श्री दामोदरस्वामी जी
श्री दामोदरस्वामी जी
दामोदरस्वामीजी का जन्म कीर्तिपुर (बिहार) के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। ये श्रीमद् भागवत के प्रकाण्ड पंडित थे। इन्होंने अपने पाण्डित्य द्वारा अनेक जीवों को अपना शिष्य बनाकर उन्हें भगवदोन्मुख किया था। ये प्रायः वृन्दावन आते-जाते रहते थे। एक बार इनकी भेंट श्रीलालस्वामीजी से हुई। उनके साथ हुई 'वृन्दावन-रस' पर हुई रस-चर्चा ने इनके मन को अत्यन्त प्रभावित किया और इन्होंने उनसे अपना शिष्य बनाने का विनम्र अनुरोध किया। इनके मन की सच्ची लालसा को देखते हुए श्रीलालस्वामीजी ने इन्हें रसोपासना की मंत्र-दीक्षा प्रदान करने के साथ ही अनन्य रसिकों के रहन-सहन एवं वृन्दावन की महिमा भी बताई। फलतः दीक्षा लेने के बाद इन्होंने वृन्दावन को अपना स्थाई निवास ही बना लिया। अब ये अहंता-ममता का परित्याग करके, श्रीराधावल्लभलालजी की रूप-माधुरी को निरन्तर निहारते हुए, उनके अद्भुत चरित्रों का दिन-रात गान किया करते थे। इनके देश के लोग जो द्रव्य उनको भेंट के रूप में भेजते थे, उससे ये श्रीराधावल्लभलालजी का उत्तम से उत्तम भोग लगाते तथा प्रसाद को साधु-सन्तों में बाँट देते थे। विशेषता यह थी कि जब लोग इनसे भोग लगवाने वाले के बारे में पूँछते, तो ये अपना नाम न बताते हुए कहते कि पता नहीं, किसी अज्ञात व्यक्ति ने लगाया है। इस प्रकार ये अपने नाम की प्रसिद्धि को इष्ट-सिद्धि में बाधक मानते थे।
इनका श्रीयमुनाजी से बड़ा सच्चा प्रेम था। ये श्रीराधावल्लभलालजी की प्रसादी फूल-माला-चन्दन आदि से श्रीयमुनाजी की नित्य प्रति पूजा करके श्रीराधावल्लभलालजी के प्रसाद का भोग लगाया करते थे। तत्पश्चात वहीं यमुना पुलिन में बैठकर मानसी-भावना में श्रीश्यामा-श्याम की प्रेम-क्रीड़ाओं का चिंतन करते थे। इन्होंने अपने हाथ से श्रीमद्भागवत की दस प्रतियाँ लिखी थीं और उन्हें गुरुकुल तथा योग्य व्यक्तियों में बाँट दिया था। ये किसी की बुराई-भलाई नहीं करते थे; अतः सभी लोग इन्हें सज्जन मानकर इनका अत्यन्त सम्मान किया करते थे। ये किसी की निन्दा भी नहीं करते थे तथा यदि कहीं पर किसी की निन्दा की जा रही हो, तो ये वहाँ से दूर चले जाते थे। ये कभी झूठ नहीं बोलते थे और दूसरों के अवगुणों को भी गुण मानकर उनके साथ व्यवहार करते थे। ये अन्य लोगों को अपने से उत्तम मानते थे और स्वयं को सबसे नीचा समझते थे। इन्हें तो विधि-निषेध-शून्य श्रीहित-धर्म, उसके उपास्य श्रीराधावल्लभलालजी एवं उसके उपासक अनन्य रसिकजन ही अत्यन्त प्रिय लगते थे।
ज्वर से पीड़ित होजाने के कारण, एक बार स्वामीजी दो दिन तक श्रीयमुनाजी न जा सके। लोगों ने देखा कि अचानक श्रीयमुनाजी में बाढ़ आ गयी है और पानी गलियों तथा बाजारों में भी घुस आया है। इस आकस्मिक चढ़ाव से वृन्दावन के लोग अत्यन्त भयभीत हो गये और आपस में चर्चा करने लगे कि आज से पहले तो हमने श्रीयमुनाजी में इतनी अधिक बाढ़ न तो कभी देखी ही है और न सुनी ही है। उन्होंने विविध प्रकार से श्रीयमुनाजी का पूजन किया और भेंट चढ़ाई; लेकिन श्रीयमुनाजी बढ़ती ही चली गयीं।वृन्दावन में हा-हाकार मच गया और लोग अपने घरों एवं दुकानों से सामान निकालकर सुरक्षित स्थानों पर ले जाने लगे। तीसरे दिन श्रीयमुनाजी ने श्रीभागमतीबाईजी को स्वप्न में आदेश दिया कि मैं श्रीदामोदरस्वामीजी के दर्शन करना चाहती हूँ। प्रातःकाल भागमती जी ने यह बात सब लोगों की उपस्थिति में स्वामी जी से कही। स्वामीजी ने उस ज्वर पीड़ित अवस्था में, प्रतिदिन की तरह ही श्रीराधावल्लभलालजी की प्रसादी फूल-माला-चन्दन आदि से श्रीयमुनाजी का पूजन किया एवं भोग लगाया। तत्पश्चात स्वामीजी ने उसी समय एक पद बनाकर उनकी स्तुति भी की। स्वामीजी के दर्शन प्राप्त करके श्रीयमुनाजी वापिस लौटने लगीं और लगभग डेढ़ घण्टे में वे अपनी नित्य की जगह पर बहने लगीं।
स्वामीजी ने अपने घर पर भी श्रीजी की अष्टयाम-सेवा विराजमान की हुई थी। सेवा में अनेक प्रकार की बहुमूल्य सामग्रियों के उपयोग को देखकर दो ब्रजवासी उन्हें चुराने की इच्छा से एक रात इनके घर में घुस आये। स्वामीजी उस समय भजन में बैठे हुए जग रहे थे; किन्तु उन्हें देखकर भी इन्होंने उनसे कुछ भी नहीं कहा। ये आँखें बन्द किये हुए मन ही मन सोचने लगे कि "भगवान की इच्छा के बिना कोई कार्य नहीं होता, ये चोर भी प्रभु के हैं और ये वस्तुयें भी प्रभु की ही हैं, प्रभु इच्छा ही सर्वोपरि है। यदि वे अपनी सब वस्तुएँ इन्हें देना चाहते हैं, तो मैं इसमें बाधक क्यों बनूँ?" चोरों ने मौका देखकर सब सामान की दो गठरियाँ बाँध लीं। एक चोर तो दूसरे चोर की सहायता से अपनी गठरी उठाकर बाहर चला आया; किन्तु दूसरे चोर पर दूसरी गठरी अकेले उठती हुई न देखकर स्वामीजी ने स्वयं उठकर गठरी उठवा दी। बाहर आने पर साथी चोर ने पूछा कि तूने इतनी बड़ी गठरी अकेले कैसे उठा ली? उसने कहा कि तूने ही तो उठवाई है। चोरों की यह खुसफुसाहट कुछ लोगों ने सुन ली और दौड़कर उनमें से एक को पकड़ लिया तथा इतना मारा कि वह मर ही गया तथा उसकी गठरी स्वामी जी के यहाँ पहुँचा दी। चोर की मृत्यु सुनकर स्वामी जी अत्यन्त दुःखी हुए। इन्होंने उसकी मृत्यु के दुःख में उस दिन प्रसाद ग्रहण भी नहीं किया। दूसरे दिन चोर से वापिस ली गई गठरी में जितना सामान था, उसको बेचकर प्राप्त धन से इन्होंने उत्तम उत्तम पकवान तैयार कराकर श्रीजी को भोग लगाया और प्रसाद को साधुओं को पवाकर उस चोर की जै बुलवाई। इस प्रकार जिस धन के लिये चोर ने अपने प्राण गँवाये थे, उसे उसका ही धन मानते हुए, इन्होंने उस चोर को भी साधु सेवा करने का यश प्राप्त कराया।
इस घटना के पश्चात भी ब्रजवासियों ने अनेक बार इनके घर में चोरी की; किन्तु ये दुःखी न होकर प्रसन्न ही होते रहे। इनके यहाँ चोरी की घटना सुनकर, यद्यपि अनेक धनवान श्रद्धालु रसिकजन इनके यहाँ आ-आकर श्रीजी की सेवा से सम्बन्धित वस्तुएँ इन्हें भेंट करते; किन्तु अब ये उन्हें लेने से मना करते हुए उनका स्पर्श भी नहीं करते थे। एक दिन गिरधरदासजी और पूहकरदासजी नामक दो परम श्रद्धालु रसिक, श्रीजी की सेवा केनिमित्त, बहुत से वर्तन, वस्त्र, आभूषण आदि लेकर स्वामीजी के पास आये तथा इनसे उस सामान को स्वीकार करने का आग्रहपूर्वक सविनय निवेदन करने लगे; किन्तु स्वामीजी उठकर खड़े हो गये और यह कहकर मानसरोवर चले गये कि ठाकुरजी की इच्छा है कि मैं अब उनके लिये भी सामान संग्रह नहीं करूँ, क्योंकि संग्रह को देखकर ही ब्रजवासी लोग उसे चुराने के लिये यहाँ आते हैं। इन्होंने उन्हें स्मरण दिलाया कि सामान के पीछे ही पूर्व में एक ब्रजवासी मारा जा चुका है और इस प्रकार ब्रजजनों को दुःख पहुँचाने का महत् अपराध भी हो जाता है। इन्होंने उस समय एक दोहा भी कहा- सखी सखा सब कृष्ण के, ब्रजवासी नर-नारि। दामोदर जन नै चलौ, उत्तम यहै विचार ॥ अर्थात् "ब्रज के सब स्त्री-पुरुष श्रीकृष्ण के सखी-सखा हैं; अतः उनके सामने सदैव विनम्र रहना चाहिये, यही सर्वोत्तम विचार है।" ऐसा सोचते हुए दामोदरस्वामीजी ने अपने यहाँ की श्रीविग्रह सेवा कहीं अन्यत्र पधरा दी और उसके स्थान पर नाम-सेवा रख ली। अब ये साधु-सेवा में वर्तनों के स्थान पर दौना-पत्तल एवं कुल्हड़ों का उपयोग करने लगे एवं शेष समय वाणी-रचना में व्यतीत करने लगे। स्वामीजी ने रास पंचाध्यायी का ब्रजभाषा में अनुवाद एवं गुरु प्रताप, संत प्रताप, भागवत महिमा आदि विष्यों पर सैकड़ों पदों की रचना की है, जिनको पढ़कर अथवा जिनका गान करके अनेक लोग भवसागर से पार उतरते रहे हैं और उत्तरते रहेंगे। इस प्रकार अत्यन्त विरक्ति पूर्ण एवं भावना परायण जीवन व्यतीत करते हुए, एक दिन दामोदरस्वामीजी श्रीराधावल्लभलालजी के राजभोग का प्रसाद ग्रहणकर, सभी संत-महन्तों के श्रीचरणों में अपना प्रणाम निवेदित करते हुए, नित्य निकुंज में सदा-सदा के लिये प्रविष्ट हो गये। इनकी कहनी और रहनी में कोई अन्तर नहीं था। महाप्रभु श्रीहरिवंशचन्द्रजी ने अपने प्रण के अनुसार स्वामीजी को नित्यविहार के दर्शन करा दिये थे।