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श्री गोविन्ददास जी

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श्री गोविन्ददास जी

श्री गोविन्ददास जी

गोविन्ददासजी श्रीहरिदासजी तूंवर के छोटे भाई थे। इन्होंने अपने भाई की भाँति ही श्रीहितधर्म का बड़ी दृढ़ता के साथ निर्वाह किया था। गार्हस्थ धर्म के साथ-साथ श्रीहितधर्म के अनन्य उत्कट व्रत का सक्रिय पालन करके इन्होंने दिखा दिया था कि ये बड़े रसिक अनन्य भक्त थे। जिस दिन से इन्होंने गुरु की शरण प्राप्त की थी, उसी दिन से इन्हें संसार की असारता का संज्ञान हो गया था, इन्होंने अपना तन-मन-धन सब कुछ श्रीराधावल्लभलालजी के श्रीचरणों में समर्पित कर दिया था तथा हरि-गुरु-साधु सेवा को इन्होंने अपना एकमात्र कर्तव्य बना लिया था। इन्होंने अपने घर में ही श्रीजी की सेवा विराजमान की हुई थी। ये उनका श्रीहितपद्धति के अनुसार लाड़ लड़ाया करते थे। ये उनका समय और रितु के अनुसार भोग लगाया करते थे और उनके नित्य और नैमित्तिक सभी उत्सवों को बड़े उत्साह के साथ मनाया करते थे। ये तत्कालीन बादशाह के सम्मान्य मनसबदार थे। खीरहटी परगने की जागीरदारी इन्हें पैत्रिक सम्पत्ति के रूप में मिली हुई थी। इसी परगने के बिहारीपुर गाँव में राजरिषि के नाम से विख्यात ये महा विरक्तिपूर्ण जीवन व्यतीत किया करते थे।

गोविन्ददासजी अपने समय के एक अद्वितीय वंशी वादक थे। विशेषता यह थी कि ये अपनी मुरली एकमात्र अपने इष्ट को ही सुनाते थे, अन्य किसी को नहीं, यह आपका प्रण था। आपकी इस संगीतप्रियता के कारण, गायक साधुजनों के साथ-साथ अन्य गुणीजनों की भी भीड़ इनके यहाँ लगी ही रहती थी और प्रायः प्रतिदिन इनके सेव्य के समक्ष विविध वाद्य-यन्त्रों के साथ समाज गायन का आयोजन होता ही रहता था।

एक बार बादशाह ने इन्हें दिल्ली बुलाया। बादशाह के प्रियपात्र होने के कारण इन्हें दिल्ली तो जाना पड़ा, किन्तु ये अपने इष्ट की सेवा अपने साथ ही ले गये। ये दिल्ली में भी लगभग चार घण्टे तक अपने इष्ट की अनुराग सहित सेवा करने एवं प्रसाद ग्रहण करने के बाद ही दरबार में उपस्थित होते थे। यह इनका दैनिक नियम था। इनकी वंशी वादन की कला तो विख्यात थी ही, इसके साथ ही अपने इष्ट के सामने ही वंशी बजाने का इनका प्रण भी सभी को ज्ञात हो चुका था। बादशाह की इन पर प्रीतिपूर्ण दृष्टि देखकर, कुछ अन्य मनसबदार इनसे मन ही मन जला करते थे; अतः इनके इस प्रण से कुछ फायदा उठाने की गरज से, उन्होंने बादशाह से इनकी चुगली करते हुए, उन्हें इनसे दरबार में ही वंशी बजाने के लिये तैयार कर लिया। एक दिन बादशाह ने इनसे कहा कि हमने सुना है कि आप मुरली बहुत अच्छी बजाते हैं, हमारी इच्छा है कि आप आज तो दरबार में ही वंशी बजायें और हम सभी को उसकी स्वर लहरियों में डूबने का आनन्द लाभ प्रदान करें। गोविन्ददासजी तो अपने इष्ट के अनन्य भक्त थे। ये निर्भीक होकर बादशाह से बोले कि महाराज ! मेरी मुरली तो मुरलीधरजी के सामने ही बजती है और उन्हीं के आगे ही बजेगी, आपके आगे तो तलवार बजा करती है। बादशाह इस बात को सुनते ही क्रोधित हो गया और रोष भरे शब्दों में कहा कि यदि आप ऐसे ही तलवारचलाने वाले हो, तो मेरे अजित दुश्मन अम्बरराज के सिर पर इसे मार के दिखाओ, तभी आपकी प्रतिज्ञा सत्य समझी जायेगी। गोविन्ददासजी ने उसी समय वहीं पर खड़े होकर प्रतिज्ञा की कि मैं अभी जाकर उस पर तलवार चलाकर आऊँगा और उसी समय चल भी दिये। अम्बर की विशाल सेना आक्रमण की तैयारी कर रही थी। ये उसी सेना के बीचोंबीच होते हुए अम्बर की पालकी के पास पहुँच गये और इन्होंने समस्त अंग-रक्षक शूरवीर सामन्तों के समक्ष ही अम्बर के सिर पर तलवार का वार किया। तलवार पालकी के बाँस को काटकर अम्बर के शरीर में घुस गई और अंग-रक्षक पालकी भगाकर ले गये और सेना में भगदड़ मच गई। गोविन्ददासजी के चमत्कारपूर्ण इस पराक्रम की सच्चे शूरवीरों ने अत्यन्त सराहना की।

इस घटना से बादशाह के हृदय में इनकी वीरता की छाप अमिट रूप से पड़ी और चुगलखोरों का मुँह सदा के लिये बन्द हो गया। गोविन्ददासजी जितने सेवा में निपुण थे, उतने व्यवहार कुशल भी थे। अपने इष्ट के अनन्य आश्रय के बल पर इन्होंने बादशाह का तनिक भी भय नहीं माना। जिस बादशाह के सेवकों से बड़े-बड़े राजा महाराजा डरते थे, गोविन्ददासजी ने उन्हें गोविन्द के बल पर तिनके के समान भी नहीं गिना। इनके भ्राता, पुत्र आदि सभी परिवारीजन परम रसिक अनन्य व्रत के पालनकर्त्ता थे और ये सदैव भजन में लीन रहते थे। कुल और जाति धर्म की उपेक्षा करके, गोविन्ददासजी ने अपने गुरु की आज्ञा से अपनी पुत्री को अपने से नीची जाति के परिवार में दे दिया; किन्तु श्रीहितजी महाराज के श्रीहितधर्म की अनन्यता की रक्षा करके परमार्थ की स्थापना की।

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