श्री जयमल जी
श्री जयमल जी
अपने समय के राजाओं में, जयमलजी को भक्तों द्वारा 'राजर्षि' के नाम से सम्बोधित किया जाता था।
स्वार्थ-परमार्थ को साधने में उनके समान कोई कुशल नहीं था। गो. श्रीहितहरिवंशचन्दजी द्वारा संस्थापित प्रेम-धर्म की अनन्यता का इन्होंने अपने जीवन में अत्यन्त दृढ़ता के साथ निर्वाह किया था। इन्होंने अपने अद्भुत प्रेम के द्वारा श्रीराधावल्लभलालजी को अपने वश में कर लिया था। आपका अधिकांश समय हरि-हरिजन की सेवा, कथा, कीर्तन, सत्संग, गुरु-ग्रन्थों के चिन्तन मनन आदि में ही व्यतीत होता था। ये अपने राज्य में ब्रज की रास मण्डलियों को बुलाकर रास-विलास के महोत्सवों का आयोजन बड़े चाव से किया करते थे। इनकी घर-परिवार में बिल्कुल आसक्ति नहीं थी तथा इन्होंने अपना तन-मन-धन सभी कुछ प्रभु को समर्पित किया हुआ था।
एक दिन ये घर में अपनी शैया पर लेटे हुए थे। अकस्मात इनके मन में विचार आया कि अपने प्रभु की शैया तो अपनी शैया से ऊँची होनी चाहिये। यह सोचकर इन्होंने दूसरे ही दिन प्रभु के लिये एक स्वतन्त्र मन्दिर निर्माण कराने का कार्य प्रारम्भ करा दिया। सोने-चाँदी से जटित इस मन्दिर में मणि मुक्ताओं से खचित एक चित्रसारी-शैया मन्दिर की रचना भी विशेष रूप से की गई तथा उसके बाहर चारों ओर गमलों में लताओं एवं अनेक प्रकार के पौधे लगाकर वृन्दावन का रूप उपस्थित किया गया। चित्रसारी तक पहुँचने के लिये इन्होंने स्थाई रूप से सीढ़ियाँ न बनवाकर एक लकड़ी की नसेंनी लगा दी, जिसे प्रभु की शयन के पश्चात वहाँ से उठाकर उसे एक तरफ रख दिया जाता था। चित्रसारी और लकड़ी की नसेंनी को रखने एवं हटाने का रहस्य इनकी महारानी को भी मालूम नहीं था, जिसे जानने के लिये वह बहुत ही लालायित रहा करती थीं। एक दिन जयमलजी भक्तों के साथ चर्चा में व्यस्त थे; अतः उचित अवसर समझकर वह सीढ़ी लगाकर चित्रसारी में चढ़ गयीं। जैसे ही उन्होंने चन्दन की लकड़ी से निर्मित चित्रसारी के दरवाजों को खोला, तो उन्होंने देखा कि गौर-श्याम कान्ति वाले दो किशोर प्रत्यक्ष रूप से शैया पर लेटे हुए हैं और उनकी अंग-कान्ति से सारा शैया भवन जगमगा रहा है। इस अद्भुत छवि को देखकर महारानी काँप उठीं और गिरती पड़ती सीढ़ी से नीचे आ गयीं तथा सीढ़ी को यथा स्थान पूर्ववत रख दिया। एक दिन उचित अवसर देखकर उन्होंने अपने पति को यह सब वृत्तान्त सुनाया। जयमलजी ने प्रकट रूप से उन पर क्रोधित होकर उन्हें डाँटते हुए कहा कि तुमने असमय में युगल सरकार की चित्रसारी में जाकर उनके आनन्द में विघ्न क्यों डाला, भविष्य में ऐसा कभी मत करना; किन्तु मन ही मन पत्नी के भाग्य की सराहना भी कर रहे थे। ये सोचने लगे कि महारानी पर प्रभु की पूर्ण कृपा है, तभी तो युगल सरकार ने उसे अपने पास बुलाकर अपने साक्षात दर्शन दिये हैं और तब से जयमलजी उनका अत्यधिक आदर करने लगे।
जयमलजी सदैव प्रेम की अद्वय युगल मूर्त्ति श्रीश्यामा-श्याम एवं उनके नित्यविहार की निरन्तर भावना करते रहते थे। इनका नियम था कि ये प्रातः काल युगलवर को जगाने से लेकर उन्हें राजभोग पश्चात शयन कराने तक की अष्टयाम सेवा प्रतिदिन पौने चार घण्टे में पूर्ण करने के बाद ही राजदरबार में आते थे और दरबार में पहुँचकर भी ये एक लम्बी माला द्वारा सभी दरबारियों के साथ मिलकर डेढ़ घण्टे तक भजन किया करते थे। इन्होंने बड़े-बड़े मणियों की एक माला बना रखी थी। उस बड़ी लम्बी माला का एक मणि प्रत्येक दरबारी के हाथ में रहता था। सब लोग एक साथ उस माला को फेरना प्रारम्भ करते थे और जब माला का सुमेरु घूमकर पुनः उस दरबारी के हाथ में आ जाता था, जिसके हाथ में वह माला प्रारम्भ करते समय था, तब सभी की एक साथ एक माला पूरी मानी जाती थी। इन्होंने भजन के समय में, कैसी भी विपत्ति उपस्थित होने पर, वहाँ आकर इन्हें उसके विषय बताकर, इनके भजन में विघ्न पैदा करने के लिये, सभी को निषेधाज्ञा भी दे रखी थी। इस निषेधाज्ञा के उल्लंघन करने वाले को मृत्यु-दण्ड का भी प्रावधान किया गया था।इस प्रकार निष्काम भजन करते हुए इनकी अस्सी वर्ष की आयु हो चुकी थी। इनके इस लम्बे जीवन में शत्रुओं ने जब-जब सिर उठाया, तब-तब उनको श्रीराधावल्लभलालजी की कृपा से पराजित ही होना पड़ा। मड़ीवर राज्य का शासक इनसे बहुत दिनों से द्वेष रखता था और कई युद्धों में परास्त भी हो चुका था। राज्य के किसी भेदिये ने इनके भजन काल और उसमें इनके न उठने की प्रतिज्ञा को मड़ोवर के राजा को बताने के साथ-साथ उन्हें उसी समय इन पर चढ़ाई करने की प्रेरणा दी। कायर मड़ोवर के राजा को यह बात बहुत अच्छी जँची और उसने ठीक उसी समय पर दस हजार घुड़सवार तथा तीस हजार पैदल सेना लेकर जयमलजी की राजधानी मेड़ता को चारों ओर से घेर लिया। अभिमान में चूर शत्रु-सेना निशस्त्र प्रजा को मारने एवं लूटने लगी। समस्त नगर में बड़ा भारी कोलाहल मच गया। जयमलजी उस समय अपने भजन में तल्लीन थे। निषेधाज्ञा के कारण किसी का साहस राजा को सूचना देने का नहीं हो रहा था। अतः भय से त्रस्त सारी प्रजा जयमल जी की माताश्री के पास पहुँची। प्रजा पर अकस्मात आये इस घोर संकट को देखकर एवं एक राजा पर अपनी प्रजा की सुरक्षा जिम्मेदारियों को समझते हुए माताजी अत्यन्त डरी-डरी सी जयमलजी के पास आई और रो-रोकर प्रजा की दयनीय दशा का वर्णन करने लगीं। उन्होंने यह भी कहा कि "बेटा! मड़ोवर के राजा ने बहुत बड़ी फौज लेकर नगर को घेर लिया है और वे नगर के अन्दर घुसने लगे हैं; किन्तु तुम यहाँ भजन करने में तल्लीन हो और साथ ही तुमने उन सब सरदारों को भी अपने साथ भजन में लगा रखा है, जिनसे कि राज्य के रक्षा की आशा की जा सकती थीं"। जयमलजी की राज्य के प्रति आशक्ति गुरु-कृपा से पहले ही नष्ट हों चुकी थी। ये तो सारी सम्पत्ति एवं सारा ऐश्वर्य प्रभु का ही समझते थे। किसी भी वस्तु में अपनी सत्ता अथवा अपनत्व का अनुभव करना ही तो बन्धन है और तभी उस वस्तु के अभाव में दुःख का अनुभव होता है। जयमलजी इन सब बातों से ऊपर उठ चुके थे और तभी तो इन्हें राजर्षि कहा जाता था। इन्होंने अति विनम्र शब्दों में माँ से कहा कि-" माताश्री! प्रभु जो करते हैं, अच्छा ही करते हैं, उनकी कृपा से सब प्रकार से मंगल ही मंगल होगा, घबड़ाने की कोई बात नहीं है, जो प्रभु की इच्छा होगी वही होगा"। राजा के इस उत्तर से माताजी सहित प्रजा के समस्त लोग हताश होकर मृत्यु का समय निकट आ जाने का अनुभव करने लगे।भक्तभावन श्रीराधावल्लभलालजी जयमलजी की इस भजन निष्ठा एवं इस अनन्य आश्रय से प्रभावित होकर स्वयं जयमलजी का रूप धारणकर जयमलजी के घुड़साल में पहुँचे और पूर्व सजे हुए घोड़े पर सवार होकर रण क्षेत्र में जा पहुँचे। मड़ोवर की सेना को वे उनके काल के रूप में दिखाई पड़ रहे थे। वै एक से अनेक बनकर उनके साथ युद्ध करने लगे। वे एक तीर से सैकड़ों सेनानियों को मार रहे थे। यह देखकर मड़ोवर के राजा की सेना अपने शस्त्रों को छोड़कर भाग खड़ी हुई। मैदान खाली देखकर भगवान
वापिस जयमलजी के
घुड़साल में आ गये और घोड़े को उसके स्थान पर बाँधकर अन्तर्धान हो गये। जयमलजी जब अपना नित्य नियम करके निकले, तो उनके मुख पर कोई चिन्ता नहीं थी और वह कमल की तरह खिला हुआ था। घुड़साल में पहुँचकर इन्होंने अपने घोड़े को तैयार करने की आज्ञा दी। सेवक ने आश्चर्य में पड़कर इनसे प्रार्थना की कि अभी तो आप रण विजय करके घोड़े से उतर कर गये थे और अब तुरन्त ही किस स्थल पर जाने के लिये तैयार हैं; अभी तो घोड़े का पसीना भी नहीं सूख पाया है। जयमलजी सेवक की बात सुनकर बहुत ही विस्मय में पड़ गये। इन्होंने बाग के बाहर आकर युद्ध स्थल को देखा जहाँ पर शत्रु के बहुत से आदमी क्षत विक्षत अवस्था में मरे पड़े थे। उसी समय इनके पाँच अश्वारोहियों ने भी आकर आज के रण विजय के लिये इन्हें बधाई दी। जयमलजी प्रभु की इस भक्त वत्सलता को देखकर सजल नयनों से एवं गद्-गद् कंठ से उनका सुयश गान करने लगे और बोले कि " हे प्रभु! आप सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग सभी समयों पर पाण्डव, अम्बरीश, द्रुपद-सुता, गज, प्रहलाद आदि भक्तों की रक्षा सदैव करते आये हैं, किन्तु मुझसे तो उन जैसी कोई भक्ति नहीं बन सकी, फिर भी न जाने आप मेरी कौन सी बात पर रीझ गये। हे प्रभु! यह आपकी परम दयालुता ही है कि आपने मुझ जैसे को भी अपना समझा"। यह परम सत्य है कि प्रभु भक्तों के दुख में दुखी और सुख में सुखी रहते हैं। वे सदैव सच्चे प्रेम के वश में रहते हैं। यह बात वेद और पुराणों से भी प्रमाणित है।