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 श्री नाहरमल जी

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 श्री नाहरमल जी

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 श्री नाहरमल जी

 श्री नाहरमल जी

नाहरमलजी देववन के निवासी थे। इनका जन्म एक कायस्थ परिवार में हुआ था। गो. श्रीहितहरिवंशजी के अद्भुत बाल चरित्रों को देखकर ये उनसे अत्यधिक प्रभावित हुए और उन्हें परमात्मतत्व 'प्रेम' का पूर्ण अवतार जानकर उन्हें अपना गुरु बना लिया तथा ये उनके अनन्य सेवक बन गये। अब इन्होंने जीवन में शुभ और अशुभ फल देने वाली बातों के विषय में सोचना-विचारना पूर्ण रूप से छोड़ दिया था। जगत प्रपंच से सदा दूर रहते हुए, अब तो इन्होंने श्री राधाबल्लभलाल में अपनी निस्वार्थ प्रीति लगा ली थी। गृहस्थ के सारे कार्य ये प्रभु के मानकर ही किया करते थे; अतः हानि-लाभ का इन पर कोई प्रभाव नहीं

होता था।

एक बार ये अपने सम्पूर्ण परिवार के साथ गुरु-चरणों के दर्शन करने के लिए वृन्दावन आये। इन्होंने देखा कि श्रीहितजी महाराज ब्रजवासियों के बालकों के साथ खेल रहे हैं और उन्हें तीर चलाना सिखा रहे हैं। नाहरमलजी को आया देखकर, उन्होंने अपने हाथ का तीर-कमान एक बच्चे के हाथ में देकर, इनका अतिशय सम्मान किया। नाहरमलजी को यह सोचकर बड़ा दुःख हुआ कि मेरे इस समय यहाँ आने के कारण ही पूज्य गुरुवर्य ने अपना खेल समाप्त किया है, न जाने, वे इस खेल के माध्यम से क्या लीला करने जा रहे थे; अतः मैं उनके द्वारा रची जाने लीला में बाधा डालने का दोषी हूँ।

फिर एक अन्य अवसर पर श्रीहितजीमहाराज नाहरमलजी को अपने साथ लेकर मानसरोवर गये और वहाँ इनको एक आश्चर्यमय दृश्य दिखाया। जब नाहरमल जी सरोवर के जल में स्नान कर रहे थे, तब इन्होंने देखा कि श्रीहितजी अपने नित्य सिद्ध सखी स्वरूप में अनेकानेक गुण, छवि, रूप, रंग और रस से भरी हुई सखियों के मध्य में विराजमान हैं; किन्तु जब वे जल से बाहर आए तो उन्होंने अपने गुरुदेव को सरोवर के तट पर अकेले ही बैठे देखा।इसी प्रकार एक बार पुनः वृन्दावन आने पर नाहरमलजी को अपने गुरुदेव के दर्शन वन में मिले। उन्होंने अपने गौर शरीर पर सुन्दर वस्त्र पहन रखे थे और उनके श्री अंग में से छवि की लहरें उठ रही थीं। श्री महाप्रभु जी श्रीराधाबल्लभलालजी की सम्पूर्ण सेवा अपने हाथों से किया करते थे और उस समय वे ईंधन बीनकर अपने वस्त्र के छोर में रखते जा रहे थे। नाहरमल जी को यह देखकर अच्छा नहीं लगा और इन्होंने गुरु-भक्ति से प्रेरित होकर श्रीहितजी से प्रार्थना की कि आप आज्ञा दें तो इस कार्य के लिये एक धीमर नियुक्त कर दिया जाय जो प्रतिदिन एक बँहगी ईंधन श्री ठाकुर जी की सेवा में पहुँचा दिया करेगा; क्योंकि आपको इतना कष्ट करते हुए देखकर मुझे अत्यन्त दुख होता है। नाहरमलजी के मुख से इस बात को सुनकर श्रीहितजी के मन को अतिशय दुख हुआ और उन्होंने नाहरमलजी से बड़ी रुखाई के साथ कहा कि अपनी कामना पूर्ति के लिये जो लोग श्रीश्यामसुन्दर भजन करते हैं, उन्हें वे उनकी कामना पूर्ति का वरदान देकर उनसे अपना पीछा छुड़ा लेते हैं; किन्तु जिससे उनकी प्राप्ति हो सके ऐसी विशुद्ध भक्ति, वे किसी को भी प्रदान नहीं करते हैं। मैंने वही शुद्ध निष्काम भक्ति सन्तों के संग से प्राप्त की है और तू उसे छुड़ाने आया है। तू बड़ा रजोगुण लेकर वृन्दावन आता है और ठाकुरजी की पाक सेवा के लिये मेरे द्वारा किये जा रहे इस काम को तू धीमर से कराना चाहता है। तूने यह बड़ा अपराध किया है, तू बड़ा असाधु है। यह कहते हुए उन्होंने नाहरमलजी को वहाँ से चले जाने का आदेश देते हुए, इनका त्याग कर दिया। पूज्य गुरुवर्य के नाराजगी से भरे हुए इन वचनों को सुनकर नाहरमलजी बहुत दुखी हुए और अज्ञानतावश हुए इस महत् अपराध के लिये, स्वयं को क्षमादान देने के लिये, ये उनसे अति विनम्र स्वर में प्रार्थना करने लगे; किन्तु श्रीहितजी महाराज ने इनकी ओर देखा तक नहीं। नाहरमलजी ने इसे अपना दुर्भाग्य समझा और अपने घर पहुँचकर इन्होंने प्रण कर लिया कि जब तक पूज्य गुरुवर्य मुझ पर प्रसन्न नहीं होते हैं, तब तक मैं अन्न-जल का ग्रहण नहीं करूँगा। नाहरमल को अत्यन्त दुखी देखकर श्रीप्रियाजी ने श्रीहितजी महाराज से कहा कि नाहरमल बिल्कुल निर्दोष है। शिष्य-धर्म ऐसे ही है, अतः तुम उसे अपनाकर उसका सन्ताप दूर करो। श्रीप्रियाजी की आज्ञा पाकर श्री हितजी महाराज ने पत्र लिखकर नाहरमलजी को वृन्दावन बुलाया और अपनी प्रसन्नता स्वरूप इन्हें अपना जूठन-प्रसाद खिलाकर इनका अनशन व्रत समाप्त कराया तथा इन्हें वृन्दावन में ही बसा लिया। यहाँ रहते हुए वाहरमलजी श्रीराधावल्लभलालजी की सेवा, गुरु-सेवा, एवं रसिक सन्तों की सेवा हार्दिक प्रीति के साथ करते रहे और पूज्य गुरुवर्य के कृपा-प्रसाद से एक दिन ये सदा के लिये श्रीलाड़िली-लालजी की सेवा हेतु नित्य निकुंज महल में प्रविष्ट हो गये।

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