये किसी भी तिलक कंठी-माला धारण करने वाले साधु की सेवा मन-वाणी-कर्म की शुद्धता के साथ तन-मन-धन और जन से किया करते थे। शान्त प्रकृति के होने के कारण, न तो ये कोई असत्य बात ही कहते थे और न किसी झूठे वाद-विवाद में ही पड़ते थे। ये जीव मात्र के प्रति दया का भाव रखते थे और दीन-दुखियों के कष्ट दूर करने में सदैव तत्पर रहा करते थे। भूखे को भोजन देकर, प्यासे को पानी पिलाकर और नंगे को वस्त्र उढ़ाकर इनकी आत्मा को परम सन्तुष्टि
का अनुभव हुआ करता था।
हरिवंशदासजी की सन्त-सेवा-निष्ठा की ख्याति सर्वत्र फैल चुकी थी। एक ठग साधु-वेश धारण कर, अपनी स्वार्थ सिद्धि की कामना लेकर इनके पास आया। इन्होंने भी हार्दिक भक्ति-भाव से उसकी समुचित सेवा सुश्रूषा की। उस ठग को ऐसी अच्छी सेवा सुश्रूषा के साथ-साथ, विविध प्रकार की नित्य नवीन भोजन सामग्री पहले कभी नहीं मिली थी, अतः वह वहीं जम गया और हरिवंशदासजी की ही भाँति दिन-रात भजन, कीर्त्तन एवं सत्संगादि कर इनका चित्त उत्तरोत्तर अपनी ओर आकर्षित करने लगा। हरिवंशदासजी विशुद्ध हृदय से साधु-सेवा में एकान्त निष्ठा रखने वाले महानुभाव थे। ये उसकी कपट-नीति की कल्पना न करके, दिनोंदिन और अधिक श्रद्धावनत हो, अपने को सौभाग्यशाली समझने लगे; किन्तु वह साधु वेशधारी ठग इनकी विशद सम्पत्ति को हथियाने की ताक में अनेक प्रकार के यत्न सोचता
रहता था।एक दिन उस ठग ने श्रीजी के लिये रसोई बनाई। अपने लिये एक पत्तल पर अलग से भोजन-सामग्री निकालकर रखने के पश्चात्, उसने शेष में जहर मिला दिया और उसी से श्रीजी का भोग लगाकर सभी को परोस दिया। हरिवंशदासजी अथवा अन्य कोई उस ठग की इस पाप क्रिया से सर्वथा अनभिज्ञ थे; परन्तु श्रीजी से यह बात कैसे छिप सकती थी। उन्होंने भक्त की रक्षा करने के लिये, अपनी लीला-शक्ति द्वारा विष मिले भोजन प्रसाद को विष रहित और उस ठग साधु के भोजन को विषमय बना दिया;
जिसको खाते ही वह लहर खाकर भूमि पर गिर पड़ा और सभी के देखते-देखते ही उसने एक मुहूर्त में अपने प्राण त्याग दिये। साधु सेवा परायण हरिवंशदासजी उस ठग साधु की मृत्यु से अत्यन्त दुखी हुए और परम कारुणिक शब्दों में प्रार्थना करने लगे कि "हे प्रभु! मेरे किस अपराध से साधु वियोग जैसा दण्ड दिया है? इनके संग मेरा भी भजन कीर्तन बन जाता था। अब मैं कैसे आशा करूँ कि मैं भी इस संसार सागर से पार हो जाऊँगा ? ऐसा भजनीक साधु अब मुझे कहाँ मिलेगा? हा प्रभु! भोजन तो हम सभी ने साथ-साथ ही किया था; किन्तु हम सभी जीते रहे और यही क्यों मर गये ? हाय! आज से सारा संसार यही कहेगा कि हरिवंशदास ने इन्हें मार डाला। मैं अब साधु को मारने के कलंक से कलंकित होकर कैसे जिऊँगा ? अतः आप इसे जीवन दान देने की कृपा करें। मुझसे इसका वियोग नहीं सहा जाता। यदि आप इसे प्राणदान देने की कृपा नहीं करेंगे तो मैं भी इन्हीं के साथ प्राण विसर्जित कर दूंगा"। हरिवंशदासजी के इस निष्छल विलाप से प्रभु भी विचलित हो उठे और उस ठग साधु को जीवित कर अपने निज जन हरिवंशदासजी के मन की अभिलाषा को पूर्ण कर उसे सन्तुष्टि प्रदान की। वह ठग साधु प्रातः जागरण की भाँति उठा और हरिवंशदासजी को साष्टांग दण्डवत कर अपनी पूर्व में की गई पाप क्रिया का विस्तार पूर्वक वर्णन करने लगा। उसने यह भी बताया कि- "यमदूत मुझे बलात् यम-पाश में बाँधकर यमराज के पास ले गये थे और यमराज ने दण्ड के विधान के अनुसार मुझे खौलते हुए तेल के कड़ाहे में डलवा दिया था। आह! कितनी असह्य यातना थी वह, न जाने वह यातना मुझे कब तक भोगनी पड़ती; किन्तु आपने सदय होकर यमराज के हृदय में भी करुणा का संचार कर दिया और कुछ क्षण में ही मुझे उस यम यातना से मुक्त कर दिया गया। मुझे आज्ञा दी गई कि तूने यह महत् अपराध किया था, जिसका कि दण्ड-विधान ऐसा है कि जब तक महापुरुष क्षमा न कर दें, तब तक उसे यह भोगना ही पड़ता है। तू ऐसे ही किसी महापुरुष की इच्छा से मुक्त हो सका है; अतः तू अब शीघ्र ही जाकर उनके चरण पकड़कर अपने अपराध की क्षमा याचना कर और भविष्य में निष्कपट भाव से साधु सेवा कर, जिससे इस संसार सागर से पार हो सके। इस प्रकार आज मेरा पुनर्जन्म हुआ है। महात्मन् ! अब आप मुझे अपनी ही शरण देकर मेरा उद्धार कीजिये। सहज दयालु एवं कोमल प्रकृति हरिवंशदासजी ने उसकी इस दयनीय दशा पर द्रवित होकर उसे मन्त्र-दीक्षा देकर अपना शिष्य बना लिया। अब वह भी हरिवंशदासजी की कृपा से सच्चा साधु बन गया तथा विष्छल भक्ति भाव पूर्ण हृदय से हरि-गुरु-साधु सेवा में सदा निरत रहकर उसने अपने जीवन को सफल बनाया।