श्री भागमती जी
श्री भागमती जी
ओड़छा के अधिकारी राजा चिन्तामणि की दो पत्नियाँ थीं। इन दोनों में भागमतीजी बड़ी और इन्दुमतीजी छोटी थीं। भागमतीजी के धार्मिक संस्कार बहुत गहरे थे। स्वाभाविक रूप से इनकी अभिरुचि श्रीहरि एवं उनके भक्तों की सेवा में रहा करती थी। यद्यपि ये भूखे को भोजन, प्यासे को पानी एवं नंगे को वस्त्र देकर दरिद्रनारायण की सेवा किया करती थींः तथापि इन्हें साधु-सन्तों को अपनी सेवा से संतुष्टकर परम सतोष का अनुभव हुआ करता था। यही कारण है कि इनके यहाँ कोई न कोई संत-महात्मा यदा-कदा आते ही रहते थे। इनके पति मुगल बादशाहों के सरदारों में थे और अधिकांशतः दिल्ली में रहकर बादशाह द्वारा दिये गये कार्यों को कुशलतापूर्वक सम्पन्न करने में सतत संलग्न रहा करते थे, जबकि उनकी दोनों रानियाँ ओड़छे में ही रहती थीं।
एक बार नागरीदासजी ओड़छे पधारे। वहाँ उन्होंने अपने सदुपदेशों द्वारा बहुत से मोह-माया में फँसे हरि-विमुखजनों को भगवदोन्मुख करने के साथ ही, गो. श्रीहितहरिवंशजी द्वारा संस्थापित श्रीहितधर्म की महत्ता एवं सर्वोपरिता भी समझायी, जिससे अनेकानेक लोग निकुंजोपासना के अनन्य अनुयायी बन गये। इस प्रकार प्रेमोपासना किंवा रसोपासना का प्रचार एवं प्रसार करते हुए एवं अपने उर अन्तराल में श्रीहितदम्पति को निवसित रखते हुए नागरीदासजी कुछ दिनों तक ओड़छे में ही रहे आये। धीरे-धीरे प्रेमोपासना की चर्चा ओड़छे के घर-घर में होने लगी और चलते-चलते वह भागमतीजी के महल में भी पहुँच गई। इनकी एक सखी ने इन्हें बताया कि ओड़छे में नागरीदासजी नाम के एक संत आये हुए हैं, जो बता रहे हैं कि "श्रीहितजी महाराज ने वर्णाश्रम धर्म एवं विधि-निषेधात्मक शास्त्रों के ऊपर प्रेम-धर्म की स्थापना की है और उनकी कृपा से सहस्रों जीव भवसागर का सुखपूर्वक संतरण कर रहे हैं।" एक सखी के मुख से नागरीदासजी की प्रशंसा सुनकर, भागमतीजी ने अत्यधिक स्वागत समारोह के साथ, अपने महल में उनकी पधरावनी की और उन्हें कई महीनों तक वहाँ रोककर उनके सत्संग का लाभ प्राप्त किया। नागरीदासजी ने भागमतीजी को श्रीहितजी महाराज के धर्म की रीति-भाँति को विस्तार से बतलाते हुए, अन्य उपासना मार्गों एवं नित्यविहार प्राण वृन्दावन रसोपासना के बीच के अन्तर को भी भलीभाँति सुस्पष्ट किया, जिसे सुनकर भागमतीजी बहुत प्रसन्न हुईं और इनके मन में वृन्दावन-दर्शन की उत्कट अभिलाषा बढ़ने लगी तथा इन्होंने नागरीदासजी के साथ वृन्दावन आकर श्रीहिताचार्यचरण के ज्येष्ठ पुत्र श्रीवनचन्द्रजी के श्रीचरणों में स्वयं को समर्पित कर दिया।
उस समय नागरीदासजी बरसाने में ही स्थाई रूप से निवास किया करते थे; अतः भागमतीजी भी बरसाने के दर्शनार्थ अतिशय आकुल हो उठीं। ये अकेली नहीं थीं, इनके साथ चार डोले, अनेक दास-दासी, बीस घुड़सवार एवं साठ पयादे आदि भी थे। उस समय वृन्दावन से बरसाना जाने वाले मार्ग पर मेवों ने भारी उत्पात मचा रखा था। इस कारण सभी को साथ लेकर निर्भयता के साथ बरसाना पहुंचने में इन्हें डर लग रहा था।अतः बरसाने से ब्रजवासियों को बुलाया गया, जिन्होंने इन सभी को बिना किसी विघ्न-बाधा के रात्रि के समय ही बरसाने पहुँचा दिया। ये बरसाने की सुरम्य छटा का दर्शनानन्द एवं नागरीदासजी के सत्संग का लाभ लेते हुए, वहाँ पर कई दिनों तक रुकीं। इन्होंने बरसाने के निवासियों की यथा सम्भव सेवा-पूजा की और वहाँ की किशोर अवस्था वाली लड़कियों को वस्त्र-आभूषण-काजल-रोरी आदि सामान प्रदान किये। इसी प्रकार वृन्दावन में भी भागमतीजी ने गुरु, गुरुकुल एवं वृन्दावनवासियों का यथोचित सम्मान किया और फिर ओड़छा वापिस चली गयीं।
भागमतीजी अपने पतिदेव की अनुपस्थिति में ही वृन्दावन आयी थीं। उनके पति जब दिल्ली से ओड़छा वापिस आये और उन्होंने अपनी अनुपस्थिति में भागमतीजी की ब्रजयात्रा की बात सुनी, तो वे अत्यन्त क्रोधित हुए। क्रोध के आवेश में वे भागमतीजी के शरीर पर तीन घंटे तक लगातार चाबुक की मार लगाते रहे; परन्तु इनका चित्त अपनी भजन-भावना में लवलीन होने के कारण, इन्हें इस कष्ट का किंचित भी आभास नहीं हुआ। मारते-मारते उनके हाथ थक गये; किन्तु इनके मुख पर विषाद के कोई चिन्ह दिखाई नहीं हुए। वे ज्यों-ज्यों बढ़े हुए रोष के साथ इन पर कोड़े लगाते, भागमतीजी के मुख की कान्ति त्यों-त्यों विशेष रूप से उद्दीप्त होती जा रही थी। राजाजी का भक्ति-शून्य पाषाण हृदय इस चमत्कारपूर्ण घटना से भी प्रभावित एवं द्रवित नहीं हुआ, उनके क्रोध की अग्नि और भी प्रज्वलित हो उठी। इस बार उसने भागमतीजी के ऊपर अपनी शैया बिछाकर अपनी छोटी रानी के साथ सम्पूर्ण रात्रि रति-विहार किया; किन्तु भागमतीजी का चित्त श्रीराधावल्लभलालजी की भजन-भावना से किंचित भी विचलित नहीं हुआ। भागमतीजी रात भर भजन करती रहीं। प्रभात होने पर राजा और छोटी रानी को उल्टियाँ आनी शुरू हो गईं और अनेक उपचार करने पर भी जब वे बन्द नहीं हुई तब मरणासन्न अवस्था की पीड़ा से पीड़ित होकर वे दोनों भागमतीजी के चरणों में लोटने लगे और अत्यन्त दीन स्वर से विलाप करते हुए प्रार्थना करने लगे कि मद में अन्धे होने के कारण हमने आपको बहुत कष्ट दिया है। मैंने जो चाबुक तुम्हारे शरीर पर मारी थीं, उनके निशान उलटे छोटी रानी के शरीर पर दिखलाई दे रहे हैं और मैं एक अचिन्त्य आन्तरिक पीड़ा से कष्ट पा रहा हूँ। आप तो स्वभाव से परम दयालु हैं; अतः अज्ञानतावश किये हुए हमारे अपराधों को क्षमा करें। अब आप हमें यह बताएं कि हम इसका मार्जन कैसे कर सकते हैं? राजा और रानी के कातरतापूर्ण वचनों को सुनकर भागमतीजी का हृदय पसीज गया और इन्हौने उनसे कहा कि यदि तुम वृन्दावन जाकर गुरु-शरण होकर हरि तथा हरिजनों की सेवा करना स्वीकार करो, तो तुम सभी कष्टों से मुक्ति प्राप्त कर सकते हो तथा अपने जीवन को सफल बना सकते हो। भागमतीजी की इस शर्त को हृदय से स्वीकार करने पर राजा और रानी की मरणान्तक पीड़ा समाप्त हुई और फिर दोनों भागमतीजी के साथ वृन्दावन आये और गो. श्रीवनचन्द्रजी से मन्त्र-दीक्षा ले ली। इसके पश्चात् भागमतीजी उन्हें बरसाने ले गयीं और उन्हें नागरीदासजी के दर्शन कराये एवंउनसे उनका पूजन भी कराया। श्रीलाड़िलीजी के मन्दिर का निर्माण एवं उत्सव आदि कार्य हो जाने के पश्चात् भागमतीजी ने अपने पति से कहा कि अब आप छोटी रानी के साथ ओड़छा जाइये और मुझे बरसाने एवं वृन्दावन में एकान्त वास करने दीजिये।
राजा-रानी इन्हें प्रणाम करके वापिस चले गये तथा ओछड़े से वे जीवन पर्यन्त इनकी इच्छानुसार इन्हें धन और वस्त्र आदि भेजते रहे। भागमतीजी ने बरसाने के मोरकुटी आदि लीला स्थलों में मन्दिर एवं रासमण्डल आदि निर्माण कार्य कराये। इन्होंने गुरु, गुरुकुल, साधु, सन्तों एवं ब्रजवासियों की तन-मन-धन से सेवा करके उनकी हार्दिक प्रसन्नता का लाभ प्राप्त किया। इन्होंने नागरीदासजी के संग रूपी कृपा से गहवर वन की ललित लीलाओं के दर्शन करते-करते अन्त में श्रीप्रियाजी का नित्य साहचर्य प्राप्त किया।