श्री नवलदास जी
श्री नवलदास जी
धूसर वैश्यों के कुल में जन्मे नवलदासजी रेवाड़ी के रहने वाले थे। बाल्यकाल से ही इनका झुकाव अध्यात्म की ओर था। ये जहाँ कहीं और जब कभी किसी कथा-सत्संग कीर्तन आदि धार्मिक आयोजन के विषय में सुनते, तो इनका मन उसमें सम्मिलित होने के लिये उत्साहित होने लगता था। इन्हें अपने घर पर आये हुए साधुओं की सेवा करने से हार्दिक सन्तुष्टि मिलती थी। ये अपनी सहज विनम्रता से सबका चित्त हरण कर लेते थे। एक बार जब इन्होंने यह सुना कि गो. श्रीहितहरिवंशचन्द्रजी वृन्दावन में प्रेम-धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं, तब उनसे सत्संग की उत्सुकता लेकर ये वृन्दावन आये और उनसे मिले। श्रीहितप्रभु से हुई प्रेमोपासना की रस-चर्चा के मधुरिम आकर्षण ने इन्हें इतना अधिक प्रभावित किया कि ये अनेक दिनों तक उनकी सेवा करते रहे। अन्त में, नवलदास जी के भाव की दृढ़ता को देखकर, श्रीहितजी महाराज ने रसोपासना का निज मन्त्र प्रदानकर इन्हें अपना शिष्य बना लिया तथा रसिक अनन्य धर्म की रसरीति को इन्हें भली-भाँति समझाया।
अब नवलदासजी के मन में जगत् के प्रति महान वैराग्य और अद्वय युगल श्रीश्यामा-श्याम के प्रति हार्दिक अनुराग का उदय हो गया था। ये सर्वत्र प्रभु के दर्शन करते हुए श्रीराधावल्लभलालजी का गुणगान करने लगे। इन्होंने भूख-प्यास पर भी काबू पा लिया था। इन्हें जब कभी जैसा कुछ मिल जाता, उसे ही परम लाभकारी समझकर सन्तोष कर लिया करते थे। इन्होंने लोगों के अवगुणों को देखना बन्द कर, उनके सद्गुणों को अपने जीवन में अपनाने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया था। इनके लिए हानि-लाभ, सुख-दुख सब समान हो गये थे। इन्हें गुरु-हरि-साधु-सेवा परम सुखदायी लगने लगी थी। ये रस-भजन में ऐसे निमग्न रहने लगे थे कि इसके अतिरिक्त अन्य किन्हीं बातों में समय लगाना इन्हें निरर्थक प्रतीत होने लगा था। स्वभाव में हुए इन परिवर्तनों ने इन्हें अतिशय गंभीर बना दिया था। सामान्यजनों के लिये तो इन्हें समझ पाना अतिशय कठिन था; किन्तु इनकी रहनी-सहनी ने रसिकजनों के चित्त को अवश्य ही चुरा लिया था।
शेरशाह की मृत्यु के बाद दिल्ली के सिंहासन पर कुछ दिनों तक हेमू बैठा। अकबर के संरक्षक वैराम खाँ ने हेमू को राज सिंहासन से हटाने के लिए उसके साथ पानीपत के मैदान में युद्ध किया, जिसमें हेमू पराजित हो गया और राज सिंहासन पर हुमायूँ का अधिकार हो गया। हेमू बनिया था; अतः बादशाह ने सभी बनियों को कत्ल करने की आज्ञा निकाल दी और वैश्य जाति के हजारों लोग मारे जाने लगे। यह हालत देखकर बादशाह के बजीर ने उनसे कहा कि आपके साथ युद्ध तो बनियों की एक छोटी-सी उपजाति धूसरों ने किया था; अतः केवल उनको ही सजा मिलनी चाहिए। तदनुसार रेवाड़ी से 200 धूसर पकड़े गये और उन्हें कारागार में बन्द करके अनेक प्रकार की यातनायें दी गयीं। जब धूसर कुल का कोई व्यक्ति शेष नहीं रह गया तब किसी ने बादशाह को बताया कि एक धूसर वृन्दावन में रहता है। बादशाह ने नवलदासजी को गिरफ्तार करवाकर दिल्ली बुलाया और उनसे पूछा कि तुम्हारी क्या जाति है? नवलदास जी ने निर्भय होकर उत्तर दिया कि अब हमारी कोई जाति नहीं है। जिन्होंने हमें जन्म दिया है, अब हमने उनकी शरण ग्रहण कर ली है तथा जाति बन्धन से मुक्त हो गये हैं। इस बात को सुनकर बादशाह चिढ़ गया और आज्ञा दी कि इस फकीर को जंजीरों से बाँधकर बन्दीखाने में डाल दो। नवलदासजी ने हँसकर कहा कि मुझको कोई हजार जंजीरों से बाँधे, तो भी मैं उनको तोड़ दूंगा। मैं तो प्रेम के धागे से बँधा हुआ हूँ और उसकी वजह से हिलने-डुलने में असमर्थ हूँ -
जो कोउ जरै जंजीर तन, तो तोरूँ सत सात। प्रेम तन्तु अटक्यौ नवल, मटक्यो तनक न जात ॥