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खिचरी उत्सव के पद

खिचरी उत्सव के पद

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खिचरी उत्सव के पद

खिचरी उत्सव के पद

खिचरी उत्सव के पद

श्रीराधावल्लभ की समाज की श्रृंखला (उत्सव पूस शुक्ला दौज से प्रारम्भ )

पद-

प्रथम श्रीसेवक पद सिर नाऊँ।

करहु कृपा श्रीदामोदर भोपै, श्रीहरिवंश चरण रति पाऊँ।।

गुण गंभीर व्यास नंदनजू के, तुव परसाद सुयश रस गाऊँ।

नागरीदास के तुम हो सहायक रसिक अनन्य नृपति मन भाऊँ।॥१॥

पद-

जयति जगदीस जस जगमगत जगत गुरु, जगत वदित मु हरिवंश बानी।

मधुर कोमल सुपद प्रीति आनंद रस, प्रेम विस्तरत हरिवंश बानी।।

रसिक रस मत्त श्रुति सुनत पीवंत रस, रसन गावन्त हरिवंश बानी।

कहत हरिवंश-हरिवंश-हरिवंश हित, जयत हरिवंश-हरिवंश बानी॥२॥

जयति वृषभानुजा कुंवरि राधे।

सच्चिदानन्द घन रसिक सिरमौर वर, सकल वांछित सदा रहत साधे।

निगम आगम मुमति रहे बहु भाषि जहँ, कहि नहीं सकत गुण गण अगाधे।

जै श्री हित रूपलाल पर करहु करुणा प्रिये, देहु वृन्दाविपिन नित अवाचे ॥३॥

श्रीव्यासनन्द दीनवन्धु सुनि पुकार मेरी।

मूड़ मन्द मति लवार भ्रमी जन्म बार-बार, कष्टात्तुर होय नाथ शरण गही तेरी।।

भजन भाव बनत नाहिं मनुज देह वृथा जाय, करी कृपा बेगि प्रभू बहुत भई देरी।

त्रिगुण जनित श्रृष्टि माँझ दरसत नहिं दिवा साँझ, हृदय तिमिर छाय रह्यी झुकि सघन अंधेरी॥

कृपा दृष्टि वृष्टि करी राजत फुलवारी हरी, आतुर पर अवी बूंद शुष्क होत जे री।

ललित हित किशोरी नाम राखत प्रभु तुम सों काम, याम जात युगन तुल्य करौ नाथ चेरी ॥४॥

पद-

जय-जय-जय राधिके पद सन्तत आराधिके, साधिके शुक सनक शेष नारदाहि सेवी।

वृन्दावन विपुल धाम रानी नव नृपति श्याम, अखिल लोकपालदादि ललितादिक नेवी ॥

लीला करि विविध भाय बरषत रस अमित चाय, कमल प्राय गुण पराग लालन अलि खेवी।

युग वर पद कंज आस वांछत हित कृष्णदास, कुल उदार स्वामिनि मम सुन्दर गुरु-देवी ॥५॥

बद-

राधिका सम नागरी प्रवीन को नवीन सखी, रूप गुण सुहाग भाग आगरी न नारि।

बरुन ओक नाग भूमि देवलोक की कुमारि, प्यारी जू के रोम ऊपर डारौं सब बारि॥

आमद बंद नन्द नंदन जाके रस रंग रच्यौ, अंग भरि सुधंग नब्यौ मानत हाँस हारि।

जाके बल गर्व भरे रसिक व्यास-से न डरे, कर्म-धर्म-लोक-वेद छोड़ि मुक्ति चारि॥६॥

पद-

प्यारी जू के चरणारविंद शीतल सुखदाई।

कोटि चन्द मंद करत नख-बिधु जुन्हाई॥

ताप-शाप-रोग-दोष दारुण दुख हारी।

लाल इष्ट दुष्ट दवन कुंज भवन चारी।।

श्याम हृदय भूषण जित दूषन हित संगी।

वृन्दावन धूर धूसर रास रसिक रंगी।

शरणागत अभय विरद पतित पावन वानौ। ध्यास से अति अधम आतुर को-को न समानौ।।७।।

पद-

व्यास नंदन व्यास नंदन व्यास नंदन गाईयै।

जिनकी हित नाम लेत दम्पति रति पाइग्यै ।

रास मध्य ललितादिक प्रार्थना जु कीनी।

कर तें सुकुँवारि प्यारी वंशी तब दीनी।।

सोई कलि प्रगट रूप वंशी वपु धारयौ।

कुंज भवन रास रवन त्रिभुवन विस्तारयौ।

गोकुल रावल सु ठाम निकट बाद राजै।

विदित प्रेम रासि जनम रसिकन हित काजै।

तिनकों पिय नाम सहित मंत्र दियौ (श्री) राधे।

सत चित आनन्द रूप निगम अगम साधे ।

(श्री) वृन्दावन धाम तरणिजा सुतीर बासी।

श्रीराधापति रति अनन्य करत नित खवासी ।।

अद्भुत हरि युक्त वंश भनत नाम श्यामा। जै श्रीरूपलाल हित चित दै पायौ विश्रामा ॥८॥

राग रामकली-

प्रथमहिं भावुक भाव विचारै।

तन-मन नव किशोर महचरि वपु हित गुरु कृपा निहारै ॥

भूषन वसन प्रसाद स्वामिनी पुलकि-पुलकि अंग धारै।

जै श्रीरूपलाल हित ललित त्रिभंगी रंगी रस विस्तारै ॥९॥

पद-

सखी लखि कुज धाम अभिराम मनिन् प्रकास हुलास युगल वर, राजत श्यामा श्याम।

 हास विलास विनोद मोद मद, होत न पूरण काम।

जै श्रीरूपलाल हित अलि दंपति रस सेवत आठौं याम॥१०॥

सवैया-

लाड़िली लालहि भावत है सखि, आनन्द मय हिम को ऋतु आई।

ऐसे रहे लपटाय दोऊ जन चाहत अंग में अंग समाई॥

हार उतार घरे सब भूषन स्वादी महा रस की निधि पाई।

महा सुख् की ध्रुव सार विहार है, श्रीहरिवंश जू केलि लड़ाई॥११॥

पद-

प्रात समैं नव कुंज द्वार है ललिताजू ललित बजाई बीना।

पौड़े सुनत श्याम श्रीस्यामा, दम्पति चतुर प्रवीन प्रवीना।

अति अनुराग सुहाग परस्पर कोक कला गुण निगुण नवीना।

ओबिहारिनदास बलि बलि बंदसि यह मुदित प्राण न्यौछावर कीना ॥१२॥

पद-

जगाय री भई वेर बड़ी।

अलबेली खेली पिय के संग. अलक लड़े के लाड़ लड़ी।

तरनि किरन रन्ध्रन हूँ आई लगी निवाई जानि सुकर वर तब ही ही हवै रही अड़ी।

श्रीबिहारीदासि छवि को कवि वरनें जो छवि मो मन माँझ गड़ी॥१३॥

पद-

जागौ मोहन प्यारी श्रीराधा।

डाड़ी सखी दरस के कारण, दीजै कुंवरि जु होड़ न बाधा।।

हसत-हसत दोऊ उठे हैं युगल वर मरगजे बागे फबि रहे दुहुँ तन।

बारत तन मन लेत बलैया देखि देखि फूलत मन ही मना।

रंग भरे आनंद जन्हावत अंस-अंस धरि बाहु रहे गसि।

जय श्रीकमलनैन हित या छवि ऊपर वारों कोटिक भानु मधुर शशि ॥१४॥

राग बिभास-

अबहि निसि बीती नाहिंन वाम।

तुव मुख इन्दु किरण छवि व्यापी, कहत प्रिया सों श्याम ।।

अंग-अंग अरसान वाम छवि मानि लेह अभिराम।

रहसि माधुरी रूप हित चित में होत न पूरन काम ॥१५॥

पद-

आजु देखि ब्रज सुन्दरी मोहन बनी केलि।

अंस-अंस कहु दै किशोर जोर रूप रासि, मनौ तमाल अरुझि रही सरस कनक बेलि।।

नव निकुंज भंवर गुंज मंजू घोष प्रेम पुंज गान करत मोर पिकन अपने सुर सों मेलि।

मदन मुदित अंग-अंग बीच-बीच सुरत रंग, पल-पल हरिवंश पिवत नैन चथक झेलि॥१६॥

पद-

आजु सखी, अद्भुत भाँति निहारि।

प्रेम सुदुद को ग्रन्थि जु परि गई, गौर स्याम भुज चारि॥

अवहीं प्रातः पलक लागी है मुख पर श्रमकन वारि।

नागरीदास निकट रस पीवहु, अपने वचन विचारि ॥१७॥

पद-

अबही नेंकु सोए हैं अलसाय।

काम केलि अनुराग रंग भरे जागे रैन विहाय।।

बार-बार सपनेहुँ सूचत सुरत रंग के भाय।

यह सुख निरखि सखी जन प्रमुदित नागरीदास बलि जाय ॥१८॥

पद-

सिटपिटात किरनन के लागे।

उठि न सकत लोचन चक्र-चौंधत, ऐंच-ऍच ओढ़त वसन दोऊ जागे।।

हिय सों हिय मुख सों मुख मिलवत, रस लम्पट सुरत रस पागे।

नागरीदासि निरखि नैंनन सुख मति कोऊ बोलौ जाऔ जिन आगे॥११॥

पद-

भोरि भये सहचरि सब आई।

यह सुख देखत करत बधाई।।

कोऊ बीना सारंगी बजावैं।

कोऊ इक राग विभासहि गावें।

एक चरण हित सों सहरावें।

एक वचन परिहास सुनार्वे।।

उठि बैठे दोऊ लाल रंगीले।

विधुरी अलक सबै अंग ढीले ।।

घूमत अरुण नैन अनियारे।

भूषण वसन न जात संभारे।

कहूँ अंजन कहुँ पीक रही फबि।

कैसे कही जात है सो छवि।।

हार बार मिलि के उरझाने।

निशि के चिन्ह निरखि मुसिकाने॥

निरखि-निरखि निसि के चिन्हन रोमांचित हैं जाहि।

मानौं अंकुर मैंन के फिर उपजे तन माहिं ॥२०॥

राग धनाश्री-

राधा प्यारी तेरे नैंन सलोल।

तें निज भजन कनक तन योवन, लियौ मनोहर मोल।।

अधर निरंग अलक लट छूटी, गॅजत पीक कपोल।

तू रस मगन भई नहिं जानत, ऊपर पीत निचोल।

कुच जुग पर नख रेख प्रगट मानौं, शंकर शिर शशि टोल।

जय श्रीहित हरिवंश कहत कछु भामिनि अति आलस सों बोल॥२१॥

मंगल समय खिचरी जेंवत हैं श्रीराधावल्लभ कुंज महल में।

रति रसमसे गसे गुण तन मन नाहिन सँभारत प्रेम गहत में।।

चुटकी देत सखी सँभरावत हँसत हँसावत चहल पहल में।

जै श्रीकुंजलाल हित यह विधि सेवत समैं-समैं सब रहत टहल में ॥२२॥

पद-

खिचरी जेंवत हैं पिय प्यारी।

सीत समैं रुचि जानि सुगंधन मेलि सखीनु सँवारी।।

पीले प्रियहि जिवाँधत जैवत रसिक नरेस महा री।

जै श्रीकुंजलाल पिय की बातन की घातन जानन हारी॥२३॥

पद-

खिचरी राधावल्लभ जू कौ प्यारी।

किसमिस दाख चिरौंजी पिस्ता अद्रक सों रुचिकारी।

दही कचरीया वर संधानें वरा पापर बहु तरकारी।

जायफल जावित्री मिरचा वृत्त सों सींच संवारी ॥२४॥

पद-

वर्षोंत्सव तृत्तीय खण्ड

खिचरी जेंवत जुगल किशोर।

निसि जागे अनुरागे दम्पति, उठे उनीदे भोर।।

अंग-अंग की छवि अवलोकत ग्रास लेत मुख सुखहि निहोर।।

जै श्रीरूपलाल हित ललित त्रिभंगी विवि मुख चन्द्र चकोर ॥२५॥

पद-

अधिक हेत सों पावैं प्यारी।

थार सैंजोय धरें का आवत, सीत समैं रुचिकारी।

बहु मेवा तिलवरी अचारी, बासौंधी लीये सब ठाड़ी।

यह सेवा हित नित्त कृपा प्रिय सो राधा लाल सँवारी॥२६॥

पद-

रूप रसासव माते दोऊ श्रीराधावल्लभ जेंवत खिचरों।

अरस परस मुसिकात जात बतरात बात बोलत बिच-बिचरी॥

खाटे सरस सँधाने नव-नव पापर कचरी लेत रुचि रुचि री।

नेह निहोर जिवाँवत हित सखी कोमल मधुर ग्रास घृत निचुरी।

फरगुल सुरंग रजाईओढ़े कनक अँगीठी अगरसत सचरी ॥२७॥

पद-

चलौ-चलौ-चलौ सखी देखें दोऊ जैवें।

भरे थार खिची घृत निचुरी के आगें, हँसि-हँसि सुकुमार प्यारे कैसे दोऊ जैवें॥

प्रिया के मुख पीय देत पिय के मुख प्यारी। बीच-बोध अघर पान प्रानन सो हेरें ॥२८॥

पद-

प्यारे दोऊ जेंवत हैं सुकुँवार।

सरस सुगंध उठत उद्गारे, भरि खिचरी के थार।।

पापर कचरी तलप कटाक्षन भृकुटि पुरन की अचार।

जुरे परस्पर नैन दुहुन के, प्रेम रूप की अहार।।

पहिलें प्रियहिं जिवाँवत जैवत रहत हैं बदन निहार।

ऐसी विधि सों जेंवत प्यारे हित सुख की न्यौनार ।॥ २९॥

राग झंझोटी-

भोर मिलि जैवें दोऊ बनी-बनरा खिचरी।

झमकि सेज तें उठे उनीदे ब्रजजीवन घृत सों निचुरी।।

मंगल रूप समैं मंगल में रुचि सों खिचरी पावैं।

ओड़ें फरगुल रंग सहानी छवि लखि-लखि बलि जावें।।

बाहु-बाहु घर कंट लगावें आनंद जीव जिवावें।

झुकि झुकि परत नैन अलसोहें हित सजनी सम्हरावें।॥

माखन मिश्री मगद मलाई पाक मुरव्वा पावै।

ताजी फेनी अरु बासौंदी ब्रजजीवन मन भावें।।

अदरक कृचा बन्यौ चटपटौ कर पल्लव दोऊ चाटें।

वे उनके वे उनके मुख सों हँसि-हँसि हित सों लावैं।

नथ उठाय बेला पय पीवें कौतुक रंग मचावें।

ब्रजजीवन हित कहें लगि बरनी कुंज महल के ठाटें।॥ ३०॥

पद-

खिचरी युगल रुचि सों खात।

पौष शुक्ला दोज तें लै मास एक प्रभात।।

दही कचरी वर संधाने बरा पापर घीय।

डिंग अंगीठी घरी मीठी लगत प्यारी पीय।

जल पिवाय पुवाइ हाथ अगौंछ वीरी देत।

सखी जन बाँटत तहाँ हित ब्रजलाल जूठन लेत॥३१॥

पद-

अचवन बीरी दै मंगल आरती सजि बाढ़‌यौ सखिन मन मोद।

जै श्रीकुंजलाल हित असीसत ऐसें ही करी विनोद ।।

जै श्रीकिशोरीलाल हित रूप अलि बाँटत देत लेत सब सखी सहचरी।

कृष्णदास आस पास निरखत हित की विलास, दौरि-दौरि आवें सखी जूठन कौं लैवे। चली-चली-चली सख्खी देखें दोऊ जै चुके जें चुके मैं चुके॥३२॥

(मंगला आरती)

निरखि आरती मंगल भोर।

मंगल स्यामा स्याम किसोर।।

मंगल श्रीवृन्दावन धाम।

मंगल कुंज महल अभिराम ।।

मंगल घंटा नाद सु होत।

मंगल थार मणिनु की जोति।।

मंगल दुंदुभी घुनि छवि छाई।

मंगल सहचरी दरसन आईं।

मंगल बीण मृदंग बजावै।

मंगल ताल झाँझ डार लावें।

मंगल सखी यूथ कर जोरें।

मंगल बँवर लिये चहुँ ओरैं।

मंगल पुष्पावलि बरसाई।

मंगल जोति सकल वन छाई।

जै श्रीहित रूपलाल हित हृदय प्रकाश।

मंगल अद्भुत युगल विलास ॥३३॥

पद-यहि विधि मंगल आरति करी।

निज मंदिर आगें चिक परी।।

ललितादिक भीतर अनुसरी।

जै श्री कमल नैन हित सेवा भई।।

श्री राधे किशोरी राधे लड़ैती राधे। श्यामा प्वारी जय राधे।॥३४॥

॥ श्री खिचरी उत्सव श्रृंखला के पद संपूर्ण ॥