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श्री भुवन जी

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श्री भुवन जी

श्री भुवन जी

भुवनजी जैसा कोई अन्य भक्त चौदह भुवनों में देखने-सुनने को नहीं मिलता है, जिनके हृदय में गो.

मोहितहरिवंशचन्द्र महाप्रभु की कृपा से अद्वय युगल श्रीश्यामा-श्याम का विरन्तर निवास बना रहता था इनका जन्म चौहान वंश में हुआ था। आपके पिता मेवाड़ के किसी राणा के प्रधान सामन्त थे। वे परम रवीर योद्धा थे और राणाजी उन्हें अपने भाई जैसा सम्मान दिया करते थे। भुवनजी के माता-पिता दोन हरि-गुरु-साधु सेवा परायण अनन्य हित धर्मी थे। भुवनजी उनके एक मात्र पुत्र थे और बारह वर्ष की स्वल्प आयु में ही इन्हें पितृ वियोग जैसे घोर दुःख का सामना करना पड़ा; किन्तु राणाजी के स्नेह पूर्ण सानिध्य एवं संरक्षण में इन्हें उस दुःख का ज्यादा अनुभव नहीं हुआ। राणाजी की ओर से इनके पिताश्र को सवा लाख का पट्टा मिला हुआ था, जिसे उन्होंने इनके नाम कर दिया था।

अब अपने पुत्र की तरफ से निश्चिन्त होकर, इनकी माताश्री ने श्रीराधावल्लभलाल के लाड़-चाव में पना पूरा समय लगाना आरम्भ कर दिया था। वालक भुवन जाति स्वभावानुसार समवयस्क बालकों साथ शिकार खेलवे मैं मग्न रहा करते थे। भक्ति हदया इनकी माताजी को यह बात बहुत अप्रिय लगा करती थी। वे श्रीराधावल्लभलालजी से मन ही मन कहा करती थीं कि "हे प्रभो! आपने ऐसा पुत्र मेरे हाँ क्यों उत्पन्न किया, जो कि सदा हिंसा में ही लीन रहता है। यह पुत्र मेरे किसी काम का नहीं है। हरि क्तों को तो हरि-भक्त के प्रति ही अपनत्व हो जाता है"। यह सोचकर उनकी ममता इनके प्रति धीरे-धी कम होने लगी।

एक दिन भुवनजी अपने शयन कक्ष में सोये हुए थे। प्रभु इच्छा से चूहों ने तीरों से भरे हुए इनके तर्कस को कमरे से फर्स पर डाल दिया, जिससे कि उसके तीर चारों तरफ फैल गये। इस खट-पट की आवाज को सुनकर भुवनजी की नींद उचट गई और यह जानने के लिये कि चूहों ने क्या गिरा दिया है, जैसे ही डबड़ा कर उठे, वैसे ही एक तीर इनके पैर में दो अंगुल गड़ गया। असह्य वेदना से व्यथित भुवनजी हा भैया ! हाय मैया ! कहकर रोने लगे। ममतामयी इनकी माताश्री अधिक देर तक कठोर न रह सकीं और सी समय आकर एवं इनके पैर से तीर निकालकर इन्हें कभी धिक्कारते हुए और कभी प्रेम से चुचकार ए समझाने लगीं कि "हे कपूत! तुझे भगवान ने एक क्षत्रिय कुल में जन्म दिया है, तू एक तीर लग जा से माँ-माँ कहकर चिल्लाता है, तू कायर है। अरे बेटा। देख जो प्रत्येक जीव पर दया करते हैं, दूसरों की पीड़ा का हरण करते हैं, दूसरे का प्राण न लेकर उसके प्राण बचाते हैं, वही बालक सपूत कहलाते हैं। त्येक प्राणी में प्रभु का ही निवास है, ऐसा वेदादि आर्ष ग्रन्थ कहते हैं। अतः किसी देहधारी को भी का न पहुंचाकर, देह देने वाले परम प्रभु का भजन करना ही इस मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य है"। नाताश्री के इस उपदेश से भुवनजी के हृदय में कुछ परिवर्तन तो अवश्य हुआ, किन्तु पूर्ण रूप से नहीं। कुछ दिनों बाद जब राणाजी शिकार के लिये जा रहे थे, तो उन्होंने इन्हें भी साथ में चलने के लिये कहा और ये भी अपने मन की कचाई के कारण उनके अनुरोध को टाल न सके तथा उनके साथ हो लिये। इ शिकारियों को देखकर सभी हिरण और हिरणी, अपने-अपने जोड़ों में वन में छिपने के लिये भागने लग और इन सबने भी अपने-अपने घोड़े उनके पीछे दौड़ा दिये। जब सभी लोग शिकार करने में असफल हकर वापिस आ रहे थे, तभी भुवनजी को एक हिस्वी, जो गर्भवती होने के कारण पूरी तरह से दौड़ वह पा रही थी, दिखाई दे गई और इन्होंने उसके पीछे अपना घोड़ा दौड़ा दिया। उसे पकड़कर भुवनजी ने अपनी तेज धार वाली तलवार के एक ही बार से गर्भ सहित उसके दो टुकड़े कर दिये। हिस्ती के साथ उसके बच्चे के भी दो टुकड़े होने के वीभत्स दृश्य को देखकर भुवनजी को शिकार खेलने से पूरी तरह गा हो गई। जब चे घर लौटकर आये तो माँ के चरणों पर पड़ गये और मृगी का सारा वृत्तान्त सुनाते। कहा कि "माँ मैंने आज से शिकार खेलना छोड़ दिया है। अब तुम मुझे वृन्दावन ले चलो और दीक्षा दलवा दो। यह सुमवर माताश्री अत्यन्त प्रसन्न हुई और इन्हें पूच्दावन लाकर महाप्रभू श्रीहरिवंशचन्द्रज्येष्ठ पुत्र गो. श्रीवनचन्द्रजी से मन्त्र-दीक्षा दिलवा दी। मन्त्र का जाप करते हुए भुवनजी के मन में पू राग्य जाग्रत हो गया; अतः इन्होंने यह निश्चय किया कि अब मैं न तो तलवार ही बाँधूगा और न राणाज की नौकरी ही करूंगा; किन्तु इनके सामने एक प्रश्न था कि गार्हस्थ धर्म का निर्वाह कैसे होगा और इसर भी बड़ा और प्रमुख प्रश्न था कि यदि मैं नौकरी छोड़ दूंगा तो धन के अभाव में प्रभु की और उनके भक्तों को सेवा कैसे बन पायेगी, जो कि इन्हें गुरुदेव द्वारा मानव जीवन के उद्देश्य के रूप में ज्ञात हुआ था। ता न्होंने यह निश्चय किया कि-" बिना तलवार के तो कार्य चलता दिखाई नहीं देता; अतः मैं अब लोहे की सलवार के स्थान पर काठ की तलवार बाँधा करूँगा। इस प्रकार मैं राणाजी का प्रियपात्र भी बना रहूँगा और हरि-गुरु-साधु सेवा का कार्य भी सुचारु रूप से चलता रहेगा"। अपने निश्चय के अनुसार अब ये सोने की मूठ वाली काठ की तलवार बाँधकर बहुत दिनों तक राजसभा में भी जाते रहे और श्रीजी की सेवा परिचर्या भी पूर्ण मनोयोग के साथ करते रहे।

एक दिन समवयस्क साथियों के साथ ये किसी सरोवर में स्रान कर रहे थे। स्वर्णमय नग खचित मूठ

देखकर इनके एक साथी के हृदय में यह जानने की इच्छा हुई कि जिसकी मूठ इतनी सुन्दर है, उसकी तलवार कितनी सुन्दर होगी, वह तो निश्चय ही अद्वितीय होगी, भुवनजी की तलवार बाहर निकाल ली तथा उसे अपने एक और साथी को भी दिखाया; किन्तु काठ की तलवार को देखते ही उन्होंने उसे पचाप म्यान के अन्दर डाल दिया। ये दोनों भुवनजी पर राणा जी की विशेष कृपा से ईर्ष्या रखा करते और इनकी कोई न कोई त्रुटि निकालने में निरन्तर प्रयत्नशील बने रहते थे। अतः इन दोनों ईर्ष्यालुओं के इस बात को बहुत चढ़ा बढ़ाकर राणाजी को सुनाते हुए कहा कि आप जिन्हें सबसे बड़ा सरदार कहते है वही आपके साथ विश्वासघात करने की इच्छा से काठ की तलवार बाँधते हैं, समय आने पर वे आपक क्या कार्य कर सकते हैं इस प्रकार के अनेकों तकों के माध्यम से इन दोनों ने राणाजी को क्रुद्ध करने क हुत प्रयास किया; किन्तु राणाजी ने उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। ये दोनों चुगलखोर फिर भभुवनजी की परीक्षा लेने के लिये समय-समय पर राणाजी को प्रेरित करते रहे। राणाजी भी तो

माखिरकार मनुष्य ही थे, बहुत दिनों तक आनाकानी करने के पश्चात विचलित हो ही गये और यह निक्ष किया कि कल प्रातः बगीचे में गोष्ठी की जाय और वहाँ पर नृत्य-गान का कार्यक्रम भी हो, उसके पश्चा ही मैं परीक्षा की कोई योजना बनाऊँगा। दूसरे दिन निर्धारित कार्यक्रम के पूर्ण होने पर राणाजी ने पोषणा की कि आज आप सभी अपनी अपनी तलवार निकालकर दिखायेंगे और उसके गुण विशेषों क भी वर्णन करेंगे। सर्वप्रथम स्वयं राणाजी ने ही अपनी तलवार निकालकर इस कार्य का प्रारम्भ किया भीर फिर उसे सभी राजपूत सरदारों को देखने के लिये दे दी। जब भुवनजी की तलवार दिखाने की बार कायी तो एक क्षण के लिये ये बड़ी द्विविधा में पड़ गये। ये एक भगवद्भक्त थे और झूठ बोलने से भी बहु करते थे। अतः इन्होंने निर्भय होकर यह कहते हुए कि मेरी तलवार दारु अर्थात् काठ की है, म्यान से बाह निकाल ली; किन्तु प्रभु तो अपने भक्तों की लज्जा को अपनी लज्जा और उनकी मान रक्षा को अपनी मान रक्षा समझते हैं, अतः उनके मुख से 'दारु' (काठ) न निकलकर 'सार' (लोहा) निकला और वह काठ की तलवार विद्युत प्रभा वाली लोहे की हो गई, जिसकी चकाचौंध से राणाजी सहित सभी उपस्थि राजपूत सरदारों के नेत्र बन्द हो गये और भयभीत होते हुए, उन्होंने इनसे उसे म्यान में रखने की प्रार्थन की। राणाजी भुववजी पर अविश्वास करने का पश्चाताप करने लगे। उन्होंने क्रुद्ध होकर उसी समय उन गलखोरों को प्राण दण्ड एवं उनकी समस्त चल-अचल सम्पत्ति को राज्य को हस्तांन्तरित कर पूरे कुटु को राज्य से निष्कासित करने की आज्ञा सुना दी।नष्पाप चुगलों की यह दशा देखकर सहज कृपालु भुवनजी का भक्त हृदय रो उठा और इन्होंने उसी समा वास्तविकता से अवगत कराते हुए कहा कि "यह जीव जगत स्वतंत्रतापूर्वक कोई कार्य नहीं करता, प्रय की माया अथवा प्रभु की इच्छा जिस प्रकार इसे नँचाती है, इसे नाँचना पड़ता है। भगवान जो कुछ भी करते हैं, वह अच्छा ही करते हैं। इनका कुछ भी दोष नहीं है; क्योंकि इन्होंने आपसे सत्य बात ही कही । मेरी तलवार काठ की ही थी; परन्तु प्रभु ने व जाने क्यों, मेरी लाज रखने की इच्छा से, उसे लोहे क ना दी। इस प्रकार परम दयालु भक्त भुवनजी ने चुगलों की प्राण रक्षा कर जगत के सामने मानवता य आदर्श प्रतिष्ठित किया।

इस घटना ने राणाजी के मन को बहुत अधिक प्रभावित किया और उस दिन से वे भुवनजी पर विशेष श्रद्धा रखने लगे। अब उन्होंने भुवनजी को वस्त्र, आभूषण, घोड़े, गायें एवं धन-सम्पत्ति आदि देने के साथ-साथ पूर्व में इन्हें दिये गये सवा लाख के पट्टे को सवा गुना कर दिया। उसने इनसे यह प्रार्थना भकी कि-"अब आप निश्चिन्त हो श्रीजी की सेवा कीजिये। अब मैं स्वयं ही आपकी सेवा में समुपस्थित आ करूंगा"। इसके बाद भुवनजी प्रतिदिन पहले तीन घंटे तक श्रीजी की सेवा अत्यन्त अनुराग के सा कया करते और फिर राज दरबार में पहुंचकर राजकार्यों को निपटाया करते थे। अपनी शूरवीरता के ब पर भुवन जी ने राणाजी के बहुत बड़े-बड़े काम किये और उनसे बहुत सम्मान प्राप्त किया।

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