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 श्री परमानन्ददास जी

 श्री परमानन्ददास जी

 श्री परमानन्ददास जी

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 श्री परमानन्ददास जी

 श्री परमानन्ददास जी

जागतिक प्रपंच ये छुटकारा दिलाने में पूर्ण समर्थ हैं श्रीहितहरिवंशचन्द्रजी को गुरु बनाने का दृढ़ निश्चय कर लिया। अब इन्होंने हार्दिक प्रीति के साथ दिन-रात श्रीहरिवंश नाम का जाप एवं उनके गुणों का निरन्तर स्मरण करना प्रारम्भ कर दिया। इनकी लगन एवं निष्ठा को देखकर श्रीहितप्रभुजी का हृदय करुणा से भर गया और इन्हें स्वप्न में ही मन्त्र-दीक्षा प्रदान कर दी। यह दीक्षा वि.सं. 1592 की भाद्रपद शुक्ला नवमी के दिन सम्पन्न हुई थी। दीक्षा मिलने के उपरान्त इनका जीवन सम्पूर्ण रूप से बदल गया। यद्यपि अब इन्होंने अपने जीवन में श्रीमद्भागवत के अनुसार सदाचरण करना प्रारम्भ कर दिया था; किन्तु इनका मन श्रीहितधर्म में ऐसा रंग चुका था कि अन्य धर्मों की बातें इन्हें अरुचिकर लगने लगी थीं।

पूरनदासजी से मिले सत्संग और गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण के भाव के प्रभाव-प्रताप से अब ये अपने मस्तक पर तिलक तथा गले में श्रीहरिवंश-नाम की कंठी धारण करने लगे थे तथा उत्कट अनन्यता के साथ प्रभु-सेवा में स्वयं को समर्पित कर दिया था। पूज्य गुरुवर्य की अहैतुकी अनुकम्पा से इनके हृदय में श्यामा-श्याम का नित्यविहार स्फुरित हो गया था। श्रीहरिवंश के नाम एवं गुणों का स्वयं गायन करने एवं श्रीहरिवंश के सुचारु चरित्रों का श्रवण करने से इनके चित्त को परम विश्रान्ति का अनुभव होता था।

पूरनदासजी को इन्होंने काफी दिनों तक अपने पास ठड्ढे में ही रोककर रखा; किन्तु एक दिन वे इनसे वृन्दावन जाने के लिए बहुत आग्रह करने लगे। यह जानकर इनका मन अत्यन्त दुखी हुआ; किन्तु ये उनके आग्रह को टाल भी नहीं सके। इन्होंने रोते हुए पूरनदासजी को अपने हृदय से लगा लिया और भरे हुए गले से उन्हें विदा किया; उनके साथ इन्होंने पूजनीय गुरुवर के लिए बहुत सी भेटें भी भेजी, जो उस समय इन्हें राजभवन में मिल पाई।

बारह वर्ष तक ठठे में ही रहते हुए जब ये वृद्ध हो गये, तो इन्होंने बादशाह से सेवामुक्त होने की आज्ञा माँगी और श्री वृन्दावन में एकान्त वास करने की इच्छा प्रकट की। बादशाह ने इनकी प्रार्थना स्वीकार करते हुए, किसी अन्य को इनके स्थान पर भेजकर, इन्हें दिल्ली बुला लिया। वहाँ पहुँचने पर इन्होंने बादशाह से मनसबदारी को दुख रूप बताते हुए, ज्ञान-वैराग्य और नित्य एवं अनित्य तत्व को पहचानने से सम्बन्धित कुछ एक बातें की और फिर वहाँ से श्रीवन के लिये चल पड़े। यहाँ आकर गुरुवर्य श्रीहरिवंशजी के प्रत्यक्ष रूप से दर्शनीय स्वरूप और स्वप्न में दिखाई पड़े उनके स्वरूप में पूर्णतः साम्य पाकर परमानन्ददासजी ने अपने नेत्रों को सफल मनोरथ किया और उनके चरणों में गिरकर स्वयं को कृतकृत्य अनुभव किया। 'परमानन्ददासजी ने श्रीहितप्रभु से ठठे में ही मन्त्र-दीक्षा प्राप्त कर ली थी'- यह बात अन्य सभी लोगों को उसी समय ज्ञात हुई; इससे पूर्व तो यह बात केवल गुरु और शिष्य ही जानते थे। श्रीहिताचार्य ने भी उपस्थित सभी लोगों को उपदेश देते हुए कहा कि सत्संग का प्रभाव अमोघ होता है; देखो ! पूरनदासजी के सत्संग के प्रताप से परमानन्ददासजी के सम्पूर्ण सांसारिक कष्ट नष्ट हो गये हैं।

परमानन्ददासजी ने अपने जीवन का अन्तिम समय गुरुवर्य के चरणों की छत्र-छाया में श्रीराधावल्लभलालजी का लाड़ लड़ाते हुए व्यतीत किया था। ये उनकी अनुपम दिव्य छवि का दर्शन करते हुए मन्त्र-मुग्ध जैसे हो जाया करते थे। इन्हें साधु-सेवा करने में किसी प्रकार की लज्जा अथवा संकोच का अनुभव नहीं होता था। शतायु हो जाने पर भी यद्यपि शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलता के कोई लक्षण इनमें दिखाई नहीं पड़ते थे, तथापि परम दयालु गुरुवर्य के कृपा-प्रसाद से, नित्य दुलहिनी श्रीराधा और उनके वल्लभ नित्य दूलह श्रीलालजी ने इन्हें सदा-सदा के लिये अपने पास बुला लिया, अपनी लाड़-चाव भरी सेवाओं से उन्हें नित्य ही रिझाने एवं उनकी रीझन से अपने मन को नित्य ही प्रेम-रस में झुलाने के लिये।

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