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 श्री हरिदास जी तुलाधार

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 श्री हरिदास जी तुलाधार

 श्री हरिदास जी तुलाधार

बताया था कि प्रेम-धाम वृन्दावन में प्रेम-मूत्ति अद्वय युगल श्रीश्यामा-श्याम हमारे इष्ट हैं; अतः इनका उस पर ही दृढ़ विश्वास था। इनकी अनन्य निष्ठा देखकर श्रीहरि युगल रूप में ही इनके सामने प्रकट हो गये और तब ये दौड़कर उनके चरणों में गिर पड़े, इनके नेत्रों से आनन्द के आँसू बह निकले और युगलवर के मुखचन्द्रों का एकटक दृष्टि से दर्शन करने लगे। उन्होंने प्रसन्न होकर इन्हें यह वरदान भी दिया कि तुम जब तक जिओगे तब तक निष्काम भक्ति करते रहोगे और अन्त में श्रीवृन्दावन धाम को प्राप्त होओगे। एक बार ये प्रभु इच्छा से जगन्नाथपुरी पहुँचे और श्रीजगन्नाथरायजी के दर्शन किये; किन्तु अपने हृदय में ये उन्हें अपने इष्ट और धाम की सम्पत्ति का अंश मात्र ही मानते थे। इनके साथ में इनके इष्ट की सेवा भी थी, जिसे ये बड़े मनोयोग के साथ किया करते थे। ये अपने इष्ट की पाक सेवा स्वयं ही बड़े सदाचार के साथ किया करते और उन्हें भोग लगाकर उनके प्रसाद को ही स्वयं ग्रहण किया करते थे। इस प्रकार जगन्नाथपुरी में भी ये श्रीहितधर्म के अनन्य व्रत का अत्यन्त दृढ़तापूर्वक पालन किया करते थे।

इन्हें जगन्नाथपुरी के पंडा लोग इनके भक्तिपूर्ण आचरण को देखकर प्रायः श्रीजगन्नाथरायजी का प्रसाद लाकर दिया करते थे; किन्तु ये उसको माथे पर चढ़ाकर रख लेते थे और उनके जाने के बाद उसे अन्य लोगों में बाँट दिया करते थे। जगन्नाथपुरी में इस बात की चर्चा घर-घर में होने लगी और सब लोग इन्हें श्रीजगन्नाथरायजी के प्रसाद की अवहेलना करने का दोषी मानकर इनकी निन्दा करने लगे। इस बात को सुनकर हरिदासजी ने कहा कि तुम लोग पहले श्रीजगन्नाथरायजी से तो पूँछो, तभी मुझे अपराधी मानना। यदि वे कहेंगे तो मैं उनका प्रसाद ग्रहण कर लूँगा। श्रीजगन्नाथरायजी की आज्ञा जानने के लिए उनके सिद्ध भक्तों को रात्रि में मन्दिर में सुलाया गया। उनसे जगन्नाथजी ने कहा कि श्री वृन्दावनचन्द्र युगल किशोर से ही हमारी उत्पत्ति हुई है। वे हमारे अंशी हैं और हम उनके अंश है। हरिदासजी अपने इष्ट में अनन्य हैं और केवल उनके प्रसाद को ही लेते हैं। इसमें वे कोई अपराध नहीं कर रहे हैं। संसारी लोग जो मेरे प्रसाद का त्याग करते हैं, उनको ही महाअपराध लगता है; किन्तु जो लोग अपने इष्ट का अतिशय अनन्यता के साथ लाड़ लड़ाया करते हैं, वे विरले ही होते हैं, उनकी चाल-ढाल, मन-बुद्धि और अपने इष्ट के प्रति अगाध प्रीति, सभी कुछ निराली ही होती है। इस घटना के बाद पुरी निवासी हरिदासजी का बहुत सम्मान करने लगे और ये जितने दिन जगन्नाथपुरी में रहे, अपने इष्ट का निर्विघ्न भजन करते रहे।

जगन्नाथपुरी के निवास काल में एक दिन ज्योतिषियों ने इनसे कहा कि आपकी आयु पूरी होने में केवल दो दिन मात्र ही शेष रह गये हैं। उसके बाद ये कुछ बीमार भी हो गये; किन्तु इनकी निष्ठा श्रीवृन्दावन में लगी हुई थी। वैद्यों को बुलाया तो उन्होंने भी कह दिया कि इनकी नाड़ी तो छूट गयी है; किन्तु इनका मन अपने इष्ट में ही अटका हुआ है। लोग कहने लगे कि यह तो पुरुषोत्तम धाम है, अतः आप यहाँ अपने नश्वर शरीर का परित्याग कर पूर्ण विश्राम एवं परम आनन्द का लाभ प्राप्त करें। यह सुनकर ये बोले कि मुझे पूर्ण विश्वास है कि प्राण निकलने से पूर्व मेरा यह शरीर निश्चित रूप से वृन्दावन में ही पहुँचेगा, यह अन्यत्र कहीं भी नहीं गिर सकता, क्योंकि यह पूर्ण रूप से वृन्दावन का हो चुका है। इनकी यह बात सुनकर पालकी का प्रबन्ध किया गया और उसमें इन्हें डाल कर वृन्दावन की ओर प्रस्थान किया गया। ये रास्ते में लेटे हुए इष्ट की मानसी भावना एवं वृन्दावन के उत्सवों का ध्यान करते रहे तथा प्रसादी चरणामृत ग्रहण करते रहे। जैसे-जैसे वृन्दावन निकट आता जा रहा था, वैसे-वैसे इनके शरीर और मुख की कान्ति बढ़ती चली जा रही थी। काल से वेपरवाह रहते हुए हरिदासजी दो महीने में गाते-बजाते हुए वृन्दावन पहुँच गए तथा साधु जनों की सभा की उपस्थिति में इस पांचभौतिक शरीर को छोड़कर नित्य सिद्ध सखी परिकर में जा मिले, लाड़िली-लाल का लाड़ लड़ाकर स्वयं रसानन्द का अनुभव प्राप्त करने

के लिये।

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