होरी के रसिया
होरी के रसिया
(चाचा) वृन्दावनदासजी कृत-
ब्रज कौ दिन दूलह रंग भस्यौ ।
हो-हो-होरी बोलत डोलत हाथ लकुट सिर मुकुट धरयौ ।
गाढ़े रंग रँग्यौ ब्रज सगरौ फाग खेल कौ अमल परयौ ।
वृन्दावन हित नित सुख बरसत गान तान सुनि मन जु हरयौ ॥ १ ॥
अलबेली कुँवरि महल ठाड़ी।
गहैं पिचक रंग भरत स्याम कों उततें प्रीति भरन गाढ़ी ।।
हो-हो कहि मोहन मन मोहत मनहु रूप निधि मथि काढ़ी।
वृन्दावन हित रूप स्वामिनी कर डफ गावत छबि बाढ़ी ॥ २ ॥
गहरे कर यार अमल पानी।
तोहि करें होरी कौ रसिया हौंहिं सबै तेरे अगवानी ॥
लै चलिहैं बरसाने तोकौं तेरे मन की हम जानी ।
वृन्दावन हित रूप भली विधि खाँय भान घर महमानी ॥ ३ ॥
डफ बाजे कुँवरि किशोरी के ।
तैसिय संग सखी रंग भीनी छैल छबीली गोरी के ।
हो-हो कहि मोहन मन मोहत प्रीतम के चित चोरी के ।
वृन्दावन हित रूप स्वामिनी कर डफ गावत होरी के ॥४॥
होरी कौ रसिया निकसन देत न बाट री।
भरि भरि रंग उलैंड़न डारतु यह ऊधमी निराट री।
कर डफ लै ऐसौ कछु गावै सुनि मन होत उचाट री।
वृन्दावन हित रूप फागु लिख्यौ बिधि श्याम ललाट री ॥५॥
होरी कौ रंग भीनों री रसिया ।
एक खेल में बहुत रचत बसीकरन याकी अधरन हँसिया ।।
रंगन भरत संक न करत है बहुत कला वाके उर में बसिया ।
चतुर चेटकी दृष्टि परत ही जात तुरत मन धीरज नसिया ।
रह री रह अबकैं गहि याकों भरि हौं नैन अंक में कसिया ।
वृन्दावन हित रूप तन सच्यौ अबही भीजत हैं मुख मसिया ॥ ६ ॥
बरसाने महल लाड़िली के।
ओर पास बाके बाग बगीचा बिच-बिच पेड़ माधुरी के॥
तिन महलन बिहरत प्रिया प्रीतम निस दिन प्रिया चाड़िली के ।
वृन्दावन हित रंग बरसत है छिन छिन रस जु बाढ़िली के ॥७॥
मृगनैनी नारि नवल रसिया ।
अतलस कौ याकौ लहँगा सोहै झूमक सारी तन लसिया ।।
होरी खेलत मन मोहन सौं बदन माँड़ि मुरि मृदु हँसिया ।
वृन्दावन हित रूप झूमक दै रसिक कुँवरि के मन बसिया ॥८॥
खेलै नन्द दुलारौ हुरियाँ।
रंग महल में खेल मच्यौ जहाँ राधा लहुरि बहुरियाँ।
रंग गुलाल उलैंड़िन डारें ललिता आदि छहुरियाँ।
वृन्दावन हित निरखि प्रशंसत बाला रूप हरियाँ ॥९॥
मनमोहन नन्द ढुटौना।
होरी में आयौ बरसाने सुन्दर स्याम सलौना ॥
कीरति जू हँसि लियौ अंक भरि जसुमति जू कौ छौना।
भोजन सुहथ कराइ नेह युत सीतल जल जु अचौना॥
ललितादिक लै चलीं खिलावन जहाँ दाइजे भौना ।
रंग गुलाल बगेलत खेलत राधा संग नचौना ॥
गारी गावत सखी लड़ावत होरी छन्द रचौना ।
ललकत बलकत रस छकि घूमत उर सुख मुख गह्यौ मौना ||
कीरति दुरि निरखत मन हरखत हिय सुख सिन्धु बढ़ौना ।
वृन्दावन हित रूप असीसत ये दोऊ लाड़ खिलौना ॥१०॥
राधाबल्लभ खेलत होरी।
फेंट गुलाल करन पिचकारी मुख माँड़त करि करि बर जोरी ॥
निर्त्तत गावत कर पटकावत छकि-छकि भौंह मरोरी ।
वृन्दावन हित रूप प्रसंसत सजनी विवि मुख चन्द चकोरी ॥११॥
होरी में बरजोरी करेंगी।
कहा चमकावत मोर के चन्दा बदन माँड़ते हम न डरेंगी।
कान पकरि गुलचा दै हैं अपु अधीन करि रँगन भरेंगी।
वृन्दावन हित रूप लाड़िले ऐंड न रहि है अब निदरेंगी ॥१२॥
हो-होरी खेलैं छैल छबीले राधामोहन रंग भीने।
अतर अरगजा मुख लपटावैं भौंह चढ़त मन हरि लीने॥
भेद भीतरी बातें कहि-कहि उर आनन्द अंकुर कीने।
वृन्दावन हित रूप छके दोऊ मदन केलि रस परबीने ॥१३॥
राधे श्री वृषभान किशोरी।
खेलत फाग स्यामसुन्दर सौं तियन तिलक मणि गोरी ॥१॥
वृन्दावन में खेल रच्यौ है सखिनु मण्डली जोरी।
ललित बिसाखा चम्पक चित्रा रंगन भरे कमोरी ॥२॥
तुंगविद्या इन्दुलेखा यूथन केसर अरगज घोरी।
रँगदेवी रु सुदेवी भरि लई अबीर गुलालन झोरी ॥३॥
हित चित वृत्ति खिलावत चौंपन मन मिलि भईं दुहुँ ओरी।
बाजे विविधि बजावैं गावैं तान युगल रस बोरी ॥४॥
मोर मुकुट सिर धरैं साँवरौ ओढै पीत पिछौरी।
प्यारी सीस चन्द्रिका सोहै निर्त्तत बाहाँजोरी॥५॥
इत उत चलत गुलाल पोटरी रंग पिचकारी छोरी ।
थेईथेई हो-हो कहि मुख माँड़त मुसिकत भौंह मरोरी ॥ ६ ॥
हित रूपी सखी आइ अचानक गाँठ दुहुँन की जोरी।
झूमक नाच नचावत हँसि-हँसि लै बलाड़ तोरी ॥७॥
कहा बरनौं सोभा सुख सरसन जो रस बरस्यौ होरी।
वृन्दावन हित राधाबल्लभ मुख ससि नैन चकोरी ॥१४॥
होरी खेलत कुँवर कन्हैया ।
मन मिलि बनी सखान मण्डली एक ओर बलभैया ॥ १ ॥
नन्दराय जू के अगवारे सुन्दर जहाँ अथैया’ ।
बनि ठनि आये गोप कुँवर बहु स्वाँगी सुघर खिलैया ॥२॥
बाजे विबिधि बजावत सुगतिनु एक तें एक गवैया ।
मोर मुकुट सिर धरै साँवरौ मुरली मधुर बजैया॥३॥
नव गोपी मिलि खेलन आईं गावत फाग बधैया ।
मोरपच्छ मूँठा कर ढोरत स्याम भलौ नचकैया ॥ ४॥
अबीर गुलालन चलत पोटरी रंगन भीजि भिजैया।
झुरमुट मच्यौ कहत नहिं आवै सोभा सुख सरसैया ॥ ५ ॥
बनितन पकरि लिये मन मोहन काजर नैन अँजैया।
लै गई जहाँ रोहिनी जसुमति निरखत लेत बलैया॥६॥
पट भूषन सबकौं पहिराये मेवन गोद भरैया।
हरि-हलधर हॅसि कण्ठ लगाये करि सिंगार पै पैया ॥७॥
दिन दुलहिन राधा कौ दूलहु नित ब्रज रस बरसैया।
वृन्दावन हित रूप जियौ चिरु धन्य पिता धनि मैया॥८ ।। १५ ।।
हरि रसिया खेलत है होरी।
मोरपँखा मूठा सिर ढोर झूमक दै नाचत गोरी॥
कनक लकुट लीयें ब्रज नागरि मुसिकत है थोरी-थोरी ।
कर जेरी नग जटित स्याम के अबीर गुलाल भरे झोरी ॥
खेलत श्रीब्रजराज पौरि पै होत परस्पर बरजोरी ।
वृन्दावन हित धाइ-धाइ उर धरत भरत रंग दुहुँ ओरी ॥१६॥
हरि होरी रंग मचाबतु है।
जोवन रूप मद छक्यौ ढोटा लखि नैन नचावतु है।
घर-घर जाइ फाग की फोकट निलजी गारी गावतु है।
आपुन भरत रंग पट बनितन इनकी चोट बचावतु है॥
भरि भरि कलश अरगजा मोहन जुवतिन के सिर नावतु है।
दै करतारी हो-हो कहि कहि बाजे बिबिधि बजावतु है।
जो कोऊ गली गल्यारे निकसै धाइ – जाइ गहि लावतु वृन्दावन हित नगर नन्दीश्वर आपुन भीजि भिजाबतु है ॥१७॥
श्रीबलिहारजी कृत-
अरे मेरे आँखिन निरदई भरि गुलाल हूँ न बोली रे।
पाय अकेली जो मन मानी करि गयौ घूँघट खोली रे ॥
गावत निकस्यौ छैला गारी, रसिया रँग भरी चोली रे।
नित बलिहार करत बोली ठोली अबधौं पाई होली रे ॥१८॥
आँखन भरत गुलाल, रसिया ना मानै रे।
अछन-अछन पाछें अलबेलौ निरख नबेली बाल, रसिया ना मानै रे ॥
नयौ फाग जोवन गरबीलौ करत अटपटे ख्याल, रसिया ना मानै रे।
कहा करौ बलिहार चबाई भुज भरि होत निहाल, रसिया ना मानै रे ॥१९॥
श्रीनन्दकिशोरजी कृत-
रसिया होरी में मत करौ दृगन पै चोट ।
मैं तौ लाज भरी बड़ कुल की, तुम तौ भरे बड़े खोट। रसिया० ॥
अब की बेर बचाई गई मैं, कर घूँघट की ओट ।
नन्दकिसोर वहाँ जाय खेलौ, जहाँ बनै तुम्हारी जोट ॥ २० ॥
श्रीदयासखीजी कृत-
हेली ये डफ बाजे छैला के, मनमोहन रसिया नागर के, वा जुलमी औगुन गारे के, धुनि- सुनि जिय अति अकुलाय गई।
कहा कीजै री आवत उमगि हियौ निधि’ ज्यौं अब कापै रोक्यौ जाइ दई ।
उर गुरुजन की लाज दहत उर धरि नहिं सकिये देहरी पाँइ ।
दया सखी अब होइ सु हूजौ मिलौं घनश्यामहि धाइ ॥ २१ ॥
अरे हेला वे डफ बाजैं छैल पियारी के, वा श्रीवृषभानु दुलारी के, कीरतिजा रूप उजारी के, धुनि सुनि उर चौंप बढ़ी भारी।
रंग रंगीली अली संग लिये फूलि रही छबि फुलबारी॥
अरे हेला, छाइ रह्यौ अनुराग रंग गावैं मैन मद सनी रुचिर गारी।
दया सखी घनश्याम लाल कह्यौ नर्म सखन सौं चलौ जाइ देखें अपने प्राण की निज है जियारी ॥ २२ ॥
जो तुम कीनी होरी रे हम सों रसिया समझि परैगी आज।
कूक-कूक करि गारी सुनावै करि नहिं पाऊँ काज।
लैहौं छीन पीत पट मुरली तनक न करिहौं लाज।
दौर-दौर बलिहार भरत रंग अब कित जैहौं भाज॥२३॥
मन मोहन रिझवार री, तेरे नैन सलौने री।
सह दिवा कहत हौं तोसौं पग जिन धरहि अगौने री।
तू अलबेली आन गाँब की, अबही आई है गौने री।
मनमोहन तेरे द्वारे ठाड़े, तू धसि बैठी कौने री ॥
होरी के डफ बाजन लागे, तू गहि बैठी मौने री ।
दया सखी या ब्रज में बसि कें, नेम निभायौ कौने री ॥२४॥
श्रीअबधबिहारीजी कृत-
होरी कौ खिलार सारी चूँदर डारी फार ॥ टेक ॥
मोतिन माल गले सों तोरी, लहँगा फरिया रंग में बोरी, कुम-कुम मूँठा मारै मार ॥ होरी० ॥ १ ॥
ऐसौ निडर ढीठ बनवारी, तक मारत नैनन पिचकारी, कर सौं घूँघट पट देइ टार ॥ होरी०॥२॥
बाट चलत में बोली मारै, चितबन सौं घायल कर डारै, ग्वाल बाल संग लिये पिचकार ॥ होरी० ॥३॥
भरि भरि झोर अबीर उड़ावै, केसर कीचन कुचहि लगावै, या ऊधम सों हम गईं हार ॥ होरी० ॥४॥
ननद सुनें घर देवै गारी, तुम निर्लज्ज भये गिरधारी, विनय करत कर जोर तुम्हार ॥ होरी० ॥५॥
जब सों हम ब्रज में हैं आईं, ऐसी होरी नाहिं खिलाई, दुलरी तिलरी तोरयौ हार॥ होरी० ॥६॥
कसकत आँख गुलाल है लाला, बड़े घरन की हम ब्रजवाला, तुम ठहरे ग्वारिया गँवार॥ होरी० ॥७॥
ऐसौ ऊधम तुम नित ठानौ, लाख कहैं पर एक न मानों, बलिहारी हम ब्रज की नार॥ होरी० ॥८॥
धनि-धनि होरी के मतवारे, प्रेमिन भक्तन प्रानन प्यारे, अबधबिहारी चरन चित धार ॥ होरी० ॥९॥२५॥
श्रीसालिगरामजी कृत-
नैनन में पिचकारी दई, गारी दई, होरी खेली न जाय ॥ टेक ॥
क्योरे लँगर लँगराई’ मोते कीन्ही, केसर कीच कपोलन दीन्हीं, लिये गुलाल ठाड़ौ मुसकाय, होरी खेली न जाय ॥१॥
नैक न कान करत काऊ की, नजर बचावै बलदाऊ की, पनघट सौं घर लौं बतराय, होरी खेली न जाय ॥२॥
औचक कुचन कुमकुमा मारै, रंग सुरंग सीस सौं ढारै, यह ऊधम सुनि सास रिसाय, मेरी ननद रिसाय, होरी खेली न जाय ॥३॥
होरी के दिनन मोसों दूनों-दूनों अरुझै, सालिगराम कौन जाय बरजै, अंग लिपट हँसि हा-हा खाय, होरी खेली न जाय॥४॥२६॥
श्रीआनन्दघनजी कृत-
एरी यह जोवन तेरौ होरी में कैसे बचैगौ ।
वा दिन की सुधि भूल गई है, जा दिन रंग रचैगौ ॥
चोबा चन्दन और अरगजा, आँगन बीच मचैगौ।
आनन्द घन ब्रज मोहन जानी, तेरे संग नचैगौ॥२७॥
श्रीबलिदासजी कृत-
ऐसौ चटक रंग डारयौ श्याम, मेरी चुंदरी में पड़ गयौ दाग री।
मोहू सी केतिक ब्रज सुन्दरि उनसों न खेलै फाग री ॥
औरन कौ अचरा न छुए याकी मोही सौं पड़ गई लाग’ री।
बलीदास बास ब्रज छोड़ौ ऐसी होरी में लग जा आग री॥२८॥
श्रीनागरियाजी कृत-
कन्हैया, जान दै रे तेरे पाँय परत हौं रे कन्हैया ।
टूटि गये हार छूटि गयौ अचरा भीज गई अँगिया रे दैया ॥
या मग माँझ न कर बरजोरी हैं गोकुल के लोग चबैया’ ।
नागरिया धनि रीति तिहारी यह धन्य खेल तुम धन्य खिलबैया ॥ २९ ॥
रूप दुरै किहिं भाँति री, तू कहै क्यों न सजनी ।
घूँघट में न छिपात सखी मेरे गोरे बदन की कान्ति री ॥
बरज रही बरज्यौ ना मानें कौन दई संजोग री ।
मैं तरुणी और या ब्रज के सबै बावरे लोग री।
मोहन गोहन लाग्यौई डोलै, प्रगट करत अनुराग री।
अब नागर डफ बाजन लागे, सिर पर आयौ फाग री ॥३०॥
श्रीगोकुलकृष्णजी कृत-
होरी में कैसे बचैगौ, यह जोवन तेरौ ।
जो कहीं दृष्टि परैगी श्याम की संग लै तोय नचैगौ॥
अबकी फागुन तेरेई बगर में होरी रंग मचैगौ।
छैल बड़े छल चितवन चोरै नैनन बीच डसैगौ ।
गोकुलकृष्ण की लगन यही है तेरे ही भवन बसैगौ ॥३१॥
श्रीखुमानजी कृत-
कैसा यह देस निगोड़ा, जगत होरी ब्रज होरा ॥ कैसा० ॥ १ ॥
मैं जमुना जल भरन जात ही, देखि बदन मेरा गोरा।
मोसौं कहैं चलौ कुञ्जन में, तनक-तनक से छोरा, परे आँखन में डोरा ॥ कैसा० ॥२॥
जियरा देख डरात है सजनी, आयौ लाज सरम कौ ओरा ॥
कहा बूढ़े कहा लोग लुगाई, एक ते एक ठठोरा, न काहू कौ काहू से जोरा ॥ कैसा० ॥३॥
मन मेरौ हरयौ नन्द के नें सजनी, चलत लगाबत चोरा ।
कहै खुमान सिखाय सखन सों, सब मेरा अंग टटोरा, न मानत करत निहोरा ॥
कैसा यह देस निगोड़ा० ॥ ४ ॥ ३२ ॥
श्रीहित घनश्यामजी कृत-
गौंहन परयौ री मेरे गौंहन परयौ, साँवरौ सलौनौ ढोटा मेरे गौंहन परयौ ॥
याकी घाली मेरी आली कहौ कित जाउँ ।
बाँसुरी में गावै वह लै लै मेरौ नाउँ ॥ १ ॥
साँवरे कमलनैन आगें नेकु आइ ।
लाजन के मारे मोपै कहूँ गयौई न जाइ ॥२॥
जो हौं चितऊँ आड़ौ दै दै चीर ।
सैनन में कहै चल कुञ्ज कुटीर ॥ ३॥
अँगना में ठाड़ी हूँ अटा चढ़ि आवै ।
मुकुट की छहियाँ मेरे पाइन छुवाबै ॥ ४ ॥
हित घनश्याम मिलौंगी धाइ।
साँवरे सलौने बिनु रह्यौई न जाय ॥५॥३३॥
श्रीभगवानदासजी कृत-
काजर वारी गोरी ग्वार।
या साँवरिया की लगवार ॥ १ ॥
निसि दिन रहत प्रेम रँग भीनी।
हरि रसिया सौं यानें यारी कीनी ॥२॥
मदन गोपाल जानि रिझवार।
नाना विधि के करत सिंगार ॥ ३ ॥ काजर वारी० ॥
मिलन काज रहै अंग अँगोछै।
सरस सुगन्धन तेल तिलौंछें ॥४॥
अंजन नाहिं भटू यह दीयें।
स्याम रंग नैनन में लीयें ॥५॥ काजर वारी० ॥
गावन कूँ जसुमति गृह आवै ।
कृष्ण चरित्रहि गाय सुनावै ॥ ६॥
सुन्दर स्याम सुनें ढिंग आइ।
चितवत ही चितवत रहि जाय ॥७॥ काजर वारी०॥
रामराइ प्रभु यों समुझावै।
भागवान तू नीके गावै ॥८॥
लखि घनश्याम कियौ निरधार।
यह लगवारिन वह लगवार ॥९॥
काजर वारी गोरी ग्वारि ॥ ९ ॥ ३४ ॥
श्रीपुरुषोत्तमजी कृत-
वृन्दावन खेल रच्यौ भारी ।
वृन्दावन की गोरी नारी, टूटे हार फटी सारी ॥
ब्रज की होरी ब्रज की गारी, ब्रज की श्रीराधा प्यारी ।
पुरुषोत्तम प्रभु होरी खेलें, तन मन धन सर्वस वारी ॥ ३५ ॥
फागुन में रसिया पर बारी ॥ फागुन में० ॥
हो-हो बोलै गलियन डोलै, गारी दै- दै मतबारी॥
लाज धरी छपरन के ऊपर आप भए हैं अधिकारी ।
पुरुषोत्तम प्रभु की छबि निरखत ग्वाल करें सब किलकारी॥३६॥
फगुवा दै मोहन मतवारे ।
ब्रज की नारी गावत गारी, तुम द्वै बापन बिच बारे ||
नन्दजी गोरे जसुमति गोरी, तुम काहे ते भये कारे।
पुरुषोत्तम प्रभु की छबि निरखत गोप भेष लियौ अवतारे ॥३७॥
ठाड़ौ रह कनुवार ब्रजवासी।
रंग ढारि कित भज्यौ लँगरवा, लोग करैं मेरी हाँसी ॥
बालपनौ खेलन में खोयौ, गोकुल में बारौमासी ।
पुरूषोत्तम प्रभु की छबि निरखत जनम-जनम तेरी दासी॥३८॥
मृगनैंनी तेरौ यार नवल रसिया ।
जाके बड़े-बड़े नैंनन में कजरा सोहै, जाकी टेढ़ी नजर मेरे मन बसिया ॥
जाके नव रंगी लहँगा सोहै, जाकी पतरी कमर मेरे मन बसिया ।
पुरुषोत्तम प्रभु की छवि निरखत सबै मिली ब्रज में बसिया ॥ ३९ ॥
चलौ अईयो रे श्याम मेरे पलकन पै ।
तू तौ रे रीझयौ मेरे नवल जोवना, मैं रीझी तेरे तिलकन पै ॥
तू तौ रे रीझयौ मेरी लटक चाल पै, मैं रीझी तेरी अलकन पै।
पुरुषोत्तम प्रभु की छवि निरखत, अबीर गुलाल की झलकन पै ॥ ४० ॥
बनि आयौ छैला होरी कौ।
मल्ल- काछ सिंगार धरौ याके फैंटा सीस मरोरी कौ॥
सौंधे भीनौं उपरना सोहै जाके माथे बैंदा रोरी कौ।
पुरुषोत्तम प्रभु कुँवर लाड़िलौ यह रसिया वाही गोरी कौ ॥४१॥
ब्रज की तोहि लाज मुकट वारे।
सूर्य चन्द्र तेरौ ध्यान धरत हैं, ध्यान धरत नव लख तारे ॥
इन्द्र नें कोप कियौ ब्रज ऊपर तब गिरवर कर पर धारे।
पुरुषोत्तम प्रभु की छवि निरखत गाय गोप के रखवारे॥४२॥
दरसन दें निकसि अटा में ते ।
तू है श्रीवृषभानु नन्दिनी ज्यौं निकस्यौ चन्द्र घटा में ते॥
कोटि रमा सावित्री भवानी, सो निकसीं अंग छटा में ते।
पुरुषोत्तम प्रभु यह रस चाख्यौ जैसे माखन निकस्यौ मठा में ते॥४३॥
श्रीसूरदासजी कृत-
स्यामा स्याम सों होरी खेलत आज नई।
नन्द नन्दन कौं राधे कीनौ, माधव आप भई ॥
सखा सखी भये सखी सखा भईं, यशुमति भवन गई।
बाजत ताल मृदंग झाँझ डफ, नाचत थेईथेई ||
गोरे स्याम सामरी राधे यह मूरत चितई ।
पलट्यौ रूप देखि जसुमति की, सुधबुध बिसर गई।
सूर स्याम कौ बदन विलोकत, उघर गई कलई ॥ ४४ ॥
श्रीललित किशोरीजी कृत-
श्रीबिहारी बिहारिन की मोपै यह छबि बरनी न जाय।
तन मन मिले झिले मृदु रस हैं, आनन्द उर न समाय ॥
रंग महल में होरी खेलैं, अँग-अँग रंग चुचाय ।
श्रीहरिदास ललित छबि निरखत सेवत नव-नव भाय ॥ ४५ ॥
गोरी तेरे नैंना बड़े रसीले।
विहँसि उठत निरखत मेरौ मुख घूँघट पट सकुचीले फागुन में औसी न चाहिये ये दिन रँग रंगीले।
ललित किशोरी गोरी खंजन बिन अंजन कजरीले ॥४६॥
होरी खेलौ तौ कुंजन चलौ गोरी ॥ टेक ॥
एक ओर रहौ सब ब्रज बनिता, तुम राधे हमरी ओरी॥ होरी० ॥
चोबा चन्दन अतर अरगजा, लाल गुलाल भरे झोरी ।
ललित किशोरी प्रिया प्रीतम मिलि, खेलेंगे फाग सराबोरी ॥४७॥
श्रीशिरोमणिजी कृत-
मदन मोहन की यार, गोरी गूजरी।
सब ब्रज के टोकत रहैं तातें निकसै घूँघट मार, गोरी गूजरी ॥१॥
जो कोऊ झूठे कहै आए मदन मुरारि, गोरी गूजरी।
रहि न सकै इत उत तकै दुरि देखै बदन उघारि, गोरी गूजरी ॥२॥
तनसुख की सारी लसै हो कंचन सौं तन पाइ, गोरी गूजरी।
मनौं दामिनि की देह सों हो रही जोन्ह लपटाइ, गोरी गूजरी॥३॥
धरत पगन लाली फबै भरै ढरै रित जाइ, गोरी गूजरी।
काच करौती जल रँग्यौ कछु यहै जुगत ठहराइ, गोरी गूजरी ॥४॥
कटि नितम्ब ढिंग पातरौ हो उरज भार अधिकाइ, गोरी गूजरी ।
लग्यौ लंक मन लाल कौ वाकी लचकन लचक्यौ जाइ, गोरी गूजरी ॥५॥
बरन-बरन पट पलटई हो नूतन-नूतन रंग, गोरी गूजरी ।
तब इत उत निकसत फिरत हरिहि दिखावै अंग, गोरी गूजरी ॥ ६ ॥
छूटी अलक नैंना बड़े हो ओप्यौ सौ मुख इन्दु, गोरी गूजरी ।
अरुन अधर मुसिकात से दिये भाल सिन्दूर कौ बिन्दु, गोरी गूजरी ॥७॥
लगन लगी नन्दलाल सों हो करै निर्वाहन काज, गोरी गूजरी ।
चढ्यौ चाक चित चतुर कौ वाके प्रेमहि आयौ राज, गोरी गूजरी ॥८॥
लाल लखें लालच बढ़े उत त्रासन पिय पियराइ, गोरी गूजरी।
यह संजोगिनि बिरहनी ताते अरुझी बीच सुभाइ, गोरी गूजरी ॥९॥
नर नारी एकत भए हो मिलि-मिलि करें चबाब, गोरी गूजरी।
सिरोमनि प्रभु दोऊ सुनें तातें बढ़ें चौगुनौ चाव, गोरी गूजरी॥१०॥४८॥
चाचा श्रीवृन्दावनदासजी कृत-
राधा मोहन खेलत फाग।
रंग गुलाल बसन तन सनि रहे हिय सनि रहे नवल अनुराग ॥
सखिनु समाज चहूँ दिस राजत मनों फूल्यौ सोभा कौ बाग।
वृन्दावन हित रूप रस छके मदन केलि नित रहे उर लाग॥ ४९ ॥
श्रीहरिचन्द्र कृत-
चिरजीबौ होरी के रसिया।
नित प्रति आवौ मेरे होरी खेलन, नित गारी नित ही हँसिया ।।
माथे मुकुट लकुट लीनें कर, पीत पिछौरी कटि कसिया।
हरीचन्द्र के नैंन सिराबौ, राधा प्यारी कौ ये रसिया॥५०॥
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