श्री लालस्वामी जी
श्री लालस्वामी जी
गो. श्रीहितहरिवंशचन्द्र महाप्रभु ने बाल्यावस्था में देववन में एक कुएँ से श्रीरंगीलालजी के श्रीविग्रह को निकालकर एवं उन्हें श्रीराधा की गद्दी के साथ एक नवनिर्मित मन्दिर में विराजमान करके, विधि निषेध शून्य अपनी मौलिक अष्टयाम सेवा पद्धति का शुभारम्भकिया था। उनके वृन्दावन आने के पश्चात, श्रीरंगीलालजी की अष्टयाम सेवा का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व, उनके तृतीय पुत्र गो. श्रीगोपीनाथजी के ऊपर था। वे रसिक अनन्य-धर्म के प्रतिपालक थे। उन्होंने तथा उनके शिष्य प्रशिष्यों ने अनेक जीवों को भवसागर से पार किया था।
लालस्वामीजी का जन्म एक श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल में हुआ था। ये तत्कालीन शासक के यहाँ किसी उच्च पद पर कार्य किया करते थे। संग दोष के कारण ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होते हुए भी, इनकी स्वाभाविक अभिरुचि शिकार आदि खेलने में विशेष रूप से रहा करती थी। हर समय क्षत्रियों की वेशभूषा में रहने के कारण, ये सम्पूर्ण रूप से क्षत्रिय जैसे लगते थे। एक दिन ये किसी सरकारी कार्य से देववन आये हुए थे। उसी समय श्रीरंगीलालजी के मन्दिर में श्रृंगार आरती प्रारम्भ हुई। घंटा, झाँझ, झालरी, मृदंग आदि वाद्यन्त्रों की ध्वनि को सुनकर नगर के सब लोग अपने-अपने कार्यों को छोड़कर दर्शनों के लिये दौड़ पड़े। लालस्वामीजी भी कौतूहलवश उस भीड़ के साथ हो लिये। गो. श्रीगोपीनाथजी उस समय आरती कर रहे थे। गुसाईजी की मन को मुग्ध कर लेने वाली छवि ने लालस्वामीजी के चित्त को ऐसा आकर्षित किया कि ये उनकी ओर एकटक देखते रह गये। आरती समाप्त होने पर सभी लोग अपने-अपने घरों पर लौट आये; किन्तु ये अपनी स्वयं एवं घर-परिवार आदि की सुध-बुध से वेखबर होकर, मन्दिर के एक कोने में खड़े ही रहे। इनके साथ में आये लोग इन्हें बार-बार बुला रहे थे, सेवकगण विनती कर रहे थे; किन्तु इन्हें तो श्रीगोपीनाथजी के श्रीअंग से एक मादक सुगन्ध आने का अनुभव हो रहा था। कवि हृदय होने के कारण, इनके मुख से तभी निम्नांकित एक दोहा निकल पड़ा-अति सुगन्ध हरिवंश तनय, मलयागर कौ बूट। लालदास डिंग गहि रह्यौ, या मन्दिर कौ खूँट ॥
अर्थात् श्रीहितहरिवंशजी के पुत्र चन्दन के पौधे हैं। इनकी सुगन्ध पर मोहित होकर मैंने अब इस मन्दिर का आश्रय ले लिया है। यह कहते हुए इन्होंने गुसाईजी के चरण पकड़ लिये और उनसे अपने पूर्व कर्मों पर पश्चाताप प्रकट करते हुए, दीक्षा देने की प्रार्थना करने लगे। इनकी श्रद्धा देखकर एवं निष्छल हार्दिक प्रार्थना से द्रवीभूत होकर, परम उदार गो. श्रीगोपीनाथजी ने इन्हें मन्त्र-दीक्षा प्रदान कर दी; साथही श्रीहित-उपासना-पद्धति एवं अनन्यता के साथ रस-भजन की रीति आदि की शिक्षा भी प्रदान की।
अब ये क्षत्रियों जैसे पूर्व में किये जा रहे आचरणों को छोड़कर एवं घर-परिवार के प्रति अपनी ममता-मोह का परित्याग करके, साधुओं जैसे वेष में मन्दिर में ही रहने लगे औरतभी से लोग इन्हें स्वामीजी कहकर बुलाने लगे। इन्होंने गुरु एवं इष्ट की सेवा में अपना तन-मन-धन सब कुछ अर्पण कर दिया था। गुरुवर की अहेतुकी अनुकम्पा से, थोड़े ही दिनों में ये रस-भजन परायण अनन्य रसिक उपासक बन गये थे। ये दिन-रात मानसी-सेवा-भावना में छके रहते। इन्हें मानसी सेवा सिद्ध हो गई थी। एक समय ये अपनी भावना में छके हुए श्रीजी को लड्डुओं का भोग समर्पित कर रहे थे; उसी समय गुरुवर गो. श्रीगोपीनाथजी ने इन्हें बाजार से श्रीजी के लिये एक रुपये का एक महीन वस्त्र, जिसे अँगोछे के रूप में उपयोग में लाया जा सके, लाने की आज्ञा दी। ये रुपया लेकर बाजार को दौड़े; किन्तु इनकी मानसिक वृत्ति श्रीजी को लड्डुओं का भोग रखने में संलग्न थी, अतः इन्होंने उसी में तल्लीन रहते हुए, एक रुपये के लड्डू लाकर श्रीगुरुदेव को दे दिये। गुसाईजी को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने इनसे पूँछा कि हमने तो वस्त्र मँगाया था, तुम लड्डू कैसे ले आये। लालदास जी लज्जा के कारण मौन हो गये और कुछ बता नहीं रहे थे। अन्त में गुरुजी के शपथ दिलाने पर इन्होंने अपनी मानसी भावना की सम्पूर्ण कथा उनसे निवेदन की। लालस्वामीजी ने इतनी तन्मयता से भोग रखा था कि भोग उसारने के लिये जब गुसाईजी मन्दिर में गये, तब उन्हें श्रीरंगीलालजी के भोग के थाल में लड्डू ही नहीं अनेक प्रकार के घृत युक्त पकवान भी रखे दिखाई दिये। उस दिन से गुरुजी इनका बहुत आदर करने लगे और अपने मन की सारी गोपनीय बातें भी इनसे कहने लगे।
लालस्वामीजी की प्रसिद्धि सुनकर इनके परिवार के लोग देववन आये, तो इन्होंने उन सबको गो. श्रीगोपीनाथजी से मन्त्र-दीक्षा दिलवा दी। परिवार वालों के अत्यन्त आग्रह पर गुसाईजी ने इन्हें घर जाने की आज्ञा दी, जिसे ये टाल न सके और निरुपाय होकर ये उनके साथ अपने घर वापिस आ गये। अब ये अपने साथ परिवारीजनों को भी हरि एवं हरिजनों की सेवा में संलग्न रखते थे तथा स्वयं कहीं एकान्त में जाकर इष्ट की मानसी-भावना भी किया करते थे। मानसी भावना में इन्हें प्रेममूर्त्ति अद्वय युगल श्रीश्यामा श्याम की रसमय क्रीड़ाओं का साक्षात अनुभव हो चुका था, जिसे इन्होंने अपनी पद रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। इन्होंने अपनी पद रचनाओं में नित्य और नैमित्तिक लीलाओं के अन्तर को सुस्पष्ट करते हुए श्रीहरिवंश-प्रताप का वर्णन भी किया है।
एक दिन लालस्वामीजी एक सन्त के साथ प्रसाद पाने को वैठे थे। इनकी पत्नी ने उन सन्तजी के थाल की अपेक्षा, आपके थाल में घृत और खीर कुछ अधिक डाल दी। पत्नी की इस क्रिया से ये अत्यन्त असन्तुष्ट हुए। इन्होंने अपनी थाली उन सन्तजी को सरका दी और उनकी थाली स्वयं के लिये ले ली। पत्नी के यह कहने पर कि वह थाली तो मैंने आपके लिये परोसी है, इन्होंने कहा कि तुमको जितना प्रिय मैं हूँ, उतने ही प्रिय मुझको ये सन्त हैं। यह सुनकर वह अत्यन्त लज्जित हुई और उस दिन के बाद, इनकी प्रकृति को समझकर, उसने फिर कभी भी सन्तों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया। अब वह स्वयंरूखा-सूखा खा लेती; किन्तु घर पर आये हुए साधु-सन्तों को सरस एवं स्वादिष्ट भोजन कराकर ही प्रसन्नता का अनुभव किया करती थी।
श्रीजी के उत्सवों के अवसर पर लालस्वामीजी के हृदय की उत्फुल्लता देखते ही बनती थी। उस समय ये न तो किसी से कुछ माँगते ही थे और न किसी से कोई उधार ही लेते थे; किन्तु इनके पास जो कुछ भी होता था, उस सबको लुटा देने में ये किसी प्रकार का संकोच नहीं किया करते थे। पति-पत्नी के पास केवल एक-एक धोती ही पहनने के लिये शेष रह जाती थी। उस समय इनके शिष्य एवं सेवकगण, इन्हें जो कुछ भी भेंट चढ़ाते थे, उसे भी ये अपने लिये न रखकर, श्रीजी की सेवा में लगा दिया करते थे।
लालस्वामीजी का एक सर्व गुण सम्पन्न अति सुन्दर बालक था। उसके बड़े होने पर, लोग उसके सम्बन्ध के लिये इनके पास आने लगे। निकट के गाँव में एक बड़ा नामी और धनी ब्राह्मण रहता था। उसने लालस्वामीजी की ख्याति सुनकर, कुछ लोग स्वामीजी के घर-वार को देखने के लिये भेजे। स्वामीजी की बैठक में उस समय कुछ सन्त बैठे थे, वहीं उन अतिथियों को भी बैठा दिया गया। उस समय स्वामीजी घर पर नहीं थे। उनकी पत्नी ने सन्तों के लिये कच्चा भोजन बनाया था। जब लालस्वामीजी घर पर आये, तो इन्होंने दश सन्तों के साथ उन चार लोगों को भी बैठा पाया। इन्होंने उन्हें भी अभ्यागत समझा। 'राजभोग के पश्चात श्रीजी की शयन हो चुकी है' यह जानकर इन्होंने भोजन के लिये सन्तों के साथ उन्हें भी बैठाना चाहा, तो इनकी पत्नी ने कहा कि पहले सन्तों को भोजन कर लेने दें, इन लोगों को पीछे करायेंगे। किन्तु स्वामीजी ने कहा कि ये हमारे अतिथि हैं, इनके बैठे रहने पर हम कैसे भोजन कर सकते हैं? इनकी पत्नी ने बताया कि ये लोग लड़का देखने आये हैं, अतः इनको पीछे पक्का भोजन कराया जायेगा। यह बात सुनकर स्वामीजी एकदम बिगड़ गये और यह कहते हुए कि "भगवत्-जनों से बढ़कर तू मायिकजनों को अधिक आदर देती है; अतः तू सेवा के योग्य नहीं है।" उसे रसोई में से हटा दिया। उस समय इन्होंने एक कवित्त की रचना के माध्यम से यह भी कहा कि "संसार के लोग अपने जमाई के लिये उत्तम प्रकार के भोजन बनाते हैं और कहीं उनकी पत्नी का भाई उनके घर आ जाय, तो उसके लिये तो उत्तम भोजन के साथ वस्त्र-आभूषण भी दिये जाते हैं। भ्रम में पड़ी हुई ऐसी पतित पत्नियाँ, समधी के नाई को नाना प्रकार के पकवान बनाती हैं। जिस प्रकार हाथी के खाने के और दिखाने के दाँत अलग-अलग होते हैं, उसी प्रकार संसार में भजन भी दो प्रकार होता है-एक वास्तविक तथा दूसरा दिखाने का। जिस प्रकार बिल्ली का स्वभाव कभी बदलता नहीं है, उसी प्रकार संसारी लोग अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ते हैं।"
तत्पश्चात् लालस्वामीजी ने उन लोगों को सन्तों के साथ बैठाकर भोजन करा दिया। वे लोग स्वामी जी के पुत्र का सम्बन्ध लेकर आये थे; अतः अच्छी खातिरदारी की आशारख रहे थे। रूखा-सूखा भोजन वे कर नहीं सके और स्वामी जी की आज्ञा लेकर भूखे ही उठ गये। उन्होंने वापिस जाकर लड़की वाले को बताया कि लालस्वामी जी का नाम तो बहुत है, लड़का भी सुन्दर है और आपकी लड़की के लिये पूर्णतः योग्य है; किन्तु घर में दरिद्रता का संयोग है और वहाँ सदैव वैरागी लोग पड़े रहते हैं। स्वामीजी ने हमें भी वैरागियों के साथ बैठाकर रूखी रोटी और दाल खिला दी। इस कारण यह सम्बन्ध बिल्कुल करने योग्य नहीं है।
किन्तु प्रभु इच्छा से लड़की के पिता के मन पर उक्त बातों का प्रभाव बिल्कुल विपरीत पड़ा और उसने उन लोगों को समझाया कि जो लोग मुझसे पाने की आशा रखते हैं, वही तुम्हारा आदर कर सकते हैं। लालस्वामी जी तो प्रभु कृपा प्राप्त महानुभाव हैं, उनकी दृष्टि में मैं क्या चीज हूँ, वे लोकपालों को भी रंक समझते हैं। उन्हें आजकल पैसे की कुछ तंगी रही होगी, इसी से प्रभु के राजभोग में कुछ कमी हुई होगी। यह कहकर लड़की के पिता ने हार्दिक श्रद्धा के साथ द्वैघड़िया मुहूर्त निकलवाकर दो हजार रुपये का तिलक वर्तनों, वस्त्रों एवं आभूषणों आदि के साथ लालस्वामीजी के यहाँ भेज दिया।
स्वामीजी ने अपनी पत्नी, जिसे इन्होंने सन्तों एवं पुत्र को देखने के लिये आये लोगों में भेद दृष्टि रखने के अपराध में रसोई से निकाल दिया था, एक वर्ष के पश्चात्, गुरुजी की आज्ञा से, इस शर्त पर स्वीकार कर लिया कि उसे दण्ड स्वरूप अपने समस्त गहनों को बेचकर प्राप्त किये धन से श्रीजी का एक महोत्सव कर उसमें साधुओं का भण्डारा करना पड़ेगा। पत्नी ने घर आकर अपने पुत्र के विवाह की तैयारी आरम्भ करा दी। स्वामीजी ने जब बारात के लिये खेल-खिलौने एवं आतिशबाजी का प्रबन्ध होते देखा, तो इन्होंने एक कवित्त की रचना की, जिसमें इन्होंने कहा है कि "पुत्र के ब्याह में प्रसन्न होकर पिता अपना सोना व्यय करके अग्नि वर्षा कराता है। कागज के कलियुगी बाग लगाकर फलों के लिये तरसता है। वह संसार से पार करने वाला भगवान का नाम तो नहीं लेता, लेकिन भवसागर में डुबोने वाले अनेक नाम लेता रहता है। ऐसे मूर्यों को सम्पूर्ण सम्बन्ध स्वार्थ के लिये होते हैं और उनको परमार्थ की बात स्पर्श नहीं करती।"
लड़की के पिता ने विवाह में स्वामीजी को बहुत धन दिया। स्वामीजी के सम्पर्क में उसकी बुद्धि शुद्ध हो गई और वह भी प्रभु का भजन करने लगा। जो लोग नश्वर संसार का त्याग करके प्रभु के चरणों से लगे हुए हैं उनकी प्रभु सब प्रकार से लज्जा रख लेते हैं और उनके व्यवहार को भी नहीं बिगड़ने देते।