श्री जसवन्त जी राठौर
श्री जसवन्त जी राठौर
जसवन्तजी का जन्म क्षत्रियों के राठौर वंश में हुआ था। ये गो. श्रीवनचन्दजी के शिष्य थे। दीक्षा के साथ-साथ पूज्य गुरुवर्य द्वारा दी गई शिक्षा ने इनके मन में जगत के प्रति पूर्ण वैराग्य और श्रीराधावल्लभलालजी के चरणों में असीम अनुराग उत्पन्न कर दिया था। इन्होंने अनन्य प्रेम-धर्म को भली प्रकार समझकर उसे अपने जीवन में अपना लिया था। ये पूर्ण गुरु-सेवी तथा आदर्श साधु-सेवी थे। इन्होंने वृन्दावन में एक मन्दिर का निर्माण भी कराया था। इन्हें ठाकुरजी की नित्य की अष्टयाम सेवा में तथा वर्ष में होने वाले उत्सवों के अवसर पर अपनी विपुल सम्पत्ति खर्च करके अत्यन्त सुख मिला करता था। ये अपने महलों में माला-तिलकधारी सन्तों के पधराने पर, परिवार सहित उनकी सेवा तन-मन-धन से एवं हरि और हरिजन में अभेद बुद्धि रखते हुए किया करते थे। ये गुरु एवं साधुओं को फल की आशा से संकल्प करके किसी वस्तु का दान नहीं करते थे, क्योंकि ये समझते थे कि मेरे पास जो वस्तु है, वह सब प्रभु की ही तो है। इनकी परम उदारता की ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी थी; अतः इनके यहाँ सन्त लोग पड़े ही रहते थे। ये दुःख-सुख, लाभ-हानि सबको समान मानते थे। काम, क्रोध, मद, मत्सर, लोभऔर मोह- ये षट विकार इनके मन को चंचल नहीं बना पाते थे।
जसवन्तजी की असाधारण साधु निष्ठा से फायदा उठाने की इच्छा से एक दिन एक ठग साधु का भेष धारण करके इनके पास आया। ये उसे देखकर अपने स्वभाव के अनुसार बहुत प्रसन्न हुए। इन्होंने उसकी समुचित सेवा की और उसके सम्मिलन से अपने आप को परम सौभाग्यशाली अनुभव किया। वह ठग भी मग्न-मन होकर हरि-गुण-गान करता था और सच्चे भक्त के से आचरण करता था। जसवन्तजी यही समझते थे कि यह सच्चा साधु है। इस प्रकार जसवन्तजी को प्रसन्न कर, वह स्थायी रूप से वहीं रहने लगा। जसवन्तजी के एक अति सुन्दर एवं गुण सम्पन्न पुत्र था। राजकुमार होने के कारण वह सदैव अनेक प्रकार के नगों से जड़े हुए बहुमूल्य आभूषण, गले में मणि-मुक्ताओं की मालायें एवं तीस तोला स्वर्ण पहिने रहता था। बालक के इन आभूषणों ने उस छद्म वेशधारी ठग की बुद्धि भ्रष्ट कर दी। उसके मुँह में पानी भर आया और उसने बालक से मेल-जोल बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। वह कभी बालक को अपने संग बागों में ले जाता, तो कभी उसके साथ अनेक प्रकार के खेल खेलने लगता। इस प्रकार उसने बालक को अपने वश में कर लिया था।
एक दिन वह उसे वन में ले गया और उसको मारकर उसके सारे गहने उतार लिये। सब गहने बाँधकर वह भाग ही रहा था कि रास्ते में उसे जसवन्त जी मिल गये। उस ठग के काटो तो खून नहीं, चेहरे पर मुर्दनी छा गई। जसवन्तजी तो उसकी पाप-क्रिया से सर्वथा अनभिज्ञ थे। इन्होंने अति विनम्रता के साथ उससे निवेदन किया कि "महात्मन् ! उदास होकर आप कहाँ जा रहे हो, ऐसा हमसे क्या अपराध बन गया है कि तुम हमसे इतने नाराज हो गये हो, क्या घर में किसी ने आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया है अथवाकिसी ने आपका किसी प्रकार का अपमान करके आपको असन्तुष्ट किया है, आपकी अप्रसन्नता का क्या कारण है, आप तो सहज दयालु हो, आप सभी अपराधों को क्षमा करके घर पधारें"। जसवन्तजी की बातें सुनकर ठग भक्त काँपने लगा और मुँह से कुछ अटपटा सा बोलने लगा। डर के मारे उसकी अवस्था ही दयनीय हो रही थी; किन्तु जसवन्तजी उसे अपने साथ घर वापिस ले ही आये।
इधर संध्या हो जाने पर भी जब राजकुमार घर वापिस नहीं आया, तो चारों तरफ उसकी खोज होने लगी; किन्तु कोई पता नहीं चला। अन्त में नगर में भी डोंड़ी पिटवाकर इस बात की सूचना प्रसारित की गयी। दूसरे दिन एक फकीर ने आकर कहा कि आपके महल में जो वैरागी रहता है, उसने लड़के के सारे गहने उतार कर उसको मार डाला है और अमुक स्थान पर जमीन में गाड़ दिया है। फकीर के बतलाये स्थान पर खुदाई करने पर बालक का शव भी मिल गया। जसवन्त जी यह देखकर विचार में पड़ गये। इन्होंने सोचा कि इस फकीर के ऐसा कहने से तो सम्पूर्ण साधु-समाज कलंकित होता है। अतः इन्होंने उस फकीर को ही गिरफ्तार करा लिया और उससे कहा कि "ये कुकर्म तूने ही किया है और अब अपने प्राणों को बचाने के लिये, इस घटना के साक्षी, उस भोलेभाले साधु को फँसाने की इच्छा से, उस पर कलंक लगा रहा है। साधु लोग ऐसे काम नहीं करते। तूने ही मेरे पुत्र को मारकर गाड़ा है। यदि तू अपने प्राण बचाना चाहता है, तो इस बात की प्रतिज्ञा कर कि भविष्य में यह बात किसी से भी नहीं कहूँगा"। फकीर द्वारा यह प्रतिज्ञा करने पर भी इन्होंने उस फकीर को साधु-द्रोह के अपराध में अपने राज्य से
निष्कासित किये जाने का दण्ड दे दिया।
राजकुमार की शव-प्राप्ति का समाचार जब उस छद्म वेशधारी साधु ने सुना, तो उसने समझा कि यह बात अब मेरे ऊपर ही आ रही है; अतः वह आभूषणों को लेकर पुनः भाग खड़ा हुआ; किन्तु दैवयोग से जसवन्तजी रास्ते में उसे फिर मिल गये। इन्हें देखते ही वह आभूषणों को वहीं पटककर तेज गति से दौड़ने को हुआ; किन्तु जसवन्तजी हाथ जोड़कर उससे कहने लगे कि "प्रभो! आप ऐसा न करें। आप इन आभूषणों के साथ ही कुछ और भी ले लीजिये। मेरे हृदय में आपके लिये वही पूर्ववत स्थान है; अतः आप मेरे साथ घर ही पधारिये। बालक तो आपका ही दास था। जिसका जन्म है, उसकी मृत्यु अवश्य है और उसकी इतनी ही आयु थी। उसके मरने का सोच आप मत कीजिये। सब वेद और पुराण कहते हैं कि प्रभु और भक्त में कोई अन्तर नहीं होता है। आप ही तो इस अखिल विश्व के सृजक, पालक और संहारक हैं और फिर बालक की मृत्यु भी आपके हाथों द्वारा हुई है, अतः उसे परमगति देकर आपने उसका उपकार ही तो किया है"। यह कहकर जसवन्तजी ने अपना मस्तक उसके पैरों में रख दिया और अत्यधिक अनुरोध करके उसे पुनः घर ले आये। घर पहुँचकर इन्होंने उसे पहले से भी अधिक मान सम्मान देते हुए, सभी घर वालों को यह सारी कथा सुनाकर, उन्हें भी स्वयं की तरह उसमें पूरा विश्वासरखने के लिये कहा। इतना ही नहीं, समस्त आभूषणों को उसके सामने रखकर, उसे सौ मुद्राएँ और मँगाकर भेंट की गई तथा सभी ने उसकी परिक्रमा कर उसके चरण स्पर्श किये।
जसवन्तजी की इस अभूतपूर्व साधु निष्ठा से वह छद्म वेशधारी साधु अत्यधिक प्रभावित हुआ और उसके हृदय में भक्ति का प्रकाश हो गया और उसकी दुर्बुद्धि नष्ट हो गयी। वह अपने कुकृत्य पर पश्चाताप करते हुए सोचने लगा कि अब मैं कहाँ जाऊँ, मेरे मरने के लिये तो कोई और स्थान भी नहीं है; अतः वह अपने अपराध के लिये गिड़गिड़ा कर इनसे क्षमा माँगने लगा तथा स्वयं को अपना अनुचर बनाने की प्रार्थना करने लगा। ठग भक्त के हृदय में सम्पूर्ण परिवर्तन देखकर जसवन्तजी अपनी पत्नी के पास गये और बोले कि ये साधु मुझको बहुत अच्छा लगता है। इसने जो काम किया है, इसका इसे बहुत पश्चात्ताप हो रहा है। इसका दुःख दूर करने के लिये कोई ऐसा उपाय करना चाहिये, जिससे कि भविष्य में से अपने कुकृत्य का स्मरण न हो और हमारी ओर से भी ये निश्शंक रहे। विचार विमर्श के पश्चात दोनों ने यह निश्चय किया कि अपनी कन्या का विवाह इसके साथ करके इसका हार्दिक डर सदा के लिये दूर कर दिया जाय।
जसवन्तजी की सच्ची, अनन्य और उत्कट साधुनिष्ठा को देखकर श्रीराधावल्लभलालजी ने भी समझ लिया कि इन लोगों को देह-गेह की बिल्कुल आसक्ति नहीं रह गयी है और ये अपनी निष्ठा में पूरे हैं। उन्होंने जसवन्तजी के मृत पुत्र को जीवन दान दे दिया और वह खेलता हुआ सर्वप्रथम उसी कपटी साधु से मिला। जब जसवन्तजी ने बाहर निकलकर उसे साधु के साथ देखा, तो उससे पूँछा कि तू इतनी देर से कहाँ था? बालक ने हँसकर कहा कि मुझे तो ये भगत जी ही खिला रहे थे। जसवन्तजी उसे उसी समय भीतर ले गये और माताश्री ने उसे देखते ही अपने अंक में भर लिया। अनेकों प्रकार से फुसलाकर पूँछने पर वह बिना कुछ कहे केवल हँस पड़ता था। इस प्रकार हरि और हरि के भक्तों में अभेद मानते हुए जसवन्तजी ने अपने पुत्र को मारने वाले को अपनी पुत्री देकर उसका अत्यन्त सम्मान किया।