श्री ध्रुवदास जी
श्री ध्रुवदास जी
गो. श्रीहितहरिवंशचन्द्र महाप्रभु द्वारा प्रकटित प्रेमोपासना किंवा रसोपासना के सिद्धान्त के व्याख्याता रसिकवर श्रीहितध्रुवदासजी ने उपासनीय परात्पर तत्व 'प्रेम' के विशुद्धतम स्वरूप का, उसके उपासक अनन्य रसिकों का एवं उसके रसमय भजन की उपासना विधा का, बड़ी सूक्ष्मता एवं अत्यन्त गहराई के साथ अनुभव प्राप्तकर, स्वयं तो अपने जीवन में उसे अपनाया ही था, अपनी वाणी के माध्यम से, सभी को रस-भजन के द्वारा, अनन्य रसिक बनकर, 'प्रेम' के पूर्णतम रूप को प्राप्त करने की पुनीत प्रेरणा भी प्रदान की है। ध्रुवदासजी देववन निवासी कायस्थ कुल विभूषण श्रीविठ्ठलदासजी के नाती और श्रीश्यामदासजी के पुत्ररत्न थे। श्रीहितजी महाराज के श्रीचरणों के प्रति अनन्य अनुरक्ति इन्हें परम्परा से प्राप्त पैत्रिक सम्पत्ति के रूप में मिली हुई थी। ये श्रीहितमहाप्रभुजी के तृतीय पुत्र गो. श्रीगोपीनाथजी के परम प्रिय शिष्य थे। अत्यन्त छोटी अवस्था में ही इन्हें संसार से पूर्ण विरक्ति और श्रीराधावल्लभलालजी के श्रीचरणों में पूर्ण आशक्ति हो गई थी। हरिवंश-कृपा से वैवाहिक बन्धन में बंधने से पूर्व ही ये देववन से वृन्दावन आ गये और यहाँ की कुंज-निकुंजों एवं श्रीयमुनाजी की शोभा को देखकर यहीं के हो गये। ये यहाँ पर दिन-रात श्रीप्रिया-प्रियतम की नित्य नवीन ललित लीलाओं की भावना में छके रहते थे। इस प्रकार आपके नेत्र तो अद्वय युगल की नित्य नवीन छवि के दर्शन से तृप्त रहा करते थे; किन्तु आपकी जिह्वा उन्हीं दृष्ट लीलाओं का वर्णन करने के लिये छटपटाती रहती थी। यद्यपि ये सोचते थे कि जिस रस-वृन्दावन में ब्रह्मा-विष्णु-महेश आदि के मन का प्रवेश भी नहीं होता, मैं उस वृन्दावन में अनादि अनन्त काल से नित्यविहार परायण श्री श्यामा-श्याम के गुणों का वर्णन भला कैसे कर सकता हूँ; तथापि इनकी नित्यविहार का गान करने की आन्तरिक अभिलाषा दिनोंदिन उत्तरोत्तर बढ़ती ही चली गई। निरुपाय होकर ये एक दिन रास-मंडल पर आसन जमा करके बैठ गये, इस निश्चय के साथ कि जब तक मुझे वाणी स्फुरित नहीं होगी, मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगा। ध्रुवदासजी के इस हठ पर सहज कृपालु श्रीप्रियाजी का हृदय द्रवीभूत हो गया और उन्होंने तीसरे दिन अर्ध-रात्रि के समय कमल के समान कोमल अपने चारु चरणों से इनके सिर पर ठोकर लगाई। श्रीप्रियाजी के नूपुरों की मधुर ध्वनि को सुनकर ये चौंक पड़े, तब श्रीप्रियाजी ने इनसे कहा कि "उठ, जो तू चाहता है, वह तुझे प्राप्त हो जायेगा।" यह कहकर श्रीप्रियाजी अन्तर्ध्यान हो गईं। अब क्या था, इनके श्रीमुख से श्रीप्रियाजी द्वारा प्रदत्त वाणी का ऐसा अजस्त्र प्रवाह उमड़ पड़ा, जिसने सभी को रस निमग्न कर दिया। अब ये प्रेम की अद्वय युगल मूर्त्ति श्रीश्यामा-श्याम, प्रेमधाम वृन्दावन एवं युगल के प्रेम से प्रेम करने वाली, उनके सुख में स्वयं को सुखित अनुभव करने वाली तथा उनकी सेवा में सदैव संलग्न रहने वाली प्रीतिमूर्त्ति सखीगण का सुयश गान मुक्त कण्ठ से करने लगे। ध्रुवदासजी ने छोटी-बड़ी बयालीस लीलाओं एवं सैकड़ों पदों की रचना बहुत सरल भाषा में की है, जिसे समझने में कोई कठिनाई नहीं होती है। ध्रुवदासजी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रेम-रस-सिद्धान्त को समझाते हुए प्रेम और नेम के अन्तर एवं ब्रजलीलाओं और
निकुंजलीलाओं के पार्थक्य को भलीभाँति सुस्पष्ट किया है। इनके जीवन काल में हीइनकी वाणी का प्रचार-प्रसार समस्त भारत धरा धाम तक हो गया था। कितने ही जीव इनकी वाणी को पढ़कर एवं सुनकर श्रीश्यामा-श्याम के अद्भुत प्रेम के उपासक बन गये और अपने कुल परिवार का त्याग करके वृन्दावन वास करने लगे। ध्रुवदासजी के गुरु एवं गुरुकुल के लोग भी इनकी वाणी सुनकर अत्यन्त आनन्दित हुए तथा श्रीहितधर्म के प्रति इनकी अनन्य प्रीति पूर्ण रीति को देखकर इनकी प्रशंसा करने लगे। यदि वे इनसे किसी विषय पर वाद-विवाद करने की कोशिश करते, तो ये उसका कोई उत्तर नहीं देते थे, तथा जैसा वे कहते, ये उसे वैसा ही मानकर अपनी विनम्रता और सहनशीलता का
परिचय दिया करते थे।
ध्रुवदासजी वृन्दावन की परिक्रमा के वनविहार नामक स्थल पर रहा करते थे। ज्येष्ठ वदी द्वितिया के दिन जब श्रीराधावल्लभलालजी वनविहार के लिये पधारते थे, तो वे इनकी कुटी में भी विराजते थे तथा इनके द्वारा उनका भोग लगाने, आरती करने एवं भेंट समर्पित करने के उपरान्त ही वे निज मन्दिर के लिये प्रस्थान किया करते थे। ध्रुवदासजी श्रीजी की पाक सेवा स्वयं अपने हाथों से अति शुद्धता के साथ किया करते थे और सदैव सभी संतों के साथ मिल बैठकर प्रसाद ग्रहण करते थे। श्रीजी के महाप्रसाद को सर्वस्व मानते हुए ये एकादशी आदि का व्रत नहीं रखते थे। ध्रुवदास जी की वाणी को सुनकर युगलवर श्रीश्यामा-श्याम भी मुस्कराने लगते हैं। अन्य वाणियों से इस वाणी की रीति ही कुछ अद्भुत है; क्योंकि इसे पढ़ने-सुनने पर पाठक-श्रावक के हृदय में नित्य ही भाव-भावना की नई-नई तरंगें उठने लगती हैं।