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श्रीहित राधावल्लभ लाल जी मंदिर, वृंदावन

राधावल्लभ संप्रदाय

Radhavallabh Sect

नित्य श्रीजी के दर्शन प्राप्त क़रे
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श्रीहित राधावल्लभ लाल जी मंदिर​

वंशी प्रेमावतार प्रेमवरूप रसिकाचार्य अनन्त श्री हित हरिवंश चंद्र महाप्रभु जु महाराज के लाल निभृत निकुंज विलासी ठा. श्रीहित राधावल्लभ लाल जू को चिरथावल गाँव से श्री वृंदावन धाम लेकर आए । श्री हित हरिवंश महाप्रभु ने पाँच सो वर्ष पूर्व कार्तिक मास शुक्लपक्ष त्रयोदशी वि.स.1590 को श्री राधावल्लभ लाल जू को वृंदावन में विराजमान किये । उस समय, वृंदावन एक घना जंगल था , कोई संत, कोई भक्त नहीं थे, वृंदावन मुगल साम्राज्य के अधीन था। उस समय, हित हरिवंश महाप्रभु वृंदावन आए और मदन टेर (ऊँची ठौर) में श्री राधावल्लभ जी को विराजमान किये , जहाँ आज श्री राधावल्लभलाल जू मंदिर विराजमान है। उन्होंने केवल लताओं और वृक्षों का मंदिर निर्माण किये और श्री राधावल्लभ जी वहीं लड़ लड़ाये। श्री हित हरिवंश के काल में, कोई भी ठोस मंदिर कभी नहीं बना, उन्होंने इसे बनाने की अनुमति नहीं दी। कई लोग एक ठोस भव्य मंदिर बनाने के प्रस्ताव के साथ आए, लेकिन श्रीहित हरिवंश महाप्रभु जी ने इसका विरोध किया और सारा प्रस्ताव इनकार कर दिए थे इससे लता पता वृक्ष जंतुओं की बहुत छती होती ।

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वि.स.1590 में श्री हरिवंश जी का वृन्दावन आगमन हुआ। उनके आगमन का माह एवं तिथि यद्यपि सुनिश्चित नहीं है। तथापि अन्य अनेक तथ्यों को सामने रखते हुए कार्तिक माह की शुक्ल त्रियोदशी ही अनुमानित होती है। इसलिए श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय में इस दिन श्री वृन्दावन प्राकट्य महोत्सव मनाने की प्राचीन परम्परा है। वृन्दावन में श्री हरिवंश जी ने यमुना तट के एक ऊँचे स्थल पर परिकर सहित निवास किया। इस स्थल को इतिहास ग्रंथो में ऊँची ठौर कहा गया है। यहाँ सुंदर लता मंदिर में चिड़थावल से प्राप्त श्री ठाकुर जी को विराजमान करके वाम पार्श्व में श्री राधाजी की गादी सेवा स्थापित कर श्री हरिवंश जी उनकी लाड़पूर्वक सेवा परिचर्या करने लगे। तब वृंदावन में नरवाहन डाकू का राज हुआ करता था वो गो॰ श्रीहित हरिवंश महाप्रभु जी के वाणी से प्रिया प्रीतम के प्रेमरस का स्वाद चखा और महाप्रभु जी के चरणो में अपने आप को समर्पित कर दिए , नरवाहन ने महाप्रभु जी को धनुष बन दिए और फेंकने की आग्रह की , आपका तीर जीतने भी दूर गिरेगा उतनी भूमि हम आपको प्रदान कर देंगे। श्री हरिवंश जी के द्वारा फेंकने पर वह तीर पर्याप्त दूरी पर गिरा। वह तीर घाट कहलाया जिसे वर्तमान में चीर घाट कहा जाता है। इस घटना के कुछ वक्त पश्‍चात् श्री हित प्रभु ने तीर घाट के निकट श्री रासमंडल और श्री सेवाकुंज की स्थापना की।

श्रीहित राधावल्लभ लाल मंदिर जिसमे आज श्रीहित राधावल्लभ लाल जू विराजमान है वो पुराने श्रीहित राधावल्लभलाल जी मंदिर का विस्तार है। पुराना श्रीहित राधावल्लभ लाल जी मंदिर आज श्रीहित हरिवंश महाप्रभु जी मंदिर के नाम से व्याखत है और यह राधावल्लभी सम्प्रदाय का मुख्य मंदिर है । यह मंदिर अब भारत पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित स्मारक है और इसकी स्थानिक स्थापत्य रुचि प्रारंभिक एक्लेक्टिक शैली का अंतिम उदाहरण है। इस मंदिर का निर्माण राधावल्लभ संप्रदाय के संस्थापक श्री हित हरिवंश महाप्रभु जी के पुत्र श्री वनचंद्रजी के कृपापात्र शिष्य श्री सुंदरदास भटनागर जी को सेवा प्रदान हुई । मंदिर का निर्माण कार्य सन् 1584 को सुरु हुई , यह मंदिर वृंदावन की पहली लाल पत्थर की मंदिर है और ये सात मंजिला मंदिर हुआ करता था अब दो मंजिला ही रह गया है, औरंगजेब के आक्रमण के दौरान मंदिर को अधिक छतिग्रस्त हुआ , उसके शासन काल के दौरान श्री राधावल्लभ लाल जू को कामवन, राजस्थान में विराजमान किए । वृंदावन में श्री राधावल्लभ लाल जी मंदिर , श्री राधा गोविंद जी मंदिर एवं श्री राधा मदन मोहन जी मंदिर के शिखर पर रात्रि को दिया जलती वो औरंगजेब को बहुत चुभी , उसने वृंदावन पर आक्रमण कर दिया। अकबर के दरबार के मुख्य मुखिया अब्दुल रहीम खानखाना, जिनके रोजगार में देवबंद के सुंदरदास भटनागर थे, केवल उनको मंदिर के निर्माण के लिए लाल बलुआ पत्थर का उपयोग करने की शाही अनुमति मिली, जिसका उपयोग तब तक केवल शाही इमारतों, शाही महलों और निर्माण के लिए किया जाता था। किले एवं इस मंदिर के लिए अकबर से आर्थिक अनुदान भी मिला। देवबंद में सुंदरदास भटनागर के वंशजों के पास आज भी ये दस्तावेज़ हैं। श्री सुंदरदास भटनागर जी से पहले इस मंदिर का निर्माण कराने का निर्णय राजा मानसिंह ने लिया था। लेकिन यह किंवदंती सुनकर कि जो कोई भी इस मंदिर का निर्माण करेगा उसकी एक वर्ष के भीतर मृत्यु हो जाएगी, वह पीछे हट गया। मंदिर निर्माण पूरा होने के वर्ष गाँठ के दिन श्रीहित वनचंद जी की कृपा से श्री सुंदरदास जी को निकुंज रास की प्राप्ति हुई और वे श्री प्रिया लाल जू के अनन्त निकुंज लीला में अंतर्धान हो गए । इस समये पुराने मंदिर में श्री हित हरिवंश जी के चित्रपट की सेवा है।

साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व श्री सुंदरदास भटनागर जी द्वारा निर्मित श्रीहित राधावल्लभ लाल जू के मूल मंदिर जो की 7 मंजिला हुया करता था, मुगल बादशाह औरंगजेब के शासनकाल में क्षतिग्रस्त कर दिया गया और अब 2 मंजिला ही रह गया और वहाँ आज श्री हित हरिवंश महाप्रभु जी की मंदिर है। तब श्री राधावल्लभ जी के श्रीविग्रह को सुरक्षा के लिए राजस्थान के भरतपुर जिले के कमां (कामवन) ले जाकर वहां के मंदिर में विराजमान किया गया और पूरे 123 वर्ष वहां रहने के बाद श्री हित राधावल्लभ लाल जू के श्रीविग्रह को आचार्य श्री हित कमल नयन गोस्वामी जी महाराज द्वारा दुबारा वृंदावन लाया गया एवं नई मंदिर में विराजमान किए , जहाँ की आज श्रीहित राधावल्लभ लाल जू विराजमान है ।

इधर वृंदावन के क्षतिग्रस्त मंदिर के स्थान पर अन्य नए मंदिर का निर्माण किया गया। निर्माण कार्य सं. 1881 को शुरुआत हुई और सन् 1824 में पूरा हुआ। मुगल बादशाह अकबर ने वृंदावन के सात प्राचीन मंदिरों को उनके महत्व के अनुरूप 180 बीघा जमीन आवंटित की थी जिसमें से 120 बीघा अकेले श्री हित राधावल्लभ लाल जी मंदिर को मिली थी। यह मंदिर श्री राधावल्लभ संप्रदायी वैष्णवों का मुख्य श्रद्धा केन्द्र है। यहां एकमात्र पूरे विश्व में अष्टयाम सेवा को पधाती है , यहाँ सेवा , भोग , राग , श्रृंगार श्री हित हरिवंश महाप्रभु जी के वंशज द्वारा ही किया जाता है । यहाँ महाप्रभु के वंशज आचार्यकुल के सभी गोस्वामीगण को “ जै जै “ पद से संबोधित किया जाता है । यहाँ की मर्यादा , हितरस एवं सेवा आचार्यों के कृपा द्वारा ही प्राप्त होती है ।

गोस्वामी श्री हित निमिष जी महाराज

श्री हित राधावल्लभ लाल जी मंदिर सम्पूर्ण दर्शन

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गोस्वामी श्री हित निमिष जी महाराज

श्री हित राधावल्लभ लाल जू

वंशी प्रेमावतार प्रेमवरूप रसिकाचार्य अनन्त श्री हित हरिवंश चंद्र महाप्रभु जी बचपन से ही प्रिय लाल के लीलाओ का ही खेल खेलते , कभी प्रिया प्रीतम को भोग पावा के , तो कभी श्रृंगार करके , तो कभी राग सुना के । मित्रगण एक दिन लीलाओ का खेल खेलने से मना कर दिए और गेंद खेलने का बल दिया जिसमे महाप्रभु जी की तनिक भी रुचि नहीं थी , बच्चो के केह ही दिया की इतना ही ठाकुर जी ठाकुर जी खेलना है तो अपना ठाकुर जी क्यों नहीं ले अते फिर हम सब छोड़ ठाकुर जी ही खेलेंगे , बस इतना सुन महाप्रभु जी बगीचे के कूप पे कूद गए जिससे देख सारे कूप के समीप इकट्ठा हो गए वहाँ व्यास जी और तारा रानी जी परेशान होकर शरीर त्यागने तक का सोच लिए , तभी छोटे से श्रीहित हरिवंश महाप्रभु जी कुए से श्रीजी की मूर्ति अपने हृदय से लाकर तेज प्रकाश से साथ बाहर आए , उन्होंने ये श्रीजी की कृपा आशीर्वाद द्वारा ही किए । महाप्रभुजी के ताऊ बाबा श्री नर्शिमश्रम जी ने ठाकुर जी की इस अतरंगी लीला के करण ठाकुर जी का नाम श्री राधा नवरंगीलाल नाम दिए ।

३२ वर्ष की आयु तक महाप्रभु जी देवबंद में ही श्री राधा नवरंगीलाल जी ही उपासना सेवा किए , एक रात श्रीजी की कृपा हुई उन्होंने महाप्रभु जी को वृंदावन धाम आने की आज्ञा दे दी , ये सुन श्रीहित सजनी जू को प्रिया प्रीतम के निकुंज लिलाओ का रस चखा और उसी दिन वृंदावन को आगमन के लिए त्यार हो गए , उन्होंने रुक्मणी जी को भी वृंदावन जाने का प्रस्ताव रखा लेकिन बच्चो की शादिया अभी हुई ही थी , संसार और बच्चो के पालन के कारण वो साथ आ न पाए , महाप्रभुजी ने सबको बता दिया था की वो वृंदावन से अब वापस देवबंद नहीं आएँगे।

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महाप्रभु जी के अनुयायी गंगु, गोविंदा, मेघा एवं रंगा जी साथ ही वृंदावन की ओर चले , रात्रि में सयन के पश्चात महाप्रभु जी को स्वप्न में श्रीजी की दर्शन हुई , श्रीजी ने आज्ञा दिया कि “ रास्ते में चिड़थावल गाँव आएगा जहाँ मेरा विग्रह प्रेम भक्ति सम्पन्न आत्मदेव नामक ब्राह्मण के घर विराजमान है , उनकी दो बेटियों के साथ पाणिग्रहण कर , दहेज में मेरे विग्रह को वृन्दावन लाकर लता पता के कुंज में स्थापित करना है“, श्रीहित सजनी जू के लिए ये निर्णय बड़ा कठिन था लेकिन ईस्ट की आज्ञा मान उन्होंने वैसा ही किया , वहाँ श्रीजी ने भी आत्मदेव ब्राह्मण जी को वही स्वप्न में आदेश दिए की “ श्री हित हरिवंश जी को अपनी बेटियों से शादी कर , श्री राधावल्लभ लाल जी के विग्रह को उनको सौप दे।

श्रीहित हरिवंश महाप्रभु जी का चिड़थावल गाँव में आगमन, ऐसा लगा की पहले से ही सबको विवाह को जानकारी थी , सजावट पहले से हो रखी थी बस महाप्रभु के आगमन की आस थी। महाप्रभु जी ने आत्मदेव ब्राह्मण जी को देखे , “ आत्मदेव ब्राह्मण जी बहुत ही वृद्ध व्यक्ति थे , एवं निर्धनता के कारण अपने बेटियो का विवाह नहीं दे पा रहे थे , इस चिंतन में हमेशा बीमार हो रहते है सेवा भी नहीं कर पाते थे” । आत्मदेव ब्राह्मण जी ने अपनी असीम तपस्या से शंकर जी को रिझा लिए एवं उनको प्राकट्य होना पारा , शंकर जी ने आत्मदेव ब्राह्मण की भक्ति से प्रशन होकर उनसे वर मांगने की आज्ञा ही , वे शंकर जी के दर्शन से ही तृप्त थे , निर्धन होने के बंजूद भी उन्होंने शंकर जी से कोई भी वस्तु नहीं मांगा , उन्होंने शंकर जी से कहा “ प्रभु जो आपको सबको प्रिय है वो दे दीजिए” ये सुन शंकर जी इतने भोले है उन्होंने अपने सबसे प्रिय अपने ईस्ट श्री राधावल्लभ लाल जू का विग्रह आत्मदेव ब्राह्मण जी को दे दिए , शंकर जी श्री राधावल्लभ लाल जी को कल्प कोटि वर्षों तक अपने स्थान कैलाश पर्वत पे सेवा किए है , शंकर जी ने अपने हृदय से निकालकर आपने ईस्ट श्री राधावल्लभ लाल जू को आत्मदेव ब्राह्मण को सौप दिए और उन्हें सेवा विधि भी समझाए । शंकर जी ने निकुंज में ही हिट सजनी जू को श्री राधावल्लभ लाल जी की सेवा विधि समझा दिए थे और शंकर जी के कृपा से ही एवं श्रीजी के आज्ञा से धराधाम भूलोक में श्री हित हरिवंश महाप्रभु जी अपने प्राण श्री राधावल्लभ लाल जी की सेवा एवं श्री प्रिया लाल जू के हितमायी प्रेमरस बाटने के लिए अवतरित हुए ।

आत्मदेव ब्राह्मण श्रीहित जी को देखते ही आँखो से अश्रु आ गया गाँव वालो को बुला उन्होंने अपने दोनों बेटिया कृष्णदासी जी और मनोहरदासी जी का पाणिग्रहण श्रीहित हरिवंश महाप्रभु जी से करवा दिए । विदाई के पश्चात आत्मदेव ब्राह्मण श्रीहित जी के चरणों को पकड़ कर रोने लगे , वे कहने लगे जिनके लिए साक्षात श्रीजी स्वप्न में दर्शन देकर आदेश दिए , मेरे अहो भाग्य आप में ही श्रीजी के दर्शन हो रहे है , वे रोते रोते अपने बेटियों का हाथ एवं श्री राधावल्लभ लाल जी को श्रीहित हरिवंश महाप्रभु को सौंपते है , श्रीहित जी अपने हृदय से लाकर राधावल्लभ जी को निहारते है एवं अपने हित सजनी श्रीजी की प्रिय सखी भाव में आकर श्रीजी के चरणों को स्पर्श करते है । आत्मदेव ब्राह्मण रोते रोते महाप्रभु जी दर्शन मात्र से ही निकुंज लीलाओ का अनुभव करते हुए वही अपना देह त्याग देते है मानो उनकी प्राण अपनी बेटियो के विदाई के मोह में ही फसा था। महाप्रभुजी नव विवाहित बधुओं, अपने अनुयायी एवं श्री राधावल्लभ लाल जी के साथ चिड़थावल ग्राम से वृंदावन की ओर प्रस्थान किए। वृंदावन पहुँच कर श्रीजी की आज्ञा अनुसार श्री राधावल्लभ लाल जी के स्वरूप को सुंदर लता पता से प्रेममयी निकुंज का निर्माण किए एवं विधिवत् सेवा कर सभी रसिक भक्तों को सुख प्रदान किए ।

राधावल्लभी सांप्रदायिक आचार्य

Radhavallabh Sect. Acharya

गोस्वामी श्री हित प्रताप चंद्र जी महाराज

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गोस्वामी श्री हित निमिष जी महाराज

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गोस्वामी श्री हित रितेश जी महाराज

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