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 श्री विठ्ठलदास जी

 श्री विठ्ठलदास जी

 श्री विठ्ठलदास जी

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 श्री विठ्ठलदास जी

 श्री विठ्ठलदास जी

विठ्ठलदासजी नाहरमलजी के छोटे भाई थे। ये अत्यन्त उदार वृत्ति के थे। इन्होंने गो. श्रीहितहरिवंशजी द्वारा प्रकटित श्रीहितधर्म की दीक्षा उनसे देववन में ही प्राप्त कर ली थी तथा गुरुवर्य द्वारा दी गई शिक्षाओं को बड़ी दृढ़ता के साथ अपने जीवन में उतारना प्रारम्भ कर दिया था। गुरु द्वारा बताये गये मार्ग पर अतिशय अनन्यता के साथ चलने के कारण, ये श्रीहिताचार्य के परम प्रिय शिष्य बन गये थे।

जब श्रीहितजी वृन्दावन में स्थाई रूप से रहने लगे, तब विठ्ठलदासजी का मन देववन में रहने से उचाट

खाने लगा और ये देववन से वृन्दावन आकर गुरु-चरणों के आश्रय में ही रहने लगे। यहाँ आकर

नित्यप्रति श्री गुरु के दर्शन करना और उनका उच्छिष्टामृत लेने के बाद ही प्रसाद ग्रहण करना इन दो

नियमों को इन्होंने अपनी दैनिक चर्या में अनिवार्य रूप से सम्मिलित कर लिया था। परम आराध्य

श्रीराधावल्लभलालजी महाराज की श्रीहित रस रीति के अनुसार अनन्य प्रेम भाव से सेवा करते हुए जब

बहुत समय व्यतीत हो गया, तब अनायास ही एक दिन इन्हें दिल्ली बादशाह का एक पत्र मिला, जिसमें

इन्हें जूनागढ़ के हिन्दू सूबेदार (राज्यपाल) का प्रधानमंत्री नियुक्त किये जाने की बात लिखी गई थी। पत्र

पढ़कर ये बड़े असमंजस में पड़ गये कि मुझे अब क्या करना चाहिये; अतः ये उस पत्र को लेकर

श्रीहितजी से मिले और पत्र को पढ़कर सुनाते हुए अपनी द्विविधा भी बतायी। श्री हिताचार्य ने कहा कि

चूँकि यह सेवा तुम्हें अनायास ही मिली है; अतः इसे प्रभु की इच्छा मानकर चले जाना ही ठीक रहेगा।

विठ्ठलदासजी ने जूनागढ़ जाने से पूर्व श्री हिताचार्य का एक चित्र बनवाया तथा वहाँ पहुँचने पर उस चित्र के साथ नाम-सेवा भी विराजमान की। अब ये सदाचारपूर्वक स्वयं रसोई बनाते, भोग लगाते और तब प्रसाद ग्रहण करते थे। इस प्रकार ये प्रतिदिन गुरु-दर्शन करने और उनका उच्छिष्ट लेने के बाद प्रसाद ग्रहण करने - इन दोनों नियमों का निर्वाह किया करते थे; वैसे इन्होंने कुछ ऐसा जुगाड़ भी बना लिया था, जिससे कि इन्हें जूनागढ़ में भी श्री गुरु का उच्छिष्ट प्रसाद मिलता रहे।विठ्ठलदासजी के जूनागढ़ पहुँचने के कुछ समय पश्चात वहाँ के सूबेदार राजा ने द्वारिका जाकर रणछोड़ जी के दर्शन करने का विचार किया। उसने फौज के लोगों को भी द्वारिका जाकर रणछोड जी के दर्शन करने की अनुमति प्रदान कर दी; अतः फौज के प्रायः सभी लोग दर्शन करके लौट आये, किन्तु विठ्ठलदासजी वहाँ गये ही नहीं। पहले तो इस बात की चर्चा सभी लोगों के घरों में ही होती रही, किन्तु फिर बहुत से चुगलखोरों ने इस बात की शिकायत राजा से भी कर दी। राजा ने नाराज होकर विठ्ठलदासजी को भरी सभा में बुलाया और उनसे पूँछा कि जब सभी हिन्दू फौजियों ने द्वारिका जाकर रणछोड़ जी के दर्शन किये तो तुम दर्शन करने क्यों नहीं गये? क्या तुम उनको ठाकुर नहीं मानते हो ?

क्या तुम अपना कोई नया मत चलाना चाहते हो ? विठ्ठलदासजी ने नम्रता से उत्तर दिया कि मेरे गुरु श्रीहितहरिवंशचन्द्रजी हैं, उनका निवास स्थान वृन्दावन है तथा दो भुजाओं वाले श्रीराधाबल्लभलालजी मेरे इष्ट हैं; अतः मेरे तन और मन में गुरुवर्य श्रीहितजी, उनका धाम वृन्दावन और गौर-श्याम वर्ण वाले राधा और माधव ही बसे हुए हैं तथा उनके रास और विलास का प्रकाश मेरे रोम-रोम में भर रहा है; अतः उसमें चार भुजाओं वाले ठाकुर के लिए स्थान ही शेष नहीं है। यह सुनकर राजा को क्रोध आ गया। उसने विठ्ठलदासजी से कहा कि मुझे तो तुम्हारे द्वारा कही गई बातें एक झूठी कहानी की तरह लग रही हैं। यदि तुम सच्चे हो तो अपने कपड़े उतारो और दिखाओ कि तुम्हारे तन-मन में कहाँ राधावल्लभलाल बसे हुए हैं, तभी हम सबको तुम पर विश्वास होगा। वस्त्र उतारते ही सभी ने देखा कि इनके शरीर में नये-नये वृक्ष, बेलियाँ, फल-फूल तथा लता-पतायें दिखाई पड़ रही हैं, और रोम-रोम से मुरली की मन्द मधुर ध्वनि के साथ ताल देते हुए मृदंग एवं नृत्य करते हुए नुपूरों के बजने की आवाज सुनायी दे रही है। यह देख-सुनकर सब उपस्थित लोगों को परम आश्चर्य हुआ और राजा तो सिंहासन से उठकर इनके चरणों से ही लिपट गया। उसने विठ्ठलदासजी से कहा कि आप तो बहुत पहुँचे हुए हो, आपकी बराबरी कोई नहीं कर सकता, मैंने तो आप जैसी अनन्यता न कभी देखी है और न कभी सुनी है; साथ ही प्रार्थना भी की कि मेरा अपराध क्षमा करके मुझे अपना शिष्य बना लीजिए। विठ्ठलदासजी ने भी राजा की विनम्रता पूर्ण वाणी को सुनकर, उसे सम्मान देते हुए, अपनी कोमल वचनावली से, प्रेम की उपासना में अनन्यता के महत्व को समझाते हुए, उसके अज्ञान को नष्ट कर दिया।

उस दिन से राजा इनका बहुत आदर करने लगा। उसने हृदय से इन्हें अपना गुरु मान लिया था। वह नियम से इनका उपदेश सुनता और उसे अपने जीवन में उतारने का यथा सम्भव प्रयास करता। वह कभी भी इन्हें अपने घर पर किसी के द्वारा नहीं बुलवाता था, स्वयं इनके घर जाकर इनके दर्शन का लाभ लेता था। उसने राज्य सम्बन्धी तथा परमार्थ सम्बन्धी सम्पूर्ण काम इन्हें सौंप दिये थे तथा अपनी धन-सम्पत्ति भी इनके चरणों में अर्पित कर दी थी।

विठ्ठलदासजी की गुरुवर्य श्रीहितहरिवंशचन्द्रजी के प्रति अगाध निष्ठा एवं अटूट प्रेम अति अद्भुत था, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि जब इन्होंने जूनागढ़ में रहते हुए, उनके निकुंज-गमन की बात सुनी तो इन्होंने यह सुनते ही अपने पांचभौतिक शरीर का परित्याग कर दिया और वृन्दावन की नित्य निकुंजों में युगलवर को नित्यविहार परायण बनाने वाली श्रीहितअलिजी के यूथ में सदा-सदा के लिये सम्मिलित हो
गये।

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