श्री कन्हरस्वामी जी एवं श्री हरिकृष्ण पुजारी जी
श्री कन्हरस्वामी जी एवं श्री हरिकृष्ण पुजारी जी
कन्हरस्वामीजी भी कल्याणपुजारीजी की भाँति श्रीराधावल्लभलालजी के अंग-सेवी थे। विशेषता यह थी कि मन्दिर की ओर से श्रीजी को जो भोग लगाया जाता था, उसे ये अपनी सेवा के बदले में ग्रहण नहीं करते थे; वल्कि अपनी ओर से, अलग से ही श्रीजी को भोग लगाकर एवं उस प्रसाद को साधु-सन्तों को खिलाकर, ये कल्याणपुजारी की भाँति, उनकी जूठन मात्र ही ग्रहण किया करते थे। आपकी साधु सेवा, महाप्रसाद निष्ठा, निज इष्ट अनन्यता ये सभी बातें आश्चर्यजनक थीं। एक भरे पूरे परिवार को साथ रखते हुए, साधुओं जैसी इनकी यह त्यागवृत्ति एवं साधुतापूर्ण जीवन शैली, तत्कालीन विरक्त समाज के लिये भी अनुकरणीय थी। हरिकृष्णपुजारीजी ने भी कन्हरस्वामीजी की तरह ही श्रीराधावल्लभलालजी के चरण कमलों का अनन्यतापूर्ण आश्रय अत्यन्त दृढ़ता के साथ ले रखा था। इन्होंने अपने कुल के देवता की पूजा करना छोड़कर श्रीराधावल्लभलालजी को अपना परम इष्ट मान लिया था। ये उनके श्रीअंग की सानुराग
सेवा हार्दिक रुचि, गहरी लगन तथा सच्ची निष्ठा के साथ किया करते थे। अपना शेष
समय ये इष्ट के नाम स्मरण एवं श्रीहित वाणियों के पाठ में व्यतीत किया करते थे। ये
अपने इष्ट के प्रसाद के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं खाते थे। जब कभी कोई महानुभाव
इनकी इस अनन्यता पर कटाक्ष करते थे, तब ये उनसे कहा करते थे कि जहाँ पर
श्रीहितपद्धति के अनुसार सेवा-पूजा होती हो और श्रीहितजी महाराज की आज्ञानुसार
महाप्रसाद में उनकी अनन्य निष्ठा हो, उन्हीं के यहाँ का प्रसाद लेना चाहिये; किन्तु
जैसाकि वृन्दावन के बड़े-बड़े ठाकुर मन्दिरों में देखा जाता है कि महाप्रसाद में उनकी अन्न
बुद्धि ही रही आती है। उन मन्दिरों में एकादशी के दिन भक्त लोग ठाकुर जी को निवेदन
किये हुए अन्न के प्रसाद को ग्रहण नहीं करते हैं और उसके स्थान में फलाहार करते हैं।
इससे स्पष्ट रूप से महाप्रसाद का अनादर होता है और इष्ट की अवज्ञा होती है। इष्ट का
प्रसाद निर्गुण वस्तु है और भोग लगाने के बाद वह अन्न नहीं रहता। उसे अन्न समझकर
एकादशी के दिन उसका त्याग करना अनुचित है।
इनके जीवन में परम साधुता की एक और भी बात यह थी कि ये सर्वथा बहिर्मुख लोगों में श्री प्रभु के दर्शन करते थे। किसी को काम-क्रोध आदि के वश में देखते हुए भी ये उसमें आराध्य बुद्धि ही रखते थे। ये कभी भी किसी से उसके हृदय को आघात पहुँचाने वाले कटु वचन नहीं बोलते थे। यदि किसी कारण वश कोई इनसे दुर्वचन भी बोल जाता, तो ये उसे शान्ति पूर्वक सुन लेते थे, उसका प्रत्युत्तर नहीं देते थे। इस प्रकार इन्होंने गृहस्थ आश्रम में रहकर भी परम साधुता की विचित्र रहनी का आदर्श स्थापित किया था।