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श्री हरिदास जी तूंवर

श्री हरिदास जी तूंवर

श्री हरिदास जी तूंवर

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श्री हरिदास जी तूंवर

 श्री हरिदास जी तूंवर

हरिदासजी क्षत्रियों की तूंवर उपजाति में उत्पन्न हुए थे। ये सोडीगने गाँव के निवासी थे। बाल्यकाल से ही इनका झुकाव धर्म की ओर था। ये गो. श्रीहितहरिवंशचन्द्र महाप्रभु के सबसे बड़े पुत्र गो. श्रीवनचन्द्रजी के सबसे छोटे पुत्र गो. श्रीनागरवरजी के शिष्य थे।

श्रीहितधर्म में दीक्षित होने के पश्चात इन्होंने अपना तन-मन-धन सब कुछ श्रीहितप्रभु की सेवा में समर्पित कर दिया था। इन्होंने घर-परिवार, स्वजन, स्वधन आदि के प्रति अपनी अहमता एवं ममता का परित्याग कर सभी में श्रीहितप्रभु के दर्शन एवं सभी कुछ श्रीहितप्रभु का मानना प्रारम्भ कर दिया था। श्रीहितधर्म के प्रति इनकी अटूट एवं अनन्य निष्ठा के कारण इनके पिता इनसे अत्यधिक नाराज रहा करते थे। उनका कहना था कि हम लोग क्षत्रिय हैं और मदिरा-माँस का सेवन करना एवं शिकार खेलना हमारे कुल की रीति है, जिसे त्यागकर तुमने हमारे इस कुल-धर्म को नष्ट कर दिया है। यद्यपि वे प्रत्येक अवसर पर इसी प्रकार की हृदय को चोट पहुँचाने वाली बातें करते रहते थे; किन्तु ये उन्हें सुना-अनसुना समझकर श्रीहितधर्म में अचल ही बने रहे। एक बार अँधेरी रात में एक अत्यन्त जहरीले साँप ने हरिदासजी के पैर को डस लिया। इनके साथ के सेवकगण एवं आत्मीयजन उस साँप को मारने लगे, किन्तु हरिदासजी तो उस सर्प में श्रीहितप्रभु का दर्शन कर रहे थे, अतः इन्होंने अपने सदुपदेशों द्वारा उन्हें उस सर्प में भी श्रीहितप्रभु के दर्शन कराये। इस प्रकार सर्प के प्राण बचाकर उन सबको जीव हत्या के पाप से बचा लिया। उस समय लोगों को और भी अधिक आश्चर्य हुआ, जबकि इनकी इस प्रकार की निष्ठा के बल से सौंप का विष इन्हें बिलकुल नहीं चढ़ा। इस घटना से उन आत्मीयजनों पर भी, जोकि भगवद् विमुख थे, अत्यधिक प्रभाव पड़ा। क्यों न पड़ता, ऐसे भक्तों से काल रूपी साँप भी भयभीत रहता है, सामान्य साँप का तो कहना ही क्या। हरिदासजी की परम उदारता की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी। एक दिन एक साधु इनके घर आया और कहने लगा कि "सुना है कि आपको संसार की किसी वस्तु से मोह नहीं रह गया है; अतः आप अपनी पत्नी एवं घर-बार आदि सम्पत्ति मुझे सौंप दो।" इन्होंने अत्यधिक विनम्रता के साथ उस साधु से कहा कि- "यह सब वैभव तो पहले से ही आपका है। मैं तो आपका अनेक जन्मों का दास हूँ। आपकी वस्तु को, आप ही को देने वाला, मैं कौन होता हूँ? अतः आप यहाँ पर आनन्द पूर्वक रहिये तथा इस वैभव का अपनी इच्छानुसार जैसा चाहें, वैसा उपभोग कीजिये।" साधु से यह कहकर हरिदासजी पत्नी, गृह, वैभव आदि छोड़कर प्रसन्नता पूर्वक वन को चल दिये। साधु उनका यह चरित्र देखकर चकित रह गया और उसने इन्हें वापस बुलाकर इनसे कहा कि- "अहाहा! मैंने जैसा सुना था, आपको वैसा ही पाया। आपको संसार की किसी भी वस्तु से आशक्ति नहीं रह गई है। मैं अब आपकी पत्नी, सम्पत्ति एवं घर-बार को अपने बन्धन से मुक्त करता हूँ; अतः अब आप हमारी आज्ञा से इन सबको पुनः स्वीकार करो।" यह कहकर वह साधु वहाँ से उठकर अपने स्थान को वापिस चला गया। परम साधुसेवी होने के

कारण, हरिदासजी के यहाँ साधु-सन्तों का आना-जाना प्रायः लगा ही रहता था।

विशेषता यह थी कि इनकी पत्नी, पुत्र, पुत्री आदि सभी स्वजन लज्जा त्यागकर तनमन-धन से उनका पूरा सत्कार किया करते थे। इनकी युवावस्था को प्राप्त पुत्री परम सुन्दरी थी । एक साधु उसके रूप पर विमुग्ध हो गया और वासनापूर्ति की इच्छा से इनके घर पर ही रहने लगा।

धीरे-धीरे उसने इनकी पुत्री के साथ पाप सम्बन्ध स्थापित कर लिया। एक बार गर्मी के दिनों में, घर की तीसरी मंजिल पर, रात में जगे रहने के कारण, वे दोनों सुबह होने के समय निर्वस्त्र ही सो रहे थे। अकस्मात हरिदासजी छत पर पहुँच गये और उन दोनों को इस स्थिति में देखकर इन्होंने अपनी चादर उन पर डाल दी और चुपचाप नीचे उतर आये। जब दोनों की आँखें खुलीं, तो साधु ने सशंकित होकर पुत्री से पूँछा कि अरे ! गजब हो गया, यह चादर हम दोनों को किसने उढ़ा दी ? पुत्री ने अपने पिता की चादर पहचान ली। अब तो दोनों अत्यन्त भयभीत हो गये और लज्जा के मारे सोचने लगे कि अब हम क्या करें, कूदकर मर जाएँ अथवा कहीं भागकर चले जाएँ ?

अन्त में, भाग जाने के विचार से, वह साधु तो स्नान करने का बहाने, घर से बाहर जाने लगा; किन्तु हरिदासजी चुपचाप उसके साथ हो लिये। कुछ दूर जाकर इन्होंने साधु से बहुत ही मीठे और विनम्र शब्दों में कहा कि "महाराज! घर की और बाहर की सभी वस्तुएँ आपकी ही हैं, आपका उन पर पूर्ण अधिकार है, आप उनका उपभोग करने के लिये स्वतन्त्र हैं, हमें जगत का भय नहीं है; परन्तु सब कार्य सावधानीपूर्वक किये जाने चाहिये, क्योंकि इस काम को यदि कोई भक्त-विमुख दुष्ट व्यक्ति देख लेता तो वह सम्पूर्ण साधु-समाज को कलंकित करते हुए उनकी निन्दा भी करता। साधुओं की निन्दा सुनने से जितना अधिक कष्ट मुझे होता है, उतना किसी अन्य बात से नहीं होता; अतः उसे अपनी जानते हुए भी उसका उपभोग छिपकर ही करें, जिससे कि दुष्टों को निन्दा करने का अवसर न मिल पाये।" उस साधु के चित्त पर हरिदासजी के सदुपदेशों एवं इस व्यवहार का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वह हरिदासजी को गुरु के समान मानने लगा। अब उसके हृदय में जागतिक विषयों से सच्चा वैराग्य तथा प्रभु के चारु चरणों से हार्दिक अनुराग

उत्पन्न हो गया।

हरिदासजी ने अपने जीवन का अन्तिम समय वृन्दावन में ही व्यतीत किया था। इन्होंने यमुना तट पर एक घाट और एक मन्दिर बनवाया। मन्दिर में विराजमान ठाकुरजी का नाम श्रीजुगलकिशोरजी और घाट का नाम जुगल घाट है। ये श्रीजुगलकिशोरजी की अष्टयाम सेवा श्रीहितपद्धति के अनुसार अत्यन्त लाड़-चाव के साथ किया करते थे। गुरुवर गो. श्रीनागरवरजी एवं गुरुकुल में इनकी अगाध श्रद्धा थी। इस प्रकार श्रीहितधर्म में एकनिष्ठ होकर अपना समय व्यतीत करते हुए, ये श्रीप्रियाजी महाराज के बुलावे पर, अपने इस नश्वर शरीर का परित्याग करके, नित्य निकुंज महल में सदा-सदा के लिये प्रविष्ट हो गये। इस कलियुग में हरिदास जी जैसा निष्ठावान न हुआ है और न होगा ही।

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