होरी डोल के पद
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- November 28, 2025
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चैत्र बदी परवा के दिन होरी डोल के पद
गोस्वामी श्रीहित हरिवंश महाप्रभु जी के पद
-राग देव गंधार-
झूलत दोऊ नवल किशोर । रजनी जनित रंग सुख सूचत अंग-अंग उठि भोर ॥ १ ॥ अति अनुराग भरे मिलि गावत सुर मंदर कल घोर। बीच-बीच प्रीतम चित चोरत प्रिया नैन की कोर ॥२॥ अबला अति सुकुमार डरत मन वर हिंडोर झकोर । पुलकि-पुलकि प्रीतम उर लागत दै नव उरज अकोर ॥३॥ उरझी विमल माल कंकण सों कुण्डल सों कच डोर । बेपथ जुत क्यौं बनैं विवेचत आनन्द बढ्यौ न थोर ॥४॥ निरखिनिरखि फूलत ललितादिक बिबि मुख चन्द्र चकोर । दै असीस हरिवंश प्रसंसत करि अंचल की छोर ॥५॥१॥
गोस्वामी श्रीकृष्णचन्द्रजी कृत-
झूलत फूल भई अति भारी। निर्मित वर हिंडोर विटप तर वृन्दाविपिन बिहारी ॥ १ ॥ सखी सकल अति मुदित भईं बहु रँग पहिरें तन सारी। भृकुटि भंग लावण्य अंग दुति कोटि मदन मद टारी ॥२॥ अति सु गौर राधे ग्रीवा में श्याम भुजा छबि न्यारी। दामिनि अचल विराजत मानौं मेघ घटा बिच कारी ॥ ३ ॥ बरनन कहा कीजिये प्रेम कौ रुचि दायक जहाँ गारी। जै श्री कृष्णदास हित यह सुख देखत प्रान सम्पदा बारी ॥४॥२॥
गोस्वामी श्रीकमलनैनजी कृत-
झूलत प्यारी के संग रंग भरे लाल। मुरली लकुट कटि काछनी काछे पीताम्बर बनमाल ॥ मुकट दमक मुक्ताफल
माँग कौ आँकौ भरैं ब्रजबाल । जै श्री कमलनैन हित अनुपम यह छबि रहौ हिये सब काल ॥ ३ ॥
राग देव गंधार-
जुगल किशोर जोर ही झूलें। रमक झमक लागी रस पागी चौंप-चाव रुचि अंग-अंग फूलें ॥ १ ॥ मचकि लचकि कटि चरन बाहु धरि हरखि बरखि सुख होत अमोलें । सुध नहीं सिथिल विथल भये भूषन ललितादिक गहि राखत ओलें ॥२॥ पावन कर रंग भाजन काजन तजि धाईं लै आईं सोलें। जै श्री कमल नैन हित दासी कौतिक इक टक लागि रही अनबोलें ॥३॥४॥
गोस्वामी श्रीकुञ्जलालजी महाराज कृत राग सारंग
हो-हो-हो-होरी कहि झूलें। प्रेम रंगीले रंग में फूलें ॥ टेक॥ चंदन चारु लता चंपक मिलि रँग-रँग कुसुमन कुञ्जा। मधुर सुगंधन रंध्रन माते मधुप मुदित मधु गुञ्जा ॥१॥ मंजन करि अंजन तन चीर चतुर अँग अंगन धारे। सीस फूल कल कुण्डल बेसर हार तिलक छबि ढारे ॥२॥ चटक छबीलौ मुकट सीस मुरली पीताम्बर सोहै। छबिन छबीली रँगन रँगीली कटि काछिनी मन मोहै॥३॥ मणि मंजीर मिथुन पग झमकत आनन पानन ओभा। चखन चोज रति मौज मनोजन बाढ़त सोभन सोभा ॥४॥ झुंड-झुंड मिलि गावत सहचरि बहु बादिंत्र’ बजावें। रमकन झमकन दरस परस लखि कुञ्जलाल सुख पावें ॥५॥५॥
गोस्वामी श्री रूपलालजी महाराज कृत-
राग सारंग-
डोल झूलत दंपति होरी रंग रह्यौ । फाग सुहाग भरे अनुरागन अंग अनंग लह्यौ॥ लतन-लतन प्रति झलकत तन दुति जात न बैन कह्यौ । जै श्री रूपलाल हित सहचरी झुलवत प्रेम प्रवाह बह्यौ ॥६॥
राग सारंग-
डोल झूलैं री दोऊ जुगल किशोर । फाग भरे अनुराग ढरे ये बिवि मुख चंद चकोर ॥ रूप छके रिझवार लाड़िले सहचरि गन चित चोर। जै श्रीरूपलाल हित रमकन झमकन प्रेम सिंधु की बोर ॥७॥
गोस्वामी श्रीकिशोरीलाल कृत-
रचि सुन्दर डोल झुलावहीं। विहँसि-विहँसि राधा हरि झूलत चहुँ दिस सहचरि गावहीं ॥१॥ होरी कौ सुख बिलसि सभागे परिवा मोद बढ़ावहीं। कबहूँ किलकि- किलकि उर लागत कबहुँ अबीर उड़ावहीं ॥२॥ श्रीराधामोहन जोरी अविचल सखी असीस सुनावहीं। जै श्री किशोरीलाल हित रूप मिथुन मुख निरखत नैंन सिरावहीं ॥३॥८॥
श्रीस्वामी हरिदासजी कृत-
राग देव गंधार-
डोल झूलत बिहारी बिहारिन राग रमि रह्यौ । काहू हाथ अधौटी काद्दू के बीन काहू के मृदंग कोऊ गहि तार काहू के अरगजा छिरकत रंग रह्यौ । डाँड़ी छाँड़ खेल बढ्यौ जो परस्पर नाहीं जानियत पगु क्यों रह्यौ । श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुञ्जबिहारी कौ खेल खेलत काहू न लह्यौ ॥९॥
झूलत डोल दोऊ जन ठाढ़े। हाँगत’ जोर सहित जैसी जाकी डाँडी गहैं गाढ़े। बिच-बिच प्रीति रहसि रस रीति की राग रागिनी के यूथ बाढ़े। श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुञ्जबिहारी राग ही के रंग रँगि काढ़े ॥१०॥
झूलत डोल श्रीकुञ्जबिहारी। दूसरी ओर रसिक राधा वर नागर नवल दुलारी ॥ राखे न रहत हँसत कहि कहि प्रिया बिलबिलात पिय भारी। श्रीहरिदास के स्वामी स्याम कहत री प्यारी, अबकें राखि हा-हा री ॥ ११ ॥
श्रीबिहारिनदासजी कृत-
राग सारंग-
डोल झुलावत कुञ्जबिहारी। रमकि धरत पग नव जोवन भर अति आनन्द दुलारी ॥ १ ॥ सारँग राग अलापत लाल रसाल दै-दै करतारी। कबहुँक हँसत हँसाबत रीझ रिझाबत प्रीतम प्यारी ॥२॥ अरी तब कर गहि लेत किसोर किसोरी पुलकि भरत अँकवारी। श्रीबिहारिनदास दंपति नव-नव छबि पर छिन छिन बलिहारी ॥३॥१२॥
श्रीनागरीदासजी कृत-राग कान्हरौ-
झूलत डोल नवल स्याम प्रिया गोरी । नव निकुञ्ज नव रंग महल अति विचित्र बनी यह जोरी ॥१॥ भृकुटि कटाक्ष मनोहर नैंनन बैंन बदत चित चोरी। गावत तान तरंग अनंगन रीझि कहत हो-होरी ॥२॥ डाँडी छाँड़ि करत परिरंभन चुंबन देत निहोरी। कच कुच कर कंचुकी रस परसत विहरत कुँवर किसोरी॥३॥ तब सहचरी अतिही उड़ावत बूका बंदन रोरी। निरखि नागरीदासि दंपति छबि विपुल प्रेम भई भोरी ॥४॥१३॥
श्रीदामोदर स्वामीजी कृत-
राग धनाश्री-
जमुना पुलिन सुहावनौ, रंग भीने झूलैं । तन मन मोद बढ़ाइ। डोल सुहावनौं, रंग भीने झूलैं ॥ कंचन खंभ जटित बने, रंग भीने झूलैं । देखत मन ललचाइ, डोल सुहावनौं रंग भीनें झूलैं ॥१॥ नवल लाल नव लाड़िली ॥ रंग० ॥ मुदित सखी यह भाइ ॥ डोल० ॥ मानौं जुग ससि एकठाँ ।। रंग० ।। कुमुदिन फूली ढिंग आइ ॥ डोल० ॥ २ ॥ नील पीत पट राजहीं ॥ रंग० ॥ भूषण रहे छबि छाइ ।। डोल || यह छबि कवि को कहि सकै॥ रंग० ॥ चितवत मृदु मुसिकाइ || डोल० ॥३॥ चारौं दृग चंचल बने ॥ रंग० ॥ उपमा कछु ठहराइ ॥ डोल० ॥ मानौं रूप तड़ाग में। रंग ॥ खेलत मीन सुभाइ ॥ डोल० ॥४॥ मधुर-मधुर सुर गावहीं ॥ रंग०॥ खग मृग रहे लुभाइ॥ डोल॰॥ अद्भुत रंग बढ्यौ तहाँ ।। रंग० ॥ सारद बलि-बलि जाय ॥ डोल० ॥५ ॥ सुरंग गुलाल अखंड सौं । रंग० ॥ गगन रह्यौ घमड़ाइ ॥ डोल० ॥ मनु हरि ऊपर काम नै॥ रंग॥ रच्यौ है बितान बनाइ || डोल० ॥ ६ ॥ बड़ झोटन भय भामिनी ॥ रंग० ॥
॥६॥ ॥
लागत पिय तन धाइ । डोल० ॥ मानहु सुन्दर मेघ सौं॥ रंग ॥ छबीली छटा लपटाइ ॥ डोल० ॥७॥ सोभा के सागर दोऊ ॥ रंग ॥ छिन छिन छबि अधिकाइ ॥ डोल० ॥ दामोदर हित रसिक जे ॥ रंग ॥ जीवत यह जस गाइ ॥ डोल० ॥८॥१४॥
श्री सहचरिसुखजी कृतः
राग धनाश्री-
रितु बसंत झूलत दम्पति वन रंग फूल्यौ जमुना के तीर । रूप रमक रमकत रूपन में जुगल अंग भई छबि की
भीर ॥१॥ ललित डोल ललिता पधराये, उझली उज्ज्वल रस की सीर । पुलकि कट्यात लज्यात ललित तन लपटन चाहत परसत चीर॥२॥ राग सुहाग सफल भये भागन मेटत मन मनमथ की पीर। चूरयौ चहत मृजात हटत फिर गज लौं जकरे सकुच जंजीर ॥ ३ ॥ बाँकौ मुकुट इते पर मोहन ग सयान सुमुख गहि धीर । खिसत सिंगार प्रिया कौ जब कोऊ होत खवास’ रसिक बलबीर ॥४॥ ललितादिक लीनै पिचकारी बीच भरैं केसर कौ नीर। चरचत चोबा चन्दन बन्दन चहुँघाँ पँचरंग उड़त अबीर ॥५॥ फूलीं कुञ्ज विबिध वृन्दावन बोलत छकि-छकि कोकिल कीर । सहचरि सुख वारी तिन ऊपर जिनके इहि रस मगन सरीर ॥ ६ ॥१५॥
राग सारंग-
झूलत डोल मोहनी मोहन फूलि – फूलि वंशीवट छहियाँ । डाँडी गहैं एक भुज राजत एक भुजा दीनें गरबहियाँ। रितु बसंत के बसन पहिर तन रूप छकत चाहत मुख चहियाँ। सहचरिसुख कुञ्जन ललितादिक निरखि हरखि राखे हिय महियाँ ॥ १६ ॥ राग ईमन-
झूलत डोल झलक अँग अंगन राधामोहन श्रीबंशीवट। रूप बसंत खिले बर बैसन ज्यौं बसंत फूल्यौ जमुना तट ॥ १ ॥ तकत सकत’ लाजन भीजत तन पुलकत परसत ज्यौंहि नील पट। सुरझयौ चहत हियन अरुझत ज्यौं अरुझत हार अरुझि कुण्डल लट॥२॥ झोटा देत ललित ललितादिक गौर स्याम जिन रंग जुगल घट’। सहचरि सुख झलकत मुकरन’ में पिय नागरि है तिय नागर नट ॥३॥१७॥
श्री कृष्णदासजी भाबुक कृत-
डोल झूलत राधिका नागरी। झुकन हिडोर झकोरन में उर लगत श्याम बड़ भाग री ॥ मधुर-मधुर मृदु बैनन नैनन चढ़त मैन रस पाग री। विवस बिलोक भुजन भर प्रियतम हरख ढरत अनुराग री ॥ अंग अनंग उमंग सुरंगन झेलत खेलत फाग री। कृष्णदास हित निपट निकट है गावत गीत सुहाग री ॥१८॥
श्रीप्रेमदासजी कृत- राग सारंग-
आज सोहत रमकनि डोल की। कुँवरि कुँवर मिलि झूलत फूलत बाढ़ी प्रभा कलोल की ॥१॥ रुरत अलक तिनमें है झाईं झलकत ललित कपोल की । छाई अरुणाई आनन पर कोमल कलित तम्बोल की ॥२॥ हलत नासिका कौ मुक्ताहल अरु फहरान निचोल की। विलुलित’ विमल लागि उर-उर सों माला रतन अमोल की ॥३॥ वरषाबत अति रंग अनूपम शोभा सुन्दर बोल की। प्रेम सहित चित बसौ केलि कल खेलन नैन सलोल की॥४॥१९॥
राग सारंग-
माई री झूलत डोल लाड़िलीलाल। झलकत अंग अनंग विशाल ॥ टेक ॥। चितवत दृग कोरन नव बाल। झलमलात मुसिकान रसाल ॥१॥ रुरकत अलक झलक बर भाल। बिलुलित उर पर मंजुल माल ॥२॥ आनन पानन भरे अनूप। चंचल नैंन ऐंन रस रूप ॥ ३॥ मानौ फूले उभै सरोज। तिनमें खेलत खंजन मनोज ॥ ४ ॥
झूमक सारी पहिरें भाम। खुभी ॥५॥ कंचुकी उर अति श्याम ॥ ५ ॥ हेम बरन अतरौटा चारु। निरखि हरखि फूलत सुकुँवार ॥६॥ क्वणित किंकिणी कंकण खरें। नूपुर मधुर-मधुर धुनि करें ||७|| भरें अंक तजि संक उदार । लचकत कटि सोभा के भार ॥८॥ वैणी गुही जुही के फूल। पृथु नितंब पर विमली झूल ॥९॥ चंचल कुंडल मंडित गंड। कलँगी हलत चन्द्रिका अखंड ॥ १० ॥ करत अधर मधु पान सलोल। प्रफुलित तन मन उठत कलोल ॥११॥ प्रेमदासि हित जुत सुख पुंज। सदा बसौ मम नैन निकुंज ॥१२॥२०॥
चाचा श्रीवृन्दावनदासजी कृत-
राधा लाल डोल झूलैं ऐसी छबि पावैं। मानौं घन दामिनी अवनि झुके आवैं ॥१॥ कबरी’ कुसुम किरें? सोभा सरसावैं। मानौं छबि धुरवा बूँदन बरसावैं ॥२॥ कंकन किंकिनि धुनि मिलि दोऊ गावैं। गरज सिखंडी अली मोद उपजावैं॥ ३ ॥ चात्रक से दृग सखी उतही लगावैं। रूप रस पान करें हिय कौं सिरावैं ॥४॥ रमकत मानौं प्रेरे पवन के धावैं। धनि होरी डोल ऐसे कौतिक दिखावैं ॥ ५ ॥ झिल्ली धुनि मानों पग नूपुर बजावैं। वृन्दावन हित रूप झर सौ लगावैं॥६॥२१॥
राग धनाश्री-
डोल रच्यौ नव कुँज री, राधा हरि झूलैं ॥ परिवा परब मनाइ, अति छबि देत री, राधा हरि झूलैं॥ बास बसंती तन फबे ॥ राधा० ॥ बरनत मति अरुझाइ, अति छबि देत री ॥ राधा०॥१॥ लसि गसि हुलसि हरें – हरें ॥ राधा०॥ सरकि दरकि लगि अंग ।। अति० ॥ गावत रस रंगन भरे । राधा० ॥ उपजत तान तरंग ॥ अति० ॥ राधा० ॥२॥ ललित बदन मुसिकन भरी। राधा०॥ बोलत मीठे बैंन । अति०॥ सनमुख साधें पीय के॥ राधा० ॥ कल कटाक्ष सर नैंन ॥ अति० ॥ राधा० ॥३॥ झूलत फूलत चाइ सौं॥ राधा० ॥ करि लालन तन चोट॥ अति० ॥ सहि गहि कर डाँडी रहैं ॥ राधा० ॥ बिसरे दृग पग ओट ॥ अति० ॥ राधा०॥४॥ पीवत तन छबि माधुरी ॥ राधा० ॥ करि करि गाढ़ी ओक॥अति०॥ इत बरषा भरु’ रूप की ॥ राधा०॥ दहलत घुमड़न झोक ॥अति०॥ राधा०॥५ ॥ उपजत नाना भाइ सौं॥ राधा०॥ रमकन झमकन चोज॥अति ॥ भ्रुव विलास बिथकित भये ॥ राधा० ॥ अगनित ओज मनोज॥ अति०॥ राधा० ॥६॥ बिलुलित उर हारावली ॥ राधा०॥ पुनि लचकत कटि खीन ॥ अति० ॥ सोभा अमित प्रवाह में। राधा०॥ पैरत पिय दृग मीन॥अति० ॥ राधा ॥७॥ बढ़ि-बढ़ि झोटा देत हँसि ॥ राधा०॥ गाढ़ मिलन मिस पीय॥अति०॥ तब जिय कछु भय मानि कैं॥ राधा० ॥ भामिनि लागत हीय॥अति०॥ राधा०॥८॥ दरस परस सुख अंग कौ॥ राधा० ॥ रोम-रोम रह्यौ पूरि ॥ अति० ॥ मदन स्वाद रस हिय भिदे ॥ राधा०॥ मिथुन कोक बिधि सूर॥अति० ॥ राधा०९ ॥ तब हित रूपा सहचरी ॥ राधा०॥ उदित मनोभव जानि॥अति०॥ निबिड़ निकुंज निवसित किये ॥ राधा०॥ रसिक कुँवर सुखदानि ॥ अति० ॥ राधा० ॥ १० ॥ सुख संगम सरिता बढ़ी || राधा० ॥ न्हात सुमति अलि वृन्द ॥ अति० ॥ गहकि- गहकि पीवत सबै॥ राधा० ॥ दृग मग भरि आनंद ||अति० ॥ राधा०॥११॥ रस गहरें लहरें उठें ॥ राधा || प्रेम हिंलोरे ले | अति० ॥ सुरत हिंडोरे रमकहीं ॥ राधा० ॥ झलकत उझलन हेत ॥ अति० ॥ राधा०॥१२॥ यों होरी रस बिलसि कैं॥ राधा० ।। दियौ सखिनु चित चैन ॥अति०॥ वृन्दावन हित नित रहौ ॥ राधा०॥ यह सुख निरखत नैंन । अति छबि देत री राधा हरि झूलैं ॥१३॥२२॥
राग गौरी-
होरी खेल झूलत हैं दंपति डोल री । रूप के सवाद भये नैन सलोल री ॥ १ ॥ झोटन की बढ़न में फरकैं दुकूल री। झरिझरि परत हैं कबरी ते फूल री॥२॥ मुकुट लटक सोभा बाढ़ी अंग-अंग री। झूलन में रचैं लाल होरी ही के रंग री॥३॥ प्यारी जू की चंद्रिका झुकी है इह भाँति री। फागुन मदन जीत धुज फहरात री ॥४॥ सजनी झुलावैं गावैं अस कछु राग री। मनसिज हिय होत मनसिज जाग री ॥५॥ होरी सुख भोगी जोरी यह बिसे बीस री। वृन्दावन हित रूप देत हैं असीस री॥५॥२३॥



