श्री द्वारिकादास जी
श्री द्वारिकादास जी
द्वारिकादासजी तत्कालीन किसी सूबे के दीवान थे। इन्हें गो. श्रीदामोदरवरजी महाराज के कृपापात्र होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। बादशाही सम्मान, विशाल राजप्रासाद, विशाल राज-सम्पत्ति और आज्ञाकारी सन्तति के साथ अनेक दास-दासियों से सुसम्पन्न होते हुए भी ये विरक्तमय जीवन ही व्यतीत करते थे। अपने इष्ट और अपने धर्मियों की सेवा करना ही इन्होंने अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बना लिया था। गुरु-भक्ति तो इनके जीवन की प्रधान वस्तु थी, अद्वितीय थी, आदर्श थी।
एक बार इनके गुरुदेव गो. श्रीदामोदरवरजी इनके घर पधारे। उस समय इन्होंने इष्ट-मिलन जैसा उत्सव किया। परम मांगलिक वस्तुओं से सम्पूर्ण घर और आने के रास्ते को सजाया गया। विशाल जन समूह के साथ गाते बजाते और नाँचते हुए इन्होंने अपने पूज्य गुरुवर की अगवानी की। एक विशाल सुसज्जित स्वागत मण्डप के नीचे एक अतीव सुन्दर सिंहासन पर उन्हें विराजमान किया गया तथा पूजन आदि करने के पश्चात सहस्र वर्तिकाओं से उनकी आरती उतारी गई। तत्पश्चात् इन्होंने अस्सी हजार रुपये, वर्तन, वस्त्र, आभूषण, रथ, पालकी, घोड़े, दास-दासियों आदि के साथ अपनी समस्त चल-अचल सम्पत्ति अपने पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में भेंट कर दी और अपनी पत्नी के साथ ये स्वयं अपनी अंग रक्षा में केवल मात्र एक-एक धोती पहनकर एवं हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करते हुए उनसे प्रार्थना करने लगे कि "हे महाप्रभु ! आप अनन्त ब्रह्माण्डों के निर्माता, नियन्ता और संहारक हो। दृश्य और अदृश्य ये सारी वस्तुएँ आपकी ही हैं। अज्ञानी जीव इनमें अहमत्व और ममत्व बुद्धि रखते हुए, अपने कर्मों के फल स्वरूप स्वर्ग-नर्क और मृत्युलोक के आवागमन के चक्कर में फँसा रहता है। तब आप ही गुरु रूप में प्रकट होकर इस दृश्य-अदृश्य जगत की नश्वरता एवं अपने नित्य स्वरूप की अक्षुण्णता का उपदेश करते हैं और साथ ही अंश रूप जीव का नित्य अंशी स्वरूप से अभंग सम्मिलन प्राप्त करना ही इस जीव का परम धर्म है, इस अकाट्य तथ्य का उसे भलीभाँति ज्ञान कराते हैं। आपने करुणा करके मुझे श्रीजी का नाम सुनाया है और मुझे रसिकों के अनन्यता प्रधान प्रेम धर्म का मर्म समझाया है। प्रभु के धाम और आप जैसे प्रभु के भक्त काल ग्रसित प्रपंच से न्यारे होते हैं।"
द्वारिकादासजी के इस प्रकार के निष्कपट और प्रीतियुक्त वचनों को सुनकर गो. श्रीदामोदरवरजी अति प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा- "जैसा कि तुमने स्वयं कहा है कि यह सम्पूर्ण सम्पत्ति आप प्रभु की है; अतः अब यह तुम्हारे पास रहने पर भी हमसे अलग कैसे हो सकती है। चूँकि इस सम्पत्ति का सदुपयोग तुम्हीं से ठीक प्रकार से हो सकता है; अतः अधिकारी समझकर हम तुम्हीं को इस सम्पत्ति का भण्डारी नियुक्त करते हैं। हमारी इसी में प्रसन्नता है कि तुम इस सम्पत्ति के द्वारा प्रभु और प्रभु के भक्तों की सेवा करो।" यह कहकर गुरुजी ने अपने शिष्य के धन को एक बार स्वीकार करके, उसी को वापिस दे दिया। द्वारिकादासजी को अपने परिवारीजनों से कोई मोह नहीं था। इन्होंने गुरुवर कीआज्ञानुसार हरि, गुरु और सन्तों में अभेद बुद्धि रखते हुए, अपना सम्पूर्ण जीवन उनकी सेवा में ही व्यतीत किया था। ये अपने इष्ट की सेवा बड़े लाड़-चाव के साथ किया करते थे। ये उन्हें उत्तम से उत्तम भोग लगाते और प्रसाद को साधु-सन्तों में बाँट दिया करते थे। उत्सवों के समय पर इनके हृदय की फूलन देखते ही बनती थी। इस प्रकार गुरु-भक्ति का एक आदर्श उदाहरण स्थापित कर, अन्त में गुरुवर की अहेतुकी अनुकम्पा से इन्होंने नित्य निकुंज महल की सेवा का दुर्लभ अधिकार सहज में ही प्राप्त कर लिया था।