श्री नागरीदास जी
श्री नागरीदास जी
नागरीदासजी बेरछा (बुन्देलखण्ड) के रहने वाले थे और पँवार क्षत्रिय थे। बाल्यकाल से
ही इनके मन की वृत्तियाँ भगवत भजन के प्रति आकर्षित थीं और ये किसी सद्गुरु की
तलाश में थे। भाग्य से स्वामीश्रीचतुर्भुजदासजी से इनकी भेंट हो गयी और उनके साथ
हुई रस-चर्चा ने इनके मन को वृन्दावन का अनुरागी बना दिया। इन्होंने उनके साथ
वृन्दावन आकर गो. श्रीवनचन्द्रजी से दीक्षा ले ली। नागरीदासजी किसी राज-परिवार से
सम्बन्धित थे और वृन्दावन आते समय ये अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति अपने साथ ले आये थे,
जिसे इन्होंने यहाँ गुरु-गुरुकुल एवं हरि-हरिजन की सेवा में लगा दिया। कुछ ही दिनों में
ये अनन्य रसिकों की सभा के भूषण बन गये। इनके दर्शन मात्र से अनेक लोगों का
जीवन परिवर्तन होने लगा। इनके रसमय भजन का सबसे बड़ा आधार श्रीहित महाप्रभु
की श्रीमुख वाणियाँ थीं। ये उन वाणियों में वर्णित रसमूर्त्ति श्रीश्यामा-श्याम के वृन्दावन
में अनादि-अनन्त काल से चल रहे रहस्यमय नित्यविहार के चिन्तन - मनन में सदैव डूबे
रहते थे। श्रीहितजी की वाणियाँ इन्हें अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय थीं। इन्होंने उन
वाणियों की प्रशंसा में सैकड़ों दोहे और पद कहे हैं। ये श्रीहितजी महाराज की वाणी का
कोई एक पद उठा लेते थे और चौबीसों घण्टे उसी में निमग्न रहते थे। इन वाणियों में
वर्णित ललित लीलाओं के अतिरिक्त इन्हें अन्य कोई लीलाओं को सुनना अच्छा ही नहीं
लगता था; यहाँ तक कि इस रस-भक्ति के आगे नवधा भक्ति से भी इनका मन ऊब चुका
था तथा श्रीमद्भागवत में वर्णित लीलाएँ भी इन्हें अरुचिकर लगने लगी थीं। इनकी इस
बात से सम्प्रदाय के कुछ लोग, जिन्हें रस-भजन का चस्का नहीं लगा था, बहुत दुःखी
रहते थे और नागरीदासजी के गुरु परिवार से इनकी चुगली खाते रहते थे। इनके गुरुवर
गो. श्रीवनचन्द्रजी के सबसे छोटे पुत्र गो. श्रीनागरवरजी प्रतिदिन श्रीमद्भागवत की कथा
कहते थे। चुगलखोरों द्वारा गो. श्रीनागरवरजी को भी इनकी श्रीमद्भागवत कथा में
अरुचि के सम्बन्ध में बताये जाने पर, एक दिन उन्होंने नागरीदासजी से कहा कि
आजकल तो दशम स्कन्ध की कथा चल रही है, अन्य कथाओं को चाहे आप न भी सुनें;
लेकिन इस स्कन्ध की कथायें तो आपको सुननी ही चाहिये। नागरीदासजी इसे गुरु-
आज्ञा की तरह मानकर दूसरे दिन कथा सुनने पहुँच गये। उस समय धेनुक वध का प्रसंग
चल रहा था, जिसे सुनते ही नागरीदासजी का मन अतिशय व्यथित हो उठा और ये
उठकर अपने घर की ओर चल दिये। इस प्रकार कथा के बीच में ही, अनमने होकर इन्हें
जाते देखकर गो. श्रीनागरवरजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने इन्हें रोककर सानुरोध
पूँछा कि आप अचानक कैसे चल दिये? क्या किसी ने आपको कोई कष्ट दिया है? इनके
कोई उत्तर न देने तथा मौन खड़े रहने पर, गुसाई ने इन्हें अनेक सौगन्ध देते हुए जब
इसका कारण जानना चाहा, तब ये सभी के सामने बोले कि "जब आप धेनुक बध की
कथा कह रहे थे, उस समय मैं श्रीहितप्रभुजी की श्रीहितचौरासी जी के सातवें पद
'आजु निकुंज मंजु में खेलत नवल किशोर नवीन किशोरी' की भावना कर रहा था। उस
पद में रस-सागर श्री श्यामसुन्दर, रूप-सौन्दर्य की सीमा मानवती श्रीराधा की ठोड़ी को
सहलाकर, उनको मना रहे थे, उसी समय मेरे कान में आपके ये शब्द पड़े कि श्रीश्यामसुन्दर ने गधे के रूप वाले धेनुकासुर के दोनों पिछले पैर पकड़कर उसे दे मारा। यह सुनकर मेरा रोम-रोम जैसे जलने लगा। मेरे मन में बार-बार आने लगा कि चौरासीजी में वर्णित रसिकशेखर श्रीश्यामसुन्दर के नवनीत से कोमल हाथ, जिसमें श्रीप्रियाजी महाराज का रूप-रस-सार चारु चिबुक शोभायमान है, उसमें भला गधे के पैर कैसे शोभा दे सकते हैं - 'चिबुक सुचारु प्रलोइ प्रबोधत, तिन कर गदहनि पग क्यों सोहत।' गो. श्रीनागरवरजी ने नागरीदासजी के हृदय के रसमय भाव को जानकर एवं इनकी रस-भजन से प्राप्त परम स्थिति को समझकर, इन्हें अपने हृदय से लगा लिया और फिर कभी इनसे श्रीमद्भागवत कथा सुनने का अनुरोध नहीं किया; साथ ही इनकी निन्दा करने वालों पर कुपित होते हुए, उन्हें अनेक प्रकार से समझाने की चेष्टा भी की। इस घटना से नागरीदासजी के हृदय में अत्यधिक ठेस पहुँची। इन्होंने अपनी उस वेदना को एक दोहे में व्यक्त करते हुए कहा है कि जिनके बल पर मैं श्रीहित-धर्म के पथ पर वेधड़क रूप से चलने का साहस कर रहा था, वे शत्रुओं जैसा व्यवहार करने लगे हैं। ऐसा लगता है कि तरकस के तीर, जो शत्रुओं का वध करने के लिये उपयोग में लाये जाते हैं, वे साँप बनकर स्वयं को ही खाने लगे हैं 'जिनके बल निधरक हुते, तेई बैरी भये बान। तरकस के सर साँप है, फिरि-फिरि लागे खान ॥' कुछ हित-धर्मियों की ईर्ष्या से भरी भावना से बाध्य होकर नागरीदासजी वृन्दावन छोड़कर किसी दूसरी जगह जाकर रहने का विचार करने लगे। तभी इन्हें श्रीहितचौरासी के एक पद की यह पंक्ति- 'ये दोउ खोरि खिरक गिरि गहवर, विहरत कुँवर कंठ भुज मेलि' याद आ गई और इन्होंने निश्चय किया कि जहाँ पर श्रीप्रिया-प्रीतम विहार करते हैं, वही तो वृन्दावन है। इस आधार पर ये बरसाने चले गये और गहवर वन की पहाड़ी पर एक कुटी बना कर रहने लगे, जो कि आजकल मोरकुटी के नाम से प्रसिद्ध है।
एक दिन आधी रात के समय इन्होंने वहाँ यह आश्चर्यमय दृश्य देखा कि गहवर वन में मृदंग आदि बाजे बज रहे हैं। नूपुर और किंकिणि की मधुर ध्वनि सुनायी पड़ रही है। वहाँ के वृक्षों के ऊपर दमकते दीपकों ने सम्पूर्ण वन को प्रकाशित किया हुआ है। सखियों के समूह चारों ओर बिजली की तरह चमक रहे हैं तथा उनके मध्य में रसिक युगल अपनी नृत्य कला से सभी को चमत्कृत कर रहे हैं। इस छवि को देखकर नागरीदासजी को मूर्छा आ गयी। उसी समय श्रीप्रियाजी ने अपने चरण सांस्पर्श्य से इन्हें चैतन्य करते हुए इनसे कहा कि हम गहवर वन में नित्य ही विहार करने के लिये आते हैं। आज हमने सखियों के साथ तुम्हें दर्शन दिये हैं। हमें इस समय बहुत जोर से भूख लग रही है। यदि तुम हमें भोजन करा पाओ, तो हमें बहुत सुख मिलेगा। यह सुनते ही नागरीदासजी ने उठकर उसी समय थाल तैयार करके श्रीजी का भोग लगाया। उस दिन के बाद से श्रीजी का शयन कराने के पश्चात निशीथ भोग रखने की परम्परा ही पड़ गई। नागरीदासजी ने स्वयं निशीथ भोग से सम्बन्धित पचास पदों की रचना की है। श्रीप्रियाजी ने इन्हें यह आज्ञा भी दी कि तुम यहाँ पर मेरा एक मन्दिर का निर्माण कराओऔर प्रतिवर्ष मेरी वर्षगाँठ का उत्सव किया करो। यह कहकर नवलकिशोर-नवीनकिशोरी साँकरी खोर की ओर चले गये।
श्रीप्रियाजी की इस आज्ञा को सुनकर नागरीदासजी अतिशय प्रफुल्लित हो उठे और इन्होंने यह सब वृत्तान्त भागमतीजी को कह सुनाया। भागमतीजी भी यह सुनकर परम आनन्दित हुई। उन्होंने हार्दिक उल्लास से बरसाने में श्रीलाड़िलीजी का मन्दिर बनवाया और वृन्दावन से गुरु, गुरुकुल एवं सम्पूर्ण रसिक समाज को बुलाकर विशेष समारोह के साथ श्रीलाड़िली-लालजी का प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न किया। इसी प्रकार राधाष्टमी का उत्सव भी अत्यन्त धूम-धाम से मनाया गया। भागमतीजी ने इस सुअवसर पर भूषण, वसन, धन, सम्पत्ति आदि सर्वस्व लुटाकर एवं ब्रज की छत्तीसों जातियों के लोगों को भोजन कराकर न केवल सभी को सन्तुष्ट ही किया, स्वयं भी आनन्द के सागर में डुबकियाँ लगाने लगीं।
अत्यन्त उदारता के साथ इस प्रकार प्रचुर धन खर्च करते देखकर, एक दिन एक चोर नागरीदासजी की कुटिया में चोरी करने पहुँच गया; किन्तु दरवाजे पर एक सिंह को पहरेदार के रूप में देखकर वह उलटे पाँव वापिस आ गया। इस प्रकार चोरों ने कई बार इनकी कुटिया में चोरी करने की चेष्टा की; किन्तु सिंह ने अपनी भयानक गर्जना से उन्हें कुटिया के अन्दर घुसने में असफल मनोरथ किया।
यह सिंह अपनी हिंसक वृत्ति त्यागकर दिन में तो वन में घूमता रहता था; किन्तु रात्रि होने पर इनकी कुटिया की चौकीदारी कर इनकी सेवा किया करता था। जब कुछ रसिक उपासक इनकी कुटिया में आकर रस-चर्चा किया करते थे, तब ये सिंह उसे बड़े ध्यान से मन लगाकर सुना करता था। एक बार रात्रि के समय कुछ रसिक उपासक नागरीदासजी के यहाँ आकर ठहरे। नागरीदासजी उनके भोजन की व्यवस्था करने के लिये गाँव में पधारे। सिंह भी पालतू कुत्ते की तरह उनके पीछे-पीछे चलने लगा। नागरीदासजी जब गाँव वालों से रसोई के लिये प्राप्त कच्ची सामग्री को कपड़े की एक थैली में रखकर लौटने लगे, तब स्वामिभक्त उस सिंह के लिये यह बात असह्य हो उठी और वह सामग्री को स्वयं ले चलने के लिये इनके आगे आड़ा खड़ा हो गया। नागरीदासजी ने सिंह की इस साधुसेवा पर रीझते हुए वह थैली सिंह की पीठ पर रख दी। अब वह सिंह इनके साथ-साथ चलते हुए इन्हें कुटिया पर ले आया। कुटिया पर पहुँचकर इन्होंने शयनभोग तैयार करके श्रीजी का भोग लगाया और आगन्तुक रसिक महानुभावों को प्रसाद पवाकर उनका समुचित सत्कार किया।
नागरीदासजी ने एक हजार के लगभग दोहे और चार सौ के लगभग पदों रचना की है, जिसमें इन्होंने श्रीहितजी महाराज द्वारा प्रकट की गई रस-भक्ति के प्रेम-रस-सिद्धान्तकी अद्भुत व्याख्या की है। हरिवंश नाम एवं उनकी वाणी के प्रति इनकी निष्ठा श्रीसेवकजी के समान अत्यन्त अनूठी थी। रसिकों की अनन्यता को अति दुर्लभ बताते हुए, ये अपने हृदय में श्रीहित धर्मियों के प्रति विशेष श्रद्धा एवं सम्मान का भाव रखते थे। सम्प्रदाय में इनकी वाणी का बहुत अधिक सम्मान है। इनकी कृपा से अनेक लोगों को भजन का मार्ग सूझ पड़ा है। सम्प्रदाय में नागरीदासजी का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।