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मुरली नाद में रास के पद

मुरली नाद में रास के पद

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मुरली नाद में रास के पद

मुरली नाद में रास के पद

राग हमीर-ताल चर्चरी

मुरलिका पराक्रम अधिक तोमें भस्यौ।

जड़ जु चैतन्य चैतन्य जड़ तैं कियौ देखि विधि सृष्टि की रीति उलटि प्रत्यौ ।। १ ।।

तान के बान सौं रैन विस्मित भई, चंद ह प्रेम के फन्द मानौं पस्यौ ।

मेरु के ओट सुनि थक्यौ रवि रथ जनौ, को अपूरव महा यह जु चेटक टस्यौ ॥२॥

सिंधु हू पार है जाइ सखि यतन करि, नाद के सिन्धु कों जाइ कैसे तस्यौ।

प्रिया हू रीझि परशंश पुनि-पुनि करत, और सबकौ सुनत चित्त धीरज टस्यौ॥३॥

अहा कहा कहौं उदारता वाँसुरी, क्यों न इन गुनन सौं जाइ सखि मन हस्यौ ।

लागि अधरन महा भाइ चाइनु भरी, विश्व बाँटत भई अम बिनु मित झस्यौ ।॥४॥

कवहुँ कर लेत कवहुँ जु कटि उरसि कैं, कवहुँ मिलि स्याम सों मंत्र अस उच्चस्यौ।

धन्य तें धन्य बड़भागिनी तू भई, लाल विधु वदन आसन जु तो अनुसस्यौ ॥५॥

रास लीला रचन विपुल विद्या पढ़ी, जगत जीतन हियें सत्य तैं वर वश्यौ।

कहा महिमा कहौं वृन्दावन हित रूप, रसिक नागर वली रंग तेरे रख्यौ ॥ ६ ॥१ ॥

राग मालकोश-

लाल ने मुरलिका प्रिया के कर दई।

ललित अति रीति सौं अधिक उर प्रीति सौं मिली संगीत सौं गति बजाई नई ॥१॥

तान विस्तरत है अमी अति झरत है लाल मन हरत है महा रंग में रई अधर सोभित भली प्रेम करि अति वली रस अपूरव रली विश्व विजई भई॥२॥

देत अलि ताल कौं नचावत लाल कौं प्रसंसत वाल कौं विकट गति लै गई।

भये रोमांच तन प्रीति उझिली जु मन प्रेम सरसे मगन जील सुर जब लई॥३॥

अहा मघु बाजनी सुविध सुख साजनी वदन विधु राजनी कौंन विधि निर्मई।

उघरि बोली सुघर स्वामिनी परस कर, चर किये थिर जु गति थिरन छाती तई॥४॥

निकर विद्या जु पर नाद कौं आदि घर वशिका लोक में तै मचाई हई।

वृन्दावन हितअ रूप रसासव प्यावनी परम अभिरामिनी वेलि आनंद बई॥५॥२॥

राग मालकोश-

वंशिका उच्च आसन मिल्यौ कर कमल।

कौंन करनी अहा मोहि अचरज महा, लेत अधरन लहा सूर गरजत सुभल॥१॥

प्रेम के पथ चली हिय विलोकन बली, मोहि अचरज अली प्रगट भई कौंन थल।

मदन कंपित जु कर डारि दिये पंच हर, तान के बान बेध्यौ जु उर तें प्रवल ॥२॥

अधिक तन सोहनौं विम्व मन मोहनों, चित जु चिपटोंहनौं परत नहिं ताहि कल।

पढ़ी कछु मंत्र से वंसीकरन जंत्र से, निपुन विधि तंत्र से भरे तोमें चपल ॥३॥

बजत गौरंग मुख अतुल प्रापति जु सुख, स्याम राखे न रुख सिखै दियौ प्रेम दल।

अहा-अहा रट लगी नाद में मति पगी, चाह सुनिवे जंगी श्रवन चित कृति नवल ॥४॥

तरुनि चित करषनी रास रस बरषनी नेह उर परसनी छिद्र बहु पुनि अमल।

शेष के धाम सौं रमापति बाम लौं तैं कियौ अमल अनुराग वचौ महौं तल॥५॥

जासु चित गहत है तज्यौ नहिं चहत है, धुनि सुधा बहत है. तहि रुचे कुलाहल।

वृन्दावन हित रूप धन्य तें धन्य भई, कौन कियौ सुकृत अधरन लगी भरी छल॥६॥३॥

राग गौरी-ताल चर्चरी

मलिका विश्व जीतन जू तें हठ गह्यौ ।

कृष्ण मुख कमल लगि सवल गाजत भई, को सुकृत कियौ ताको सु यह फल लह्यौ।

मैं लखी है सखी नाम राधा जु रट, निरालस जाप मन वचन क्रमकरि चह्यौ।

क्यों न होइ लोक बिजई जु बड़ भागनी, सप्त श्रोतन अमी धार जाते वह्यौ ।।

प्रेम की सृष्टि कौ इहि जु उतपति करी, वह जु विधि देखि के परम अचरज रह्यौ।

नाद कौ स्वाद दै ससि जु राख्यौ थकित, न्याइ रजनी बढ़ी भेद ताकौ कह्यौ ।

रास रुचि दई श्री राधिका वल्लभहि, राज भयौ प्रेम कौ काम कौ मद ढह्यौ।

वृन्दावन हित रूप रास में बढि पस्यौ जुगल सादर पिवत परतु नहिं पल सह्यौ ॥४॥

राग हमीर-ताल चर्चरी

कहा प्रभुता कहौं मुरलिका अति बली।

बहत सलितान की वारि रोकी जु धुनि द्दये पाषान है धार जल की चली॥१॥

अमी को श्रोत कै गीत विद्या अखिल बेधि ब्रह्मांड गई शेषहू की थली।

विश्व थिरचरन कौ धर्म धीरज हृत्यौ घोष तरुनीन की बुद्धि बरबस छली ॥२॥

मुनिन के ध्यान में रौर पारी चपरि हिमाचल-सुता-पति भनक सुनि पति हली।

धन्य तरु जाति में जनम तेरौ भयौ धन्य वह नीर धनि अवनि जहाँ तू पली॥३॥

धन्य कानन जहाँ गहकि बाजत भई कौन रस सौं भरी मोहि अचरज अली।

नाम राधा रटन अमल तेरे पस्यौ रसिक नागर अधर लागि सोभित भली ॥४॥

सखिन की सिखामणि रास की स्वामिनी संग प्रीतम बनी मानि मन रंग रली।

परम कौतिक बढ्यौ राधिका लाल मिलि तत्त-थेई-थेई जु धूनि पूरि रही बन गली ॥५॥

आज संगीत के भेद उघटे अमित अहा गति अलग सौं उठत चरनन तली।

चलत ध्रुव भंग अति रंग दंपति छके जोरि दृग लाल दिसि कुँवरि गति लै ढली ॥६॥

वलय अरु किंकिनी नाद नूपुर रुचिर मैन सैना सहज सुनत ही दलमली।

सखी छवि-बार भुज अंस जोरी जु मधि कनक मनु लता सिंगार तरु लगि फली॥७॥

ललित गौरंग रस मोद मूरति बनी लसत भूषन वसन महा छवि झलमली।

वृन्दावन हित रूप सखी शोभा जु सर कृष्ण-अलि मोद खिली प्रिया वारिज कली ॥८॥५॥

राग हमीर-ताल चर्चरी

रसिक मुख लगि बजी मुरलिका रस भरी रास खेलन दियौ उमाहौ प्रिया मन नाम राधा रटत बीज आनंद झरी॥१॥

उदित भयो चंद्रमा किरन कोमल बढी बेलि तरु धरा वन अति अलंकृत करी।

मंद-सुगंध-सीतल जु मारुत बहै दिसा निर्मल भई महा छवि बिस्तरी ॥२॥

गुन-निकर लाल के हिये उझले सबै बाँस कुल जनम सो लै जु अधरन धरी।

राग मूरतिवंत सुनि जु घूमें सबै जड़न कौ धर्म टास्यौ जु पैड़े परी ॥३॥

सखिन मंडल मध्य कुँवरि रासेस्वरी तोलि तन निर्त्त कौं रसिक सनमुख डरी।

नाहु भुज बाहु दै अधिक हरषी हिये तत्त-थेई-ता-थेई वदन तें उच्चरी ॥४॥

स्याम संगीत की रीति कोविद महा दहन परी बहस गति लैन नौतन खरी।

अहा बरषत रूप रंग यह रास में दुहुँन गुन प्रगट करि दुहुँन की मति हरी ॥५॥

मान लै ताल दै अंक प्रीतम लगी लता सौभाग्य की महत महिमा फरी।

वृन्दावन हित रूप अवधि सुख की वरषि परम सोभित करी सरद की सरवरी ॥६॥६॥ ॥

पद-

अधर मुरली घरी आज राधा धानी।

खरे सुरतरु तरे तान रस विस्तरें परम कौतिक चपल करज नख दुति मनी।।

मधुर स्वर गान सुनि ध्यान बरवस हस्यौ रमापति कौ कियौ चित्त आकरषनी।

नाद रस स्वाद पूरित भयौ दसों दिस व्योम ब्रह्मादि पाताल मोह्यौ फनी।

विश्व थिरचर सबै थकित गति पवन जल उमापति विसरि गये देह गति आपनी।

बाँसुरी गरज वस किये सब आपने भेद भाइन भरी अमी रस बरसनी।।

तरुणि मणि श्रवण मुनि मोहनी मंत्र धुनि रवन सँग रमित भईं प्रिया मृग लोचनी।

मान मनमथ हरन विविध शोभा धरन चरन नख छवि छटा जात नाहिन भनी।

आइ एकत भईं जोरि भुज सहचरी रास मंडल रच्यौ मध्य जोरी बनी।

बजत बाजे अमित गान की गति ललित निर्त्त लावन्यता जात कापै गनी ।।

तत्त-थेई रसन रट लेत गति अति विकट फरहत ललित पट यूथ जुवती घनी।

हित रूप आगरी लाल सँग नागरी वृन्दावन हित निरख जोट अभिरामिनी॥७॥

पद-

आज नव कवरि पिय संग मंछल नचत।

पूरि रही दिस विदिस शरद की चाँदनी

जगमगत अवनि मणि फटिक विद्रम रचत।।

सहचरी वृन्द चहुँ ओर गाव गुनन भेद संगीत के भाइ नव-नव रचत।

सकल गुन धाम प्रिया प्रान वल्लभसहित रमत वृन्दाविपिन हृदै आनँद सचत।

लाल सब विधि ललित रंग बरषत अमित रह्यौ विथकित मदन निरख गति मति चलत।

वृन्दावन हित नई-नई गति प्रगट तहँ करत मन कहन कौं शारदा मति पचत ॥८॥

पद-

वदन विहँसत सखी जानि मोकों परी रास खेलन बढ़ी लाल मन चटपटी।

मुरलिका उमाहौ देत है सवन मन अघा चढ़ि नचत है सुधर मानौ नटी ॥

प्रेम की देत दुहाई जु त्रिभुवन मनों याही तें मान सौं रहत है खटपटी।

प्रान नेहीन के नाद बस करत है विसरि गई और कारजन आरंभटी॥

मिलनिया स्याम की और ऐसी जु को देखि री दुहुँन की जुक्ति नीकी पटी।

जगन बिजई भई लागि मुख गजत है स्वामि आज्ञा कुशल करत नाहिन हटी।

ऊजरी निशा अरु दिशा सब ऊजरी-ऊजरी जगमगत रग्य रविजा तटी।

ऊजरी खिल रही चंद की चाँदनी ऊजरी पुलिन मनौं कनी हीरन जटी॥

प्रिया अरु लाल भये मगन अति रास में रीझ रही रैन कौतिक जु नाहिन घटी।

अधर मधु सुधा वंशी जु बरषत भई धन्य बड़ भाग जिन श्रवन रंचक चटी ॥

धन्य तरु जाति मानन जु भये आपनी धन्य कुल वंस सुनि के बधाई बढी।

धन्य ते धन्य भई यह जु बड़ भागिनी रसिक गुनवंत सी मिली जाकी गटी॥

सिखावत राग अरु रागिनी भेद बह उच्च आसन बैठि लिये मन कर छटी।

विश्व की गुरु भई कान सबके लगी मोद ही पासि उपदेस याके कटी।

कहाँ यह पढी विद्या सखी मोहनी देव मुनि नरन को गति न याकी गटी।

वृन्दावन हित रूप लाल अहलादिनी महा रस मंत्र लगी नाम राधा रटी ॥९॥

राग परज-

रास रच्यौ हैरी हेली निर्मल सरद निसि।

प्रफुलित कानन री हेली विपुल प्रकास दिसि ॥ टेक ॥

दिसन विपुल प्रकाश सजनी उदित राका चन्द है।

पूरत किरन बन सुधा झरि-झरि भरत अति आनंद है।

द्रुम केलि नव पल्लव ललित लघु ओसकन मिलि सगवगे।

धीर बहत समीर प्रथम प्रकास ससिके जगमगे ॥१॥

पुलिन मनोहर री हेली दमकत रैन है।

तेहि छवि विथकित री हेली कोटि विथकित मैन नागर अधर कर मुरली धरी।

सप्त सुर आलापि मोहन विश्व ध्वनि पूरित करी।

गवनी तौ यूथ अनन्त लै सजनी मुकट मणि नागरी अखिल कला निवास जा पद रूप गुण की आगरी ॥२॥

देखत हरषे री हेली रसिकानन्द हिय।

सादर लीनी री हेली अपनी प्राण प्रिय।

प्रिय प्रान सादर संग सोहत लपट भौरभमालती।

विकसी कमोदिनी बारि यमुना थवित धुनि सुनि चालती ।।

आरंभ रजनी रास मंडल नगन खचित अनूप है।

सुर ताल तानन उभै कोविद बढ्यौ कौतुक रूप है ॥३॥

नितं परावधि री हेली मोहन मदन है।

थेई-थेई निसरत री हेली बानी बदन है ।।

बदन थेई-थेई बदत हस्तक भेद गति उपजत नई।

उरप तिरपन कॅवरि कोविद अमित सुख बरसत भई॥

रस रह्यौ मंडल रास उधरे गुन हिये अति लाग सों।

वृन्दावन हित रूप बलि रजनी भरी अनुराग सों।॥४॥१०॥

राग परज-

खेलन कौ रास उमाहौ, सरद सरवरी देखि कें।

लियौ चाहौं रस कौ लाहौ, सरद सरवरी देखि कें॥टेक ॥

सोरह कला जु चंद सौं मिलि बढि चली मयूख।

रजनीमुख तु उर्दै भयौ बन बरषन लग्यौ पियूख ॥१॥

मुख विधु आसन बैठिकैंमुरली नैं कियौ नाद।

अहा-अहा सबही करें जाकी कहि नहीं सकें सवाद ॥२॥

जय श्रीराधा नाम कौ मुरली कै यह टेक।

मन्त्र महा बल पाइ कैं यह संग बिजई भई एक ॥३॥

गौर स्याम रहि मध्य में मंडल सखिनु बनाइ।

सुघरा जंत्र बजावहीं सब गावैं स्वर जु मिलाई॥४॥

इत उत दोऊ ठाढ़े भये बेहद शोभा अंग।

सखिन मनोरथ भरन कौं रस घटा बरषि हैं संग।।॥५॥

करज ढुरैं ग्रीवा मुरैं लोचन अति ही लोल।

सुघर ललित गतिलै चलें दुहूँ मुख तत्त थेई-थेई बोल।॥६॥

मदन बिजय धुज चन्द्रिका प्यारी सिर रही राज।

मोर मुकट सिर लाल कैं लखि उपमा सब गई लाज।॥७॥

अखंड अद्भुत चंद मनौं अवनी करत बिहार।

तृन तोरैं लैहि वारने ललितादिक कौतिकहार ॥८॥

निर्त्तत-निर्त्तत आवहीं भुजा रीझि धरै अंस।

निर्मल मंडल सर मनौं तहाँ राजत है जुग हंस ॥९॥

सुलप भेद के निर्त्त की सजनी करत प्रशंस।

श्रीराधावल्लभ भाँवते दृग थाती श्रीहरिवंश १०॥

केलि-बेलि बावैं हियें रास विलास जु लाग।

वृन्दावन हित रूप यौं गायौ दंपति कौ अनुराग ॥११॥११॥

राग परज-

सुर तरु तीरें री हेली छवि बाढी घनी।

अगनित बनिता री हेली मधि जोरी बनी।।॥टेक॥

बनी जोरी मध्य रविजा कूल पुलिन सुदेस है।

उठत सौरभ दपट मारत मन्द कियौ प्रवेस है।

विकच सरवर कुमुदिनी बन फूल कै चहुँ दिसि लस्यौ।

भूरि भाग्य मनाइ मानौं रास खेलन हित हरयो।॥१॥

रजनी मुख भयौ री हेली राका पति उदित।

रसिक सिखामनि री हेली लखि शोभा मुदित।

मुदित मोहन मदन भामिनि लसत बाँए भाग है।

जगत बिजई मुरलिका बाजत भरी अनुराग है।।

बनी युवतिन मंडली गति निर्त्त कोविद ताल की।

रूप अरु गुण अवधि जोरी बीच राधा लाल की ॥२॥

तानन तोरत री हेली लोचन दुरन में।

शोभा उझली री हेली ग्रीवामुरन में।

मुरनग्रींवा चपल अँग-अँग लटविकै गति लैन में।

चकित मन्मथ थकित उड़पति वदत थेई-थेई बैन में।।

केलि तरु रोमाच्च है-है द्रवित मधुकर वृन्द हैं।

रास खेलत रसिक नागर मित न तेहि आनंद है॥३॥

सन्मुख आवत हैं री हेली दृग-दृग जोरि कै।

सुलप भेद लखि री हेली दें तृण तोरि कैं।।

तृण तोरि अलि हित रूप उमड़न परम कौतिक वन रच्यौ।

निसा निर्मल दिशा शोभित सखिन के उर मुख सच्यौ ।

वृन्दावन हित पवन अंचल करत श्रमित प्रिया लखी।

आजु बन रस रंग बरप्यौ चातकी भये पिउ सखी ॥४॥१२॥

राग बिहागरौ-

आजु सखि सुख की उलैंड परत है।

प्रीतम सन्मुख नवल दलहिया हलसी निर्त्त करत है।

परसत नाहिं मनौं पनि मण्डल ऐसें चरन धरत है।

पिय हिय पुनि-पुनि विविध भाँति करि अति आनंद भरत है।

करवर भेद लाल मन मोहत थेई-थेई मुख उचरत है।

थकित बिहंग सखी सब कौतिक जब नव गतिनु ढरत है।

ग्रीवा दुरन मुरन कटि खीनी बरबस प्रान हरत है।

परम कुशल संगीत रीति की अमित वलन उघरत है।॥

कवहूँ लटकि लगत नागर उर कवहूँ पुनि उसरत है।

वृन्दावन हित रूप बलि गई रंग अगाध झरत है॥१३॥

राग कान्हरौ-

देखि सखि नैनन मन भायौ।

कैसी निर्मल रात उज्यारी कैसौ कौतिक रास बनायौ ।।

कैसी लहर हंसजा छोड़त कैसी कुसुमित बन है आयौ।

कैसी पुलिन रैनुका दमकत कैसी त्रिविध समीर सुहायौ।

कैसी यह मनि मण्डल आभा रवि शशि कोटिक तेज छिपायौ।

कैसी राधा लाल बनी छवि मो रसना करि परत न गायौ ।।

कैसी हरि मुख बाजत मुरली अमित अमी मनु घोरि मिलायौ।

कैसी धुनि मग बाजत गहकी तरुनिनु के मन प्रेम जगायौ।

कैसी बिकट रीति सों दोऊन त्रिभुवन मोहन राग जमायौ।

कैसी गति संगीतन उघटत मदन मान हनि सुख बरषायौ ।।

कैसी मधुर किंकिनी बोलत भूषन रव मिलि चित्त चुरायी।

वृन्दावन हित रूप बलि गई मिथुन आज बन रंग बढ़ायौ ॥१४॥

राग बिहागरौ -

राका निसि री सजनी पिय सँग राधा रास बनी है।

तैसौई फूलि बन्यौ अति कानन छवि नहिं परत गनी है।

फिरत चक्र गति मनि मंडल पर तन दुति बढ़ी घनी है।

राधा हरि अंगन तें सोभा मनहुँ परत उफनी है।।

दुरन मुरन ग्रीवा कटि कर वर लोचन चपल अनी है।

मनमथ कौ मन मथत आज कछु गति नव रंग ठनी है।

गति अखंड मंडल रजनीपति किरन बितान तनी है।

ता तर लेत भाँवरी मानौ सजन बने सजनी है।

पद नूपुर मानों पद्यासन कमलज रिचा भनी है।

मंगल गावत बलय किंकिनी बेदी रास अवनी है।

भँवरी जित तित फिरत बधाये सौरभ सनी है।

वृन्दावन हित रूप छके बहु पाई दात घनी है॥१५॥

राग हमीर-ताल चर्चरी

उदित उडुराज हरि देखि कौतिक करत।

चित्त आकरषनी अमी रस बरसनी रास रमिवे रसिक हरखि अधरन धरत ।।

सप्त सुर श्रोत है नाद रस उमँगिकैं विश्व थिरचर सबै सरसरित उर भरत।

सुखित सब किये पै तरुनि मनि राधिका यूथ युवतिन लियें लाल दिस अनुसरत ॥

किये पल पाँवड़े रसिक नागर कुँवर प्रणत सादर प्रिया रास रस विस्तरत।

चक्र गति फिरत चहुँ ओर सब सहचरी बीच नव रंग जोरी सुघर लै दुरत।

तत्त थेई-थेई वदत श्याम श्यामा सुघर उभय बिधू वदन तें बीज आनंद झरत।

चाहि सन्मुख चलत पवन अंचल हलत वृन्दावन हित मिथन मार मनमथ हरत ॥१६॥

आये री दोऊ रास रसमसे हँसत लसत रंग बरषत।

मृद मृदु वचन अमी मन झरही बन शोभा लखि हरषत ।।

मंदिर विशद कोटि रति मनसिज सेवत है जहँ रुचि लै परखत।

वृन्दावन हित रूप जाऊँ बलि इहि गृह निवसित प्रीतम चित आकर्षत ॥१७॥

राग बिहागरौ -

रास बन रच्यौ बिहारिनि रानी।

शरद चंद-सौ वदन विराजत छवि नहिं जात बखानी ।।

डहडहे अमल कमल कर शोभित दुरन मुरन अति नीकी।

थेई-थेई वचन रचन मृदु मुख तें थकित करत मति पी की।

बलि-बलि जाऊँ आजु इहि बानिक प्यारी जू रंग भरी है।

वृन्दावन हित रूप स्वामिनी निर्त कलान ढरी है॥१८॥

राग बिहागरौ-

आजु रस रास रच्यौ पिय प्यारी।

फूलि रह्यौ वृन्दावन चहुँ दिस सरद निसा उजियारी ॥

कुँवरि प्रवीन सकल गुन आगरि तैसेई लाल बिहारी।

हिय हुलास हरषत सुख बरषत आनँद मगन महा री ॥

प्रीतम के कर तें लै श्यामा मुरली अधरन धारी।

नई इक भाँति बजाइ रिझाये होत लाल बलिहारी।

ललना-लाल नेह नव रंगी निर्त्त कला बिस्तारी।

वृन्दावन हित रूप नागरी-नागर सब सुख कारी ॥१९॥

राग बिहागरौ-

रट री मुरली मेरी राधे-राधे।

थेई मेरे साधन आराधन रस सींवा गुण रूप अगाधे॥

जा कारन में मुद् मुख धारी मो बिसरै जिन तू पल आधे ।

वृन्दावन हित मंत्र मोहनी जपौ निरन्तर पूजै साधे॥२०॥

राग बिहागरौ-

जोवन मद उलही गोभ मनमथ मन करत छोभ उर पर बजंती माल अधिक ओप दीयौ।

नवल रंग दरसत मुख रोम-रोम उझलत सुख बलकत हैं लोचन मधु पान मनहु कीयौ ।

ठाढ़े हैं त्रिभंगी रीति मुरली अधर मोहन गीत प्रवल प्रेम जड़न हू कौ द्रवित भयौ हीयौ ।।

बलि-बलि वृन्दावन हित रूप धरैं अद्भुत वेष रास रवन काज कछू चेटक जनु कीयौ ॥ २१ ॥

राग बिहागरौ-

पगन धरनि परत परन अभिनय अति ललित करन कंकन मनि बलय झमक उपजत गति निरत री।

कौविद गौरंग बाल ग्रीव दुरत ठुमक चाल बैनी वर रुरत पीठ मल्ली कुसुम किरत री।

ठाड़े लाल देत ताल उघटत हैं गति विशाल थेई-थेई बदत प्रिया अमी वदन झिरत री।

बलि-बलि वृन्दावन हित रूप ललित लटकन पै कौतिक पिय थकित ज्यौं अलात चक्र फिरत री ॥२२॥

राग बिहागरौ-

उरझत हैं सुरझत हैं निरखि मदन मुरझत हैं आजु रास वन प्रकास उत शशि इत जोरी।

कौन नैन चलत पैन भुकटि भंग नचत मैन चलत सैन प्रीतम दिस निर्त्तत पुनि गोरी ।।

आये ढरकि निकट सरकि देत ताल लै उगार चॅवत कर कोविद के रीझि कैं किशोरी।

बलि-बलि वृन्दावन हित रूप नवल बढ्यौ नेह बारने सहेली लेत रैन रंग बोरी॥२३॥

राग बिहागरौ-

चोजन उपजावत हैं मंद-मंद गावत हैं रंग कौ बढ़ावत हैं आजु बन्यौ रास री।

ललिता लई अंक बीन मुरली लई पिय प्रवीन, नागरि लई गति नवीन करत गुन प्रकास री।।

निर्त्त चौंप मन जु माहिं जानौ भुव परसी नाहिं, करन पटकि लाड़ लटकि अधर रमी हास री।

बलि-बलि वृन्दावन हित रूप सुगति हुलसि-हुलसि लेत हैं लड़ैती कहें प्रीतम स्यावास री ॥२४॥

राग गौरी-छन्द

साँझ समै बनि आवैं लाल।

मुकट लटक छवि पावैं लाल।।

मुकट लटक छवि पावैं आवैं रतन पेंच लसै जोती।

मनहुँ स्याम गिरि झूलत भृगु सुत यौं नासा हलै मोती।

अलक झलक घुँघरारी सजनी साँवरे मुख पर राजें।

मनु फूले अम्बुज रस लोभी मधुपन अवलि विराजैं।

कुंडल रुचिर कपोलन झाईं दामिनि निकर लज्यावैं।

किधौं युगल रवि यमुना जल क्रीड़त साँझ समै बनि आवैं ॥१॥

भाल तिलक मन बाँधें लाल।

भौंह धनुष सर साधे लाल ॥

भौह धनुष सर साधें चंचल चपल नैन की कोरें।

धुकि धरु परत मैन की सैना बरवस चित्त कौं चारैं ।।

मुसिकन अमी श्रवत मनु मुख बिधु खग मग यह छवि लोभा।

दसन दमक सुख बीज बये मनु रूप प्रकासी गोभा ।

चिव्क चारु पर अमित लुनाई धरे पीत पट काँधे ।

केसर खौर कुमकुमा बैंदी भाल तिलक मन बाँधे॥२॥

ग्रीव ललित गति ढोरै लाल।

जोवन मद तन मोरें लाल॥

जोवन मद तन मोरै ढोरै अंगद भुजन गसे हैं।

चूरा कनक जराइ नगन के पहुँचन माहिं लसे हैं।

करवर अमल कमल दल अंगरी छाप छबीली भाँती।

मोतिन माल श्याम सरि बैठी राजहंस मनु पाँती ।।

उर वर बन्यौ विशाल नाभि मर शोभा लहरिनु बोरें।

मनि चौकी कंठी दृग फंदा ग्रींव ललित गति ढारें ॥३॥

केहरि लंक बिशेखी लाल।

जघन सघन छवि लेखी लाल।।

जघन सघन छवि लेखी उपजत मृदु त्वत्क्तककिनी माहीं।

गोल गुलुफ नूपुर पद चूरा चाहि चलत परछाहीं॥

मद गज गति की मल्हकन नख सिख बरषत छवि बु अपारा।

मुरली मधुर बजावत गावत गौरी बारम्वारा।

बिनुमित शोभा कुँवरि राधिका छके दृगन छवि देखी।

वृन्दावन हित रूप जाऊँ बलि केहरि लंक विशेखी ॥४॥२५॥

राग बिहागरौ-

रास करि बैठे दोऊ दिये गरबहियाँ।

यह छवि गढ़ि रही मो मन महियाँ ।।

दुहुँन की दोऊ करें बदन प्रसंसा।

उज्वल सर राजें मानौं उज्वल विवि हंसा दुहुँन के श्रम स्वेद पौंछत हैं दोऊ।

एक प्रान देही द्वै हैं बरनैं कहा कोऊ ॥

दुहुँन के बारने दोऊ लेत माई।

ऐसी प्रीति देखें मेरी बुद्धि हू बिकाई।

दुहुँन के रूप अड़े दुहुँन के नैना।

दुहुँन के उरझे हैं बैंनन सौं बैना ।।

दुहुँन के चाहन कौं चाहत सहेली।

दुहुँन के सुकृत की मानौं प्रेम बेली।

दहन पै लैलै कर अंचलन ढोरें।

दहन को रूप लखि रीझि तून तोरें।

कोऊ पद चाँपत हैं कोऊ जल प्यावैं।

कोऊ रचि बीरी कर प्रीति सौं खबावैं।

अलिन् के वृन्द चहुँ ओर राजैं ऐसैं।

नव घन पूजन आवैं दामिनी मन जैसैं।

किधाँ शोभा पुंज ताकौ शोभा कोट कीयौ।

किधौं शोभा सिन्धन मर्यादा विधि दीयौ ।।

शोभित कल्पतरु मूल पिय प्यारी।

अंब कनी झरें तातें बढ्‌यौ सुख भारी ।।

रजनी हू फूलि बनी फूले तरु सोहैं।

फूले गौर-श्याम मुख फूली सखि जोहैं।।

फूल्यौ है गगन इंदु मगन महाई।

फूली है कानन धर अति छवि पाई॥

ताहू में पुलिन ऐसी भाँति उजराई।

छवि के बिछौना हंससुता करें आई।

राधा लाल हुलसे मन शोभा देखन ऐसी।

वृन्दावन हित रूप बरनी है जैसी ॥२६॥

राग हमीर-ताल चर्चरी

रास आनंदिनी राधिका मुकट मनि।

रसिक पिय सुकृत को पुंज एकत मनौं चरन मंडल धरत गनत तब भाग्य धरि।

अहा सर्वेस्वरी गुन निकर संचनी बनी कंचन लगी हुलसि गति लै चलन।

रंग उर भरन में ठुमकि पग धरन में अमित सोभा बढ़ी चंद्रिका की हलन ।।

तान अरु मान कोविद सबहि साधही दृगन उत्साह बर्द्धन जु आवै न भनि।

रूप लावन्य अंबुद मनौं ऊनयौ महा सुख बरषनी सुधन प्रीतम जु गनि॥

विपिन की स्वामिनी रास अभिरामिनी मुदित लखि जामिनी निर्त्तत मंडल सुवनि।

सहचरिनु चैंन दै चौंध दूग मैन दै चौंध दृग मैन दै मूल आनंद कौ महा मंगल रचन ॥

बदन श्रम जल झलक कुसुम बरषत अलक पलक पिय भूलि कैं रहे सोभा जु सनि।

वृन्दावन हित रूप लाल उर आदरी लाड़ अतिसै भरी जयति कौतिक करनि ॥२७॥

राग मालकोश-

थेई-थेई कहि मृदु मुख जु हँसत है।

सहित दामिनी रूप बदरिया अमी अलौकिक मनौं बरसत है।

फूली फली लता छवि मानौं नवत प्रेम मारुत परसत है।

वृन्दावन हित रूप बिहारिन कला अनेक आजु सरसत है ॥२८॥

राग मालकोश-

लाल निर्त्तत जु दँइ ताल तरुनीन मनि।

अलक की रुरन अरु ललित ग्रींवा मुरन उच्च गावत सुरन मान जुत पग धरनि।।

लोल लोचन बनै करत कौतिक घने मैन वेधत मने निपुन सब अंग गनि।

गंड कुंडल हलं भेद करवर चलैं कहत नागरि भलैं रहत अनुराग सनि।

रास पावस भयौ छवि जलद ऊनयों, चैन नैनन दयौ परैं रसना न भनि।

निर्त्त की लटक अस करत है प्रान बस तत्त-थेई बदन रस लेत है सुगति बनि ।।

नखन की कांति ससि पाँति मानौं उदित, फटिक मणि महा मंडल लसत यौं अवनि ।

वाँसुरी अधर धरि गान ऐसौ कियौ वृन्दावन हित रूप कहत सब धन्य धनि ॥२९॥

राग मालकोश-

रास कोविद-प्रिया तत्त-थेई कहत है।

रूप की वेलि मनों केलि करें पवन बस, लाल देइ ताल हँसि बदन तन चहत है।।

रीति संगीत जे चरन लागीं सु ते, अपूरव गति फुरन तिन्है दृग गहत है।

सजैं बाजे अली बजावत गति भली, मान परैं चरन नागरि जु धरि रहत है।

सुविध आलापि सुर देत सँग सहचरी, लाल चित विर्ति लाहौ अमित लहत है।

साधि सब अंग नव रंग गति लै चलत, उमगि आनंद सलिता मनौं बहत है।

गगन के चंद की जोति लखि मगन भई, लाल की दृष्टि अंतर न पल सहत है।

वृन्दावन हित रूप रास रस सचत है, मान कौ बीज मुसिकान ही दहत है॥३०॥

राग मालकोश-

उमगि आनंद की रासि लागी झरी।

उत सजे लाल इत नवल नागरि सजी, अपूरव लेत गति ताल दै चर्चरी ॥१॥

करत परसंश ललिता दुहुँन मान दै देखियै सुघरता अधिक काकी खरी।

लाल विहँसे ललित ग्रीव कौं ढोरि कें, मोरि दृग कोर पद ठुमकि गति विस्तारी ॥२॥

जलद धुरवा उठ्यौ नवल प्रेस्यौ पवन, दृगन कौ लाभ आगन महा छवि भरी।

किधौं सिंगार तरु रूप के बाग में, लसत कमनी बार कनक बेलिन करी ॥३॥

बदन की हँसन में रदन ते दुति कढी, तत्त-थेई-थंई मोहन जु धुनि उच्चरी।

सखी पहुँपाँजुलो वारि चटकैं करन, 'भलें जु भलें' कहि प्रिया अति आदरी ॥४॥

हुलसि गति लेत दामिनि निकर मनु लसी, भेद हस्तक करत चंद्रिका फरहरी।

भाइ जुत नवनि मनु अवनि परसत नहीं, गति जु संगीत ते चरन आगैं धरी ५॥ 

चंद की जोति में लीन-सी होत है, महा सुकुँवार विद्यान आलय अरी।

कला कोटिक रचत स्वास साधैं नचत देखि री चातुरी उघरि हिय ते परी॥६॥

भये दृग चंचला हलतु है अंचला, जुवति चूड़ामणि रास सुख अनुसरी।

वृन्दावन हित रूप कंत गुनवंत अति 'धन्य गौरांग' कहें रीझ नागर हरी ॥७॥३२॥

राग बिहागरौ-

मंडल निर्त्तत लाल बोलें थेई-थेई।

सोभा को निकर स्यामा नई गति लेई ॥

अंगन कौं साधि प्यारी कर जू उचाये।

ग्रीवा कौं दुराइ भेद हस्तक दिखाये ॥

उघटै संगीत स्याम सनमुख आवै।

रूप की सी वेली मानौं पवन डुलावै ॥

नूपुर की धूनि लाल मुरली में साधैं।

रिझवैं गौरंगी प्रेमदेव की भराधैं।

सामुहे चलें हैं दोऊ दृष्टि-दृष्टि जोरें।

उमगे छवि सिंधु मानौं लेत हैं हिलोरें ॥

भाँवरी-सी करें दोऊ मंडल के माहीं।

लैहिं गति ऐजी जे संगीत कही नाहीं।

विद्या ह अखिल भईं प्रगट जहाँ ते।

इनके गुन दैवै लाऊँ उपमा कहाँ है।

दोऊ रिझवार दोऊ समझें अनघातैं।

कहा री कहाँ हौं छाकेनु की बातें।।

रास में अपूरव-सी रस वृष्टि होई।

सखिनु की गति मति प्रेम नै भिजोई।

पुनि-पुनि बारने लै रहि गईं ऐसें।

लिखीं प्रेम-चित्रकार पूतरी हैं जैसें ॥

चंद गति थाकी भूल्यौ पवन गवन।

ऐसौ रास रच्यौ आजु राधिका रवन।।

झलके श्रम स्वेद बिंदु दोऊन वदन।

छवि कों विलोकि सैना मुरझी मदन ।।

तरु बेली दृवें मकरंदन की धारा ॥

मुनि वृत्ति लै-लै बैठे खग परिवारा।

राका की सरवरी में राधा लाल खेल।

मानौं पढ़ि मोहिनी-सी सब पै बगेलें ।।

कौतिक हित रूप यह नैन निरखि जाने।

वृन्दावन हित कहा रसना बखानै ।।३३।।

राग अडानौ चौतालौ -

प्यारी तेरी निर्त्त गति देखें लाल चकचौंध रहे, दामिनी देखि व्योम सटकी।

सुर की भरन सुरनारि सिर ढोरत,नागिन पताल गई ऐसी रुरन मुख लटकी।

जब छकि मंद-मंद चरन धरत है ताहि देखि कँवर धूरि सिर पटकी।

वृन्दावन हित रूप कर आनन मुरन ललित भाइ काम के करेजा खटकी ॥३४॥

राग बिहागरौ-ताल आड़

निर्त्त की लटक भई खटक मनमथ हियें।

तत्त-थेई-थेद्र कहत दोऊ सनमुख भये, चरन लाघव धरत अवनि मनु नहिं छियें।।

सान के बान से कोर दृग चलत हैं परस्पर चितै मुख जनौं मादिक पियें।

करन की दुरन अरु ग्रींव की मुरन में, रीझि रहे हँसि मिले भुजा अंसन दियें।॥

पीतपट छोर श्रम कन बदन पौंछहीं, करत मनुहार पिय पिया कौ मन लिये।

वृन्दावन हित रूप रास खुलि खेलहीं, उघरि परे गुन अमित क्यों बनैं मित कियें ॥३५॥

रास रंग उपजावन ललना।

बनी लोक सौभग मणि नखसिख सकल गुमान मदन कौ मलना।।

निर्त्त कलान कुशल गौरंगी, नई गति लै जु ठुमकि पद चलना।

भूषन रव दुंदभी बजत मनों अंचल घौर बिजै धुज हलना ।।

अति लाघवता सखी प्रसंशत, मुरि चलैं मनहुँ परस भुवतल ना।

वृन्दावन हित रूप उलैडन बरषत तऊ चात्रिक पिय कलना॥३६॥

राग गौरी-ताल चर्चरी

मंडल मणिनु प्रकाश अति, रमैं भामिनि-कंता।

राका उदित मयंक री, दोऊ अति गुनवंता।

प्रेम भाँवरे-से भरें, रमै भामिनिकंता।

लै गति लागत अंक री, दोऊ अति गुनवंता॥१॥

कानन अति प्रफुलित भयौ, रमै भामिनि कंता।

देखि होत हैं मगन री, दोऊ अति गुनवंता ।।

मारुत त्रिविध जहाँ बहै, रमै भामिनिकंता निर्मल सोभित गगन री, दोऊ अति गुनवंता ॥२॥

नहरिनु बाढ़त रवि सुता, रमैं भामिनि-कंता।

तीर पुलिन अभिराम, दोऊ अति गुनवंता।

सरसिन खिली कुमोदनी, रमैं भामिनि-कंता ।।

सौरभ पूरित धाम री, दोऊ अति गुनवंता ॥३॥

बाजे सब मधु रव बजैं. रमैं भामिनि-कंता गावत सुघर महेलि री, दोऊ अति गुनवंता ।।

पट आभूषन तन लसैं, रमैं भामिनि-कंता।

मनों फूली छवि बेलि री, दोऊ अति गुनवंता ॥४॥

ताल दैहि सुर साधहीं, रमैं भामिनि-कंता।

कोऊ जील कोऊ घोर री, दोऊ अति गुनवंता ।।

कोविद गति संगीत में, रमैं भामिनि-कंता ।।

राधाजू नवल किशोर री, दोऊ अति गुनवंता।॥५॥

अंग साधि ठाढ़े भये, रमैं भामिनि-कंता।।

झमकि सुगति लै जात री, दोऊ अति गुनवंता ।।

हलत प्रिया मुख घूँघटी, रमैं भामिनि-कंता ।।

मनु नव चलदल पात री, दोऊ अति गुनवंता ॥६॥

मणि ताटंक बिलोल हीं, रमैं भामिनि-कंता।।

आनन्द विपुल प्रकास री, दोऊ अति गुनवंता ।।

अद्भुत समय विलोकि यह, रमैं भामिनि-कंता।

मनु जुग रवि-ससि पास री, दोऊ अति गुनवंता ।॥७॥

नासा सुठि बेसर जु नथ, रमैं भामिनि-कंता ॥

ओप दई इहिं भाँति री, दोऊ अति गुनवंता।।

मानौं अंक मयंक के, रमैं भामिनि-कंता ।।

भृगसुत फेंली कांति री, दोऊ अति गुनवंता ॥८ ॥

नूपुर किंकिनी मिलि बजें, रमैं भामिनि-कंता ।।

बलयन की झनकार री, दोऊ अति गुनवंता ॥

मैन मुनी बोलत मनौ, रमैं भामिनि-कंता।

सोभा लता मँझार री, दोऊ अति गुनवंता ॥९॥

रस चौमासे रास के, रमैं भामिनि-कंता ।।

मिलि बरषत हित रूप री, दोऊ अति गुनवंता॥

वृन्दावन हित बारने, रमैं भामिनि-कंता ।।

निर्त्तत गति जु अनूप री, दोऊ अति गुनवंता ।।१०।।३७।।

राग सोरठ-ताल आड़

मणि मण्डल खेलत रास, हो लाल कोविद निर्त्त कलान में।

संग छबीली नागरी गुन अगनित करत प्रकास, हो लाल कोविद निर्त्त-कलान में।॥ टेक १॥

सरद समय सोभित अवनि हो कानन कुसुम विकास।

राका पति ओप्यो गगन मोहन दियो है हुलास हो।।॥ लाल० ॥२॥

ताल तान बाजे सजें सखी जूथ रसिकनी पास।

थेई-थेई कहि राखत जू पद गति उपजत हैं अनियास हो । लाल० ॥३॥

मारुत चाव बढावही बहै सीतल मन्द सुवास ।

त्यौं सुख सरसत भामिनी अस गावत अमी मिठास। लाल० ॥४॥

ग्रींव दुरन अभिनय करन हो बदन छबीली हास।

गौर-स्याम हित रूप पै बलि-बलि वृन्दावन दास हो, कोविद निर्त्त कलान में॥५॥३८॥

पद-

रास में नागरी रंग बरषावैं॥

जो गति लेत लाल मुरली सो नूपुर कुँवरि बजावै॥

अहा-अहा प्रीतम मुख वानी फेरि लेहु यह भावै।

विद्या अखिल स्वामिनी राधा गति नौतन उपजावै॥

बहुरि अलाप सप्त सुर लकैं प्रिया ललक सौं गावै।

वृन्दावन हित रूप रीझि कैं नागर ग्रीव हुलावै॥३९॥

प्रिया निधने की सी थाती ताकौं छिन-छिन लाल सम्हारत रहत।

दृग चकोर गौरंग वदन विधु देखत सादर पलव परन नहीं सहत।।

रसना हूँ अनन्य ब्रत लीयौ मुरली में राधा-राधा कहत।

वृन्दावन हित रूप करन यह सदा उमाही टहल रावरी चहत ॥४०॥

राग हमीर-ताल चर्चरी

रास मण्डल खरे गुनन उथस्त्री चहैं।

समिहि अवलोकि अवलोकि कानन जु तन प्रेम आराधि के प्रालिका कर गहुँ ॥१॥

बजी अहलाद दैनी ज थिरचरन की, प्रिया तें अधिक सनमान नागर लहैं।

मोहनी मंत्र धुनि विश्व पूरित भई अमी कौं बरषि उर ताप तरुनिन् दहैं।॥२॥

प्रिया अरु लाल सनमुख सुगति नै चलें रहत अवलोकि पिय हानि पलक न महैं।

सुलप संगीत के भेद नई गतिन् लै आजु आनन्द के विपिन बारिधि बहैं।

सखी अति सुघर बाजे बजावत विविध ताल सुर ग्राम बिहीं जु साधे रहैं।

वृन्दावन हित रूप बढ़त बिनुमित तबहि गौर अरु स्याम जब वदन थेई-थेई कहैं। ॥४१॥

राग हमीर-ताल चर्चरी

रास में प्रिया दिये गुन जु दरसाइ कैं।

भाग्य कौ उदौ कै उदौ सोभा निकर स्याम सनमुख जु ठाड़ी भई आइ कैं ।

दृगन की दुरन औ मुरन ग्रींवा ललित अधर मुसिकान भृकुटी पुरन भाइ कैं।

पटकि करताल कियौ साल उर मदन कैं लटकि पग धरत है मान सिर जाइ कैं।

तास सारी दमक मणिनु भूषन चमक वदन लखि उदौ ससि रह्यौ सकुचाइ कैं।

मनहुँ घन छेकि कैं अगमनी बढ़ि चली कौंध गई दामिनी अधिक बल पाइ कैं।

सुगति लीनी नई दृगन चौंधी दई सहज कियौ खेल अति लड़ी लड़काइ कैं।

लाल उघटत जु संगीत अपु वदन ते तबहि अधिकौ दियौ सुख जु बरषाइ कैं ।।

गुनन के ग्राम अभिराम कानन प्रगट निरखि सादर सखी हगन अघवाइ कै।

अवनि को हियौ कोमल जु मण्डल मनौं मानि बड़ भाग सो दियौ बिछवाड कैं ।।

गौर अरु स्याम दोऊ चक्र गति फिरत हैं कोट सोभा रच्यो कहा कहाँ गाइ कैं।

वृन्दावन हित रूप कवह इत उत ज् रहि तत्त-थेई कहत पनि लेत उर लाइ कैं ॥४२॥

राग बिहागरौ-ताल आड़

देखै निर्त्त रंगीले लाल कौ रासेस्वरि रिझवन देत।

मनहुँ नवल सिंगार तरु बस पवन जु झोका लेत ।।

प्रान प्रिया सनमुख चलत हो नैनन नैन मिलाइ।

रूप बेलि इततें मनौं गतिलै-लै झुकि-झुकि जाइ॥

कर उचाइ अभिनय करत हो मनहुँ बढ़ि चली गोभ।

चरुन-अरुन अति लहलही किहि रसना बरनौं सोभ ।।

ठुमकि धरत मण्डल चरन हो थेई-थेई वदन प्रकास।

मदन विजय कौ मन्त्र मनु यह फुरित भयौ अनिवास ।।

कंकन वलया किंकिनी हो नूपुर नाद मिलाय।

पति कौ रति ढूँढ़त फिरत सुनि गिस्यौ तामरौ खाय ॥

राख्यौ रंग जु शरद निसि हो गौर-स्याम रचि रास।

यह कौतिक हित रूप लखि बलि वृन्दावन दास ॥४३॥

राग परज-ताल चौतालौ

रास रंगीलौ री हेली कियौ रासेस्वरी।

गति जू अपूरव री हेली हिय जाके फुरी ॥

फुरी गति संगीत बहु बिध वदन थेई-थेई वदत हैं।

पिय मुख जु बाजत मुरलिका इत चरन नूपुर नदत हैं।

बाजेनु धुनि किंकिनी कंकन कुनित रोचक पुनि चुरी।

ढुरत ग्रीवा-ग्रींवा ललित गति झुकि चलन में कृश कटि मुरी॥

करतल पटकन री हेली कोविद लाल की।

कहन अहा-अहा री हेली सुमति विशाल की।

विशाल सुमति जु लाल ललना मगन त्यौं-त्यौं अति भई ॥

लाड़ लटकन पदहि पटकन सरवरी कौं छवि दई ।।

ललिता मृदंग सु परन लै-लै मन बढ़ावत भाँवती।

कठतार चंपक लता कर चित्रा जु बीन बजावती॥२॥

प्रियहि रिझावन री हेली पिय गति लै बले।

मुकट दुरन में री हेली लागत अति भले ॥

लगत अति ही भले सुलप सुदेश पद लाघव धरैं।

गौरंग-साँवल मणिनु मण्डल प्रेम सौं भाँवर भरें।॥

उघटत विशाखा विकट गति आनंद की वरषा तहाँ।

रसिक कानन रास खेलत छवि बढ़ी अतिसय जहाँ।।

धन्य सरद रितु री हेली रुख लीयें रहै।

त्रिविध पवन जहाँ री हेली सुख दाइक बहै।

बहै सुख दाइक जु मारुत गगन मगन जु ससि भयौ।

रैन कौतिक देखि विथकित नाहिं आगैं पग दयौ ।

वृन्दावन हित रूप कानन सकल सुख गरुवौ महा।

गोलोक पुरकमला प्रसंसत अधिक अरु बरनौं कहा ।।४।।

राग धनाश्री-ताल आड़

लखि दोऊन के वदन सखी सुख में झिलीं।

उदित उभै मनु चन्द्र कमोदिनि गन खिलीं।।

कानन रानी सुजस प्रीति सौं गावहीं।

प्रीतम नित्य बिहारी दिन दुलरावहीं।

हौं बलि-बलि गौरंग बिहारिनि नागरी।

मोहन उर अहिलादिनि सब गुन आगरी।।

सखिन मण्डली गहनौं सब मन हरषनी।

छिन-छिन पोषत प्रेम अमी मुख बरषनी ॥

लाल रहत रुख लीयें सील सुभाइ सौं।

नित-नित मंगल विपिन रचत चित चाइ सौं।॥

जहाँ-तहाँ कुंवरि चरन के चिन्ह विशेखिये।

तहाँ-तहाँ अवनी आनन्द अंकूर देखिये।

रसिक मुकट मणि स्याम रुचत जम मिष्ट है।

तिन पै आठौं जाम रहत सुख वृष्टि है।

ये दुलह ये दलहिनि धाम सिरोमनी।

जोरी बनी अनादि सखिन की जीवनी ॥

यौं ही देखत रहीं दहन कौ रुख लियें।

वृन्दावन हित रूप लाड़ सरसौ हियें । ॥४५॥

राग धनाश्री-ताल आड़

लाल सरद निसा सँग नागरी मिलि विहरत भरि आनन्द हो।

सखि, कानन अति कुसुमित भयौ पुनि उदित भयौ नभचन्द हो॥१॥

सखि, तैसीये त्रिविध पवन बहै अरु बोलत चहुँदिश मोर हो।

मणि मण्डल रास रमत भये राधा-हरि रसिक किशोर हो॥२॥

सखि, अरुन किरन मिलि पल्लवन अरु प्रतिविंवित अवनीय हो।

सखि, मनु धरु तें अवही अमित प्रगटेंगे ससि कमनीय हो।मणि०॥३॥

लाल, तरनि सुता मृदु रेनुका मनु मण्डित चूर कपूर हौ।

सखि, महकन कमल पराग की अति रही सकल बन पूर हो।।मणि०॥४॥

लाल, बन बानिक अवलोकि कै रविजा तट सुरतरु तीर हो।

सखि, कोटि मनोभव मन हरत तहाँ ठाढ़े भये बलवीर हो॥५॥

 लाल, कर कमलन धरि बाँसुरी अधरामृत ताकाँ प्याइ हो।

लाल, सो रस धुनि मग लै चली दियौ तरुनिनु स्वाद जनाइ हो।॥६॥

लाल, मण्डली रास बनाइ कें स्यामा भुज अंसन धारि हो।

लाल, मानौं मिथुन मराल मधि सखि चहुँ दिस वारिज वार हो।॥७॥

प्यारी ग्रीव दुरन करवर मुरन अरु वदत थेई-थेई बैन हो।

लाल, सनमुख निर्त्तत आवहीं छवि अमित लहत जग नैन हो ८॥

प्यारी चरन धरन मण्डल लसें नख पंकति झाँई देत हो।

सखि, मनहुँ चन्द अवनी विछत पद चंवत उर धरि लेत हो ।॥९॥

प्यारी मृदु तरवन की अरुनिमा अति फैलि रही छवि कांति हो।

सखि, बहु अनुराग चूँवत मनौं भुव पान करत न अघात हो।॥१०॥

लाल इत उत निर्त्तत आवही कर ढोरत भाव समेत हो।

सखि, मनु सोभा सागर लहर आतुर भई संगम हेत हो११॥

लाल, मृदु जल कन बदनन फवे कुच्चित कच रुरत सुढार हो।

सखि, मनु वारिज मकरंद हित श्रम करत हैं भृंग कुँवार हो।।१२।।

प्यारी प्राननाथ मिलि गावहीं रस तानन लै विकसात हो।

सखि, श्रवत सुधा जुग विधु मनौं आजु मंगल भीनी रात हो॥१३॥

लाल, भूषन रव रवनीय अति उपजत नव-नव गति माँझ हो।

मनु तरु तमाल हाटक लता बोलें ललित मुनैयाँ साँझ हो ॥१४॥

प्यारी मुक्ता माल हियें रुरत जब उरप तिरप लै जात हो।

सखि, अद्भुत धरु गिरि तरहटी खेलत मनु उडगन पाँत हो॥१५॥

प्यारी मर्कत मणि कौ हार उर लर टूटी लटकत ग्रींव हो।

सखि, मनु उमग्यौ सिंगार रस किधौं सोभा छाँड़ी सींव हो।॥१६॥

लाल, उज्वल पट हँसि हाथ लै पौछें भामिनि मुख श्रम-विंदु हो।

सखि, मनहुँ चाँदनी बीच दै मिल्यौ कमल रोस तजि इन्दु हो।॥१७॥

प्यारी ठठुकि रहत भुज अंस दै फेरें करन कनक जल जात हो।

सखि, मनौं चक्र दामिनि बनी लपटन घन साँवल गात हो ॥१८॥

लाल, पीत बसन अंचल लियें करें पवन गवन प्रिय ओर हो।

सखि, मनु अहि ग्रसित कछुक बचे सो हलतं तड़ित के छोर हो॥१९॥

प्यारी अंग-अंग रूप उगि चल्यो की आप मुसिकान हो।

लाल, दूग दीरथ करि अंजली छवि प्रक सुधा रस पान हो॥२०॥

लाल, बरित हि रूप विनो नित विलसी रास-विलास हो।

वृन्दावन हित कोनिक मिथन उर नित प्रति करहु निवास हो॥२१॥४६॥

राग हमीर-ताल चर्चरी

निर्त्तत राधा कुँवरि भेद भाइनु भरी।

सुघर संगीत गति लेत ग्रीवा दुरै तत्त थेई वदन तें उघटि पिय दिस करी।

लाल सोभा सिंधु मगन अति ही भये देखि दूग नचन रस रचन गतिमति हरी।

कोर करजन मुरन अमित गुन हिय फुरन उर्ध नागर निपुन कला बहु विस्तारी ॥

परस्पर बद्ध भुज चाँ दिस सहचरी गान सुरताल पुनि जंत्र विद्या खरी।

अहा कहा रास रितु समय पावस भयौ मनहुँ आनन्द रस रंग लागी झरी॥

वदन श्रमकन झलक अलक असैं फवी मनहुँ समि गहन कौं राहु फाँसी करी।

किधौं अंबुज कोश निकर अलि कलमलत पिवत मकरंद तऊ उमगि बाहिर परी।।

रसन अरु बसन की कसन कछु सिथिल-सी जानि पिय आपु कर रचन की मन धरी।

ठठुकि रही नागरी रूप हित आगरी वृन्दावन हित विपुल आस हरि की फरी॥४७॥

राग सोरठा

अरी हेली सुनि धुनि बाजत वाँसुरी अरु श्रवन सुधा रस सार। नव तरुनिनु पर मोहनी पढ़ि डारी रसिक कुमार।।

हेली सुनि०॥ टेक ॥ उठि यह गैल कुँवरि गही हेली तनक न लाई वार।

अचरज और कहा कहीँ हेली मनु उमगी छवि धार।।

सरद निसा सोभित दिसा हेली खिली चाँदनी चन्द।

सौरभ सीतल रुचि लियें हेली बहत जु मारुत मंद।

कसमित वृन्दावन ललित हेली सुभग कलप तरु तीर।

कोटि मनोभव मद मथत हेली धरै पट पीत सरीर ॥

रग्य पुलिन अति जगमगै हेली ससि जु अलंकृत कीय।

रास रवन हित रविसुता हेली मनहुँ बिछायौ हीय॥

मणि मण्डल किरनन भस्यौ हेली तापर राधा लाल।

लेत प्रेम सौं भाँवरी हेली उघटि विकट कर ताल।।

छुटि-छुटि कैं गति लेत हैं हेली नव बाला कर फेरि।

दमकि-दमकि दामिनिनु मनु हेली नव घन लीनों घेरि ।।

उत मोहन इत मोहनी हेली चाहि चलत दृग जोर।

रस चौमासौ है रह्यौ हेली बरषत रंग न थोर ।।

सुलप भेद उपजत नये हेली थेई-थेई उचरत वैन।

सकल कला निधि नागरी हेली तकत मदन गढ लैन।।

ललित रास रच्यौ भूमका हेली होड़ परी दुहुँ माहिं।

कहा कहौं हुलसन प्रेम की हेली निर्त्त कोऊ घट नाहि ॥

राधा-राधा आलापि कें हेली अस कछु कीयौ गान।

वृन्दावन हित रूप पिय हेली सुनि घट घूमत प्रान।।४८।।

राग कान्हरौ-

निर्त्तत लाल निपुन सब अंगन।

लेत सुगति नागर गुन आगरि सुख वारिध बाढत मिलि संगन॥

पिय कर तें मुरली लैं प्यारी मधुर बजाई हिये उमंगन।

बरषत अमी धार अति पोषत द्रुम-केली-गिरि-धरा-विहंगन ॥

मन की वृत्ति भई श्रवनन पथ मोहन हूँ मोहे नव रंगन।

वृन्दावन हित रूप जाऊँ बलि तजे पंच सर निकर अनंगन ॥४९॥

राग कान्हरौ-

नाचत स्थामा संग स्याम घन।

घेई घेई कहि चहि चलत सुघर गति लहलहात दामिनि चंचल तन।।

दृष्टि जुरन पुनि मुरन भाइ सौं सोभित हैं मुख पर कछु श्रमकन।

वृन्दावन हित रूप जाऊँ बलि चितवन तनक लाल विथकित मन।॥५०॥

राग हमीर-

मंडल रमत हैं हो प्रीतम-नागरी।

रास रंग बाढ्‌यौ हो सोभा आगरी ॥

आगरी सोभा रंग बाढ्यौ नई गति लै चलन में।

मरम बेधत मैन कौ दृग बंक कोर जु हलन में।।

ताल तान जु साधि के ललिता बजाई गति नई।

विशाखा संगीत उघटत बीन तुंगविद्या लई।

अखिल कला प्रवीन सुंदरि लेत अलग जु लाग री।

मंडल रमत हैं हो प्रीतम-नागरी ॥१॥

घेई-घेई उचरत हो अमृत बरषनी।

हस्तक भेदन हो चित आकरषनी।।।

आकरषनी चित स्याम स्यामा चरन नूपुर नदत हैं।

अहा कहा प्रसंश पुनि-पुनि रसिक सेखर वदत हैं।

धरि वदन ठुमक उठाइ देखौ दृगन चौधी देत है।

परस करत न मनों मंडल सुगति हुलसी लेत है।

नाहु दै गरवाहु गावत बरवस हिय जिय हरषनी।

घेई घेई उचरत हौ अमृत बरषनी ॥२॥

तैसे गुन उघरे हो तैसीये जामिनी।

अब पिय निर्त्तत हो रिझवत भामिनी।

भामिनी रिझवत जु निर्त्तत महा कमनी वपु धरै।

होत ललित त्रिभंग पुनि-पुनि निकर मनमथ मन हरें।

पीत पट के छोर फरकै अलक रुरकै छवि भरी।

मनहुँ गहन मयंक कारम राहु नें फाँसी करी ॥

मुकट लटकन पद जु पटकन ग्रीव दुरै अभिरामिनी।

तैसे गुन उघरे हो तैसीये जामिनी ॥३॥

फली यह रजनी हो छवि परत न मनी।

गगन मगन भयौ हो राका कौ धनी ॥

धनी राका मगन सजनी रास कौतिक देखि कैं।

विपुल हरषित भई अवनी महा भाग्य विशेखि कैं।

परस्पर रीझत रिझावत प्रेम के लै भाँवरे ।

वृन्दावन हित रूप बलि गुन अवधि गौर जु साँवरे ।

ललितादि के सौभाग की लोकन मणि जोरी बनी।

फूली यह रजनी हो छवि परत न भरी ॥४॥५१॥

राग केदारौ-

वंशी अधर चढि यौं लसी।

मनहुँ विश्व विलोवने कौ रई ससि कर कसी ॥

किधौं जग की मोहनी पुनि सुधा पीवन धसी।

किधौं हरन कलंक भाठी धोपनी सी गसी ॥

किधौं छिद्र दिखाइ अपने कालिमा निकसी।

किधौं विपधर निसा मिलि किरन धुनि सुनि डसी॥

अंड थिरचर सब घूमत चेतना मनु नसी।

आदि हरिपुर अंत फनपति सबन की मति फसी ॥

किधौं टोना रास कौ पढ़ि बोलि लेइ चट-सी।

किधौं पिय मुख लागि गरवी करत सब की हँसी ॥

किधौं राधा नाम-गुन-जस रसहि मानौं रसी।

याही ते हरि उभै कर वर कमल आसन बसी ।।

छिनु न टारत स्याम जाकौ प्रिया सुख रसमसी।

वृन्दावन हित रूप मुरली सुनि निगम विधि खसी॥५२॥

राग बिहागरौ-

निरवधि सुख निधि रास बन्यौ है।

वृन्दारन्य सुभग थल रविजा तीरें विशद विनोद टन्यौ है।

गौर-स्याम नित दूलह-दुलहिन सजनी सजन समूह गन्यौ है।

पंच नाद भूषन रव रवनी शुक पिक मंगल चारु भन्यौ है।

कल्पवृक्ष मनु मंडप रचि के पूरन चंद वितान तन्यौ है।

उरप तिरप मन् लेत भाँवरिन नेह सेहरौ रंग सन्यौ है।

पंडित प्रेम सरद रितु शुभदिन साहौ निर्मल भाव छन्यौ है।

वृन्दावन हित पाइ दाइजौ निजु सहचरि उर रँग उफन्यौ है।॥५३॥

राग बिहागरौ-

रास करि बैठे हैं पिय प्यारी।

साँवल-गौर अंस भुज दीयें या छवि पर हौं बलिहारी ॥

अंचल पवन करत ललितादिक श्रमित जानि सुकुँवारी।

करज चटकि मन ननन फूलत है रहे लट् बिहारी ।।

मारुत मंद विटप झरैं सीकर ससि सीतल उजियारी।

वृन्दावन हित रूप जाऊँ बलि पुनि बन रवन विचारी ॥५४॥

जयति जुग राज वन रास मंडल रच्यौ खच्यौ मणि मानिकन लसत कमनीय तन।

ढुरत कर वर भलै नई गति लै चलैं तत्त-थेई-थेई कहत नव कुँवरि-स्यामघन।।

लटकि पद पटकि गति लेत ग्रीवा दुरत रुरत अलकावली गौर-साँवल वदन।

मनहुँ सजि सैन अलि पिवत मकरन्द मुख कमल जुग अमल पर भ्रमत आनँद मगन ।।

वाम भुज अंस धरि प्रिया मुख चहत हरि दाहिने हस्त करि करत अंचल पवन, मुदित जहाँ तहाँ खरीं रूप हित सहचरी वृन्दावन हित भरी नेह नव रंग मन ॥५५॥

वाम बाहु अंस लाइ दक्षिन ऊँची उठाइ चलत धाइ विविध भाइ करि-करि दरसावैं।

बिरम रहत थेई-थेई कहत मुरि-मुरि के वदन चहत फेरत कर कमल प्रिया लाल ठुमकि आवैं॥

रंग झरत प्रेम भरत करनी गज गति जु ढरत, भ्रुव विलास मंद हास निर्त्तत छवि पावैं।

बलि-बलि वृन्दावन हित रूप भरे सुलप भेद विविध भाँति बाजे ललितादि लै बजावैं ।॥५६॥

राग बिहागरौ-

अति सुख बरषत जमुना तट है।

कोटि कला की स्वामिनि राधा निर्त्तत नागर नट है।

बनितन तन दमकत उपरैनी हरि तन पियरौ पट है।

गौर वदन पर शोभित श्रमकन रुरत ललित गति लट है।

सनमुख चलत लड़ैती मोहन थेई-थेई रसना रट है।

ताल तान साजें जुवती गति उघटत कुँवरि विकट है।

मुरली नूपुर कंकन किंकिनी धुनि आनन्द संघट है।

वृन्दावन हित रूप मिथुन रस उझिल्यौ वंशीवट है।॥५७॥

राग बिहागरौ-

रंगीली अवनी रास मई है।

सुभग पुलिन की दमकन जैसी चंदहि ओप दई है।

अगनित बनिता फिरत ललित गति पद तल किरन छई है।

मनु अनुराग दृवत छिन-छिन में छवि उपजत जु नई है।

मोहन लाल मत्त गज वर ज्यौं रस मय केलि ठई है।

कवहूँ गावत कवहूँ निर्त्तत है रही प्रेम मई है।

कवहूँ रीझि रहत श्री राधा जब गति बिकट लई है।

सादर लेत प्रसाद उगारहि दृग सोभा अचई है।

इहि छवि छकि हरि रसिक दुलहिनी सुख की बेलि बई है।

वृन्दावन रूप सहेलिनु तन सुध विसरि गई है॥५८॥

राग कल्यान-

आजु रास रस बरस्यौ भारी।

थिरचर सब आनन्द भिजाये जब सुर साधि अलाप्यौ प्यारी कला अनन्त भई उर उतपति लेत सुघर दोऊ बदि-बदि बारी।

बाढ़ी बहस परस्पर अतिही रीति दिखावत न्यारी-न्यारी ॥

सखी देत स्वाधास दहन कौं त्यौं-त्यौं गति नौतन विस्तारी।

राख्यौ नाम समझि निजु सजनी रास बिहारिनि-रास बिहारी।

मण्डल भये बदन विधु उदित गगन ज्योति बढ़ि चली महारी। बह शशि थक्यौ थक्यौ रवि उतही रात रीझि रही कौतुक हारी ॥

विधि की सृष्टि विलोई तानन लाल अधर मुरली जब धारी।

वृन्दावन हित रूप बगीचा रचें बहु कौतुक चतुर खिलारी॥५९॥

राग खमाच-कवित्त

माई री, रास में रसिक लाल संग बनी प्यारी बाल सखिन के मण्डल में अति छवि पावहीं।

श्यामा जू संगीत गति उघटें ललित अति रूप छक्यौ प्यारौ लाल मुरली बजावहीं।

राधा नाम लागी रट फरहरै पीत पट अतिही विकट तान लै-लै कै रिझावहीं।

तत्ता थेई-थेई बानी दुहुँन के मनमानी निर्त्तत रंगीले पुनि सनमुख आवहीं। सुघर सबही अंग ललिता लियें मृदंग जैसे पद राखें तैसी गति मान लावहीं।

सुख कौ बहै प्रवाह मिलत न जाकी थाह, लटकि-लटकि अति रंग कौं बढ़ावहीं।।

रासेस्वरी जाकौ नाम सकल गुनन ग्राम लै-लै गति अनाघात मदन लजावहीं।

नाना भाँति क्रीड़ा करें सखिन के मन हरैं आनन्द अपूरव समाज बरषावहीं।।

मण्डल सरोवर माँहि ठाड़े अंस दियें बाँह जानौ जुग हंस उर मोद उपजावहीं।।

मण्डल सरोवर माँहि ठाढ़े अंस दियें बाँह जानौ जुग हंस उर मोद उपजावही।

सखी फूलीं जलजात दृग अलि मँडरात गौर-स्याम लियें कर कमल फिरावहीं।

हस्तक दिखावैं भाव मोहन रसिक राव भाँवती को मन लीयें लाइन लड़ावहीं।

तन मन भीजे नेह एक प्राण द्वै जु देह कौतुक अनेक विधि रचि कैं दिखावहीं ॥

रास में रहे सवल जीत्यौ है मनोज दल राधिकावल्लभ जस रस सखी गावहीं।

येही रस श्री हरिवंश सादर कियौ प्रसंस रसिकन सिरमौर न्याय जु कहावहीं ।

रासलीला सिंधु महा पार कोऊ पावै कहा रसना तौ एक कैसे बरनि सुनावहीं।

रजनी अति अनूप वृन्दावन हित रूप खेलें जू मगन दोऊ खेल रास भावहीं ॥ ६०॥

पद-

मण्डल मणिन खच्यौ है। हेम-सुगंध सच्यौ है।

हेम सुगंध सच्यौ जंबूनद जगमग जोति सुहाई।

पुलिन मध्य विस्तार ललित अति बन प्रफुलित छवि छाई।।

परिमल लपट मंद रुचि सीतल पवन गवन इहि भाँती।

राइ जाइ मालती चंवेली शोभित है तरु पाँती ।॥

तरनि तनैया तीर अलौकिक जहाँ रस निकर रच्यौ है।

राका शरद चंद नभ ओप्यौ मण्डल मणिनु खच्यौ है।॥१॥

रसिकानन्द बिहारी। सम्पति विपिन निहारी ।।

सम्पति विपिन निहारी कमनी वेष बनायौ।

अहा कहा बाँसुरी अधर धरि राग मोहिनी गायौ ।।

शाखा-फल-दल-फूल तेज मय कल्पवृक्ष छवि छाजै।

अखिल कला सेवत त्रिभंग गति तहाँ मोहन वपु राजै ॥

रस मय वपु माधुरी रूप हद सखिन वृन्द मधि प्यारी।

आई देखि हृदै अति बिकसे रसिकानंद बिहारी ॥२॥

रूप जोति-सी बाला। बनी मनु मण्डल माला ।।

बनी मनु मण्डल माला बाला रासारंभन कीयौ।

महा तेज मय तन कोंधन में चोंधि लाल दृग दीयी।

उमग्यौ सोभा सिंधु निर्त्त गति दुरन मुरन अति रुरी।

विद्या निकर निपुर मुरलीधर राधा जू सब गुन पूरी।।

रजनी छको देखि छवि सजनी शशि छकि भूल्यौ चाला।

थेई घेई कड़ि प्रीतम उर लागत रूप जोति-सी वाला॥३॥

सुघर सहेली साजें। बाजे मधु रव बाजैं।

बाजे मधु रव बाजें किंकिनि नूपुर बलय जु चूरा।

बरषत कुसुम पटकि पद करतल हलत केश सिर जूरा॥

उघटि भेद संगीत अलापत राग न उपमा दूजै।

मधुरितु चाखि मञ्जरी मानौं गहकि कोकिला कूनै ॥

उघरे गुन समूह कह बरनौं रस मय सकल समाजै।

वृन्दावन हित ताल तान हित रूप सहेली साजैं।॥४॥६१॥

पद-

लाल कौं तानें विकट सिखावै। अखिल कलन चूड़ामणि नागरि, भेद भाव दरसावै॥ ललिता कहत लेहु बलि योंही, मोहि प्रतीति तब आवै। निकट चौंप सौं त्यौंही प्रीतम गावें कुँवरि रिझावै। भलें-भलै हो श्याम सुघर गुन गोरे तन तै पावै। वृन्दावन हित रूप नाम तब मोहन विश्व कहावै॥६२॥

कवित्त-

रास करि बैठे दोऊ पवन करत कोऊ-कोऊ लै-लै अचंल सौं पौछें श्रम वारि री। करत प्रसंस कोऊ प्रेम भीजि रही कोऊ-कोऊ रही रीझि विवि वदन निहारि री।। कोऊ पुहपन वारें कोऊ तृन तोरि डारें, कोऊ जल पीवत है बार-बार बारि री। कोऊ रीझी गावन पै कोऊ रीझी निर्त्तत पै, वृन्दावन हित रूप करें मनुहार री॥६३॥

पद-

नाम रासेश्वरि राधा निर्त्तन मंडल झमकि सुरति लै जात। मनहँ प्रात रवि उदित किरनि बढी श्रवन तरौना दमकत है इहि भाँति ॥ विललित है नासा कौ मोती ग्रीवा चपल होति जीति लई भृगु नंदन कांति। वृन्दावन हित रूप गौर स्याम उरप तिरप लै दुरि मुरि भेटत मनु घन दामिनि समाति॥६३॥

रासेश्वरी निर्त्तत है पिय सों भुज जोरें। मंडए राजत विसाल रच्यौ रास प्रात काल, थेर्ड-थेर्ड वदत वदन पटकि तान तोरें। हस्तक भेद नाना भाँति उभै वदन ललित कांति, प्रिया सुगति लेम लाल रीझि ग्रीव ढोरें। मान सीस चरन धरत अमित कलन प्रगट करत, कुनित वलय किंकिनी जब खीन कटि जु मोरें।॥ मुदित होत नव किशोर उधरे गुन दुहुँ ओर, नूपुर मिलि मुरली धुनि बजत थोरे-थोरे ॥ बरषे रस लाल कहा प्रिया कहत अहा-अहा, उघटत संगीत कुँवरि प्रीतम तृन तोरें। नैनन सुख चैंन देहु ऐसी गति फेर लेहु, रसिक लाल पुनि-पुनि कैं चिवुक गहि निहोरैं। बलि-बलि वृन्दावन हित रूप सिंधु लहर उठे, निर्त्त कौ प्रकास कितौ वरनौं तन गोरे ॥६४॥

राग बिलावल-ताल आड़

लाल मन मोहनी हो लड़ैती बरसत वन सुख रास। उमगि चल्यौ आनन्द भोर ही कौतिक रचि अनियास ।। सुविध पलत प्रीतम दृग चातक हिय जिय बढ़त हुलास। तान तरंग रंग झर बिनु मित रसिक कहत स्यावास ।। मुरली मधुर बजावन गावन किये गुण विपुल प्रकास। अखिल कलन की स्वामिनि नागरि बलि वृन्दावन बास॥६५॥

प्रात रास रस बरषत ढेरी। नई-नई सुगति लेत है प्रीतम पटकत ताल प्रिया कर परी। मोर मुकट की लटकन सजनी ग्रीव मरन की छवि ज घनेरी। विमल कपोल करत अलकार्याल मन् वारिज पर भंग वसे री ॥ तिनमें हलन चलन कल कंडल मन् तम सिमिटि बाट रवि घेरी। सवल घरत उदायाचल तजि कें झुकत झुकावत देत देरेरी।। थिरकत है वेसर को मोती थेई-थेई कहि लेड़ मोहन फेरी। ससि के अंक हिंडोगे रचि मनु भृगु सुत झोटा लेत बड़े री।। उर विशाल माला जु जलज मनि रुरत बढ़ी सोभा बहुतेरी। हंस उड़े मानीं सजि सैना नाभि सरोवर बसन चले री।। विद्या निकर चरन तल सेवत गति लै चली जु स्वामिनि मेरी। वृन्दावन हित रूप अति बढ्‌यौ रीझि लाल जब अंग सकेरी ॥६६॥

राग बिलावल-झपताल

तत्ता थेई बदन कहत प्रीतम की ओर चहत, प्रात राम रचन कौ उमाह मन लियौ। राजत मंडल विशाल निर्त्तत हैं प्रिया लाल, नागरि लै सुगति चरन मान सिर दियौ।। लंक मुरत ग्रींव दुरत प्रीतम सौं दृष्टि जुरत, भौंह हलन-चलन स्याम न्याइ बिकि गयौ। बलि-बलि वृन्दावन हित रूप अनूप कढे, गावत अलि सुघर लेत लाम नित नयौ॥६७॥

देत है झपताल लाल बरषत रंग प्रात काल, प्रिया अति प्रवीन लै नवीन गति चली। मंडल मणि विमल महा सोभा अति कहौं कहा, मर भस्यौ अनुराग लसत परसि पग तली॥ निर्त्तत हैं मोरी-मोर चात्रिक मिलि करत सोर, मनु सदेह दामिनि-घन दरसे विधि भली। बलि-बलि वृन्दावन हित रूप प्रिया गान कुशल, लेत हैं सुर जील घोर संग मिलि अली॥६८॥

राग आसावरी-

अबला तू सबली मेरी कानन रानी। रस की कला करी में उत्तपति अमी प्रगट भई बानी।। कवि कुल रसिक कहाये ते जिन जस बरनन रति मानी। वृन्दावन हित रूप रास की स्वामिनि वेद बखानी ।॥६९॥

पद-

वाम बाहु अंस लाइ दक्षिन ऊँची उठाइ चलत धाइ विविध भाइ करि-करि दरसावैं॥ विरम रहत थेई-थेई कहत मुरि-मुरि के वदन चहत फेरत कर कमल प्रिया लाल तुमकि आवैं।। रंग झरत प्रेम भरत करनी गज गति जु ढरत ध्रुव विलास मंद हास निर्त्तत छवि पावैं। बलि-बलि वृन्दावन हित रूप भरे सुलप भेद विविध भाँति बाजे ललितादि लै बजावैं॥७०॥

पद-

उचकि पग धरत धरनि पर झिझकि कर करन उचत है। ललकि-ललकि गति लेत सु वह पुनि झपकि-झपकि दूग पलन सुचत है। ठुमुक-ठुमुक पग बजत घूँघरु धुनि मधुर-मधुर सुर तानन खचत है। मुलक-मुलक मन हरत सकल जन आज राज ब्रजराज रास में नचत है॥७१॥

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