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सैन के पद

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सैन के पद

सैन के पद

सैन के पद

(रात्रि में गाये जाते हैं।)

गोस्वामी श्रीहित हरिवंशचन्द्र महाप्रभुजी कृत-राग केदारी

छांड़ि दै मानिनी मान मन धरिवो।

प्रणत सुन्दर सुघर प्राण वल्लभ नवल, वचन आधीन सौं इतौ कत करिवौ।।

जपत हरि विवस तब नाम प्रतिपद विमल, मनसि तब ध्यान तें निमिष नहिं टरिवौ ।

घटत पल-पल सुभग शरद की यामिनी-भामिनी सरस अनुराग दिशि ढरिवौ ।।

हौं जु कछु कहत निज बात सुनि मान सखि, सुमुखि बिन काज घन विरह दुख भरिवौ।

मिलत हरिवंश हित कुंज किशलय शयन, करत कल केलि सुखसिंधु में तरिवौ ॥१॥

राग कान्हरौ-

नागरी निकुंज ऐंन किशलय दल रचित सैन, कोक कला कुशल कुँवरि अति उदार री।

सुरत रंग अंग-अंग हाव-भाव भृकुटि भंग, माधुरी तरंग मथत कोटि मार री ॥

मुखर नुपुरन सुभाव किंकिणी विचित्र राव, बिरम-बिरम नाथ वदन वर बिहार री।

लाड़िली किशोर राज हंस-हंसिनी समाज, सींचत हरिवंश नैन सुरस सार री ॥२॥

राग सारंग-

विपिन घन कुंज रति केलि भुज मेलि रुचि, स्याम-स्यामा मिले शरद की रामिनी।

हृदय अति फूल समतूल पिय नागरी, करनि-करि मत्त मनौं विविध गुण गमिनी।

सरस गति हास-परिहास आवेस बस, दलित दल मदन बल कोक रस कामिनी।

जय श्रीहति हरिवंश सुनि लाल लावण्य भिदे, प्रिया अति सूर सुख सुरत संग्रामिनी ॥३॥

राग सारंग-

नवल नागरि नवल नागर किशोर मिलि, कुंज कोमल कमल दलन सिज्या रची।

गौर साँवल अंग रुचिर तापर मिले, सरस मणि नील मनौं मृदुल कंचन खची।

सुरत नीवी निर्बध हेत प्रिय मानिनी, प्रिया की भुजन में कलह मोहन मची।

सुभग श्रीफल उरज पाणि परसत रोष हुंकार गर्व दृग भंगि भामिनि लची ॥

कोक कोटिक रभस रहसि श्रीहरिवंश हित, विविध कल माधुरी किमपि नाहिन बची।

प्रणय मय रसिक ललितादि लोचन चषक, पिवत मकरन्द सुख रासि अन्तर सची ॥४॥

राग देवगंधार-

देखत नव निकुंज सुनि सजनी, लागत है अति चारु।

माधविका केतकी लता लै, रच्यौ मदन आगारु।।

शरद मास राका निशि शीतल, मंद सुगंध समीर।

परिमल लुव्ध मधुवत विथकित, नदत कोकिला कीर ॥

बहु विध रंग मृदुल किसलय दल, निर्मित पिय सखि सेज।

भाजन कनक विविध मधु पूरित, धरे धरनि पर हेज।॥

तापर कुशल किशोर-किशोरी, करत हास-परिहास।

प्रीतम पाणि उरज वर परसत, प्रिया दुरावत वास।।

कामिनि कुटिल भृकुटि अवलोकेत, दिन प्रतिपद प्रतिकूल।

आतुर अति अनुराग विवस हरि, धाय धरत भुज मूल।।

नागर नीवी बंधन मोचत, ऐंचत नील निचोल।

वधू कपट हठ कोप कहत कल नेति-नेति मधु बोल।

परिरंभन विपरित रति वितरत, सरस सुरत निज केलि।

इन्द्र नील मणि मय तरु मानौं, लसत कनक की बेलि ।।

रति रण मिथुन ललाट पलट पर, श्रम जल सीकर संग।

ललितादिक अंचल झकझोरत, मन अनुराग अभंग ।।

जय श्रीहित हरिवंश यथामति वरणत, कृष्ण रसामृत सार।

श्रवण सुनत प्रापक रति राधा, पद अम्बुज सुकुमार ॥५॥

गोस्वामी श्रीकमलनैनजी कृत-पद

तिय नैनन में नीद धुरानी।

झुकि-झुकि परत ललन अंसन पर, ललितादिक कहें केलि कहानी ।।

नैन बैन आलस जब जान्यौ सखियन सैन आरती ठानी।

अंग-अंग दुति चौंध कौंध में दृग कोरन कटाक्ष ठहरानी।

मदन विवश चले सदन सेज कौं अदन पान सब सखियन आनी।

जै श्रीकमल नैन हित कुंज ओट है अवलोकत निसि जात न जानी ॥६॥

गोस्वामी श्रीकृष्णदासजी कृत-पद

रति रण जीति पौढ़ी बाल।

कोक दावन हाव भावन विवस कीने लाल।।

शिथिल भूषण बसन अँग-अँग मरगजी उर माल।

(जै श्री) हित विनोद अलि चरण सेवत कृष्णदास तिहिकाल ॥७॥

पद-

देखौ चित्रसारी बनी।

मणिनु दीपक रन्ध्र झलकत विविध सोभा सनी ॥

अरस परस सुगंध की उद्गार आवत छनी।

मध्य सेज विराज पौढ़े रसिक दम्पति मनी।।

अंग-रंग अनंग भीने राधिका धन-धनी।

पद कमल सेवत तहाँ हित रूप एकै जनी॥८॥

राजत निकुंज माल ठकुरानी।

कुसुम सेज पर पौढ़ी स्यामा राग सुनत मृदु वानी।

ललिता चरण पलोटन लागी लाल दृष्टि ललचानी।

पाँइ परत सजनी के मोहन हित सौं हा-हा खानी॥

भई कृपाल लाल पर ललिता, दै आज्ञा मुसिकानी।

आवहु मोहन चरन पलोटी जैसे कुँवरि न जानी।।

आज्ञा दई कुँवरि ललिता कौं मुख ऊपर पट तानी।

बीन बजाय गाय कछु तानन ज्यौं उपजै सुख सानी।।

गावन लगे रसिक मन मोहन तब जानी महारानी।

उठि बैठी श्रीव्यास की स्वामिनि वृन्दावन की रानी ॥९॥

राग कल्याण-

ललन की बतियाँ चोज सनी।

परम कृपाल चितै करुनामय लोचन कोर अनी ॥

उमँगि ढरे दोऊ सुरत सेज पै टूटी तरकि तनी।

परम उदार व्यास की स्वामिनि बकसत मौज घनी ॥१०॥

चाँपत चरन मोहन लाल।

प्रयंग पौढी कुंवरि राधा, नागरी नव बाल।

लेत कर धरि परसि नैनन, हरषि लावत भाल।

लाइ राखत हृदै सौं तब गनत भाग विशाल।।

देखि पिय आधीनता भई कृपा सिंधु दयाल।

व्यास स्वामिनि लिये भुज भरि अति प्रवीन कृपाल ॥११॥

राग धनाश्री सारंग-

नव कुँवरि चक्र चूड़ानृपति साँवरौ, राधिका तरुनि मनि षट्टरानी।

शेष गृह आदि बैकुण्ठ पर्यन्त सब लोक थानैत बन राजधानी ।।

मेघ छ्यानवे कोटि वाग सींचत जहाँ, मुक्ति चारौं जहाँ भरत पानी।

सूर्य-शशि पाहरु, पवन जन, इन्दिरा चरन दासी, भाट निगम वानी ।।

धर्म कुतवाल, शुक सूत नारद चारु, फिरत चर चार सनकादि ज्ञानी।

सतोगुन पौरिया, काल बँधुवा, कर्म डाँडिये, काम रति सुख निसानी॥

कनक मरकत धरनि कुंज कुसुमित महल मध्य कमनीय सयनीय ठानी।

पल न बिछुरत दोऊ जात नहिं तहाँ कोऊ, व्यास महलन लिए पीक दानी ॥१२॥

श्रीहित दामोदरजी कृत-पद

सोभा सरस हिय में बसी।

मृगज नैंनी लाल सन्मुख चितै छवि सौं हँसी ॥

कंप अंग-अंग जानि नागरी कुंज मंदिर धसी।

अंग भरे पिय सेज ऊपर खोलि कंचुकी कसी।

अधर अमृत प्याइ पिय उर दामिनी-सी लसी।

केलि कोविद हित दामोदर ताप मनसिज नसी ॥१३

पद-

पौढ़े साँवरे नंदलाल।

कुंज मंदिर सुभग सिज्या संग राधा वाल।

मृदुल गेंदुक सीस तर पर भुजा स्यामल-गौर।

मिले उर सों उरज प्रिया पिय रसिक वर सिरमौर ।

अधर अमृत पियत प्रीतम घुरत मंजुल नैन।

एक अंवर हित दामोदर ओढ़ि मूरति मैन ॥१४॥

फुटकर पद

पद-

जुरे दृग कमल अमल सुख सैन।

कनक वल्लरी श्याम तमालहि उरझायौ सुरझै न।

सुनि-सुनि बैन रसाल परस्पर भयौ मैन मन चैन ।

सहचरि सहज निकसि महलन सों दीठ लगीं सब दैन ।।

पीवत प्यार भरे अधरासव तन सुधबुध कछु है न।

श्रीरामराय जमुनोदक झारी धरी पास रस ऐंन ॥१५॥

पद-

लड़ैती जू कें नैनन नींद घुरी।

आलस बस जोवन वस मद बस पिय के अंस दुरी ॥

पिय कर परस्यौ सहज चिवुक वर, बाँकी भौंह मुरी।

बावरी सखी हित व्याससुवन बल देखत लतन दुरी॥१६॥

पद-

कुंज रति केलि कमनीय दम्पति करत।

परस्पर हित विवस रूप मादक छके दूरि कर वसन उर सुदृढ़ अंकन भरत॥

पिवत मधु अधर सुख सिन्धु में मगन मन, निकट तिहि समैं चख चार खंजन लरत।

कवहुँ ध्रुव भंग जुत-सी करत रंग सों अंग प्रति अंग दै परस्पर मन हरत।।

विथुरे बिच कचन मुख गौर निकसत श्रमित चंद तें सघन मनु श्याम बादर टरत।

सुरत रस स्वेद तें महक केसर मिली बास लै नागरीदासि धीर न धरत । ॥१७॥

पद-

नहीं सुरझै उरझन प्रेम की, रही रोम-रोम में भोय।

राधेजू मोहन है रहीं मोहन राधे होय ।।

ललित लतन तर रंग मगे, दोऊ मैं न सनमान।

नैनन सों नैना मिले, पगे प्रान सों प्रान।।

चिवुक तरे पिय कर दिये सोभित हैं इहि भाय।

नील कमल पर अरुन कमल मानौ खिले हैं परम सचु पाय।।

नागरिया रजनी घटै उत चंद मलिन दुति होय ।

त्यौं-त्यौ आलस रूप दुहुँन कौ इतै चौगुनों होय ॥१८॥

राग ध्रुपद-

चली कुँवरि राधिका निकुँज भवन रवन पास सजि सुवास मत्त भँवर संग-संग-संग।

आय रसिक राय निकट लई भुजन झेलि मेलि करत केलि परसत सुख अंग-अंग-अंग॥

जुरत नैन तुटत हार अञ्चल उर छुटत बार, चल कटाक्ष भृकुटि भंग रंग-रंग-रंग।

ता घरिया देखि दुहुँन नागरिया लतन ओट तन मन गति श्रवन नैन पंग-पंग-पंग ॥१९॥

पद-

सोहत हैं अलसीहै नैना।

लटकि-लटकि पिय पर अरसावत, सिथिल कहत मुख आधे-आधे बैना।

बहुत गई निसि प्रिया जँभावत, चुटकी देत लाल सुख दैना।

नागरीदासि सखी छवि देखत विसरि जात उर-उर उपरैना ॥२०॥

पद-

विवि सुख सेज सरोवर क्रीड़त रूप नीर छवि तरल तरंगा।

वैस संधि वय आसव छकि छकि नेह गजक अनुराग अभंगा।

नैन मीन मुख कमल प्रफुल्लित अलि दृग भंग पराग अनंगा।

जै श्रीलाल रूप हित चित नित सेवत सुरत बिहारी बिहारिन संगा॥२१॥

पद-

कुंज पधारौ राधे रंग भरी रैन।

रँग भरी दुलहिनि रंग भरे पिय श्याम सुन्दर सुख दैन ।

रंग भरी सेज रची सखियन नें रंग भस्यौ उलहत मैंन।

रसिक बिहारी पिय-प्यारी दोऊ मिलि करौ सेज सुख सैंन ॥२२॥

पद-

अब पौढ़न कौ समयौ भयौ ।

इत झुक आईं द्रुमन परछैयाँ उत दुरि चन्द गयौ।

उमँगि मिले दोऊ सुरँग सेज पै बाढ्‌यौ रंग नयौ।

रसिक बिहारी पि-प्यारी दोऊ पौढ़े यह सुख दूगन लयौ ॥२३॥

राग केदारी-

प्यारी जू आगें चलि आगें चलि गहवर बन भीतर जहाँ बोलै कोइल री।

अति ही विचित्र फूल पत्रन की सिज्या रची रुचिर सँवारी तहाँ तू सोइल री।

छिन-छिन पल-पल तेरी ये कहानी तुव मग जोइल री।

श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कहत छबीलौ काम रस भोइल री ॥२४॥

पद-

रसिक लाल के अंग संग सुख सेज पौढ़ी भामिनी।

सुरत रंग वर चपल अंग-अंग लज्जित नव घन दामिनी ।।

सुन्दरता की रासि किशोरी नहीं उपमा कौं कामिनी।

श्रीबीठल विपुल विनोद बिहारी सों इह रस विलसत जामिनी ॥२५॥

पद-

एक ओढनी ओढ़ पौढ़े प्रिया-पिय प्रेम प्रजंक।

अरध निसा रस रीझि भीजि रहे अपने-अपने कर अँचत हँसत निसंक ॥

सखी राखत उर पर अंचल तर लटपटाय रहे सीत भीत है यौं गाढ़े गहि अंक।

श्रीबिहारिनिदासि निरखि सखी या छिन की छवि पर बारत तन मन अरु बारत सब रस रंग ॥२६॥

पद-

हँसि चितई पिय तन मृग नैनी।

मुरझि पस्यौ ताही छिन लालन पैठि गई हिय चितवन पैनी ॥

अति अकुलाय अंक भरि लीन्हों अधर सुधा दै कोकिल बैनी।

रस बस विवस किसोर किसोरी रंग महल विलसैं सुख सैनी ॥२७॥

पद-

प्रिया-पिय नैन अरुणता छाई।

अंग-अंग अँगरात मदन बस फिर-फिर लेत जँभाई॥

कोमल कुसुम विविध नाना रंग सरस सुगंध सुहाई।

परम विचित्र ललित अपने कर रचि-रचि सेज बनाई।।

अति अनुराग भरी श्रीश्यामा मिलि पौढ़ी किलकाई।

भगवत रसिक रसमसे दोऊ करत केलि मन भाई॥२८॥

पद-

पौढ़े दोऊ ललित लतान तरे।

सुमन सेज सुख रासि सनेही अधरन अधर धरें।॥

उर सों उरज जोरि कटि सों कटि लपटि भुजान भरें।

यह रस मत्त मगन मन सीये भगवत व्यजन करें ॥२९॥

पद-

प्यारीजू के चरन पलोटत मोहन।

नील कमल के दलन लपेटे अरुन कमल दल सोहन ॥

कबहुँक लै-लै मैंन लगावत अलि भावत मनौं गोहन।

श्री श्री भट्ट छबीली (श्री) राधे होत जगे तें छोहन ॥३०॥

पद-

चलि पौढ़िये राधे कुसुम सेज पर नैनन नींद छाई।

हा-हा प्यारे भली कही अब मैं हूँ अलसाई॥

दै गलबाहीं दोऊ पौढ़े भक्तन सुखदाई।

सूर सरल यह लीला सुन्दर प्रेम सहित गाई॥३१॥

पद-

चाँपत चरन मोहन लाल।

कुँवर राधे पलंग पौढ़ी सुन्दरी नव बाल।।

कबहुँ कर गहि नैन लावत कबहुँ छुवावत भाल।

नन्ददास प्रभु छवि निहारत प्रीति के प्रतिपाल ॥३२॥

पद-

अबही तें मनमथ चित चोरत कहा करैगी जोवन विरियाँ।

मन हरि लेत तनक चितवन में फेरत है नयनन की तरियाँ।।

तेरौ तन गिरधरन लाल हित सब गुण रास विधाता धरियाँ।

कृष्णदास प्रभु गिरधर नागर रिझवत हँसत सहज फूल झरियाँ ॥३३॥

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